सत्य ।
सदा छला
गया, असत्य से ।
अन्यथा,
वह । न होता इतना मारक गरल ।
तड़प गया, अमृत सा
अन्तरदह तक निर्मल ।
दुर्दुष दारुण
दिनमान,
जलाता रहा, अनवरत
गगन को,
रहा, जबतक गतिमान
।
और, सुधाकर !
रात्रि भर,
अमृत-सीकर-निसृत कर,
करता रहा, उसके
विदग्ध फफोले शीतल ।
चुनता रहा
रश्मि-करों से उसके छिटके नखत-अश्रुओं को अविरल ।
सदा, सदभावना हुई
उत्पीडित,
असद की ज्वलित
विषाक्त ज्वाला से ।
तृष्णाएं, होती
रही संवर्धित पल्लवित पुष्पित ।
स्वार्थ-अहिन की
जड़ें जमाकर,
होता रहा निश्च्छल
प्रेम प्रद्युषित मौन सतत,
तपः-साधना-यज्ञ
प्रज्वलित कर ।
वैशाली !
संस्कृति, ज्ञान,
अध्यात्म की, सुरभित स्वच्छ निःश्वांस ।
कर बैठी मुनि बने,
दुरभि-संधि निरत छद्मवेशी,
मगध दशकन्धर पर,
वैदेही सरिस
विश्वास ।
कूटनीति में
सरलता, सदा छली जाती है ।
पुष्प सृकाओं में
छिपकर वह, विस्फोटक लेकर आती है ।
मारक इसकी
गतिविधियां, स्वांस-स्वांस, तोड़ कर जाती है ।
अजातशत्रु, मगध राजा,
जब देखा उसने,
बल से नहीं, केवल
छल से, पा सकता था वह वैशाली-साम्राज्य,
कुटिल छल की ठानी
उसने ।
सरल ह्रदय से,
स्पष्ट सरल बात निकाली उसने ।
निष्कपट ह्रदय ।
छल नहीं जानता ।
उसकी अमृत-धारा,
उसमें, उसने, सहज स्नेह उतारा ।
स्थल हो, सुरम्य
समतल, या कांतर अराल विरल,
एक रूप ही सबको
आप्लावित करती है,
प्रवाहित, निर्मल
गंगा की धारा ।
अजातशत्रु,
अति क्रुद्ध,
विक्षुब्ध ।
बुलाया उसने, निज
महाअमात्य वर्षकार को ।
मुझे किसी प्रकार,
वज्जियों, लिच्छवियों को विजित करना है ।
गंगा तट की भूमि
का शुल्क हस्तगत करना है ।
निज संघटन, एकता,
परस्पर सम्मिलन से,
दृढ़ है अति ये
विचार और शक्ति से ।
संभव नहीं
प्रत्यक्ष युद्ध ।
हैं वे दूरगामी
विवेक समबुद्ध ।
बड़े बड़े विशाल
प्रासाद, गढ़ । नीवों में
क्षुद्र मूषक
घुस,कर देते हैं, ध्वस्त नष्ट ।
शत्रु !
साम, दाम, दण्ड,
भेद से जीते जाते हैं ।
जिस प्रकार हो
कार्य सिद्ध, वही रूप अपनाये जाते हैं ।
सुनता रहा,
वर्षकार ।
दूर खोजती उसकी
दृष्टि,
सहसा प्राप्त हुई,
उसे कोई युक्ति ।
फिर भी मौन रहा वह
।
पुनः बोला
अजातशत्रु – अमात्य !
कभी-कभी,
कुटिल विरल नदियाँ पाषाणों में उलझ गह्वरों में धंस,
सैकत
में शुष्क पड़ी, रह जाती हैं ।
सरल
सरित बढ़ती, निष्कंटक सागर तक जाती हैं ।
भंते !
आजकल, प्रभु
गृद्धकूट में व्यतीत कर रहे हैं वर्षावास ।
उन्हें जाकर, मेरा
शिरसा नमन कहें और पूछें सुख विहार ।
उन्हें सूचना दें
।
मैं वज्जियों
लिच्छवियों के प्रति, युद्ध सन्नद्ध हूँ ।
जो हो तथागत की
प्रतिक्रया,
अक्षरशः मुझे
निवेदन करें ।
वर्षकार ने,
सुसज्जित कर वैभवशाली यान, किया गृद्धकूट प्रस्थान ।
तथागत समीप जाकर
उसने किया सादर शिरसा नमन,
और प्रभु का
कुशलक्षेम पूछकर,
अपने आगमन का
उद्देश्य किया प्रगट ।
देखा प्रभु ने वर्षकार
को,
आतंककारी आयाचित
धूमकेतु को ।
केशर पराग बसी,
सुरभि, कब काँटों में पलती है ।
वह कोमल पंखुरियों
पर या मधु लिपटी रहती है ।
कुटिल कांटो भरा
वर्षकार ।
प्रभु ।
निर्मल शीतल
इंदु-प्रकाश ।
जानें क्या ।
यह घात कहाँ ।
आ पहुंची बात कहाँ
।
सरल निश्च्छल ह्रदय,
जानता नहीं अनय ।
पृष्ट भाग में खड़ा
आनन्द, कर रहा था प्रभु को व्यजन ।
प्रश्न किया-
आनन्द !
