Wednesday, 12 December 2012

सर्ग : २५ - कृषा गौतमी



शोक संतप्त विक्षिप्त मति-भ्रमिता.
कुंद कुंद सम आनन.
हतप्रभ बज्राहत कमलदल कानन.
लावण्यमयी कोमल मृदुल, नवल, लतिका, तरुण तन्वी.
सुविन्यसत सौष्ठव संभारित देह-यष्टि,
हो रही विकल, वेदना-विदग्ध.
अग्नि वृष्टि.
विह्वल पल न कल.
विक्षिप्त सशंकित भयभीत.
बिखरे लम्बे रुक्ष केश.
मुख रक्तहीन विवर्ण
अति दीन,खचित विरल रेखाएं
आहत पीड़ा की, अशेष.
भूलुंठित उत्तरीय, आंदोलित वृक्ष-पट्ट अश्रु-सिक्त.
आंधी के झोंकों सी कम्पित उद्वेलित,
लम्बी पतली उज्जवल बाहों में,
टूटे सपनों सा,
भग्न खिलौने सा,
ह्रदय लगा एकमात्र मृत सुत.
फटी-फटी आकर्णमूल विस्फारित, आयत आँखें.
ज्यों शल्य विद्ध कुररी की, तडपती चंचल पीड़ित पांखें.
हो जाती थी मनः-वेग से चंचल
अथवा, क्षण भर को शांत.
उमड़ रहे थे अश्रु छल-छल कर, अबाध.
नहीं था ज्ञान.
नहीं था मन.
पथ, जिसपर चल रही,
वह भी था, जाना या अनजान.
निरुद्देश्य.
व्यथा-सन्निवेश.
किधर जा रही किसके पास.
कभी राजपथ, कभी विजन-वन वीथी.
कभी किसी के द्वार.
लेकर टूटी साँसें अविरल अश्रुधार.
यदि किसी को भी निरखती समीप.
व्यथा विकल उठती चीख.
मत छूना मेरे ह्रदय-धन को.
मेरी जन्म-जन्म की संचित निधि को,
सुला रही अपने अरमानों को, मेरी कातर निरीह धड़कन.
उसपर दया कर
उन्मत्त, दशा निरख कर,
कहा किसी ने,
श्रावस्ती में प्रभु आयें हैं.
वे दया के सागर, करुणाकर,
निश्चय तेरी व्यथा हरेंगे.
हो जिस प्रकार भी तू शांत.
वे परम उदार,
करेंगे तेरा उपकार.
विश्व-वेदना-धडकनों से संवेदित,
संसृति, विकृति, निष्कृति के
ज्ञान अभिज्ञान के गूढ़, रहस्यों से परिचित,
सम्यक सम्बुद्ध.
सत्-चित्-आनंद-अम्बुध.
निश्चय ही भलीभांति लेंगे तेरी सुध.
गौतमी निःशब्द मौन रही सुनती,
हो उठी चमत्कृत आपाद कम्पित.
टूटी जड़ीभूत मूर्च्छना.
हो उठी करुणा विगलित, निश्चेष्ट चेतना.
फूटे बोल, अस्फुट टूटे-टूटे, बिखरे-बिखरे, आकुल, रुदन भरे,
अश्रुसिक्त भींगे-भींगे. उसमें मर्मान्तक पीड़ा की झंकार.
ज्यों विश्रृंखलित वीणा के तार.
सुप्त चेतना व्यथा भाराक्रांत,
वात्याचक्र वर्त्तुल काट रहा.
वह.
करुणाद्र प्रतिमा.
कराह उठी.
ज्यों मौन उपेक्षित ध्वस्त समाधियों को आहत करती
हिम-खचित शीत बयार उठी.
कुछ हांफती अपने में ही कुछ बड़- बड़ करती हौले से बोली-
कहाँ मिलेंगे वे परम पुनीत, जगवन्दित.
आर्त जनों के सुहृद मीत.
कहाँ हैं वे श्यामल शीतल स्वाति-घन.
करुणा के सागर. सत्-चित्-आनंद.
कहा उससे उस जन ने-
जा. जा. शीघ्र जा.
अनाथपिण्डक के स्वर्ण चूर्ण विकीर्णित जेतवन में.
प्राप्त हुआ जैसा संकेत,
भरकर तन मन में अतुलित वेग, 
वह झपटी आंधी सी जेतवन की ओर.
उड़ रहे, भाल पर रुक्ष केश,
ललाट पर चिंता की रेखाएं, अशेष.
ज्यों उजड़ कर बिखर गया हो खाकर तीव्र झोंका,
किसी सजे नीड़ का सब तिनका.
