सर्ग 3 : ज़रा
एक
दिवस, कुमार सिद्धार्थ स्वर्ण रथ पर आरूढ़ वन की ओर निकले. राजपथ पर उनका स्वागत
करने भीड़ उमड़ पड़ी. पथ पर किशोरियां पुष्प बिखेर रही थीं. सुगन्धित धूम से वातावरण
सुवासित था. अचानक राजपथ पर कुमार ने एक मानवकृत वस्तु को लाठी के सहारे हाँफता सा
एक-एक पग, रुकते-थमते बढ़ते देखा. अति आश्चर्यचकित होकर उन्होंने सारथि से प्रश्न
किया कि वह गतिमान वस्तु क्या है. सारथि ने बताया कि वह गतिमान वस्तु उन जैसा ही
मानव है जिसका प्राण-संजीवन, समय अहिस्ता-अहिस्ता चूस रहा है. कभी वह भी बचपन के
झूले में झूला था; कभी वह भी किशोरावस्था में कौतूहल के अन्धेरें जंगल की
पगडंडियों में चकित, विस्मित सा विचरण किया था; कभी वह भी यौवन के पागल लहरों से
व्याप्त अमराइयों में अपने दोनों हाथ फैलाकर मंडराता रहता था और मादक स्वप्नों में
खोया रहता था. पर अब वही विविध रोगों से ग्रसित, व्यथित, जीवन की दुर्गम पहाड़ियों
में, आशाओं की धूप-छाँव में, एक दम तोड़ते हारे हुए पक्षी सा भटक रहा है.
कुमार
ने पूछा कि यह जरा(रोग) क्या है .
सारथि
ने कहा कि जरा यौवन का पतझड़ है जिसकी सूखी डालें जीवन की अग्नि में भस्म हो रहीं हैं. इसने बीते मधुर सपनों से पराजय स्वीकार कर लिया है. जब यौवन के सूखे पीले
पत्तों पर समय के निर्मम चरण पड़ते हैं तब वे जीवन संध्या की ओट में सिसकते रह जाते
हैं परन्तु अभिलाषाएं तब भी वेदना भरी आहें लेकर उस यौवन को खोजती रहती हैं जिसमे
वह कभी पूर्ण आत्म-समर्पित था और सम्पूर्ण विश्व उसकी अभिलाषाओं, उल्लासों और महत्वाकांक्षाओं का जीता-जागता दर्पण था. यौवन का वह सम्पूर्ण चरम जो कभी उन्माद
भरे फूलों के रस से परिपूर्ण था और जिसमे मादकता, अल्हड़ता, अदूरदर्शिता, ओस की
बूंदों सी छलकती रहती थी, अब वाही यौवन के ध्वस्त महल, धुंधली पड़ती दृष्टि में
कहीं दूर यादों की गहरी हरीतिमा लिए झुरमुट में धीमे-धीमे चिंगारी जैसे सुलगते और
जलते रहते हैं. जरा , यौवन पर समय का एक सबल, सशक्त हस्ताक्षर है. यह हस्ताक्षर प्रबल है, प्रखर है, बहुत ही
तेजमान है. यह निदान रहित निर्मम प्रहार है.
सारथि
ने बताया कि वृद्धत्व अपनी निर्जीव सूखी त्वचा की निर्मम सिकुड़ी झुर्रियों की
घाटियों की श्यामल उतरती चढती छाया में अपना निर्जीव, व्याकुल विकल यौवन ढूँढता है
जो कभी सरस, सजीला और सुरभित था. जीवंत प्राणवंत मदिर आँखों की कोमल धूप वहाँ ठहर
जाती है और झुकी पलकों की छाया में धीमे-धीमे ज़रा बढ़ती जाती है. मन विषाद से भर
जाता है एवं मन के सूने शिथिल आँगन में शिथिलता की काली स्याही जीवन के समस्त उल्लास व हर्ष पीकर ढल जाती है. सूनेपन
के शूल से रोम-रोम बिंध जाता है. कोई उत्साह नहीं होता, हर रास्ते धुंध में छिप
जाते हैं. हारा थका बटोही अपने जीवन की सारी पूँजी टूटे खिलौनों में निरखता ,
आंहें भरता रह जाता है. जरा उसे ही कहते हैं.
कुमार
ने प्रश्न किया :” क्या जरा कोई विभेद नहीं रखती, क्या वह सब पर एक समान आती है,
क्या मेरे ये काले केश, यौवन के ये मादक परिवेश मुझे भी अनन्त व्यथा दे जायेंगे और
क्या मुझे भी इस निदान रहित जरा का विष पीना पड़ेगा ?”