क्या वज्जिगन,
सन्निपात बहुल, होते हैं, नियमित एकत्रित ?
क्या करते हैं
ग्रहण गोष्ठियों की सूचना ?
परस्पर विचार
विमर्श कर, करते हैं, समस्यायों का समाधान ?
होते हैं एक साथ
सम्मलित ?
एकमत होते हैं
कार्यरत ?
यदि करते
संध-नायक, गुरुजन सामान ।
श्रोतव्य श्रवण
करते हैं ।
चैत्य अन्य पूजनीय
पूजन करते हैं ।
करते नहीं अन्य की
कुलवधुओं, वनिताओं का, बलात् हरण ।
कदापि नहीं संभव
उनका पतन ।
ये सात अपरिहारणीय
धर्म हैं ।
रहेगा, वज्जिसंध
जबतक इनपर दृढ़ अचल स्थापित ।
नहीं होगी अवनति ।
तन-मन-धन से, बाहर
भीतर से, रहे सुदृढ़ ।
नहीं कोई अनिष्ट
से वे पीड़ित होंगे ।
होंगे नहीं कोई
शत्रु से विजित विजड़ित ।
रखेंगे जबतक इन
नियमों का ध्यान,
रहेगी उनकी गति
ऊर्ध्वमुखी उत्थित ।
होगा सदैव कल्याण
।
सब सुनकर, शिरसा
नमन कर,
उठा, आसन से
वर्षकार ।
उठते-उठते अति
विनीत स्वर में,
भरकर प्रतिहिंसा
की ठसके, बोला सव्यंग-
निरंतर चलता
वैश्व-विधान ।
पड़ जाता है उसमें
भी व्यवधान ।
तिथियाँ भी, घटती बढ़ती
रहती है ।
रात्रि, कभी छोटी
और कभी बड़ी हो जाती है ।
मानव !
संसृति का एक
छुद्र उपादान ।
कहाँ चूँक जाता
है,
होता है, काल से
अनजान ।
एक नन्ही चीटी से,
मारा जाता है करभ विशाल ।
अज्ञात लघु छिद्र
से जल समाधि ले लेता है जलयान ।
फिर मानव !
तृष्णाओं का
मोहक-इंद्रजाल ।
मृग-मद-कस्तूरी वह
।
हरित मृणों को
लुब्ध,
देखता नहीं
प्रमादवश,
फैला कहाँ,
जीवंतिक जाल ।
पुनः कर शिरसा
नमन, किया उसने वर्हिगमन ।
महाअमात्य के जाते
ही, प्रभु ने किया, वज्जी-संध को आमंत्रित ।
पुनः सात
अपरिहारणीय नियमों की,
की, उनके सम्मुख
पुनरावृत्ति ।
वज्जी-संध को
सचेष्ट करते हुए कहा-
न रहना प्रमादवश ।
न रहना तृष्णाओं
से घिरकर ।
सदा गुरुजनों के
प्रति नमस्कृत, सयंत सुशील संवेदित मृदुभाषी,
संध से रहना
अनुशासित,
निज नायक के
प्रति, प्रतिबद्ध,
आगत-अनागत, के
प्रति स्मृतिवान,
कुलवधुओं का करना
सम्मान ।
होती रहेगी सौख्य
समृद्धि में वृद्धि,
प्राप्त करोगे
अभ्युत्थान ।
लौटे वज्जिगण ।
इनसे ही पूर्व
लौटा था वर्षकार ।
गया वह, अजातशत्रु
के सम्मुख ।
जो बात हुई,
प्रतिक्रया हुई, कहा सब अक्षरशः, विधिवत ।
सब सुनकर बोला,
वैदेही-पुत्र - अहो !