भावावेशाकांत, उद्वेलित, आंदोलित वक्ष घोर,
क्षीण बाहुओं में मृत सुत,
वह थी, अग्रसर जेतवन की ओर.
मन ही मन चिंतन निरत.
आह भरेंगे प्रभु मेरे समस्त पीड़ित क्षत.
जिनके स्मरण मात्र से, अलौकिक तेज प्रताप से,
महकम्पित नरेश के अश्व,
बिना भींगे, पार हो गए लहरों पर टाप रखते.
नदी गंगा, अर्वच्छा, नीलवाहक, चन्द्र भागा.
मात्र दृष्टि विक्षेप से,
त्वरित भरे जानु के गहन लोहित क्षत,
किसी कोमलांगी प्रभु अनुरागिनी सुंदरी के.
जिनके शिष्यों में इतनी क्षमता.
उनके स्पर्श मात्र से,
विशाखा के पिता पूर्ण का समस्त कृषि-क्षेत्र,
हो गया स्वर्ण मदमाता.
वे सर्व आर्त हरिहरण कर्ता,
अगम्य अपार उनकी ममता.
किसी तरुणी के घुंघराले अराल अपाद केश,
जो भिक्षा हेतु हुए विक्रीत.
वे पुनः उसके शीश पर उसी प्रकार बने सौन्दर्य-सन्निवेश-किरीट.
उन्होंने,
जेतवन विहार के पश्चिमोत्तर चक्षुकरणी वन में,
निज अभिमंत्रित मन्त्र-शक्ति से, देशनाओं से,
अर्ध-सहस्र दृष्टिविहीनों को दिया दृष्टि-दान.
उनके अंतरवर्हि अन्धकार का, सर्वांग किया निदान.
त्वरित किया उद्धार सभी प्रकार.
वे प्रेम-पारावार. महामहिम अपार.
निश्चय ही करेंगे, मेरा भी निस्तार.
इस, निर्वाणित प्राण ज्योति को, संजीवित करेंगे,
निश्चय ही, वे दिव्य विभूति.
जिस प्रकार, प्रसन्न, जेतवन चक्षुकरणी तडाग वे अंध दीन.
होंगे, वैसे ही, मेरे भी कष्ट सत्वर क्षीण.
परम करुणामय, दया निधान.
अवश्य देंगे मेरे सुत को प्राण-दान.
निश्चय ही, मेरे सुत को वे जीवित कर देंगे.
मृत्यु,
जला गयी ममता का, यह हरित पल्लवित पुष्पित सुरभित, मधुवन.
उसे, वह पुनः हरा भरा लहलहाता कर देंगे.
उस छोटी सी प्यारी धड़कन को,
जो धुक-धुक करती अभी थमी है.
उसे वे वैसी ही, संजीवित, संवेदित, संचालित कर देंगे.
ये बंद हुई, क्लांत पलकें, सहसा खुलकर, चमत्कृत सी मुझे देखेंगी.
एक स्नेह और आश्वस्ति की,प्रत्युत्तरित, दोनों में प्रतिछाया होगी.
पतझारों के झंझारों के अंतराल में,
आतप-तपित-भयभीत-श्रांत-छिपी कैकी,
नील नीरद सघन घन निरख पुलक कर, पुनः बोलेगी.
अंतर-मंथन चिन्तन उद्वेलन में,
गुनती सोचती पंहुची गौतमी.
जेतवन में, प्रभु के समीप.
जला, चरण तल, दो आप्लावित अश्रु दीप.
हरित तुहिन खचित मसृण दूर्वादल पर,
प्रभु के चरणों के नीचे,
हौले से उसने रखा निज शिशु को.
शिरसा प्रणाम कर वह सिसक उठी,
क्षण अपलक देखा प्रभु को.
था वन प्रांत मौन सघन.
उसमें अप्रत्याशित यह ह्रदय-विदारक, करुण रुदन.
हो उठी प्रकृति की निसंगता निःस्वन.
प्रभु ने देखा.
हिमपात प्रताड़ित छिन्न भिन्न भूलुंठित नवल हरित वल्लरी.
निज तप्त मनः-प्रांगण में, विसुध विक्षिप्त गिरी.
अंतर आकाश, अशांत प्रताड़ित.
रिसती अनवरत वेदना, आँखें, अश्रु-आप्लावित.
वे आरक्त क्लांत करुणा विगलित कुवलय.
हो गया हटात् निदय.
वह बनी.
अवर्ण्य व्यथा की, अनछुई अपरिचित,
एक चिर नवीन मारक परिभाषा.
आँखों के नैराश्य जलधि में, कौंध रही पागल सी आहत आशा.
मूक अनुत्तरित अनगनत प्रश्न.