सारथि
ने मुस्कुराकर उत्तर दिया: “ जिस प्रकार
विभिन्न ऋतुएं – आतप, शीत, पावस, बसंत, शरद , सबकी हैं और सबपर एक समान प्रभाव
दिखलाती है. जिस प्रकार ऊपर आकाश के नीचे झोपड़ी और महल एक समान आ जाते हैं, वैसे
ही प्रकाश और चांदनी की तरह जरा भी भेद नहीं रखती है. समय का उजला चादर यौवन को
ढँक लेता है. जब प्रभु ने उल्लास भरा बचपन देखा, रसभरा मादक यौवन भरपूर चखा था, तब समय से कभी नहीं कहा था कि वह आपके बचपने को नहीं ले जाए और उसके बदले किशोरावस्था
और अल्हड़ता न दे. जब यौवन का सहसा आगमन
हुआ, सैकड़ों कमल खिले थे तब भी आपने मना नहीं किया था. जो भी समय के पास था उसने उन्मुक्त
हाथों से दान किया और किसी ने भी उसकी नामंजूरी नहीं की. अब वही समय जो कुछ भी
लाएगा उसे सहना होगा , उसे सहर्ष सम्मान देना होगा. यह यौवन निश्चय ही जायेगा .
झुकी कमर, सफ़ेद केश, क्षीण दृष्टि, थका , हांफता बुढापा लाठी के सहारे अवश्य आएगा.
सूखी त्वचा में नाडियाँ उभर आएँगी. जीवन वीणा वेदना से कराह उठेगी. चोट खाई भूख आधी
खुली आँखों के कोटर से डरे हुए पक्षी की भांति सहमी सी झाँकेगी. हड्डियां, मांस
छोड़ देगीं. झुका शरीर रास्ता ढूंढ रहा होगा. मात्र एक कंकाल रहेगा जो टूटते साँसों
की आंधी से पतझर के पीले पत्तों सा डोलता रहेगा. इतना होने पर भी बुढापा कभी भी
इच्छाओं का त्याग नहीं करेगा अपितु जीवन
के अंतिम किनारों पर पहुंचते जीवन छोर को मजबूती से पकड़ कुछ और साँसें जी लेने को
तडपेगा.
सारथि
ने आगे कहा ,” प्रभु ! यौवन में एक उन्मुक्त अल्हड़ता है. अहंकार दंभ भरता है कि जो
होगा देख लूँगा. वह भविष्य की चिंता नहीं करता. किन्तु, जरा में एकत्रित परिणिति
का निष्कर्ष चरम पर आ जाता है. यह जरा, मृत्यु का प्रवेश द्वार है. यहाँ जीवन ही
नहीं यौवन की भी अनिवार्य हार है.
कुमार
ने घबड़ाकर पूछा,” क्या जरा इतनी भयावह और दुर्वह है ? क्या मैं भी इसे झेलूंगा ?
क्या यह समस्त सौंदर्य और सुख मात्र एक व्यंग्य है, उपहास है समय का ? क्या यह
पीड़ा मेरी लावण्यमयी, सौंदर्यमयी गोपा और हमलोगों का नवजात किसलय कुसुम राहुल भी
झेलेगा. क्या मेरे चारों तरफ की सुरभित सुंदरता भी समय-दाह में कुम्हलायेंगे ? क्या
सब रंगों को पीता ये वृद्धत्व अपने गहरे कदम रखता छा जायेगा? क्या किसी भी प्रकार
इससे बचा जा सकता है?
सारथि
ने शान्त स्वर में उत्तर दिया, “ हम या आप मात्र समय हैं और ये प्रकृति समय का
मनहरण आवरण है. ये प्रकृति ही अन्तर और बाहर के विविध रूपों का सृजन किया करती है.
समय अवधि के अंदर ये प्रकृति स्थूल और सूक्ष्म चेतना का ताना-बना बुनती रहती है.
ये जड़ उसके स्थूल रूप हैं. मन की संवेदनाएं, कोमल वृत्तियाँ समय के सूक्ष्म परिवेश
हैं. यह समय नाना रूपों में निज वेश को परिवर्तित करता , सजाता, विश्व-चेतना के
आईने में अपना रूप निरखता रहता है. कभी यह संहार करता है और कभी यह सृजन करता है.