वज्जिगण-तंत्र
संघटन-अदभुत ।
शत्रु, जब हो
बलवान ।
न करो सम्मुख
प्रत्यक्ष युद्ध-आह्वान ।
उनके घर में डालो
भेद ।
जहां हो दुर्बल
प्राचीर, वहीँ पर मारो सेंध ।
अन्यथा, अपनाओं
विभीषण नीति ।
हँसा कुटिल हंसी
वर्षकार –
है सभी समस्याओं
का प्रतिकार ।
राजन ! कल
राज-परिषद में, आप वज्जिओं की बात उठायें ।
कहें वे गंगातट की
भूमि का लेते हैं अनाधिकार मेरे शुल्क ।
पर्वतीय बहुमूल्य
वस्तुओं को, प्रथम ही कर हस्तगत, करते हैं विक्रय ।
मेरे प्राप्य, का
सब प्रकार से करते हैं अपहरण ।
यह अन्याय नहीं
सहूंगा मैं ।
तब मैं, वज्जियों
का करूँगा पूर्ण समर्थन ।
आप क्रुद्ध होकर
कहेंगे ।
यह ब्राह्मण है ।
अत्यन्त अकृतज्ञ
अपकारी ।
मैं यह सुनते ही
परिषद से बर्हिगमन करूँगा ।
उसी दिवस, वज्जिओं
को बहुमूल्य पर्णकार उपहार करूँगा, प्रेषित ।
उसे आप करेंगे
अधिकृत,
और अपमानित कर
मुझे, देश निकाला देंगे ।
सुनियोजित मेरा यह
कार्यक्रम ।
निश्चय ही वैशाली
होगी,
मगध के चरणों में
नत प्रणत,
अनायास बिना श्रम
।
अजातशत्रु ने किया
यथावत, जो वर्षकार ने कहा ।
अपमानित वर्षकार,
जब निष्कासित हुआ मगध से,
उसकी अपमान कथा की
चर्चा, फ़ैली सर्वत्र,
तड़ित वेग से । बात
पहुँची वज्जी संघ तक ।
उन्होंने अपने
सन्यागार में किया लिच्छवियों को एकत्रित ।
आह ! कितना क्रूर
अजातशत्रु ।
निज पिता बिम्बसार
को भी, यंत्रणा दे देकर, कारागार में मारा जीवित ।
अब यह, ब्राह्मण अमात्य !
किस प्रकार किया
तिरस्कृत अपमानित, लांक्षित ।
अभियोगों पर
मिथ्या अभियोगों का आरोपण ।
पदः-स्खलन ।
निष्कासन ।
केवल इस हेतु कि,
वज्जिसंघ का किया उसने समर्थन ।
वह ।
सम्प्रति है उस
पार गंगा तट के,
है यहाँ प्रवेश
पाने को उत्सुक ।
सादर उसको हम सब
लायेंगे ।
किन्तु, यह सब
सुनकर,
किया उसमें से
किसी एक ने प्रतिवाद ।
वह, मगध-साम्राज्य
का महामात्य, वर्षकार ।
मायावी है
दुर्निवार ।
निज उद्देश्य
सिद्धि निमित्त, कितना नीचे जाएगा ।
जड़ में पैठ, छल
बाल माया प्रपंच, सब विधियों को अपनाएगा ।
विश्वास करो मत ।
मोहक होता है,
स्वर्ण चर्म का विषधर ।
कब, अमृत हो पाया,
इन्द्रयाण मारक विषफल ।
यह, ऊपर की बातें
हैं ।
इनमें कहीं छिपी
प्राणान्तक घातें हैं ।
शत्रु कभी नहीं
झुकता है ।
नमित होकर ही
कंटक, पैरों में चुभता है ।
वह, महोषधि भैषज
कहकर,
उर्वरा उर्वी हरी
भरी निरख,
उसमें विष बीज वमन
करता है ।
यदि प्राप्त नहीं
होती राह ।
वह, पडोसी राज्यों
से मिलकर दुरुभिसंधि करता है ।
निज शत्रु को
मित्र बनाकर,
अवसर पाकर, बुरी
जगह पटकता है ।
घर में घुस पैठकर,
समस्त गतिविधियों को,
भलीभांति जानकार
अवगाहन कर,
वह, निज रणनीति
बनाता है ।
न करें ।वर्षकार
का विश्वास ।
वह, विषकन्या
नहीं, विष पुरुष,
अप्लावित अकाट्य
विषः संभूत गोधुम कृष्ण नाग है ।
निदान राहित है
इसका विष ।