गिर रहे नील-नयन-क्षितिज पर, ज्वलित उल्का बन.
अबोल बोल अस्फुट अरूप, खोज रहे स्वर परिधान.
शरीर सम्पूर्ण एक प्रश्न बना.
प्रत्याशी, समाधान निदान.
कम्पित थर थर शुष्क फटे अधर.
निज, उद्वेलित प्रस्फुटित अस्फुट स्वर संघातों, से आहत,
कुछ भी कह लेने को तड़प रहे थे.
उसे निरख, देखना समझना शेष नहीं था.
गौतमी ने तथागत को देखा,
फिर निज स्मृत आत्मज को अवलेखा.
पीड़ा का समस्त सारभूत निचोड़,
मर्मान्तक स्वर में फूट पडा – “प्रभु .”
स्पर्श कर मेरे सुत को, मेरी व्यथा हरण करें.
हे करुणा निधान.
अशरण-शरण.
इस असह्य विषम व्यथा को.
श्री चरणों में ग्रहण करें.
तव स्पर्श से,
शूल बन जाते फूल, कंचन हो जाता मृण,
पगतल की भी, कुचली जाती धूल.
आप.
बीतराग.
तथागत.
इह जीवन के शास्ता.
समस्त स्प्रिहाओं से निवृत्त,
अलौकिक अपूर्व अद्भूत.
अर्हत.
मेरी अत्यंत विनम्र आर्त प्रार्थना.
यही मेरी संचित पूँजी.
मेरी निःसंग तपः-साधना.
प्रभु.
कौन नहीं जानता.
आप दया के सागर,
ममता स्नेह वात्सल्यता के आगर.
नहीं, किसी को पीड़ा दे सकते.
सत्या अहिंसा के अनुरागी.
समस्त ऐषणायों के त्यागी.
जग की पीड़ा करने हरण,
समस्त क्लेशों को सहर्ष किया वरण.
आई हूँ. तव पावन शीतल श्री चरणों में,
लेकर अटूट अडिग विश्वास.
प्रभु की पारदर्शी विमल दिव्य दृष्टि,
भेदित आर पार समग्र सृष्टि.
उच्छेदित उससे असाध्य अरिष्ट.
करुणामय.
हो किंचित सदय.
यह, अन्तर की अनुक्त अतूर्त विषम पीड़ा.
मुझे नितांत, निसंग निस्सहाय जानकर,
मेरे संग, नियति की यह निर्मम क्रीडा. 
मेरे मातृत्व के, हरे भरे फलभार-नमित
पादप रसाल को भस्म किया,
मृत्यु-तक्षक की फुंकारित विशालत ज्वाला ने.
दीन खड़ा, प्रेतात्मा सा.
यह वात्सल्यता का चिर वुभुक्ष विक्षुब्ध,
कंटकित पात रहित क्षत-विक्षत आहत,
अभिशापों से जलता रसाल का कंकाल.
जिसे, नैराश्य प्रभंजन, आघातों से आमूल, झकझोर रहा,
ज्वलित असहनीय निपातों से विदग्ध,
यह कातर निरीह कराह रहा.
अति दीन अबला हूँ.
निर्धन की आत्मजा,
अभिशाप ताप विदग्धा हूँ.
श्वसुर-गृह का प्रवेश द्वार,
प्रथम चरण रखते ही,
विषाक्त व्यंग वाणों उपालाम्भों का, लांछित उपहार मिला.
निसंग धडकते घबडाये अंतर को,
अकथ व्यथा संभार मिला.
प्रभु.
जलती आँखों की, ठंडी आँखों की, तटस्थ ह्रदय पाषाणों की,
मूक अनुक्त घनी घुटी उपेक्षा.
कालकूट-हलाहल-मंथित-दहित-विष-घूँट,
सदा मौन गले के नीचे उतरा.
यह सुत.
नैराश्य कृष्ण ध्वांत, अशांत-आकाश-उदित,
शीतल प्रकाश विकीर्णित, शुभ शुभ्र उद्दीप्त नक्षत्र.
फैला प्रकाश सर्वत्र.
इसका आगमन.
नव जीवन जागरण.
स्वर्ण-विहीन मिला.
इसके आने से पूर्व,
रहा, अहर्निशी अंतर में कटु धूम फेंकता, घुटता अपमान.
घूर्णित बन, दिग्भ्रमित विक्षिप्त पवमान.
आँखें पीड़ा विदग्ध बनी पत्थर.
थे उनसे टकराते आंसू के निर्झर,
अकारण अनवरत अनगनत तीक्ष्ण,
ईषिकाओं से, बेधित पीड़ित अंतर.
दिवस, क्षण प्रतिपल की, यह व्यथा निरंतर.
