भूमिका


भूमिका
डा० त्रिभुवन सिंह
पूर्व कुलपति, काशी विद्यापीठ


विषमता की पीड़ा ही संसार के अस्तित्व का कारण है. सांसारिक जड़ता को गतिशीलता प्रदान करने के कारण ही समाज विषमता की पीड़ा का भोक्ता है. असंख्य जीवों के असंख्य सामाजिक जीवन की विषम पीड़ा का हम केवल अनुमान ही लगा सकते हैं, उनके बारे में विश्वसनीय ढंग से कुछ कह पाना हमारे लिए संभव नहीं. मानव के सामाजिक जीवन की विसंगतियाँ और उसकी विषम पीड़ा का ज्ञान रखने तथा उसके भोक्ता होने के कारण अपेक्षाकृत अधिक विशवसनीय ढंग से कुछ कहने के यदि अहम अधिकारी हैं तो मानव समाज के सम्बन्ध में. मानवता के विकास के साथ ही सामाजिक विषमता की पीड़ा का इतिहास भि विकसित हुआ है. मानव समाज की विकास यात्रा का इतिहास जितना और जिस रूप में भि उपलब्ध है उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि भारतवर्ष में जब जब सामाजिक संतुलन की मांग इतिहास ने की है, नवीन सामाजिक व्यवस्था की स्थापना हेतु समय-समय पर महापुरुषों ने जन्म लिया है. ये पुरुष अवतार के रूप में, धर्माधिकारी के रूप में, समाज सुधारक के रूप में और इतिहास पुरुष के रूपम में हमारे बीच आये और उनके चमत्कारों तथा उनकी गरिमामयी उपलब्धियों के आधार पर हम उनकी श्रेणियों का निर्धारण करते रहे हैं. इतिहास की पहुँच के परे का उपलब्ध धार्मिक आख्यान और उसके नायक तथा पौराणिक जगत के आलोक पुरुष विश्वास की अपेक्षा रखते हैं, पर वे महापुरुष इतिहास जिनकी व्याख्या का अधिकारी है, केवल विश्वास की ही अपेक्षा नहीं रखते बल्कि वे लोकमानस के निकट रहने के कारण जननेता के रूप में प्रतिष्ठित हो हमारे आदर्श नायक बनते हैं. भारतीय रंगमंच पर गौतम बुद्ध का उदय ऐसी ही ऐतहासिक घटना है जिसने अपने प्रभामंडल से न केवल भारतीय चेतना को प्रभावित किया बल्कि उसके प्रखर चिंतन से विश्व की सामाजिक मनीषा भी आलोकित हुई. ऐतहासिक दृष्टि से पहली बार बुध्ह-चिंतन के माध्यम से भारतवर्ष ने एक विशिष्ट दर्शन का निर्यात किया जो पीड़ित विश्व मानवता की मुक्ति कामना से ऊजर्स्वित था. विश्व लोकमानस ने गौतम के करुणापूरित युग-सन्देश को श्रद्धापूर्वक स्वीकार किया. इसे एक महापुरुष के अहिंसात्मक दिग्विजय की संज्ञा दी जा सकती है. प्रतिकूल परिस्थितियों में भी गौतम बुद्ध के दर्शन का विजय रथ आगे बढ़ता ही गया जिसका आकलन इतिहासकारों ने अपने ढंग से, धर्माधिकारियों ने अपने ढंग से तथा साहित्यकार्रों ने अपने ढंग से किया है. देश-विदेश की विभिन्न भाषाओं में बुद्ध और बुद्ध-दर्शन पर उल्लेखनीय ग्रन्थ लिखे गए तथा आज भी उनका लिखना जारी है. श्रीमती सावित्री देवी का “अमृतेय बुद्ध” महाकाव्य इसी श्रृंखला में एक अन्यतम साहित्यिक उपलब्धि है. साहित्य शब्द का प्रयोग मैं यहाँ संकीर्ण अर्थों में नहीं कर रहा हूँ. धर्म, दर्शन, संस्कृति, राजनीति और सामाजिक परिवेश के आलोक में लिखे जाने की जो भारतीय साहित्य की समृद्ध परंपरा रही है उसी अर्थ में मैं साहित्य शब्द का प्रयोग कर रहा हूँ.   