हम जीव उसके साध्य नहीं अपितु साधन हैं. समय के ताने-बाने में बंधे हुए उसके
अनुशासन में हैं. इस समय की सीमा का कोई पार नहीं है.
कुमार
सिद्धार्थ अत्यंत हतोत्साहित होकर बोले कि इस समय का अतिक्रमण क्यों नहीं होता ! विद्वान
सारथि ने कहा,“अभिलाषाओं में बंधा मानव एक प्रकार की मोह निद्रा में सोता रहता
है.”
कुमार
ने सारथि को घबड़ाकर कुछ और न कहने की प्रार्थना की और कहा- "मेरा ह्रदय पीडा भार
से अत्यंत अवश हो रहा है. धिक्कार है ऐसे जीवन पर ! धिक्कार है इसके आधार पर ! चलो
अब रथ को वापिस मोड़ लो . यह वेदना अब असह्य हो रही है. यह जीवन ! यौवन और विलास
से युक्त अहम की करारी हार है !"
सर्ग 4 : व्याधि
सुख,विलास ,हास ,उल्लास ही
मात्र मन के उपचार नहीं होते. मन सीमित नहीं असीमित है. उसके भी अनकहे,अनचाहे
अनेकों अप्रत्याशित व्यापार होते हैं. नित्य के वादन-गायन, नर्तन और महलों के
राजउद्द्यानों में एकरस विहार करते कुमार ऊब उठे. उन्होंने विचार प्रगट किया की आज
वे कानन जायेंगें. यह बात आग सी फ़ैल गयी. नगर के सभी पथ, गलियाँ, चबूतरे और छज्जे
फूल,पत्तियों और तोरण से सजा दिए गए. नगर की बालिकाएं, कुलवधुएं सज-धजकर फूलों से
भए थाल लेकर उनकी राह के दोनों किनारों पर कतार से खड़ी होने लगीं. किसी के एक पैर
में पायल, किसी के एक ही कण में कुंडल,अपने वस्त्र संभालती दौड़ पड़ी. ऐसा लग रहा था
मानो इन्द्रधनुष का सप्तरं हार पहने उछलती तरंग अपने पुलकित अंगों में उल्लास भर
सुनहले नयनों से कौतुहल की किरने बिखेर रही हों.
एक अति गतिमान और चंचल समुद्री
घोडा राजपथ पर सुनहले रथ को लेकर निकला था.
पुष्प से भरी अन्जलियाँ आकाश-वृष्टि कर रही थीं. पथ पर बाल-अबाल,युवा और
वृद्ध सतत अभिनन्दन कर रहे थे. प्राणों से प्रिय राजकुमार के अमित सौन्दर्य से
करोड़ों कामदेव भी पराजित लगते थे.
कुमार ने देखा की बाहर का जीवन
भी कितना उलास प्रफुल्ल है. जनपथ प्रजीवंत है और जीवन कितना सुखद सरल है. कुमार
चारो तरफ निरखते बढ़ते, थमते थे. तभी उनकी दृष्टि राजपथ के किनारे एक घने वृक्ष की
छाया में मलिन वस्त्रो से लिप्त कोई पीड़ित कराहते दिखा.
कुमार ने ने सारथि से प्रश्न
किया –“ हे भद्र ! यह अस्थिपंजर का ढांचा, विकल आहें भरता, अत्यंत कमजोर, तडपता
कौन है ?”
सारथि ने बताया- “ कुमार ! यह
निर्बल, निर्धन, अत्यंत विपातिग्रस्त है. “
कुमार ने आश्चर्य व्यक्त किया-
“ क्यों ? इसके साथी, स्वजन, स्नेही, सम्बन्धी कहाँ हैं ?”
विद्वान सारथि ने समझाया –
“प्रभु ! सम्बन्ध अंधा होता है. उसमें नअनुभूति होती है और न संवेदना; न शील और न
उदारता का मूल्याकन करना आता है. सम्बन्ध, मनुष्य से नहीं बल्कि निज सुखों से
प्रत्युत्तरित, आदान-प्रदान से बनता है. स्नेह का भी व्याकरण बहुत विचित्र है. सात
विभागों का यह निराला रूप समय-विशेष और परिस्थितिओं से सज्जित मारक आक्रमण करता है. मनुष्य सात रूपों में
अपना कर्मफल भरता है. प्रेम ! यह आत्मकेंद्रित और आत्म संतुष्टि का पर्याय है.