क्यों कर एक भी शल्य खींचे आ सके,
रंचक हिलते ही, व्यथा मर्मान्तक सदा बढे.
प्रभु.
यह पीड़ा.
अब जो कहीं प्रचंड दुर्दांत, अतुलनीय असहनीय अप्रतिम है.
आलोड़ित-वेदना-विष-निष्कर्ष विषम है.
असह्य दावाग्नि.
अप्रतिहत तपन.
जल रहे अंगार बन जीवन कण-कण.
तव एक दया दृष्टि, अमिय अजस्र वृष्टि,
नाच उठे ममता की मोहक सृष्टि.
तू परम पुनीत शाश्वत स्वस्ति.
प्रभु.
वेदना क्या होती है. किस पर क्या बीती  है.
यह वही जानता,
जो, निरर्थक अकारण,
इसका जन्म-जन्म भुक्त भोगी है.
पीड़ा की गहनता यथार्थता, कल्पनापरक नहीं.
तिल-तिल, तपा तपित ही जानता.
यह बहुरंगी, बहु विविध, बड़ी कड़ी, सधी तुला है.
यह अनकही.
न शब्दों में बंधी, न भावों में अक्षरशः उतरी.
असीम अपरिमित.
शब्द अकिंचन अमुखरित, भाव सतत कुंठित.
दोनों यह, भार वहन न कर सके.
यह मारक बिजली.
गिरी जिसपर,
वही वज्राह्त इसे सहन करे.
यह आर-पार, काटता तीक्ष्ण फरस.
हुए सभी निरस्त्र.
मन.
हर क्षण त्रस्त विकल असुरक्षित.
यह मेरा चिर कान्क्षित.
इस, पीड़ा उपेक्षा तिरस्कार की,
विषाक्त जलती अंधी आंधी मध्य
यह, प्राण दीप जला.
सौभाग्य-सुमन, ह्रदय धडकनों बीच पला.
यह, जलते सैकत वन पर प्रच्छायित, सजल शीतल,
श्यामल, नवल-नीरद. बरस-बरस गया, संजीवन रस.
खिले, कुम्हलाये मनः-कुवलय विक्षिप्त पीड़ा-मग्न.
करें पुनः इसे रसराज मंजरित सुरभित पुष्पित नंदनवन.
मेरा मातृत्व.
विवर्ण पतझार प्रताड़ित जर्जरित, व्यथा विगलित.
वेदना. झार गयी ज्वलित अगिन,
जल उठे कण-कण चेतन अचेतन.
मनः-आलोड़ित पागल उद्वेलन.
टूट गया मेरा उत्तरित भावप्रवण दर्पण.
इन बिखरी हर खिरचों में,
पीड़ा की तीव्र चुभन.
यह शांत सुप्त जीवन-धन,
कर रहा ह्रदय का प्राणान्तक मंथन.
प्रभु असह्य यह आत्म भंजन.
अति नगण्य, यह, तव चरणों के समीप पडा,
मेरे अरमानों का गगन विचुम्बित हर्म्य.
चूर-चूर धरा पर ध्वस्त पडा.
उड़ रही धूल.
चुभ रहे शूल.
अथाह यह पारावार,
मिला न कूल.
प्रभु ! कितनी पीड़ा भर दी, नियति ने,
इस, विवश,निरीह जीवन में.
समस्त वेदना वारीश समाहित,
लेकर, निज वाडवाग्नि-तपन,
मेरे कातर आकाम्पित ह्रदय-लघु-धड़कन में.
प्रभु.
तव महिमा अदभ्र अपार,
चिन्मय चिर शांत गहन गंभीर,
मनः-निर्वात निष्कंप पारावार,
हो गया, समस्त वृत्तियों का अंशुजाल, अस्त.
मोहक मार.
सब प्रकार पराजित त्रस्त.
तव, परम भास्वर ज्ञान क्षितिज तले,
सीमा-असीम मिले गले.
चिर शांत प्रच्छायित मनः-वारिधि.
निर्वाण.
सहस्र कमल खिले.
तव चरण प्रक्षालित कर लहराता है, अमिय पारावार.
केवल एक लघु कण सीकर की, मेरी आर्त दीन पुकार.
तेरी करुणा से, मेरे मातृत्व की बंजर जलती धरती,
पुनः हरी भरी हो जाये.
मेरे प्राणोंपम की थमी धड़कन,
अपेक्षित इसे रंचक संजीवक-स्फुरण.
प्रभु !  
हर रिद्धि, सिद्धि, बहु विधीय दैवी उपहार.
तव पगतल पावड़े बनकर बिछे शत-शत बार.
तू प्रज्वलित प्रखर अचल अडिग अकम्पित.
