Thursday, 5 January 2012

सर्ग : २६ - वैशाली पतन



सत्य ।
सदा छला गया, असत्य से ।
अन्यथा, वह । न होता इतना मारक गरल ।
तड़प गया, अमृत सा अन्तरदह तक निर्मल ।
दुर्दुष दारुण दिनमान,
जलाता रहा, अनवरत गगन को,
रहा, जबतक गतिमान ।
और, सुधाकर !
रात्रि भर, अमृत-सीकर-निसृत कर,
करता रहा, उसके विदग्ध फफोले शीतल ।
चुनता रहा रश्मि-करों से उसके छिटके नखत-अश्रुओं को अविरल ।
सदा, सदभावना हुई उत्पीडित,
असद की ज्वलित विषाक्त ज्वाला से ।
तृष्णाएं, होती रही संवर्धित पल्लवित पुष्पित ।
स्वार्थ-अहिन की जड़ें जमाकर,
होता रहा निश्च्छल प्रेम प्रद्युषित मौन सतत,
तपः-साधना-यज्ञ प्रज्वलित कर ।
वैशाली !
संस्कृति, ज्ञान, अध्यात्म की, सुरभित स्वच्छ निःश्वांस ।
कर बैठी मुनि बने, दुरभि-संधि निरत छद्मवेशी,
मगध दशकन्धर पर,
वैदेही सरिस विश्वास ।
कूटनीति में सरलता, सदा छली जाती है ।
पुष्प सृकाओं में छिपकर वह, विस्फोटक लेकर आती है ।
मारक इसकी गतिविधियां, स्वांस-स्वांस, तोड़ कर जाती है ।
अजातशत्रु, मगध राजा, जब देखा उसने,
बल से नहीं, केवल छल से, पा सकता था वह वैशाली-साम्राज्य,
कुटिल छल की ठानी उसने ।
सरल ह्रदय से, स्पष्ट सरल बात निकाली उसने ।
निष्कपट ह्रदय । छल नहीं जानता ।
उसकी अमृत-धारा, उसमें, उसने, सहज स्नेह उतारा ।
स्थल हो, सुरम्य समतल, या कांतर अराल विरल,
एक रूप ही सबको आप्लावित करती है,
प्रवाहित, निर्मल गंगा की धारा ।
अजातशत्रु,
अति क्रुद्ध, विक्षुब्ध ।
बुलाया उसने, निज महाअमात्य वर्षकार को ।
मुझे किसी प्रकार, वज्जियों, लिच्छवियों को विजित करना है ।
गंगा तट की भूमि का शुल्क हस्तगत करना है ।
निज संघटन, एकता, परस्पर सम्मिलन से,
दृढ़ है अति ये विचार और शक्ति से ।
संभव नहीं प्रत्यक्ष युद्ध ।
हैं वे दूरगामी विवेक समबुद्ध ।
बड़े बड़े विशाल प्रासाद, गढ़ । नीवों में
क्षुद्र मूषक घुस,कर देते हैं, ध्वस्त नष्ट ।
शत्रु !
साम, दाम, दण्ड, भेद से जीते जाते हैं ।
जिस प्रकार हो कार्य सिद्ध, वही रूप अपनाये जाते हैं ।
सुनता रहा, वर्षकार ।
दूर खोजती उसकी दृष्टि,
सहसा प्राप्त हुई, उसे कोई युक्ति ।
फिर भी मौन रहा वह ।
पुनः बोला अजातशत्रु – अमात्य !
कभी-कभी, कुटिल विरल नदियाँ पाषाणों में उलझ गह्वरों में धंस,
सैकत में शुष्क पड़ी, रह जाती हैं ।
सरल सरित बढ़ती, निष्कंटक सागर तक जाती हैं ।
भंते !
आजकल, प्रभु गृद्धकूट में व्यतीत कर रहे हैं वर्षावास ।
उन्हें जाकर, मेरा शिरसा नमन कहें और पूछें सुख विहार ।
उन्हें सूचना दें ।
मैं वज्जियों लिच्छवियों के प्रति, युद्ध सन्नद्ध हूँ ।
जो हो तथागत की प्रतिक्रया,
अक्षरशः मुझे निवेदन करें ।
वर्षकार ने, सुसज्जित कर वैभवशाली यान, किया गृद्धकूट प्रस्थान ।
तथागत समीप जाकर उसने किया सादर शिरसा नमन,
और प्रभु का कुशलक्षेम पूछकर,
अपने आगमन का उद्देश्य किया प्रगट ।
देखा प्रभु ने वर्षकार को,
आतंककारी आयाचित धूमकेतु को ।
केशर पराग बसी, सुरभि, कब काँटों में पलती है ।
वह कोमल पंखुरियों पर या मधु लिपटी रहती है ।
कुटिल कांटो भरा वर्षकार ।
प्रभु ।
निर्मल शीतल इंदु-प्रकाश ।
जानें क्या ।
यह घात कहाँ ।
आ पहुंची बात कहाँ ।
सरल निश्च्छल ह्रदय, जानता नहीं अनय ।
पृष्ट भाग में खड़ा आनन्द, कर रहा था प्रभु को व्यजन ।
प्रश्न किया- आनन्द !