स्नेह ! पीड़ित अहम की तीखी चीत्कार है. जीवन की इस कीचड में तप से निखरे सम्पूर्ण
दोषरहित स्नेह के पनपने की गुंजाईश कहाँ है. इसकी नीवें स्वार्थ की गहरी गहराई में
जमी है. इसे पिता-पुत्र, सहृदय, स्वजन, पति-पत्नी से कोई लेना-देना नहीं है. यह
समय सम्बन्ध आदान-प्रदान आधारित है. पहचानी आँखें भी नितान्त अपरिचित हो जाती हैं.
यह रोग ग्रस्त जिसे अब पितृ
–छाया भी नसीब नहीं, जिसे सभी त्याग गए, अब गैरों की दया पर निर्भर इसकी यही
परिणिति है , इसका यही प्रारब्ध है.
कुमार
घबडा गए. ललाट पर पसीने की बूँदें दिखने लगीं. मन अत्यंत व्याकुल हो उठा. उन्होंने
प्रश्न किया- “ भाई ! यह व्याधि क्या है ?
सारथि ने
बढ़ते रथ को रोक लिया और बोला- “ स्वामी ! आप शरीर की दुर्दशा देख रहे हैं ण . इस
व्याधि ने किसे नहीं ग्रसा . वय्धि ! मनोमय कोशों से उपजा आक्रोश और फालित
क्षोभ है. यह प्रकृति का प्रतिशोध है. यह मनकी विकृतियों के तरंगित ज्वारों की
प्रतिछाया है. रोगों का स्वरोप भी निज अर्जित संस्कारों से आता है. इसी को जीव
कहते हैं जो निज कर्मो का फल पाता है.
जो जीव
शांत, संवेदनशील, नम्र, भावुक और उछ विचारों
वाले हैं. जिन्होंने कभी किसी को कटु वचन नहीं कहे. जो दूसरों की पीड़ा से
पीड़ित होते हैं. जो वही बात कहते हैं जिसे स्वयं सहन कर सकते हैं. उनकी यह मौन
घुटन भी पीड़ित कर देती है. उन्हें
रक्तचाप, राजरोग, अंतर क्षत, ह्रदय रोग ग्रास लेते हैं. भिन्न-भिन्न मनोवृतिया
पहले मन में बैचेनी पैदा करती है और तब चरम रोग जैसे एनी विकारों से पीड़ित करती
है. रोग शरीर पर होती प्रतिक्रिया का मात्र प्रतीक है.
कुमार ने
पुनः प्रश्न किया –“ क्या सभी व्याधि से ग्रस्त होते हैं ? क्या मैं भी ?”
सारथि ने
हामी भरी-“ अवश्य देव ! आप इसके अपवाद नहीं हैं. यह एक प्रकार का प्रकृति का
प्रतिशोध है. किन्तु प्रकृति भी कहाँ बची है ? यह पर्वत, घाटियाँ, नदी, नाले, रेतीले वन, ये ज्वलामुखियो की अभिव्यक्ति और
क्रुद्ध जल्कोशों का हाहाकार, ये सभी प्रकृति की शारीरिक व्याधियां हैं इस शांत ण होते उपद्रव को आकाश , तारों की
आँखों से झुक-झुक कर देख रहा है उसके अश्रु नहीं थमते हैं पर वह स्व्यंग आन्दित हो
इस अशांति का रसास्वादन कर रहा है.
प्रभु ! एक के दुःख से
दूसरा सुखी है. यही निति है. यही जग की रीति है. जबतक व्यक्ति सशक्त और संपन्न है
तभीतक उसके साथ प्रीति है. अन्यथा कौन किसका है ? जीव अकेला ही आता है, पीड़ा से
अकुलाता है और नितांत अकेला ही जाता है. शरीर के सब रंग उड़ जाते है. मात्र एक
श्वेत कफ़न और कडवे स्मृतियों के तीखे
कांटे ही उसके नसीब में आते हैं. जबतक जीवन-वीणा की तार मन के अनुसार संगीत देते
हैं तभी तक प्यार झलकता है. बेसुरे स्वर में कोई भी राग नहीं उभरता. यह सामने पडा
परित्यक्त व्यक्ति समय का वर्जित राग हो गया है.”
कुमार ने जनपथ की ओर नज़र
डाली. सभी नर-नारी निज कार्यों में रत थे. कुमार ने प्रश्न किया-“ क्या इनलोगों को
रोग और बुढापे के बारे में जानकारी नहीं है ? कितने निश्चिन्त लग रहे हैं. जीवन के
मधुर रस का आनंद ले रहे हैं. कितना प्राकृतिक आनंद ले रहे हैं.