अदभुत इसकी सूझबूझ
।
वह मारक अस्त्र
अचूक ।
किसी अन्य ने
उठकर, किया इन बातों का विरोध ।
यह वर्षकार,
प्रकांड विद्वान, सब भांति सक्षम ।
यदि यह विशाल
मस्तिष्क, वज्जीगण पा जाएँ ।
किस प्रकार सुदृढ़
सशक्त होकर,
निज साम्राज्य का
विस्तार बढ़ायें ।
यह सिद्ध होगा,
अमोघ आयुध ।
अत्यंत विचक्षण
प्रबुद्द्ध ।
पुनः उठा प्रतिवाद
।
यह सत्य कथन
निर्विवाद ।
किन्तु एक ही औषधि
से होता नहीं सर्व रोगों का उपचार ।
“दुर्जनः
प्रियवादी च नेतु विश्वास कारणम् ।
मधु तिष्ठति
जिह्वाग्रे ह्रदय तु हलाहलम् । ।”
किन्तु भवितव्यता
।
विनाश काले विपरीत
बुद्धि ।
इतनी चैतन्य
सुसंस्कृत वैशाली ।
आज अकारण, जा रही,
नियति से छली ।
कहा किसी ने-
जो, मगध के उच्च पद
पर प्रतिष्ठित ।
होगा क्यों, उसके
शत्रु पक्ष से संवेदित ।
समर्थनों
असमर्थनों के मध्य, हुआ वर्षकार का वैशाली आगमन ।
पुनः वज्जी परिषद
हुई आमंत्रित ।
वर्षकार से प्रश्न
हुआ ।
किस हेतु हुए वे
निष्काषित ।
वर्षकार ने, पुनः
सब बातें जो हुई घटित, दुहराई ।
सब सुनकर, हुए
स्तंभित वज्जिगण ।
यह बात, इतनी तुच्छ,
इतनी नगण्य ।
और दण्ड, इतना
भारी ।
सत्य ही, मगध राज,
है नृशंस दम्भी अत्याचारी ।
हो उठे सब भावाकुल
।
परम अनुभवी
मेधावी, यशस्वी, वर्षकार ब्राह्मण,
था, महाअमात्य,
मगध का ।
वैशाली ने भी उसे,
भावावेश में,
महामात्य का स्थान
दिया ।
कहा वज्जिसंघ ने-
ब्राह्मण !
आप यहाँ सब प्रकार
प्रतिष्ठित समादृत, स्थापित ।
वर्षकार ।
प्रथम वर्ष, रहा
शान्त मौन ।
करता रहा निष्ठा
से सब कार्य निष्पादन ।
वह, अति
प्रभावशाली वक्ता ।
सब विषयों का निष्णात
पंडित,
गहन मग्नशील,
नीर-क्षीर विवेकी ।
निष्पक्ष
न्यायकर्ता, राजकुल राजपुत्रों का गुरू ।
सब मुक्त कंठ से
करते उसकी प्रशंसा ।
किन्तु अवसर पाकर,
शान्त पड़े तक्षक
ने, धीरे-धीरे शीश उठाया ।
विष वमन करने
हेतु, अपना, विषधर फण फैलाया ।
विश्वासों की धरा
पर, अपना पैर सबल जमाया ।
धीरे-धीरे वह
भीनता विष, अपना रंग ले आया ।
जो कहता, जैसा भी
कहता, वर्षकार ।
वह वेदवाक्य ।
जो करता वर्षकार ।
वह न्यायसंगत
अकाट्य ।
देख लिया वर्षकार
ने,
उसकी मोहिनी माया
की छाया में,
वज्जिसंघ घुटनों
के बल आया ।
हुए व्यतीत इसी प्रकार,
वर्ष पर वर्ष
निर्विघ्न सब प्रकार ।
तृतीय वर्ष ।
वह लगा घूमने
वैशाली में घर बाहर ।
जो भी देखता उसे,
संभाषण करता सादर ।
कभी किसी से बातें
कराता,
कभी किसी को कुछ
कहता ।
कभी अत्यंत छोटी
नगण्य बातों में,
गाम्भीर्य का नाटक
रचता ।
विद्वेष, शंका, विश्रीन्खलन
के, परस्पर बीज वपन करता ।
वज्जिगण,
धीरे-धीरे एक दूसरे से सशंकित
रहने लगे सब, अपने
में सीमित ।
नहीं संघ की बैठक
होती, नहीं चैत्यों में जाते ।
मिल जाता कोई
सुहृद, आँख बचाकर कतराते ।
नहीं होते किसी के
सुख दुःख में, परस्पर सम्मिलित ।
विस्मृत गुरुजनों