क्या वज्जिगन, सन्निपात बहुल, होते हैं, नियमित एकत्रित ?
क्या करते हैं ग्रहण गोष्ठियों की सूचना ?
परस्पर विचार विमर्श कर, करते हैं, समस्यायों का समाधान ?
होते हैं एक साथ सम्मलित ?
एकमत होते हैं कार्यरत ?
यदि करते संध-नायक, गुरुजन सामान ।
श्रोतव्य श्रवण करते हैं ।
चैत्य अन्य पूजनीय पूजन करते हैं ।
करते नहीं अन्य की कुलवधुओं, वनिताओं का, बलात् हरण ।
कदापि नहीं संभव उनका पतन ।
ये सात अपरिहारणीय धर्म हैं ।
रहेगा, वज्जिसंध जबतक इनपर दृढ़ अचल स्थापित ।
नहीं होगी अवनति ।
तन-मन-धन से, बाहर भीतर से, रहे सुदृढ़ ।
नहीं कोई अनिष्ट से वे पीड़ित होंगे ।
होंगे नहीं कोई शत्रु से विजित विजड़ित ।
रखेंगे जबतक इन नियमों का ध्यान,
रहेगी उनकी गति ऊर्ध्वमुखी उत्थित ।
होगा सदैव कल्याण ।
सब सुनकर, शिरसा नमन कर,
उठा, आसन से वर्षकार ।
उठते-उठते अति विनीत स्वर में,
भरकर प्रतिहिंसा की ठसके, बोला सव्यंग-
निरंतर चलता वैश्व-विधान ।
पड़ जाता है उसमें भी व्यवधान ।
तिथियाँ भी, घटती बढ़ती रहती है ।
रात्रि, कभी छोटी और कभी बड़ी हो जाती है ।
मानव !
संसृति का एक छुद्र उपादान ।
कहाँ चूँक जाता है,
होता है, काल से अनजान ।
एक नन्ही चीटी से, मारा जाता है करभ विशाल ।
अज्ञात लघु छिद्र से जल समाधि ले लेता है जलयान ।
फिर मानव !
तृष्णाओं का मोहक-इंद्रजाल ।
मृग-मद-कस्तूरी वह ।
हरित मृणों को लुब्ध,
देखता नहीं प्रमादवश,
फैला कहाँ, जीवंतिक जाल ।
पुनः कर शिरसा नमन, किया उसने वर्हिगमन ।
महाअमात्य के जाते ही, प्रभु ने किया, वज्जी-संध को आमंत्रित ।
पुनः सात अपरिहारणीय नियमों की,
की, उनके सम्मुख पुनरावृत्ति ।
वज्जी-संध को सचेष्ट करते हुए कहा-
न रहना प्रमादवश ।
न रहना तृष्णाओं से घिरकर ।
सदा गुरुजनों के प्रति नमस्कृत, सयंत सुशील संवेदित मृदुभाषी,
संध से रहना अनुशासित,
निज नायक के प्रति, प्रतिबद्ध,
आगत-अनागत, के प्रति स्मृतिवान,
कुलवधुओं का करना सम्मान ।
होती रहेगी सौख्य समृद्धि में वृद्धि,
प्राप्त करोगे अभ्युत्थान ।
लौटे वज्जिगण ।
इनसे ही पूर्व लौटा था वर्षकार ।
गया वह, अजातशत्रु के सम्मुख ।
जो बात हुई, प्रतिक्रया हुई, कहा सब अक्षरशः, विधिवत ।
सब सुनकर बोला, वैदेही-पुत्र - अहो !