सारथि बोला-“ प्रभु ! यह
मूल सत्य, अनिवार्य और अटल है. हे सभी नर-नारी इस पुरातन सत्य को भलीभांति समझते
हैं. इस होनी को नम्र भाव से सदर नमन करने को विवश हैं.
सागर की गगनचुम्बी लहरों को कौन शीश
उठाकर निरीक्षण कर पाटा है ? उसके समक्ष शीश झुककर झुक जाना ही श्रेयस्कर है. यह
निरंतर गतिमान समय जो भी दान में दे रहा है उसे मानव वरदान समझ अंजलि में ग्रहण
करता रहेगा. ऐसे ही विनम्र और नामित रह जिस दिन समय का झोंका आएगा, मानव को तिनके
सा उड़ा ले जाएगा. वह मौन ण जाने कहाँ चला जायेगा.
कुमार ने कहा – सौम्य ! जरा(बुढ़ापा) तो
विषाद का साकार स्वरूप है, अँधेरी निराशा से भरा अंध-कूप है,जिसमे मानव सम्मोहित
आर अवश खिचता-डूबता चला जाता है. व्याधि(रोग) तो तन-मन को पीड़ित करती, अनगिनत
काँटों सी चुभती, स्नेह के विकराल परिणामों को प्रदशित करती है.
समय(काल) आयु-कलश में छककर जीवन रस का
पान कर रहा है. फिर भी, इस व्यथित , अपमानित कैदी जीवन को मानव वरदान समझ रहा है. समय
के इस सांसारिक चक्रों को तोड़ना होगा. कोई निर्णय अवश्य ही लेना होगा. यह संसार
नहीं, काँटों से भरा जंगल है जिसमें प्राणों का पंक्षी आहत, क्षत-विक्षत भटक रहा
है. यहाँ कहीं भी अमृत की वर्षा नहीं हो रही रही है. चलो सौम्य ! यहाँ मत रुको !
यह उत्पीडन मर्मान्तक बंधन देता है !
सर्ग 5 : मृत्यु
कुमार का मन शांत नहीं था.
उसमें तर्क-वितर्क अंतर्द्वंद चल रहे थे. जीवन में एकरसता आती जा रही थी.
हास-परिहास मिथ्या लग रहा था. राज भवन में सर्वत्र जड़ता और बनावटीपन महसूस होता
था. जिसका मन स्वंतंत्र पंक्षी की भांति विशाल नीले आकाश में उड़ता रहा हो वह कैसे
एक नींवरहित, नीरस, नैसर्गिक सुख और विलास के महल में रह सकता है.
एक दिवस, कुमार ने राजमहल
से बाहर जाने की इच्छा प्रगट की. श्वेत घोड़े से जुदा मनोरम रथ जंगले की तरफ बढ़ा
चला जा रहा था. सहसा राजपथ पर कुमार की दृष्टि थमी. सारथि से पूछा- “ भरता ! इस
हरी सुसज्जित पर्यावरण में यह हृष्ट-पुष्ट मानव इस तरह निश्चेष्ट क्यों पडा है ?
इसे तो किसी पालकी या रथ पर होना चाहिए था. इसे तो
धरती पर विचरण करना चाहिए था. वह क्यों श्वेत पुष्प और श्वेत चादर में है.इसके
परिजन और स्वजन क्यों इतने व्याकुल और दुखी हैं ? इसे देख महिलायें आदर से परे हट
जाती हैं. जिनके गोद में शिशु है उसे वे अपने आँचल से ढँक लेती हैं. यह इस प्रकार
क्यों है ?
“देव !” यह जीवित नहीं मृत
है. इस धरा पर इसके सब कार्य समाप्त हो गए हैं. यह परलोक चला गया है.”
“किन्तु इसे हुआ क्या है ?
क्या यह भी व्याधि, ज़रा सी कोई पीड़ाजनक विधा है ?
“ नहीं प्रभु ! यह साक्षात्
मृत्यु है.”
गौतम ने सहमते हुए कहा-“
क्या यह शरीर पर प्रगट होने वाली कोई व्याधि है ?”
सारथि ने उत्तर दिया-“ नहीं
प्रभु ! मृत्यु ग्रहण करने के बाद जीव मानसिक पीड़ा और रोग को पार कर जाता है. यह
जीवन का महाविराम है. उसका निर्णायक अंत है.