समस्त उल्लास विलास चकित स्तंभित.
वह यम कपाट, जो कभी खुला नहीं.
जिसके भीतर के कार्य कलापों का भेद,
किसी को मिला नहीं.
निश्चय ही,
उस छद्मवेशी के हर अवगुंठित परिवेशों को,
तूने जान लिया.
कितनी बलशाली है मृत्यु.
इसे, स्वतः यहीं पहचान लिया.
ये जन्म-मरण, के अलभ्य अभेद्द क्षण जिसे ज्ञात.
रहा क्या उसे अज्ञात.
जिसने किया हृदयंगम, विश्व-सृष्टि-संचालित-जीवन-धड़कन.
उसके सम्मुख सभी रहस्य निरावरण.
वही, निष्णात वैद्य, जन्म-मरण का,
कर सकता सफल निदान.
अवश्य मेरे पीड़ित प्राण,
प्राप्त करेंगे यहाँ परित्राण.
हे कृपा-सिन्धु ! करुणा निदान !
तू ही शाश्वत समाधान.
कर कल्याण.
तव, अमिय मृदुल मधुर वचन.
जलते मन के शीतल अनुलेपन.
तव कर स्पर्श.
कल्पतरु अभय दान,
निश्चय ही रखेंगे निज सम्मान.
तव गरिमामय गौरान्वित उपस्थिति.
चकित प्रकृति,
निरख, अलौकिक, अनुनमेय, अनुपम, अलभ्य,
निज स्वर-रचित कलाकृति.
प्रभु !
तू स्वतः विमुक्ति-स्वीकृति.
हे शास्ता आर्त-ह्रदय-अवलंब.
विलम्ब क्यों ?
रहे न शेष अश्रु, इन पीड़ित आँखों में,
जल गए, तड़प-तड़प, असह्य अंतर-दाहों में.
बड़ी सुनी तव दैवी महिमा.
प्रत्यक्ष प्रमाणित, प्रभापूर्ण, प्रशांत गरिमा.
यद्वपि.
अबतक तव वाक् हुए नहीं मुखर,
पर मुख ही निर्मल पारदर्शी मुकुर,
लक्षित स्पष्ट, हर प्रश्नों के सजीव जीवित उत्तर.
किन्तु विकल ये प्राण,
चिरकान्क्षित, व्यथा-त्राण.
तू उसपार निशंक निर्द्वंद्व.
मैं, इस परर जटिल ग्रंथित, आशंकित आबद्ध.
जिस परम सत्य से, तू अवगत.
उससे अनजान नहीं मैं.
केवल दृष्टि वैषभ्य है.
तू.
बीतराग रागातीत तथागत.
यहाँ स्पृहाओं का किंजल्क जाल अप्रतिहत.
तंतु-तंतु में, प्राण जड़ित है.
जो, अमृत-सिन्धु बह रहा उधर,
उसकी एक अंजलि भर,
इस मृत के अधर लगा दे.
उस शाश्वत प्रकाश की. एक किरण,
इस घन तमस ह्रदय में भर दे.
मेरे तिमिराछन्न नैराश्य उत्ताल तरंगित ह्रदय-जलधि का,
केवल तू ही, एक प्रकाश स्तम्भ.
इस दुखिया की व्यथा अदभ्र.
मृत्यु !
जिसे तूने देखा है.
अत्यंत समीप से उसकी गतिविधि को अवलेखा है.
वह ! कितनी परुष कठोर निठुर है.
पुष्प सरिस कोमल तन को, मरोड़ मरोड़ गयी.
इसकी छोटी सी धड़कन को, दंशित कर,
समस्त जीवन-रस, डस-डसकर,
पीकर,निचोड़-निचोड़ गयी.
अमरत्व !
एक निराधार कपोल कल्पना.
मृत्यु ! परम सत्य.
यह कितनी, दारुण,निर्भीक अटल, सटीक है.
यह पत्थर पर अक्षुण्ण अमिट लीक है.
अमरत्व !
नितांत व्यलीक, आकाश कुसुम.
पुष्प-उदुम्बर, मृग-मरीचिका है.
इस चिरंतन सत्य में, निरंतर जलना है.
प्रभु !
समस्त वृत्तिजाल से कहीं दूर अवस्थित.
शीघ्र प्राण-दान दें.
यह ह्रदय अत्यंत व्यथित.
दुःख बहुत देखा है.
या यो कहूं कि दुःख ही केवल जाना है.
अपना ही नहीं, मौन आकाश को भी,
अत्यंत कातर पाया है.
जिन निसंग मौन रातों के संलाप्न में
बातों से, में परस्पर रही,
प्रत्युत्तरित, प्राकृतिक अस्वीकृतियों से,
वह भी रहा, नहीं अपरिचित.