वज्जिगण-तंत्र संघटन-अदभुत ।
शत्रु, जब हो बलवान ।
न करो सम्मुख प्रत्यक्ष युद्ध-आह्वान ।
उनके घर में डालो भेद ।
जहां हो दुर्बल प्राचीर, वहीँ पर मारो सेंध ।
अन्यथा, अपनाओं विभीषण नीति ।
हँसा कुटिल हंसी वर्षकार –
है सभी समस्याओं का प्रतिकार ।
राजन ! कल राज-परिषद में, आप वज्जिओं की बात उठायें ।
कहें वे गंगातट की भूमि का लेते हैं अनाधिकार मेरे शुल्क ।
पर्वतीय बहुमूल्य वस्तुओं को, प्रथम ही कर हस्तगत, करते हैं विक्रय ।
मेरे प्राप्य, का सब प्रकार से करते हैं अपहरण ।
यह अन्याय नहीं सहूंगा मैं ।
तब मैं, वज्जियों का करूँगा पूर्ण समर्थन ।
आप क्रुद्ध होकर कहेंगे ।
यह ब्राह्मण है ।
अत्यन्त अकृतज्ञ अपकारी ।
मैं यह सुनते ही परिषद से बर्हिगमन करूँगा ।
उसी दिवस, वज्जिओं को बहुमूल्य पर्णकार उपहार करूँगा, प्रेषित ।
उसे आप करेंगे अधिकृत,
और अपमानित कर मुझे, देश निकाला देंगे ।
सुनियोजित मेरा यह कार्यक्रम ।
निश्चय ही वैशाली होगी,
मगध के चरणों में नत प्रणत,
अनायास बिना श्रम ।
अजातशत्रु ने किया यथावत, जो वर्षकार ने कहा ।
अपमानित वर्षकार, जब निष्कासित हुआ मगध से,
उसकी अपमान कथा की चर्चा, फ़ैली सर्वत्र,
तड़ित वेग से । बात पहुँची वज्जी संघ तक ।
उन्होंने अपने सन्यागार में किया लिच्छवियों को एकत्रित ।
आह ! कितना क्रूर अजातशत्रु ।
निज पिता बिम्बसार को भी, यंत्रणा दे देकर, कारागार में मारा जीवित ।
अब यह,  ब्राह्मण अमात्य !
किस प्रकार किया तिरस्कृत अपमानित, लांक्षित ।
अभियोगों पर मिथ्या अभियोगों का आरोपण ।
पदः-स्खलन ।
निष्कासन ।
केवल इस हेतु कि, वज्जिसंघ का किया उसने समर्थन ।
वह ।
सम्प्रति है उस पार गंगा तट के,
है यहाँ प्रवेश पाने को उत्सुक ।
सादर उसको हम सब लायेंगे ।
किन्तु, यह सब सुनकर,
किया उसमें से किसी एक ने प्रतिवाद ।
वह, मगध-साम्राज्य का महामात्य, वर्षकार ।
मायावी है दुर्निवार ।
निज उद्देश्य सिद्धि निमित्त, कितना नीचे जाएगा ।
जड़ में पैठ, छल बाल माया प्रपंच, सब विधियों को अपनाएगा ।
विश्वास करो मत ।
मोहक होता है, स्वर्ण चर्म का विषधर ।
कब, अमृत हो पाया, इन्द्रयाण मारक विषफल ।
यह, ऊपर की बातें हैं ।
इनमें कहीं छिपी प्राणान्तक घातें हैं ।
शत्रु कभी नहीं झुकता है ।
नमित होकर ही कंटक, पैरों में चुभता है ।
वह, महोषधि भैषज कहकर,
उर्वरा उर्वी हरी भरी निरख,
उसमें विष बीज वमन करता है ।
यदि प्राप्त नहीं होती राह ।
वह, पडोसी राज्यों से मिलकर दुरुभिसंधि करता है ।
निज शत्रु को मित्र बनाकर,
अवसर पाकर, बुरी जगह पटकता है ।
घर में घुस पैठकर, समस्त गतिविधियों को,
भलीभांति जानकार अवगाहन कर,
वह, निज रणनीति बनाता है ।
न करें ।वर्षकार का विश्वास ।
वह, विषकन्या नहीं, विष पुरुष,
अप्लावित अकाट्य विषः संभूत गोधुम कृष्ण नाग है ।
निदान राहित है इसका विष ।
