Thursday, 10 April 2014

सर्ग : ५ - मृत्यु



मृत्यु



कुमार
शान्त नहीं थे मन में.
तर्क वितर्क आत्म दोहन.
भर रही थी,
एकरसता जीवन में.
मिथ्या हास,
मिथ्या परिहास.
जड़ कृत्रिमता का आवास,
सर्वत्र था राज भवन में.
मन जिसका.
निर्बाध पक्षी.
उड़ रहा, अबाध नील गगन में.
कैसे वह रह सकता बंधकर
नींव-रहित नीरस अनैसर्गिक,
सौख्य-विलास-निकर में.
एक दिवस
प्रगट के इच्छा.
वे. राजमहल से बाहर जायेंगे.
मनोरम, रथ-सैन्धव श्वेत अश्व.
चला जा रहा कानन की ओर.
सहसा राजपथ पर
थमी दृष्टि.
पूछा कुमार ने सारथि से-
भणे !
इस हरी सुसज्जित निःश्रेणी में-
क्यों निश्चेष्ट पडा यह हृष्ट-पुष्ट, मानव है.
क्यों नहीं ग्रहण की,
इसने शिविका या स्यंदन.
क्यों नहीं
धरा पर किया विचरण.
क्यों वह श्वेत पुष्प, 
श्वेत वस्त्रों में है. 
क्यों इसके परिजन और स्वजन,
इतने शोकाकुल और विषण्ण हैं.
इसे निरख,
आदर से आनत महिलाएं हट जाती हैं. 
जिनके क्रोड़ मे शिशु है,
वे उन्हें आचल से ढँक लेती हैं.
यह. इस प्रकार क्यों है?
देव !
यह जीवित नहीं मृत है.
इसके इह-लोक के
समस्त कार्य समाप्त, हो गए.
यह परलोक में चला गया है.
किन्तु इसे हुआ क्या ?
क्या यह भी व्याधि,
जरा सी, कोई
पीड़ाजनक विधा है ?
नहीं प्रभु !
यह
साक्षात मृत्यु है.
सहम कर कहा गौतम ने-
शरीर पर प्रगट होने वाली
कोई व्याधि.
उत्तर दिया सारथि ने-
नहीं प्रभु .
इसे ग्रहण कर जीव 
हो जाता आधि, व्याधि, को पार.
यह जीवन का महाविराम.
उसकी निर्णीत इतिश्री है.
रथ-दण्ड पकड़ कर,
उसपर टिक कर,
हत्प्रभ विषण्ण,
ली कुमार ने गहरी सांस.
व्याधि को भी देखा मैंने,
और जरा को भी.
और यह मृत !
इसे भी.
क्या यही परिणिति समस्त जीव की. 
क्या यह मेरा शरीर.
यह भी होगा निर्जीव.
आह ! यह मर्मान्तक पीड़ा
भीषण अतीव.
सौम्य ! जरा कहोगे.
यह मृत्यु क्या है ?
प्रभु !
यह ! मै कैसे कह दूँ ?
प्रभु को कैसे समझा दूँ. 
यह. 
शाश्वत विछोह ममत्व का .
भटकन है, 
स्मृतियों की पीड़ित टीसों की. 
अनन्त आवागमन चक्रव्यूह का. 
विस्तृत स्मृतियों की पीड़ित परतों को, 
स्मृतियाँ, उठा उठा कर देखती हैं. 
किन्तु मात्र असह्य वेदना के,
कोई भेद नहीं पाती हैं.
देव !
आजतक ज्ञात नहीं, 
जिसकी परिभाषा, 
किस प्रकार दिलाऊँ.
उसके प्रति मिथ्या आशा.
किन्तु.
इसे.जैसा मैंने किया अवगाहन.
वह मात्र मेरा ही चिंतन,
वह मिथ्या भी हो सकता है,
पर जो पीड़ा प्राप्त अनुभूति है.
वह. ह्रदय निकष पर कसी.
सत्य है.
मृत्यु !
अकाल-काल-मिलन-क्षितिज की, 
लहराती काली रेखा.
एक अटल जटिल ग्रंथि,
जिसमें, किसी प्रकार
कभी हुई न संधि.
यह वह अलंघ्य सीमा.
जो मर्दित, उल्लंघित, अतिक्रमित, 
विदारित या भंजित कभी न हुई.
वह बंद कपाट.
जिस पर पड़ी न कोई थाप.
वह अर्गला,
जो कभी खुली नहीं.
वह. उलझी डोर,
जो सुलझाने में
उलझती ही चली गयी.
उस अज्ञात देश में.
जो प्राणों का पंक्षी,
पंचभूत परिवेश त्याग उड़ा.
वह कभी इस ओर मुड़ा नहीं.
नहीं वह लौटा निज नीड़,
न, पुनः देखा स्वजनों को.
क्या पता.
उधर क्या है ?
वह अंगारों का जलता वन है,
प्राण चकोर चिंगारी ही चुनते हैं,
या,
घिरे सजल स्वाती घन हैं.
जो प्यासे प्राण पपीहे पर
अजस्र बरसते.
यहाँ तो सुख-दुःख की परिभाषा है. 
वहाँ ! लिपि-रहित, स्वर-रहित,
अबोल, भाषा है.
बंद ! वहाँ के सभी कपाट.
और, सुरक्षा के सभी प्रहरी.
अंध, बधिर, गूंगे हैं.
पूछो कोई प्रश्न.
वे निश्चेष्ट. निर्विकार,
निस्सार, छूछें हैं.
जब मिला न कोई सूत्र.
समस्त ज्ञान थके, वेदना अभिभूत, 
अज्ञान जलधि में.
बड़े बड़े वाग्जाल डालकर.
खींच रहे.
संभव है किंचित
कोई मोती मिल जाए.
इस घन अन्धकार में,
किंचित, सत्य प्रकाश दिख जाये.
सब.
आकाश कुसुम की बातें.
शून्य हैं.
उपनिषद, वेद, श्रुति, स्मृतियों की,
सर धुनती, दिन रातें.
केवल करते हैं.
निराधार बातें.
विरल घाटियाँ हैं उनके साधन की. 
केवल आडम्बर की बातें हैं
आराधन की.
युग बीत गए.
पता नहीं .
मृत्यु कया है.
निष्प्राण शरीर भी प्रत्यक्ष है,
पर जाता कहाँ प्राण !
उसका साक्ष्य कहाँ है.
अतः प्रभु.
यह शरीर.
मिटटी से उपजा,
मिटटी में मिल जाता.
फिर कोई नहीं इसका
नहीं इसे किसी से नाता.
निविड़ गहन अपार अन्धकार में
यह मात्र खद्योत प्रकाश है.
इतना ही जीवन है.
सर्वत्र.
यम, काल की पुकार है.
न कोई थमता है,
न कोई सुनता है.
केवल अवधि-स्वांस भरता है.
समय.
हमारा भक्षण करता.
केवल एक निवाले के अंतर की,
यह मध्यावधि, ही,
जीवन है.
बस करो. सौम्य. करो बस.
यह सब सुन लेने का.
किसमें है साहस.
क्यों जीवन के इतने उत्सव.
इतने विलास.
जब जीवन.
मृत्यु का मात्र एक ग्रास.
केवल अतृप्त तृषा 
भयानक प्यास. 
हिल गए जीवन के समस्त विश्वास. 
जीवन मरण चक्र वर्तुलाकार.
उठा रहा जीव
केवल,
आवागमन प्रत्यावर्तन भार.
बलात् निराधार.