भरी निसंग बरसातों की काली रातों में,
वारिद पटल पर नखताक्षरों की,
सहमति याचना लेकर,
इसे अति विनम्र,झुका,
व्यथित पीड़ित देखा है.
और तड़ित की हर बात काटती,
निषेधाज्ञाओं से, गहन उसांसें भरते देखा है.
वह पीड़ा भी कुछ नहीं,
जिसे मैंने आमूल ग्रहण किया है.
यदि मेरी यह विरमित धड़कन,
जीवित नहीं कर पाए,
तो प्रभु !
तुम भी मुझसे ही हो निरुपाय.
तुमको निरख मैंने जाना.
महाकाल ने भी, किसी का शासन, बंधन माना.
खींचो,
अभी यहीं,
सत्य, अहिंसा, करुणा की लक्ष्मण रेखा.
जिसे मृत्यु ने कभी न हो देखा.  
सरल सौम्य सहज नहीं,
मृत्यु !
जयघोष गरजती, विजय-दुन्दुभी बजाती, आनक है.
यह ह्रदय विदारक संज्ञाशून्य बनाती,
अति विषम विकट भयानक है.
मंडलाकार तव तेज असीम.
इसका, मरण, उलंघन कदापि न कर पाए.
वह, निज अकिंचन लघु सीमा में, बंध जाए.
यदि ऐसा नहीं.
मत,
अमृत की बात कहो.
स्पष्ट यहाँ, मृत्यु सबल,
अमृत, अबल है.
जबसे सृष्टि की संरचना हुई.
इस आवागमन प्रत्यावर्त्तन चक्र में फंस, अमिय कथा.
मात्र छूंछी वंचना हुई.
वह,
जिसे अमृत कहते हैं.
क्यों वह, प्रतिपल, प्रतिक्षण, मृत्यु के प्रति,
इतना चौकस सजग सतर्क.
क्यों ?
अमिय हलाहल का मंथन.
क्यों ?
विश्वमोहिनी का, अमिय-कलश-रस स्वतः वितरण.
किसके प्रति, यह संघर्षण.
क्यों नहीं ?
अमरता, इसे पराजित कर पायी.
क्यों नहीं अटूट अभेद्य पाश में, बंदी कर पायी.
क्यों घूम रही, मृत्यु निशंक स्वच्छंद.
क्यों नहीं हुआ अबतक, उसका आमूल क्षरण.
क्यों ?
उसे निरख,
क्षणभंगुरता नश्वरता की यह
विषाक्त विद्रूप मुस्कान.
किन्तु नहीं.
नहीं. नहीं.
मुझे किसी विवाद में नहीं पड़ना है.
मेरा विषाद.
व्याप्त तमस-अवसाद,
हर पल ह्रदय विदीर्ण करता ठोकर देता,
अति तीव्र घना है.
यह अंतर निरंतर सहस्र शूल विद्ध,
यहाँ, असहाय अवश दीन पड़ा है.
किस तिरस्कार से, दे रहा लानत,
चिर शाश्वत को.
मृत्यु !
कितनी सक्षम.
अमरता !
कितनी अशक्त दीन अक्षम.
एक सशस्त्र.
एक निरस्त्र.
मैदान.
सपाट शून्य पडा है.
क्यों नहीं, अमरता, इसे निज बाहों में भरकर,
मृत्यु को निशंक चुनौती देती है.
क्यों नहीं, इसे जीवित कर, गर्वोन्मत्त वह.
गगन-घर्षित-विजय-दुदुंभी, बजाती है.
इस विशाल आर-पार विस्तीर्ण,
कंकालों की बिखरी,
अस्थिमयी, उजली ढेरी में, वह छिपी,
संजीवन-मणि कहाँ है.
जो, अविनश्वर-नश्वर को यहीं मिला दे.
वह भूली हुई, टूटी कड़ी, कहाँ है.
व्यर्थ.
व्यर्थ है सब.
मृत्यु !
छोड़ा है किसे कब ?
मत. स्वर्ग-नर्क की, आगत-भविष्य, अतीत की,
अथवा, पूर्व जन्म, वर्तमान आगत, या पुनर्जन्म की.
कोई भी, निर्मूल निरर्थक बातें हों.
यह जीवन !
आया कहाँ से.
जाएगा कहाँ ?
आया ही क्यों ?
यह केवल भ्रमित वाग्जाल.
सब.
वर्तमान में ही समाहित.
यह वह दर्पण है.
अनगनत जिसके टुकड़े,
जो कभी नहीं जुटे.
वह अज्ञात राग.
जिसके.वह,
उठाता कभी, कोई, कभी कोई, मुखड़े.