अदभुत इसकी सूझबूझ ।
वह मारक अस्त्र अचूक ।
किसी अन्य ने उठकर, किया इन बातों का विरोध ।
यह वर्षकार, प्रकांड विद्वान, सब भांति सक्षम ।
यदि यह विशाल मस्तिष्क, वज्जीगण पा जाएँ ।
किस प्रकार सुदृढ़ सशक्त होकर,
निज साम्राज्य का विस्तार बढ़ायें ।
यह सिद्ध होगा, अमोघ आयुध ।
अत्यंत विचक्षण प्रबुद्द्ध ।
पुनः उठा प्रतिवाद ।
यह सत्य कथन निर्विवाद ।
किन्तु एक ही औषधि से होता नहीं सर्व रोगों का उपचार ।
“दुर्जनः प्रियवादी च नेतु विश्वास कारणम् ।
मधु तिष्ठति जिह्वाग्रे ह्रदय तु हलाहलम् । ।”
किन्तु भवितव्यता ।
विनाश काले विपरीत बुद्धि ।
इतनी चैतन्य सुसंस्कृत वैशाली ।
आज अकारण, जा रही, नियति से छली ।
कहा किसी ने-
जो, मगध के उच्च पद पर प्रतिष्ठित ।
होगा क्यों, उसके शत्रु पक्ष से संवेदित ।
समर्थनों असमर्थनों के मध्य, हुआ वर्षकार का वैशाली आगमन ।
पुनः वज्जी परिषद हुई आमंत्रित ।
वर्षकार से प्रश्न हुआ ।
किस हेतु हुए वे निष्काषित ।
वर्षकार ने, पुनः सब बातें जो हुई घटित, दुहराई ।
सब सुनकर, हुए स्तंभित वज्जिगण ।
यह बात, इतनी तुच्छ, इतनी नगण्य ।
और दण्ड, इतना भारी ।
सत्य ही, मगध राज, है नृशंस दम्भी अत्याचारी ।
हो उठे सब भावाकुल ।
परम अनुभवी मेधावी, यशस्वी, वर्षकार ब्राह्मण,
था, महाअमात्य, मगध का ।
वैशाली ने भी उसे, भावावेश में,
महामात्य का स्थान दिया ।
कहा वज्जिसंघ ने- ब्राह्मण !
आप यहाँ सब प्रकार प्रतिष्ठित समादृत, स्थापित ।
वर्षकार ।
प्रथम वर्ष, रहा शान्त मौन ।
करता रहा निष्ठा से सब कार्य निष्पादन ।
वह, अति प्रभावशाली वक्ता ।
सब विषयों का निष्णात पंडित,
गहन मग्नशील, नीर-क्षीर विवेकी ।
निष्पक्ष न्यायकर्ता, राजकुल राजपुत्रों का गुरू ।
सब मुक्त कंठ से करते उसकी प्रशंसा ।
किन्तु अवसर पाकर,
शान्त पड़े तक्षक ने, धीरे-धीरे शीश उठाया ।
विष वमन करने हेतु, अपना, विषधर फण फैलाया ।
विश्वासों की धरा पर, अपना पैर सबल जमाया ।
धीरे-धीरे वह भीनता विष, अपना रंग ले आया ।
जो कहता, जैसा भी कहता, वर्षकार ।
वह वेदवाक्य ।
जो करता वर्षकार ।
वह न्यायसंगत अकाट्य ।
देख लिया वर्षकार ने,
उसकी मोहिनी माया की छाया में,
वज्जिसंघ घुटनों के बल आया ।
हुए व्यतीत इसी प्रकार,
वर्ष पर वर्ष निर्विघ्न सब प्रकार ।
तृतीय वर्ष ।
वह लगा घूमने वैशाली में घर बाहर ।
जो भी देखता उसे, संभाषण करता सादर ।
कभी किसी से बातें कराता,
कभी किसी को कुछ कहता ।
कभी अत्यंत छोटी नगण्य बातों में,
गाम्भीर्य का नाटक रचता ।
विद्वेष, शंका, विश्रीन्खलन के, परस्पर बीज वपन करता ।
वज्जिगण, धीरे-धीरे एक दूसरे से सशंकित
रहने लगे सब, अपने में सीमित ।
नहीं संघ की बैठक होती, नहीं चैत्यों में जाते ।
मिल जाता कोई सुहृद, आँख बचाकर कतराते ।
नहीं होते किसी के सुख दुःख में, परस्पर सम्मिलित ।