का सम्मान, नहीं परस्पर आदान-प्रदान ।
हो गए, एक दूसरे
के चेहरे सर्वदा अपरिचित अनजान ।
सबमें, केवल अपना
स्वार्थ निहित ।
भग्न सब नियम ।
व्यापक हो गयी
अनुशासनहीनता ।
किसी का घर, जले
या बचा रहे ।
दूसरा क्यों वह
ताप सहे ।
एक दिवस, मंत्रणा
निमित्त बजी वज्जिसंघ की दुन्दुभी ।
सुनकर, किया,
अनसुना सबने ।
कोई संघागार में
एकत्रित हुआ नहीं ।
शून्य पड़ा संघागार
।
नहीं किसी को,
वज्जी गणतंत्र की परवाह ।
यह, वही वैशाली थी
।
राज महिषी,
सौंदर्य सम्राज्ञी ।
जिसकी अभ्यर्थना
में सन्नद्ध,
स्पृह सहस्र शत
सप्त, प्रासाद, हर्म्य,
नत प्रणत लेकर
स्वर्ण कलश ।
इसी प्रकार
द्विगुणित रजत कलश, त्रिगुणित ताम्र कलश ।
नित्य अप्लावित,
करते थे अभिसिंचित मन्त्र-पूत-जल-निसृत-अभिषेक ।
गरिमा, सुषमा,
अतिरेक । आम्रपादप । अर्णवन । सुरम्य वन उपवन ।
कैकी कलरव ।
खग कूल कुंजन
मधुरव ।
चित्र विचित्र कंज
खचित मुदित तड़ाग ।
सर्वत्र वसुधा
सुरभित बहुरंगी पुष्प-पल्लव लसित ।
अहर्निशी मंजीरित
प्रक्वणित वीणा ।
नर्तित नवंगना
नृत्यांगना ।
सुमधुर गायन
मनः-रंजन स्वर लहरी,
ज्यों प्रफुलल्लित
आनंदित तरंगित अमृत-तरगिणी ।
वैशाली अनुदरा
लावण्यप्रभा ।
स्वर्णिम दामिनी,
गजगामिनी ।
केहरी कटि, कलश,
भार अवश ।
छलकी गगरी, रुनझुन
तगड़ी ।
सिक्त वक्ष-पट्ट
शिंजिनी रही अटक ।
मेखला, भार बनी,
लहरित दोलित क्षीण कटी ।
वैशाली रूप
गर्विता ।
आज वाह निरीह
निर्गता ।
निरख रहा उसे
क्रूर वर्षकार ।
फुन्कारित विष
व्याल ।
जिस प्रकार,
सद्दः-अभिसिंचित शमित,
चिता की अर्ध्जलित
काष्ठ समिधाओं पर,
पक्षों को संतुलित
करता,
पंजों को काष्ठ
में धसांता, बैठता,
अनुभवी प्रौढ़
गृद्ध,
डालता है, सर्वत्र
विहंगम, किन्तु तीक्ष्ण दृष्टि ।
सद्दः उतर रही थी
वैशाली की श्यामल क्लान्त आर्द संध्या ।
शान्त खड़े थे
वृक्ष,
तरु शिखाओं पर से
भी हो रही थी विलीन अर्क-प्रभा ।
ऐसे ही, खुले
अनखुले क्षणों में, वर्षकार,
कर रहा था हृदयंग
वैशाली को सब प्रकार ।
वह, वैशाली के वन,
उपवन, प्रासाद, हर्म्य,
शाखा, प्रशाखा,
बाजार, हाट, नगरों में, ग्राम्यों में, चैत्यों में,
विचरण कर रहा था
सर्वत्र ।
देखा, गरिमा का
प्रखर, प्रकर्ष प्रचंड मार्तंड ।
विकीर्णित
जाज्वलमान ज्योति-प्रभा अखंड ।
आज, निष्प्रभ
निस्पंद ।
राहु ग्रस्त ।
पूर्णतः
विश्रीन्खिलित अस्त-व्यस्त ।
वैशाली की अप्रतिम
लावण्य-प्रभ, राज्यश्री ।
सुअलंकृता गुण
सौष्ठव, सौंदर्य स्वाभिमान गर्विता ।
कमनीय सरस रसवंती
तरुणी जाह्नवी ।
पड़ी, श्लथ क्लान्त
धरा पर ।
पुष्प भार हार
टूटे बिखरे ।
भग्न केयूर,
भुजबंध, भूलुंठित किरीट, कटी मेखला ।
बिखरे अराल अपाद
कृष्ण केश ।
ह्रदय विदग्ध पीड़ा
अशेष ।
नील-नलिन-अर्ध-निमीलित,
अजस्र अश्रु स्रावित, कम्पित पद्मप्लाक्ष, स्नात,
विगत स्मृति
स्वर्णिम स्वर्ण विहान-साक्ष्य,
भग्न स्वप्न सहस्र