रथदंड पकड़ कर , उसपर टिक कर
शिथिल और दुखी हो कुमार ने गहरी सांस ली-“ मैंने व्याधि को भी देखा और ज़रा को भी
और अब मृत को भी देख रहा हूँ. क्या यही समस्त जीव का अंतिम परिणाम है. “
“ प्रभु ! यह मैं कैसे कह
दूं. किस प्रकार प्रभु को समझाऊं. यह शाश्वत विछोह ममत्व का भटकन है. स्मृतियों और
पीड़ित टीसों के अनंत आवागमन का चक्रव्यूह है. भूली हुई यादों के पीड़ित परतों को
स्मृतियाँ परत-परत उठा कर देखती हैं किंतु मात्र असहनीय वेदना के कोई भेद नहीं
पाती हैं.”
“देव ! आजतक जिसकी परिभाषा
किसी को ज्ञात नहीं उसकी प्रति झूठी आशा की प्रकार दिलाऊँ . इसे जैसा मैं समझा वह
मात्र मेरी ही समझ है. यह मिथ्या भी हो सकता है. पर जो पीड़ा से भरी अनुभूति है वह
ह्रदय पर अंकित सत्य है. मृत्यु ! अकाल और काल के मिलन क्षितिज पर खिंची लहराती
काली रेखा है . यह एक अटल उलझी हुई गाँठ है जिसमें कभी भी किसी प्रकार मेल नहीं हो
पाया.
यह वह अजेय सीमा है जो कभी
भी कुचली, उलंघित, अतिक्रमित, विदारित या विभाजित नहीं हुई. यह वह बंद दरवाजा है
जिसपर कभी कोई थाप नहीं पड़ी.यह वह ताला है जो कभी नहीं खुला. यह वैसे उलझी हुई डोर
है जो सुलझाने के प्रयत्न में और ज्यदा उलझती चली गयी. उस अनजाने देश में जो
प्राणों का पंछी अपना पञ्चभूत परिवेश त्याग कर एक बार उड़ा तो कभी वापिस अपने
घोसलें में नहीं आया और न पुनः अपने स्वजनों को देखा. क्या पता उस पार क्या है ?
वह अंगारों का जलता वन है
जहां प्राण पंक्षी चिंगारी ही चुनते हैं या स्वाती के बूंदों के जलमय बादल हैं जो
प्यासे प्राण-पंक्षी पर बरसते रहते हैं.
इस जग में तो सुख-दुःख परिभाषित है . वहां ! लिपि व् स्वर-रहित अबोल भाषा
है. सुरक्षा के सभी प्रहरी अंधे, बहरे और गूंगे हैं. किसी भी प्रश्न का वे उत्तर
नहीं देते. समस्त ज्ञान थक गए पर उन्हें इसका कोई भी सुराग नहीं मिला. अभी भी वे
अनजाने समुद्र में बड़े-बड़े जाल डालकर खींच रहे हैं कि शायद इस घने अन्धकार में कोई
मोती मिल जाए, सत्य का प्रकाश दिख जाये. सब आकाश कुसुम की बातें शून्य हैं.
उपनिषद, वेद, श्रुति, स्मृतियां भी अभी तक
अनिभिज्ञ हैं. ये घाटियाँ अभी भी उनकी समझ से परे हैं. आराधन भी आडम्बर है. युग
बीत गए. पाता नहीं मृत्यु क्या है. निष्प्राण शरीर तो सामने दीखता है पर प्राण
कहाँ चला जाता है उसका कोई सबूत नहीं है. अतः प्रभु ! यह शरीर मिटटी से उपजा और
मिटटी में ही मिल जाता है. इसका कोई नहीं है. इसका किसी से नाता नहीं है.
घने गहरे अपार अन्धकार में
मात्र यह तारों का प्रकाश है.जीवन बस इतना हे है. सर्वत्र मृत्यु देवता, काल की
पुकार है. न कोई थमता है, न कोई सुनता है, केवल अवधि-स्वांस भरता समय हमारा भक्षण
करता है. मात्र एक निवाले के अंतर की यह मध्यावधि ही जीवन है.”
“ बस करो सोम्य ! यह सब
सुनने का किस्में साहस है. जीवन में इतने उत्सव और विलास क्यों है, जब जीवन मात्र
मृत्यु का एक ग्रास है, एक अतृप्त भूख और भयानक प्यास है. जीवन के समस्त विश्वास
हिल गए. यह जीवन-मरण का गोलाकार चक्र है. जीव को बलात आवागमन और प्रत्यावर्तन का
भार उठा रहा है.”
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