विस्मृत गुरुजनों का सम्मान, नहीं परस्पर आदान-प्रदान ।
हो गए, एक दूसरे के चेहरे सर्वदा अपरिचित अनजान ।
सबमें, केवल अपना स्वार्थ निहित ।
भग्न सब नियम ।
व्यापक हो गयी अनुशासनहीनता ।
किसी का घर, जले या बचा रहे ।
दूसरा क्यों वह ताप सहे ।
एक दिवस, मंत्रणा निमित्त बजी वज्जिसंघ की दुन्दुभी ।
सुनकर, किया, अनसुना सबने ।
कोई संघागार में एकत्रित हुआ नहीं ।
शून्य पड़ा संघागार ।
नहीं किसी को, वज्जी गणतंत्र की परवाह ।
यह, वही वैशाली थी ।
राज महिषी, सौंदर्य सम्राज्ञी ।
जिसकी अभ्यर्थना में सन्नद्ध,
स्पृह सहस्र शत सप्त, प्रासाद, हर्म्य,
नत प्रणत लेकर स्वर्ण कलश ।
इसी प्रकार द्विगुणित रजत कलश, त्रिगुणित ताम्र कलश ।
नित्य अप्लावित, करते थे अभिसिंचित मन्त्र-पूत-जल-निसृत-अभिषेक ।
गरिमा, सुषमा, अतिरेक । आम्रपादप । अर्णवन । सुरम्य वन उपवन ।
कैकी कलरव ।
खग कूल कुंजन मधुरव ।
चित्र विचित्र कंज खचित मुदित तड़ाग ।
सर्वत्र वसुधा सुरभित बहुरंगी पुष्प-पल्लव लसित ।
अहर्निशी मंजीरित प्रक्वणित वीणा ।
नर्तित नवंगना नृत्यांगना ।
सुमधुर गायन मनः-रंजन स्वर लहरी,
ज्यों प्रफुलल्लित आनंदित तरंगित अमृत-तरगिणी ।
वैशाली अनुदरा लावण्यप्रभा ।
स्वर्णिम दामिनी, गजगामिनी ।
केहरी कटि, कलश, भार अवश ।
छलकी गगरी, रुनझुन तगड़ी ।
सिक्त वक्ष-पट्ट शिंजिनी रही अटक ।
मेखला, भार बनी, लहरित दोलित क्षीण कटी ।
वैशाली रूप गर्विता ।
आज वाह निरीह निर्गता ।
निरख रहा उसे क्रूर वर्षकार ।
फुन्कारित विष व्याल ।
जिस प्रकार, सद्दः-अभिसिंचित शमित,
चिता की अर्ध्जलित काष्ठ समिधाओं पर,
पक्षों को संतुलित करता,
पंजों को काष्ठ में धसांता, बैठता,
अनुभवी प्रौढ़ गृद्ध,
डालता है, सर्वत्र विहंगम, किन्तु तीक्ष्ण दृष्टि ।
सद्दः उतर रही थी वैशाली की श्यामल क्लान्त आर्द संध्या ।
शान्त खड़े थे वृक्ष,
तरु शिखाओं पर से भी हो रही थी विलीन अर्क-प्रभा ।
ऐसे ही, खुले अनखुले क्षणों में, वर्षकार,
कर रहा था हृदयंग वैशाली को सब प्रकार ।
वह, वैशाली के वन, उपवन, प्रासाद, हर्म्य,
शाखा, प्रशाखा, बाजार, हाट, नगरों में, ग्राम्यों में, चैत्यों में,
विचरण कर रहा था सर्वत्र ।
देखा, गरिमा का प्रखर, प्रकर्ष प्रचंड मार्तंड ।
विकीर्णित जाज्वलमान ज्योति-प्रभा अखंड ।
आज, निष्प्रभ निस्पंद ।
राहु ग्रस्त ।
पूर्णतः विश्रीन्खिलित अस्त-व्यस्त ।
वैशाली की अप्रतिम लावण्य-प्रभ, राज्यश्री ।
सुअलंकृता गुण सौष्ठव, सौंदर्य स्वाभिमान गर्विता ।
कमनीय सरस रसवंती तरुणी जाह्नवी ।
पड़ी, श्लथ क्लान्त धरा पर ।
पुष्प भार हार टूटे बिखरे ।
भग्न केयूर, भुजबंध, भूलुंठित किरीट, कटी मेखला ।
बिखरे अराल अपाद कृष्ण केश ।
ह्रदय विदग्ध पीड़ा अशेष ।
नील-नलिन-अर्ध-निमीलित, अजस्र अश्रु स्रावित, कम्पित पद्मप्लाक्ष, स्नात,
विगत स्मृति स्वर्णिम स्वर्ण विहान-साक्ष्य,