पत्र । विगलित संतरित सिक्त पात-पात ।
आँखें । मौन ।
स्वप्न जडित
स्मृति समाधि ।
उच्छ्वासित व्यथित
टूटती, ऊर्ध्व स्वांस निःश्वांस ।
आन्दोलित वक्ष,
मृणाल मसृण बाहुलता असमर्थ ।
उच्छ्वास
व्यतिक्रम अप्रतिहत ।
मुखारविंद, विषण्ण
उन्मन ।
चित्रित पत्रभंग
विवर्ण विकृत गहन पवन ।
अवरुद्ध स्वांस ।
विकल तब-मन ।
शातोदारी, सब
प्रकार विपन्न ।
कुटिल निर्मम
ह्रास ।
हँसा वर्षकार ।
कहाँ आज ।
वैशाली का
वैभव-विलास-साज ।
कहाँ वह, मदमत्त ऊर्ज्वसित
यौवन लावण्य-प्रभ प्रकाश ।
कहाँ
पुष्पकरिणियों, दीर्घकाओं, बावलियों, तड़ागों में, कंज खचित सरोवरों में,
युवक युवतियां,
जल-क्रीड़ा-प्रमत्त ।
अब, बज रहे कहाँ,
वीणा, वेणु, परिवाद्नी, प्रणव, मृदंग ।
कहाँ मद पी
मदिरालय, रंगिणियों का नर्त्तन ।
कहाँ, यौवन आनंद
रस आप्लावित आँखों का, मधु वर्षण ।
हो गए, शान्त ।
जावक-रचित
काम-विमोहित-पञ्चपुष्प-अनुस्यूत-शिंजिनी-विलसित,
लास-चपल-नृत्तित-चरण
। नीलंजसा-नील-राजित विभ्रमित नील नयन,
मदः-नवोंमेषिता,
नवागनाएं नृत्यांगनाएं ।
विसुध विक्षिप्त,
डस गयी, कूटनीति
सर्पणी विषः-विदग्ध,
टूटे इनके अंग-अंग
।
कहाँ इनमें, मयंक
मनसिज उत्थित सुधा-रस-तरंग ।
वैमनस्य, विद्वेष,
गृह-कलह,
अचूक, मारक गरल ।
भीन जाता, रोम रोम
अन्तर-हृद-तल ।
उतरे, धनवंतरि भी,
अप्राप्त औषधि ।
अनिवार्य मृत्यु ।
अब भी, कम्पित
तृषाकूल शुष्क अधर ।
पर कहाँ शुद्ध
शीतल जल ।
हो चुकी निःशेष,
जीवन संजीवनी शतहृदा ।
अब केवल अभिशापों
से ज्वलित, कम्पित धुतांग वैशाली काम्य धरा ।
देखा, वर्षकार ने
अनिमेष ।
हो चुका,
ज्ञान-प्रभा, अध्यात्म-चेतना, संस्कार, निःशेष ।
परम आनंदित,
वर्षकार ।
ली उसने, परम
संतुष्टि की सांस ।
हो किस
प्रकार,क्षत-विक्षत यह शव ।
कैसे अधिकृत हो
इसका अपार वैभव ।
मृत यह ।
शेष अब, तांडव,
विप्लव ।
वर्षकार ने,
कस्तूरी वश करने निमित्त, बीन मधुर अलापा ।
हो उठा मुग्ध वन्य
प्रांत ।
विमुग्ध मृग स्वयं
बढ़कर उसने निज को मृत्यु-जाल में बाँधा ।
राजनीति,
श्मशान-प्रज्वलित-चिता
पर, आवाह्नीय, जागृत अघोर मन्त्र ।
केवल इसमें
षड्यंत्र-तंत्र ।
यह बबूल का
कंटकाकीर्ण अरण्य,
कांटे ही चुभते
हैं, कांटे ही झरते हैं ।
कांटे ही बिछे,
सर्वत्र रहते हैं ।
नहीं यह, रसाल का
मंजरित सुरभित पल्लव प्रच्छायित, शीतल मधुवन ।
जहां, गुल्मों के
अंतराल में शयित विभ्रमित कुंजित,
प्रतीक्षाकुल,
किंकर, किंकिरात, कावृत, कैकी, खग-कूल-कूजन ।
गंध-अंध-किंजल्क-वन
। षट्पद मधुकर गुंजन ।
सात्विकता-रसः-आस्वादन
।
यहाँ, ध्वांत आकाश
तले,
राजनीति, कूटनीति,
के शमशान में,
जहां, आदर्शों की
जली चिता,
पड़े शव, जले अधजले
।
ध्वस्त महत्
विचार-प्रासाद,
निर्वाणित शान्त
प्रकाश-आवास ।
निष्ठाओं की मरघट
पर,
अशुभ आतंकित करती
कूटनीतिज्ञों की उलुक ध्वनि ।
कम्पित अवनि ।
यह
राजनीति !
