प्राक्कथन


अमृतत्व की ओर
प्रो० नित्यानंद पाण्डेय
निदेशक, केन्द्रीय हिंदी संस्थान


(मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार)

हिंदी साहित्य के इतिहास में आदिकाल से आधुनिक काल तक किई न किसी रूप में बौद्ध दर्शन को स्थान मिलता आया है. देशकाल परिस्थितियों के अनुसार कवियों ने गौतम बुद्ध के जीवन दर्शन को लेकर अपनी लेखनी को नव-आयाम दिए हैं. कविता देशकाल परिस्थतियों के अनुससार स्वयं में परिवर्तन करती रहती है. आज जब कि पूरा विश्व आतंकवाद के साये में जी रहा है बुद्ध के जीवन दर्शन को अपनाने की महती आवश्यकता है. हमारे देश पर जब-जब संकट पड़ा है तब-तब अपने पूर्वजों के अलौकिक जीवन दर्शन के प्रति अभिमुख हुए और तब उन्होंने हमारा मार्ग प्रशस्त किया है तथा दिशा निर्देश प्रदान किये हैं.
आज विश्व मानवता पीड़ा से कराह रही है. उसे अनेक दंशों को झेलना पड़ रहा है. हिंसा का तांडव नित नए प्रयोंगों के साथ अवतरित हो रहा है. क्या इन परिस्थतियों में मानवता का शंखनाद करने वाले निर्विकार रूप से चुपचाप आतंकी शक्तियों का दिग्विजय देखते रहेंगे. ऐसे समय में भारतीय चिंतकों, मनीषियों, कवियों तथा विद्वानों ने कोई न कोई राह खोजी है, जो विश्व मानवता को बचाने में सक्षम सिद्ध हुई है. कवि की लेखनी ने सैकड़ों अवसरों पर ऐसा काम कर दिखाया है जो बड़े-बड़े शक्ति संपन्न लोग नहीं कर सके हैं.
भारतीय साहित्य की समृद्धशाली परंपरा में “ अमृतेय बुद्ध “ उन विनाशकारी शक्तियों पर विजय प्राप्त करने वाला चरम बिंदु है, जहाँ से निर्माण की अजस्र धारा प्रवाहमान होती है एवं जहां से ज्ञान की पवित्र मंदाकिनी सहस्त्रो अज्ञान पूरित हृदयों में ज्ञान की अजस्र धारा को आलोकित करती हुई, जड़ता को समाप्त करती हुई, स्नेहित होती है. “ अमृतेय बुद्ध “ महाकाव्य सावित्री देवी की वह कालजयी रचना है जिसके माध्यम से कवयित्री ने न केवल बौद्ध दर्शन को रूपायित किया है वर्ण नए परिपेक्ष्य में बौद्ध दर्शन को आधुनिक समाज को बनाने में अपनी महती भूमिका का निर्वहन किया है. आधुनिक मनुष्य के जीवन में इन्द्रिय और ग्राह्य विषयों में परस्पर घात-प्रतिघात चल रहा है. यदि घात-प्रतिघात समाप्त हो जाये तो चित्त की दुरवस्था भी समाप्त हो जाती है और वह चेतना के शक्तिशाली प्रवाह में प्रकट होता है. “ अमृतेय बुद्ध “ प्रकांतर में इसी शक्तिशाली चेतना के प्रवाह में बहने का नाम है.
भगवान बुद्ध की मानसिक स्थिति शान्त और स्थिर थी. भगवान बुद्ध को एक ही सुख था- वह सुख था – स्वार्थ, लालच, सांसारिक विचारों एवं अहंकार से मुक्ति. यदि आधुनिक मानव को इस प्रकार की मुक्ति मिल जाए तो अधिकाधिक समस्यायें स्वतः समाप्त हो जाएँगी.  “ अमृतेय बुद्ध “ में इन समस्याओं का समाधान है.
“ अमृतेय बुद्ध “ महाकाव्य २८ सर्गों में विभक्त है. “जन्म” से लेकर “महापरिनिर्वाण” की यात्रा में कई घटनाएं, अंतर्कथाएँ, विचार बिंदु, यथार्थ का कठोर धरातल, भाव. सवेद्नाएं,संवेग, महत नारी चरित्र, जीव-अजीव, मूर्छित ध्वंस मानवता, नवजीवन संचार, मूल्य प्रतिष्ठा, अमृतत्व की तलाश, युगीन सन्दर्भ, कैवल्य प्राप्ति की मार्ग वीथिका, उसका अंतिम चरमोत्कर्ष क्या कुछ नहीं है. सभी को एक-एक कर माला की मणियों में एकाग्रता तथा बड़े जातां के साथ गूंथा गया है.