भग्न स्वप्न सहस्र पत्र । विगलित संतरित सिक्त पात-पात ।
आँखें । मौन ।
स्वप्न जडित स्मृति समाधि ।
उच्छ्वासित व्यथित टूटती, ऊर्ध्व स्वांस निःश्वांस ।
आन्दोलित वक्ष, मृणाल मसृण बाहुलता असमर्थ ।
उच्छ्वास व्यतिक्रम अप्रतिहत ।
मुखारविंद, विषण्ण उन्मन ।
चित्रित पत्रभंग विवर्ण विकृत गहन पवन ।
अवरुद्ध स्वांस । विकल तब-मन ।
शातोदारी, सब प्रकार विपन्न ।
कुटिल निर्मम ह्रास ।
हँसा वर्षकार ।
कहाँ आज ।
वैशाली का वैभव-विलास-साज ।
कहाँ वह, मदमत्त ऊर्ज्वसित यौवन लावण्य-प्रभ प्रकाश ।
कहाँ पुष्पकरिणियों, दीर्घकाओं, बावलियों, तड़ागों में, कंज खचित सरोवरों में,
युवक युवतियां, जल-क्रीड़ा-प्रमत्त ।
अब, बज रहे कहाँ, वीणा, वेणु, परिवाद्नी, प्रणव, मृदंग ।
कहाँ मद पी मदिरालय, रंगिणियों का नर्त्तन ।
कहाँ, यौवन आनंद रस आप्लावित आँखों का, मधु वर्षण ।
हो गए, शान्त ।
जावक-रचित काम-विमोहित-पञ्चपुष्प-अनुस्यूत-शिंजिनी-विलसित,
लास-चपल-नृत्तित-चरण । नीलंजसा-नील-राजित विभ्रमित नील नयन,
मदः-नवोंमेषिता, नवागनाएं नृत्यांगनाएं ।
विसुध विक्षिप्त,
डस गयी, कूटनीति सर्पणी विषः-विदग्ध,
टूटे इनके अंग-अंग ।
कहाँ इनमें, मयंक मनसिज उत्थित सुधा-रस-तरंग ।
वैमनस्य, विद्वेष, गृह-कलह,
अचूक, मारक गरल ।
भीन जाता, रोम रोम अन्तर-हृद-तल ।
उतरे, धनवंतरि भी,
अप्राप्त औषधि ।
अनिवार्य मृत्यु ।
अब भी, कम्पित तृषाकूल शुष्क अधर ।
पर कहाँ शुद्ध शीतल जल ।
हो चुकी निःशेष, जीवन संजीवनी शतहृदा ।
अब केवल अभिशापों से ज्वलित, कम्पित धुतांग वैशाली काम्य धरा ।
देखा, वर्षकार ने अनिमेष ।
हो चुका, ज्ञान-प्रभा, अध्यात्म-चेतना, संस्कार, निःशेष ।
परम आनंदित, वर्षकार ।
ली उसने, परम संतुष्टि की सांस ।
हो किस प्रकार,क्षत-विक्षत यह शव ।
कैसे अधिकृत हो इसका अपार वैभव ।
मृत यह ।
शेष अब, तांडव, विप्लव ।
वर्षकार ने, कस्तूरी वश करने निमित्त, बीन मधुर अलापा ।
हो उठा मुग्ध वन्य प्रांत ।
विमुग्ध मृग स्वयं बढ़कर उसने निज को मृत्यु-जाल में बाँधा ।
राजनीति,
श्मशान-प्रज्वलित-चिता पर, आवाह्नीय, जागृत अघोर मन्त्र ।
केवल इसमें षड्यंत्र-तंत्र ।
यह बबूल का कंटकाकीर्ण अरण्य,
कांटे ही चुभते हैं, कांटे ही झरते हैं ।
कांटे ही बिछे, सर्वत्र रहते हैं ।
नहीं यह, रसाल का मंजरित सुरभित पल्लव प्रच्छायित, शीतल मधुवन ।
जहां, गुल्मों के अंतराल में शयित विभ्रमित कुंजित,
प्रतीक्षाकुल, किंकर, किंकिरात, कावृत, कैकी, खग-कूल-कूजन ।
गंध-अंध-किंजल्क-वन । षट्पद मधुकर गुंजन ।
सात्विकता-रसः-आस्वादन ।
यहाँ, ध्वांत आकाश तले,
राजनीति, कूटनीति, के शमशान में,
जहां, आदर्शों की जली चिता,
पड़े शव, जले अधजले ।
ध्वस्त महत् विचार-प्रासाद,
निर्वाणित शान्त प्रकाश-आवास ।
निष्ठाओं की मरघट पर,
अशुभ आतंकित करती कूटनीतिज्ञों की उलुक ध्वनि ।
कम्पित अवनि ।
यह राजनीति !