शापग्रस्ता
पतिता कर्मनाशा प्रवाहिता सरिता ।
सब
पुण्यों का होता है तर्पण ।
दैवत्व
यहाँ पतित स्नात,
असुरत्व
ऊपर आता है ।
मानवता
की पूर्णतः विनाश-यज्ञ में आहूति देकर,
राजनीतिज्ञ,
प्रतिष्ठित होता है ।
उनका
ह्रदय ।
कहते
जिसे, विश्व-प्रेम-निलय ।
अखंड-ऐक्य
का वह सागर ।
उस
अन्तर, श्याम-पटल में, विषः-अक्षर-भास्वर होते हैं ।
उनका
ह्रदय । वह, विषाक्त खिला पुष्प ।
जिससे,
मधुर ध्वनि सुगंध निसृत ।
जीव,
बरबस आता मंत्रमुग्ध खिंच,
उन्हें
भक्षण कर, ये पटल बंद होते हैं ।
बजाते
ये, विषःपूत विनाशी बीन ।
रख
छद्मवेशी वेश ।
इनके स्वर,
लय-गति-ताल-निबद्ध ।
अस्त्र-शस्त्र,
कूटनीति, विद्रोह, विस्फोटक, इसके सरगम ।
यह
तंतुवय अप्रतिम ।
अपने
सुनियोजित ताने बाने पर,
मनः-वांक्षित
आकृति उकेरता है ।
हो जाते
इनकी क्षणिक भृकुटि विलास से,
वक्र
दृष्टि से,
विशाल
साम्राज्य, संस्कृति, कला, स्थापत्य विनष्ट ।
यह वह जल प्लावन,
क्षण में जिसे
चाहे करे उदरस्थ ।
समय के संग
परिवर्तित, इसके नानाविधि रूप, अनेक ।
प्रथम बनता था, यह
विषकन्या ।
मृत्यु,
सूपकार,मालाकार, सुहृद रूपजीवा, नर्त्तक या नर्त्तकी ।
अब, इसमें,
विष-बेल, और भी मारक होकर, फ़ैली, ऊपर चढ़ी ।
अब, इनकी,कूटनीति,
करती है सीधा वार ।
वह, विषकन्या,
विष-पुरुष नहीं,
अत्यंत, अचूक
मारक, मानव-विस्फोटक, नर या नारी बनती है ।
मधुर स्मितों से,
परीक्षित का तक्षक
अन्तरनिहित,
पुष्पहार, समर्पित
करती है ।
अमोघ वार,
प्राणान्तक बनती है ।
यह है, चिर नवीन ।
मानवता शीर्षस्थ, रोली ।
खेल रही प्राणों
की होली ।
सिद्धहस्त खिलाड़ी
।
वर्षकार ।
विषः-प्रमत्त । कर
रहा विषाक्त फुंकार ।
यह, वह, वैद्य ।
जो, जीवन का नहीं
।
मृत्यु का रक्षक
था ।
उसने, परीक्षण
निमित्त की अब भी खोज ।
कुछ भी, सतर्कता,
चेतना है, वैशाली में शेष ।
या, सबकुछ सर्वथा
हो गया निःशेष ।
उसने पुनः राज्य
की ओर से दुन्दुभी का करवाया उद्घोष ।
किन्तु, बजती रही
दुन्दुभी ।
रहे, अनावृत
संघागार-द्वार ।
न कोई आया, न
बैठा, न एकत्रित हुआ ।
न किसी ने कुछ
पूछा ।
न किसी ने कुछ कहा
।
जैसा था जो जिस
प्रकार, रहा, उसी भांति नीरूद्विग्न, निर्विकार ।
देखा वर्षकार ने ।
व्याप्त कर गया
नित्यशः का प्रदत्त विष वैशाली के तन मन में ।
नहीं स्वाभिमान ।
नहीं अभिउत्थान ।
नहीं उत्साह, इनके
जीवन में ।
ये, अवरोहित
अधिरोहित अपने ही निसंग, अंध सूनेपन में ।
घूम रहे
प्रेतात्मा सरिस ध्वस्त हर्म्य सन्निवेश में ।
किसी प्रकार भी उठ
पाने में, ये नहीं रहे सक्षम ।
यही, उचित अवसर
है, हो आक्रमण इनपर अविलम्ब ।
वर्षकार ने तुरंत
की प्रेषित, अजातशत्रु को सूचना ।
बजे, मगध में
रणभेरी ।
सैन्य एकत्रित कर
मगधराज ने किया, वैशाली की ओर प्रयाण ।
मूर्मुश पड़ी
वैशाली ।
पुनः हुआ आह्वान ।
हो किसी प्रकार