श्रीमती सावित्री देवी कुंती के जीवन पर आधारित अपने प्रबंध काव्य “अन्नुतरे” के माध्यम से हिंदी काव्य जगत में प्रतिष्ठित हो चुकी हैं. अपनी प्रखर काव्य प्रतिभा के कारण वे आधुनिक कवियित्रियों में अप्रतिम हैं. प्रचार-प्रसार और विज्ञापनों से दूर रहकर उन्होंने जो काव्य देवता की अराधना की है “अमृतेय बुद्ध” उसी का प्रतिफल है. उन्होंने काव्य के अतिरिक्त अन्य विधाओं में भी अपनी क्षमता का परिचय दिया है पर काव्य सृजन में उनका मन अपेक्षाकृत अधिक रमा है. अपनी रचनायों के लिए उन्होंने शलाका पुरुषों अथवा महनीय नारी चरित्रों को भले ही आधार बनाया हो, पर जीवन के कठोर यथार्थ को वैचारिक धरातल पर चिंतन के स्तर पर व्याख्यायित करने के प्रति उनमे आग्रह बराबर बना रहा. यह एक विचित्र विरोधाभास है जिसका दुर्लभ समन्वय सावित्री देवी की रचनाओं में सहज देखा जा सकता है. यही कारण है कि कब श्रृष्टि के लिए उनकी समाधि लगती है और उनका अभिप्रेत महान चरित्र उनके मानस लोक में उतरता है तो वे भावुकता का शिकार नहीं होतीं. वे वर्तमान जन-जीवन के निकष पर उसकी अच्छी जांच-पड़ताल कर उसे ऐसा आयाम देती हैं कि वह हमारा अपना बन जाता है. उसके हाथ मशाल होती है जिससे वह वर्तमान जीवन की विभीषिका में गहरे पैठ कर सर्वाधिक सचेत रहे जिसे सावित्री देवी ने भली-भांति पकड़ा है. मर्यादा पुरुषोत्तम राम सर्वाधिक धरती पर रहे और रजा के रूप में संत्रास झेला. लीला प्रभु कृष्ण ने राजा न रहते हुए राज-सुख का भोग तो किया पर तत्कालीन दूषित राज्य व्यवस्था का उन्मूलन कर अपनी भी लीला समाप्त की. इस सबसे हटकर गौतम बुद्ध ने राज-वैभव की उपेक्षा कर एहिक सुख को तिलांजलि दे पीड़ित मानवता के कल्याण हेतु तपस्वी जीवन में लोक-मानस का मंथन कर बौद्ध-दर्शन रुपी ऐसे अमृत की उपलब्धि की कि मोक्षकामी दर्शन के आलोक में चल रहे सामाजिक उत्पीडन से मूर्छित मानवता में नव-जीवन का संचार हुआ. अंधविश्वास के बलि चढ़े निरीह जीवों के रक्त से रंजित पृथ्वी को करुणा के लेप से शीतल कर भगवान बुद्ध ने उसे स्पृहणीय बनाया.  इस प्रकार अपेक्षाकृत लघु जीवन फलक में गौतम ने अपने जिस जीवन-दर्शन को बीज रूप में स्थापित किया उसने विशाल वट वृक्ष के रूप में विश्व मानवता के दग्ध ह्रदय को करुणा से सारोबार कर शीतलता प्रदान की. “अमृतेय बुद्ध” महाकाव्य इसे स्पष्ट करने में पूर्ण सक्षम है.