शापग्रस्ता पतिता कर्मनाशा प्रवाहिता सरिता ।
सब पुण्यों का होता है तर्पण ।
दैवत्व यहाँ पतित स्नात,
असुरत्व ऊपर आता है ।
मानवता की पूर्णतः विनाश-यज्ञ में आहूति देकर,
राजनीतिज्ञ, प्रतिष्ठित होता है ।
उनका ह्रदय ।
कहते जिसे, विश्व-प्रेम-निलय ।
अखंड-ऐक्य का वह सागर ।
उस अन्तर, श्याम-पटल में, विषः-अक्षर-भास्वर होते हैं ।
उनका ह्रदय । वह, विषाक्त खिला पुष्प ।
जिससे, मधुर ध्वनि सुगंध निसृत ।
जीव, बरबस आता मंत्रमुग्ध खिंच,
उन्हें भक्षण कर, ये पटल बंद होते हैं ।
बजाते ये, विषःपूत विनाशी बीन ।
रख छद्मवेशी वेश ।
इनके स्वर, लय-गति-ताल-निबद्ध ।
अस्त्र-शस्त्र, कूटनीति, विद्रोह, विस्फोटक, इसके सरगम ।
यह तंतुवय अप्रतिम ।
अपने सुनियोजित ताने बाने पर,
मनः-वांक्षित आकृति उकेरता है ।
हो जाते इनकी क्षणिक भृकुटि विलास से,
वक्र दृष्टि से,
विशाल साम्राज्य, संस्कृति, कला, स्थापत्य विनष्ट ।
यह वह जल प्लावन,
क्षण में जिसे चाहे करे उदरस्थ ।
समय के संग परिवर्तित, इसके नानाविधि रूप, अनेक ।
प्रथम बनता था, यह विषकन्या ।
मृत्यु, सूपकार,मालाकार, सुहृद रूपजीवा, नर्त्तक या नर्त्तकी ।
अब, इसमें, विष-बेल, और भी मारक होकर, फ़ैली, ऊपर चढ़ी ।
अब, इनकी,कूटनीति, करती है सीधा वार ।
वह, विषकन्या, विष-पुरुष नहीं,
अत्यंत, अचूक मारक, मानव-विस्फोटक, नर या नारी बनती है ।
मधुर स्मितों से,
परीक्षित का तक्षक अन्तरनिहित,
पुष्पहार, समर्पित करती है ।
अमोघ वार, प्राणान्तक बनती है ।
यह है, चिर नवीन । मानवता शीर्षस्थ, रोली ।
खेल रही प्राणों की होली ।
सिद्धहस्त खिलाड़ी ।
वर्षकार ।
विषः-प्रमत्त । कर रहा विषाक्त फुंकार ।
यह, वह, वैद्य ।
जो, जीवन का नहीं ।
मृत्यु का रक्षक था ।
उसने, परीक्षण निमित्त की अब भी खोज ।
कुछ भी, सतर्कता, चेतना है, वैशाली में शेष ।
या, सबकुछ सर्वथा हो गया निःशेष ।
उसने पुनः राज्य की ओर से दुन्दुभी का करवाया उद्घोष ।
किन्तु, बजती रही दुन्दुभी ।
रहे, अनावृत संघागार-द्वार ।
न कोई आया, न बैठा, न एकत्रित हुआ ।
न किसी ने कुछ पूछा ।
न किसी ने कुछ कहा ।
जैसा था जो जिस प्रकार, रहा, उसी भांति नीरूद्विग्न, निर्विकार ।
देखा वर्षकार ने ।
व्याप्त कर गया नित्यशः का प्रदत्त विष वैशाली के तन मन में ।
नहीं स्वाभिमान ।
नहीं अभिउत्थान ।
नहीं उत्साह, इनके जीवन में ।
ये, अवरोहित अधिरोहित अपने ही निसंग, अंध सूनेपन में ।
घूम रहे प्रेतात्मा सरिस ध्वस्त हर्म्य सन्निवेश में ।
किसी प्रकार भी उठ पाने में, ये नहीं रहे सक्षम ।
यही, उचित अवसर है, हो आक्रमण इनपर अविलम्ब ।
वर्षकार ने तुरंत की प्रेषित, अजातशत्रु को सूचना ।
बजे, मगध में रणभेरी ।
सैन्य एकत्रित कर मगधराज ने किया, वैशाली की ओर प्रयाण ।
मूर्मुश पड़ी वैशाली ।
पुनः हुआ आह्वान ।
हो किसी प्रकार वैशाली पुनः जीवित ।