वैशाली पुनः जीवित ।
रखे हुए आयुध
अस्त्र-शस्त्र, हो उठे झंकृत ।
किन्तु, वैशाली की
काया ।
विगत गौरव वैभव
की, ध्वस्त स्वप्नों की, श्यामल छाया ।
नहीं उत्साह, नहीं
शोक ।
निस्पंद पड़ा,
वैशाली निर्मोक ।
वैशाली में चढता
चला आ रहा था अजातशत्रु बेरोक ।
कहा शासनकर्ताओं
ने,
शत्रुओं को गंगा
पार नहीं उतरने देंगे ।
एकत्रित हो,
लिच्छवी-गण, शत्रु से जमकर लोहा लेंगे ।
किन्तु वैशाली उदासीन
।
कुछ भी हो, वैशाली
का,
क्यों हो हम हम
उद्विग्न त्रस्त आभाक्षीण ।
हुई घोषणा ।
शत्रु सन्निकट है
।
वह वैशाली की
सीमा, कर गया अतिक्रमण ।
अब भी, चेतो
वैशाली-गण ।
नगर द्वार कर लो
बंद ।
ग्रहण करो अविलम्ब
शस्त्र,
वैशाली है दीन
त्रस्त ।
बजती रही
दुन्दुभी, रणभेरी ।
चतुर्दिक निनादित,
चतुरंगिणी सेना गगन-घर्षित ।
चिंगाढ़ रहे सज्जित
हस्ति ।
हिनहिना रहे अश्व
।
करवालो तलवार की
टकराहट,
आक्रांत धरा, धूल धूसरित
अश्व पदाघातों से,
मगध सैन्य अति
प्रबल अप्रतिहत प्रवाह,
क्षण में तोडेगा
वैशाली द्वार ।
चढ आया शत्रु, शीश
पर ।
फिर भी वैशाली
बेखबर ।
मिला खुला, अनाकृत
वैशाली द्वार,
हुआ वैशाली पर
निर्मम प्रहार ।
निहत्थे बच्चे,
बाल, अबाल, वृद्ध ।
टूट पड़ी, उनपर
सेना क्रुद्ध ।
आह, कराह, रक्त
प्रवाह, वैशाली धूल धूसरित लोहित ।
नष्ट हुए हर्म्य,
चैत्य, प्रासाद ।
बहे रक्त की लोहित
धारा ।
निराभरण, विवर्ण,
हतप्रभ क्षत विक्षत, वैशाली को,
बंदिनी कर वहाँ
उतारा ।
देखा, वैशाली ने,
अश्रुपूरित दृष्टि घुमाकर सर्वत्र ।
जिस प्रकार
रक्षार्थ, जननी निरखती,
निज आत्मज, स्वजन,
बांधव, सुहृद, कलत्र ।
देखा, उपालंभ
क्षोभ दुःख से,
निज निश्चेष्ट
कुपुत्रों को ।
जिनके निमित्त
उसने धन-मन-तन-जन वारा ।
निस्सहाय, त्रस्त,
विकल, आकुल, आर्त, उन्हें, बार-बार पुकारा ।
किन्तु, कहाँ से
लहरें लेता उष्ण रक्त ।
जब हो गया वह,
शीतल सफ़ेद जल ।
माँ ने, अपमानित,
पीड़ित, लज्जित निज शीश झुकाया ।
ध्वस्त स्वाभिमान
।
निष्प्रभ,मुखः-प्रभा,
म्लान ।
जीवित ही निज को
संज्ञाशून्य अवसन्न मृतवत् पाया ।
आनत मुख, नत पलकों
में, अजस्र अबाध जल लहराया ।
ज्योतित प्रखर
अध्यात्म-आत्म प्रकाश स्तंभ ।
गौरव-कीर्तिमान ।
भूलुंठित,
निरालम्ब । वैशाली,
आसन्न मृतप्राय,
निस्पंद, निश्चेष्ट, निष्प्राण ।
अर्धनिमीलित अचेतन
आँखों के अंतरिक्ष में,
डूब रहा था, यशः-सांध्य—दिनमान
।
था मर्मान्तक
अवसान ।
क्षुधातुर
निर्लज्ज क्रूर प्रेतात्मा सरिस
घूम रहे थे वैभव
के शमशान में,
धन लोलुप गर्हित,
नृशंस,
दो श्रृगाल ।
फैलाया था
जिन्होंने,
दुरुभि-संधियों का
निर्मम जाल ।
दुखांत नाटक का,
सूत्रधार ।
वर्षकार ।
नायक, जिसका
मगधराज ।
गूँज उठा, गरिमा
के ध्वस्त, सूने, खंडहर में,
दोनों का,
निर्मम अट्टहास ।
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