जन्म से लेकर प्रस्थान काल तक का महापुरुषों का जीवन चमत्कारों से भरा दिखता है. मर्यादा पुरुषोत्तम राम को जीवन यात्रा के हर महत्वपूर्ण मोड़ पर अलौकिक शौर्य का प्रदर्शन करना पड़ा है और लीला प्रभु कृष्ण का तो सम्पूर्ण जीवन ही अलौकिक चमत्कारों से भरा पड़ा है. इसी क्रम में भगवान बुद्ध के जीवन क्रम में भि चमत्कार जुड़े हैं, पर ये चमत्कार पूर्व के चमत्कारों से थोड़े भिन्न हैं. राम और कृष्ण जैसे महापुरुषों को ईश्वर अथवा ईश्वरीय अंशावतार के रूप में प्रतिष्ठित कर उन्हें मानव-लीला करते दिखलाया गया जिससे वे हमारी पूजा के विषय तो बने पर उनका अनुलारण करना हमारी क्षमता के बाहर रहा. भगवान बुद्ध अपने अलौकिक कर्मों के द्वारा देवत्व के सोपानों पर उत्तरोत्तर चढ़ते गए हैं, जिससे वे हमारे लिए अनुकरणीय बनते हैं. अंगुलिमाल जैसे दुर्दांत दस्यु के ह्रदय परिवर्तन जैसे उनके चमत्कार आज भी प्रासंगिक हैं. लोकनायक जयप्रकाश द्वारा कराये गए दुर्दांत दस्युओं के व्यापक आत्म समर्पण की घटना क्या अंगुलिमाल की घटना से मेल नहीं खाती, खाती है. यहीं आकर सावित्री देवी का कवि लोक चेतना को अंगीभूत कर “अमृतेय बुद्ध”  के माध्यम से युग संद्देश देने में पूर्ण सक्षम हो जाता है. उन्होंने विश्व मानवता के एक ऐसे मसीहा की मूर्ति इस महाकाव्य के माध्यम से गढ़ी है जिसकी विराटता के सामने धर्म-प्राण भारतीय ग्रंथों में प्रतिष्ठित बहुत सी मूर्तियां बौनी हो जाती हैं. धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक और सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध गौतम बुद्ध का उदय एक सार्थक आंदोलन था जिसमे समाज के सभी लोग शामिल होते गए. रूढ़िवादी जड़ता को विखंडित कर गौतम ने भारतीय दर्शन के अवरुद्ध प्रवाह को पुनः निर्मल गति प्रदान की. इस तत्व की बड़ी ही मार्मिक एवं तात्विक अभिव्यक्ति “अमृतेय बुद्ध”  में हुई है जिसके लिए कवयित्री साधुवाद की पात्र हैं. यह काव्य लोक-दर्शन, लोक-चेतना और विश्व-मानवता का काव्य है जिसकी प्रासंगिकता अभि आने वाले दिनों में दीर्घकाल तक बनी रहेगी. इस कालजयी सृष्टि के लिए कवयित्री को साधारण साधना नहीं करनी पड़ी है. कालचक्र की गति को रेखांकित करने का कार्य देवता का नहीं मानव का है जिसके बीच से ही “अमृतेय बुद्ध” का नायक गुजरता है. वह देवता की अर्थहीनता को जानता  है, अतः मानव बना रहना ही उसे श्रेयस्कर जान पड़ता है-
मत रुक.
सिद्धार्थ.
तुझे देवता नहीं.
मानव ही रहना है.
जग के दुःख-सुख में पचकर,
अमृत मंथन कर,
निर्वाण प्राप्त करना है.
कवयित्री की काव्य साधना भी जग के दुःख-सुख में रस-पच कर आगे बढ़ी है. अध्ययन, मनन, चिंतन, संस्कृति, धर्म, दर्शन और सामाजिक परिवेश विरासत से निजी पारिवारिक परम्परा से प्राप्त हुई है, जिसमे आगे चलकर उसके निजी मीठे-कड़ुवे अनुभव भी मिले हैं. इस स्थिति में निर्मित उसकी मानसिकता ने बौद्ध-दर्शन का साक्षात्कार किया है. ऐतहासिक अंतराल को भरते हुए उसने साधना के बाल पर जो दृष्टि निर्मित की है उसने सहज ही “अमृतेय बुद्ध” को कालजयी रचना की कोटि तक पंहुचा दिया है. उसकी गुणवत्ता और लोकप्रियता के स्थान का निर्धारण काल-देवता करेंगे.
कर्मवीर गौतम बुद्ध की वैचारिक विजय-यात्रा की, यह महाकाव्य, कहानी है जिसमे मर्यादा पुरुषोत्तम राम का अप्रतिहत संकल्प और लीला प्रभु कृष्ण की गीता का, आत्मा की अमरता का कभी भी पुराना न पड़ने वाला सार्वभौम कालातीत सन्देश अनुस्यूत है. चिंतन धारा के इतने विशाल आधार फलक पर “अमृतेय बुद्ध”  की रचनाकार श्रीमती सावित्री देवी ने असाध्य साधना की है. समाज के हर वर्ग की ओर कवयित्री का ध्यान गया है और उसने समता के आधार पर विकसित सामाजिक दृष्टिकोण को मूल-मन्त्र के रूप में स्वीकार किया है. बौद्धकालीन भारत में प्राप्त नारी विषयक दृष्टिकोण को आम्रपाली जैसे सन्दर्भों को उठाकर सावित्री जी ने निभ्रान्त बनाने की चेष्टा की है और उसमे उन्हें पर्याप्त सफलता भी मिली है. गौतम बुद्ध का जो व्यक्तित्व “अमृतेय बुद्ध”  में उभर कर सामने आया है, वह आज के विषम सामाजिक जीवन से त्रस्त विश्व-मानव को नेतृत्व प्रदान करने वाला है. आत्म-सम्मोहन, कटुता, स्वार्थपरता और हिंसा में लिप्त मानव के लिए “अमृतेय बुद्ध”  का सन्देश अमृत तुल्य होगा, इसमें संदेह नहीं.