रखे हुए आयुध अस्त्र-शस्त्र, हो उठे झंकृत ।
किन्तु, वैशाली की काया ।
विगत गौरव वैभव की, ध्वस्त स्वप्नों की, श्यामल छाया ।
नहीं उत्साह, नहीं शोक ।
निस्पंद पड़ा, वैशाली निर्मोक ।
वैशाली में चढता चला आ रहा था अजातशत्रु बेरोक ।
कहा शासनकर्ताओं ने,
शत्रुओं को गंगा पार नहीं उतरने देंगे ।
एकत्रित हो, लिच्छवी-गण, शत्रु से जमकर लोहा लेंगे ।
किन्तु वैशाली उदासीन ।
कुछ भी हो, वैशाली का,
क्यों हो हम हम उद्विग्न त्रस्त आभाक्षीण ।
हुई घोषणा ।
शत्रु सन्निकट है ।
वह वैशाली की सीमा, कर गया अतिक्रमण ।
अब भी, चेतो वैशाली-गण ।
नगर द्वार कर लो बंद ।
ग्रहण करो अविलम्ब शस्त्र,
वैशाली है दीन त्रस्त ।
बजती रही दुन्दुभी, रणभेरी ।
चतुर्दिक निनादित, चतुरंगिणी सेना गगन-घर्षित ।
चिंगाढ़ रहे सज्जित हस्ति ।
हिनहिना रहे अश्व ।
करवालो तलवार की टकराहट,
आक्रांत धरा, धूल धूसरित अश्व पदाघातों से,
मगध सैन्य अति प्रबल अप्रतिहत प्रवाह,
क्षण में तोडेगा वैशाली द्वार ।
चढ आया शत्रु, शीश पर ।
फिर भी वैशाली बेखबर ।
मिला खुला, अनाकृत वैशाली द्वार,
हुआ वैशाली पर निर्मम प्रहार ।
निहत्थे बच्चे, बाल, अबाल, वृद्ध ।
टूट पड़ी, उनपर सेना क्रुद्ध ।
आह, कराह, रक्त प्रवाह, वैशाली धूल धूसरित लोहित ।
नष्ट हुए हर्म्य, चैत्य, प्रासाद ।
बहे रक्त की लोहित धारा ।
निराभरण, विवर्ण, हतप्रभ क्षत विक्षत, वैशाली को,
बंदिनी कर वहाँ उतारा ।
देखा, वैशाली ने, अश्रुपूरित दृष्टि घुमाकर सर्वत्र ।
जिस प्रकार रक्षार्थ, जननी निरखती,
निज आत्मज, स्वजन, बांधव, सुहृद, कलत्र ।
देखा, उपालंभ क्षोभ दुःख से,
निज निश्चेष्ट कुपुत्रों को ।
जिनके निमित्त उसने धन-मन-तन-जन वारा ।
निस्सहाय, त्रस्त, विकल, आकुल, आर्त, उन्हें, बार-बार पुकारा ।
किन्तु, कहाँ से लहरें लेता उष्ण रक्त ।
जब हो गया वह, शीतल सफ़ेद जल ।
माँ ने, अपमानित, पीड़ित, लज्जित निज शीश झुकाया ।
ध्वस्त स्वाभिमान ।
निष्प्रभ,मुखः-प्रभा, म्लान ।
जीवित ही निज को संज्ञाशून्य अवसन्न मृतवत् पाया ।
आनत मुख, नत पलकों में, अजस्र अबाध जल लहराया ।
ज्योतित प्रखर अध्यात्म-आत्म प्रकाश स्तंभ ।
गौरव-कीर्तिमान ।
भूलुंठित, निरालम्ब । वैशाली,
आसन्न मृतप्राय, निस्पंद, निश्चेष्ट, निष्प्राण । 
अर्धनिमीलित अचेतन आँखों के अंतरिक्ष में,
डूब रहा था, यशः-सांध्य—दिनमान ।
था मर्मान्तक अवसान ।
क्षुधातुर निर्लज्ज क्रूर प्रेतात्मा सरिस
घूम रहे थे वैभव के शमशान में,
धन लोलुप गर्हित, नृशंस,
दो श्रृगाल ।
फैलाया था जिन्होंने,
दुरुभि-संधियों का निर्मम जाल ।
दुखांत नाटक का, सूत्रधार ।
वर्षकार ।
नायक, जिसका मगधराज ।
गूँज उठा, गरिमा के ध्वस्त, सूने, खंडहर में,
दोनों का,

निर्मम अट्टहास ।   

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