वह भी नहीं जानता.
किस राग का, जोड़ या तोड़,
वह अलाप रहा.
अतः जो प्रत्यक्ष सम्मुख.
उसे त्याग, अज्ञात के प्रति, क्यों कोई हो उन्मुख.
जीवन ! नैराश्य विष-व्याल-फुन्कारित-दंशित-संकुलित.
सुख ! क्षणिक, दुःख, दैन्य, व्यथा, अवधि-रहित.
यह जीवन ! नितांत कोर व्यंग.
निस्साह, निरीह सर्वदा अपंग.आधार-रहित, निर्मूल, रीते, छूंछे उपदेश.
मात्र, पुष्पित-वाग्जाल-परिवेश.
पीड़ित,क्षत-विक्षत, लोहित, स्रवित,
ह्रदय पर, ये, प्रखर, प्रचंड,प्रज्वलित,
अस्सह्य, अंगार सरिस है.
अन्तर, अनवरत सतत कातर, निसंग, निराधार विक्षिप्त.
मात्र, बढाते ये उपदेश वेदना अशेष.
आंबे सा तप्त अन्तर, जलकर छिटक रहे, अश्रु-झर.
प्रभु ! करें कृपा सत्वर.
सरल है भगवान, पुरुष होना.
उसने जाना केवल पाना.
वह निज सत्व निमित्त,
अंतिम क्षण तक, करता है, संघर्षण,
नहीं जानता वितरण.
जानता नहीं, समर्पण या कहीं खो जाना.
किन्तु कठिन है नारी होना.
यह, प्रकृति की प्रतिकृति- सबल चुनौती है.
एक मृदुल वचन, एक स्नेहिल चितवन, ले लेता है पूर्ण समर्पण.
बहुत कठिन कांतर यह मार्ग विरल है,
नारी होना, नहीं सरल है.
जीवन ! मर्मान्तक-अनुभूति-प्रवण-पीडाजनक, लहराता गरल.
आलोड़न, निकर्ष-चरम मातृत्व, अमृत, जो जाता सहज ढल.
नारी का सर्वोच्च विकास. मातृत्व गौरवान्वित उल्लास.
वा किस प्रकार अपदस्थ होता है.
जब वह, प्रत्युषा सी हँसती है, और,
उसका उदित होता बालारुण,
उसके ही क्रोड़ में, निष्प्रभ, असमय ही अस्त होता है.
वन्ध्या धरती, ह्रदय-रक्त-स्नात, हाहाकार मचाती है.
वह ! नारी ! नारी नहीं !
जो फल्भार नामित कुसुमीय, सुरभित न हो.
जिसके, प्रसन्न-प्रसाद-पूर्ण लहराते, वात्सल्य-तड़ाग में,
उसके उल्लासों का आह्लादित, उत्तर,
अमिय-झरित विकच विहंसित मुदित न हो.
नारी !
उसकी सर्वांग पूर्णता गरिमा, मातृत्व में है.
वह, कामना-पूर्ति की, काम्या नहीं.
तृप्ति-निवारक, सुधा नहीं.
क्षणिक आवेशों का, अकिंचन उत्तर, कदापि नहीं.
वह आदिशक्ति संचालिका.
संसृति अग्रजा.
निष्कल्मष उज्जवल गंगा - क्षमाशील वसुधा है.
सब श्रेष्ठ नष्ट, क्षम्य, अक्षम्य, उसमें, सतत समाहित.
समस्त कल्मष उससे परिमार्जित.
सब पर वह, स्नेहिल शरत-शर्वरी-चांदनी.
वह ! वात्सल्य सुरभि रसपूरित कस्तूरी.
पावन संकल्प, सृष्टि की.
उससे रहित, संसृति, निरी अधूरी.
किन्तु ! उस मृण प्रतिमा की भी,
प्राण-प्रतिष्ठा, मातृत्व-संजीवन-रस से होती है.
अन्यथा, वह है केवल, कंटकित तपित सैकत वन.
अथवा, पतझारों का पीत पड़ा, झंखाड़ों का उपवन.
सूनापन ही जहां हर डाल रगड़ता, करता है सांय सांय.
नहीं कोई अन्य उपाय.
ऐसी वन्ध्या मृत-वत्सा. तृषा-निवारक, वंचक मृगजल.
या, सुदूर चमकता अंधा दर्पण है.
प्रभु ! कुछ तो बोलें.
यह गहन व्यथा तोलें.
यह.
इस कृष्ण केशावृत भाल का, अरुणोदय.
यह मेरा मुर्मूष मर्दित मृत कुचला, हुआ, दीन ह्रदय,
बिना प्राण के, क्या कोई जीवित रह सकता है.