वैचारिक स्तर पर यह एक अत्यंत प्रौढ़ रचना है जिसके प्रत्येक सर्ग में कोई-न-कोई ऐसा सन्देश पाठक को मिलेगा जो आज के लिए सर्वाधिक प्रासंगिक होगा. निर्दोष मुक्त छंद विधान और भाषा की प्रांजलता के कारण “अमृतेय बुद्ध”  की काव्य-गरिमा अत्याधिल बढ़ी है. बेबाक चिंतन और जटिलतम प्रश्नों का समाधान तक ले जाने में सावित्री जी की भाषा पूर्ण सक्षम रही है. उसमे पारंपरिक ऊर्जा है जो गहन अंधकार में डूबे हुए मार्ग को आलोकित करता है. “अमृतेय बुद्ध”  २८ सर्गों में गौतम बुद्ध के जन्म से लेकर महापरिनिर्वाण तक की व्यथा-कथा कहता है जिसमे उनके जीवन से संबद्ध सभी महत्वपूर्ण घटनाओं का समावेश तो है, पर महाकाव्य में इतिवृत्तात्मकता नहीं आने पाई है. कहीं से कुछ ऐसा नहीं लगता कि इसके माध्यम से कवयित्री जी सिद्धार्थ की जीवनी प्रस्तुत कर रही है. महाकाव्य के प्रत्येक सर्ग का अपना अलग-अलग अद्देश्य और अस्तित्व है तथा सभी एक दूसरे से जुड़े रहकर महाकाव्य की कथा को पूर्णता प्रदान करती हैं. रचना के स्तर पर इस स्थिति का निर्वाह करना बड़ा कठिन होता है और इस कठिन कार्य में कवयित्री को आशातीत सफलता मिली है. गौतम बुद्ध के उदय काल पर अवतारों की जो अवधारणा रही है और उनके जो संकल्पित कारण रहे तथा देव कथा के माध्यम से जो अज्ञात को ज्ञात कराने के प्रयत्न सामने आये उनकी उपलब्धियों की प्रासंगिकता को दृष्टि में रखते हुए श्रीमती सावित्री देवी ने इस महाकाव्य के द्वारा विश्व मानवता के महान सपूत “बुद्ध” के जीवन को प्रस्तुत कर एक संशोधित जीवन दर्शन को रूपायित किया है जो परंपरा से जुड़ा हुआ भी है और उसका अनुकरण भी नहीं है.
आत्मकेंद्रित जंगल राज्य से मानव को मुक्ति दिलाने हेतु अंशावतार से लेकर युग पुरुषों तक का सार्थक संघर्ष चलता रहा है. मर्यादा पुरुषोत्तम राम का वन गमन पूर्वकल्पित भी था और परिस्थितिजन्य विवशता का परिणाम भी. लीला प्रभु कृष्ण की जीवन यात्रा का आरम्भ ही वन्य-गमन के बीच से हुआ. महात्मा बुद्ध ने स्वेच्छया राजभवन का त्याग कर आरण्यक जीवन की साधना की. ये तीनों ही पीड़ित मानवता के प्रति करुणाद्र थे और युगीन सन्दर्भों के अनुकूल उस अमृतत्व की तलाश के लिए निकले थे जिससे मानव समाज में “ जियो और जीने दो” जैसे जीवन-मूल्य की पूर्ण प्रतिष्ठा की जा सके. वैयक्तिक जीवन-भोग की कलुषता और उसके कुपरिणामों को देखते हुए तीनों ने ही जीवन की निस्सारता का उद्घोष किया, अपने-अपने ढंग से. मोक्षकामी संस्कृति की कुरूपता के प्रति महात्मा बुद्ध का नवीनता का तेवर एक साथ देखने को मिलता है. हिंदी जगत में “अमृतेय बुद्ध” महाकाव्य का महत्वपूर्ण स्थान होगा. मैं काव्य और कवयित्री दोनों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ.

डा० त्रिभुवन सिंह
पूर्व कुलपति, काशी विद्यापीठ,
बैज्नत्था, वाराणसी.

     

No comments:

Post a Comment