प्रथम सर्ग में जन्म की व्याख्या करते हुए बड़े शास्त्रीय ढंग से कवयित्री ने जीव के संसार में आकर- अंध वीथियों में पड़कर भटकता हुआ, पंचतत्व की कारा में बंद प्रलोभनों में पतित होता हुआ अपने को विस्मृत कर बैठता है और माया के इंद्रजाल में उलझता चला जाता है- रूपायित किया है :   
जीव !
विगत विस्मृत,
वर्तमान विडंबित.
पंचतत्व-सहस्र पत्र पर
वह,
कम्पित एक तुहिन कण .
वृत्तियों का किंजल्क जाल .
माया का विस्तीर्ण इंद्रजाल.
“भविष्यवाणी” सर्ग में शिशु का बड़ा मनोहारी दृश्य है –
पिघले स्वर्ण सा जाज्वल्यमान,
चकाचौंध मचाता,
ज्यों दिनमणि पूर्ण स्वर्ण कलश सा उदित,
नील नभ में,
स्वच्छ गगन का निशिपति.
..................
मेरी गणना
निर्विवाद.
यह होगा केवल,
बुद्ध !
कवयित्री ने जरा, व्याधि, मृत्यु की सटीक परिभाषाएँ देकर महाकाव्य को यथार्थ की कठोर भूमि पर ला खड़ा किया है. जरा, व्याधि, मृत्यु से कौन भयभीत नहीं होता-
ली कुमार ने गहरी सांस.
व्याधि को भी देखा मैंने,
और जरा को भी.
और यह मृत !
इसे भी.
क्या यही परिणिति समस्त जीव की. क्या यह मेरा शरीर.
यह भी होगा निर्जीव.
आह ! यह मर्मान्तक पीड़ा
भीषण अतीव.
हंस, प्रव्रजित, अंतिम श्रृंगार, महाभिनिष्क्रमण में ह्रदय का मंथन है. मन से मन का मार्ग दर्शन है. आकुल तड़पन है. उद्वेलित वक्ष है. गहरी सांसें हैं. कुमार का कक्ष त्याग है, लेकिन वे स्मृतियाँ भी हैं, जहां कभी कुमार ने रजत चांदनी में अभिसार किया था जहां था सद्दः विकसित फूल लेकिन वह तो निकल पड़ा था इन सभी को विस्मृत करता हुआ महामानव बनने. महाकाव्य में शुद्धोधन, गोपा, प्रजापति गौतमी, सुजाता, नृत्यांगना चंदा, अंगुलिमाल,कृशा गौतमी, आम्रपाली आदि चरित्रों का चित्रांकन मनोहारी शैली में किया गया है.
२६वे सर्ग में आम्रपाली की देहयष्टि की मनोरम झांकी ने श्रृंगार को चरम पर पहुँचाया है. वहीँ अंगुलिमाल सर्ग में अंगुलिमाल जैसे भीमकाय हत्यारे का महात्मा गौतम बुद्ध के प्रभा  मंडल के समक्ष आत्म समर्पण का व्यापक फलक आज के समय की आतंक एवं हिंसाग्रस्त समाज को सन्देश देने का है. आज आवश्यकता है समाज को गौतम बुद्ध जैसे तेज़स्वी अहिंसक वीर की, जिसके एक इंगित पर विश्व-पटल पर फ़ैली हिंसा की तस्वीर नष्ट हो जाये.
“ अमृतेय बुद्ध “ न केवल समाज के विभिन्न वर्गों को जीवन जीने की सृजनात्मक पहल प्रदान करता है बल्कि वह आत्मज्ञान का दिग्दर्शन कराता है तथा विश्व प्रेम एवं सत्य प्रेम की स्थापना करता है.
अंत में वह अन्तःसाधना करते करते विराट सत्ता में लीन हो जाता है जहां न जन्म है, न मृत्यु है, न भूत है, न वर्तमान है.
जहां केवल अमृत कलश है. जहां साक्षात् वीणापाणी का अवतरण है, एक महाप्रकाश है.
परम पूजनीय सावित्री देवी की भाषा, प्रांजल, संस्कृतनिष्ठ तथा तत्सम शब्दावली से परिपूर्ण है जहां जैसे शब्दों की आवश्यकता हुई वहाँ वैसे शब्दों का प्रयोग स्वतः होता गया है. ऐसा आभास होता है कि शब्दों की निःसृति स्वतःस्फोट है उस माँ भारती का जिन्होंने “ अमृतेय बुद्ध “ के रूप में सावित्री जी को अमृतत्व का वरदान दिया है.निःसंदेह यह महाकाव्य साहित्य की अमर निधि बनेगा, ऐसा मेरा विश्वास है.
नवसंवतसर २०६०
२ अप्रैल, २००३
प्रो० नित्यानंद पाण्डेय
निदेशक, केन्द्रीय हिंदी संस्थान
(मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार)
हिंदी संस्थान मार्ग, आगरा- २८२ ००५ 

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