पीड़ित ह्रदय का यह ममतामय, आश्वासन.
चिर तृषित विकल प्रतीक्षित पतझारों का,
यह समादृत सौभाग्यपूर्ण आमंत्रण.
यह मेरा मादक मोहक निसंग संसार.
हर जन्म-मरण.
जाने कितनी बार गया यहाँ हार.
शत शत बार.
यह मेरा एक अकेला सौभाग्य सुमन, अन्तर-धड़कन लगा, जीवन-स्पंदन.
इसमें, मेरा संसार. उतरा,
निराकार.
साकार.
रूप अरूप.
ममत्व ने, इस दर्पण में देखा, अनगनत बार,
चित्र विचित्र बहुरंगी अपना रूप, सम्भार.
यह, मनः-लोक का शाश्वत अशोक.
इसके बिना जीवन, जीवित अश्म या, निर्मोक.
यह मांस की रमणीय मदमाती मोहक रंगशाला.
शैशव, कैशोर, यौवन, सबनें यहाँ, जाने,
कितना क्या-क्या, रूप बदल डाला.
अनाम रूप.
अनाम रंग.
रंग रहित सहस्र रंग.
यह अतूर्त मान-तरंग.
मन ने, नाना विधि इसे रंग डाला.
प्रभु ! संभव है यही कहेंगे.
पंचतत्व नश्वर है.
निश्चय ही प्रभु.
मृत्यु लोक, निज पावना लेता है.
जो आबद्ध.
वह कभी बंधा नहीं.
यह किसको पीड़ा देता है.
यह, जो भी हो.
अक्षुण्ण उसकी सहनशीलता.
इसने, कभी जीने नहीं दिया.
वह मर कर भी रहा जीता.
हर परिवेशों के भीतर से,
एक प्रकाश सा, रहा चलता,
फिर, उस प्राण को.
जो पंचतत्वों का घन है.
क्यों उसपर मृत्यु वसन है.
क्यों, पार्थविकता के शतदल में बंदी आत्मा-चंचरीक.
यदि आत्मा ही शाश्वत सत्य निरंतर है
तो क्यों उसे निज पाशों में कर, आबद्ध
नश्वरता इठलाती है,
होती है, परम प्रसन्न.
क्यों ?
क्षणभंगुरता के निकष पर अविनश्वरता का निर्णय.
क्यों, शाश्वत चिरंतन की नींव, आधारशिला, क्षणभंगुरता है.
क्यों यह उस अप्रत्यक्ष अदृश्य अलौकिक की, निःश्रेणी है.
जब यह इतनी नगण्य और लांक्षित है.
क्यों ?
सत्य के सामानांतर, उसका प्रत्यक्ष पारखी, असत्य बना.
क्यों, अंधकार प्रकाश का जन्म-दात्री है.
क्यों ? असत्य. सत्य की छाया बना रहा.
क्यों दोनों का परस्पर सम्बन्ध, सदा से इतना सघन घना.
किन्तु, प्रभु !
सत्य और असत्य.
दोनों ही स्वयम में नितांत सत्य हैं.
वे एक दूसरे से संतुलित, धूप-छाँव से हैं बढ़ते.
अपने सत्य चरम से उदभासित,
दोनों ही तीव्र, प्रखर हैं, जलते.
यही सुर-असुर-संग्राम. मनन, चिंतन, अमृत-धाम.
यह शाश्वत गति ही जीवन है.
वस्तुतः सत्य-असत्य की परिभाषा, बड़ी जटिल है.
कोई नहीं जानता, कौन,कितना, कैसे इसे तोलता.
किस मापदंड पर, कैसे खरा उतारता.
सत्य-असत्य की, सबकी, निज मनः- चौखटे पर सजी,
अपनी व्याख्या है.
जैसा जिसे हुआ बोधगम्य, वह वैसा ही कहता है.
संदिग्ध रहा सदा का, यह विश्लेषण.
मेरा निर्द्वन्द्व, जलता सत्य यहाँ पड़ा.
मेरी पीड़ा का संसार सम्मुख, सजग, सवाक, साकार खड़ा है.
इसे लेकर, तव पद-रज-शरण में आई हूँ.
कोई भी, व्यथा कभी कहीं भी, इससे वृहत विशाल बड़ी रही नहीं.
यह वेदना आमूल आर-पार बिंधी पडी है.
न करो, हताश.
न करो, निराश.
गहन अटूट विश्वास लेकर आई हूँ,
अंतरतम तक घबड़ायी हूँ.
“ना”, “ना” के नकारात्मक, विनाशात्मक,
भयावह, अनगनत अनुरणित शर.
बेध रहे, कातर कृष्णाकृत-अन्तर.
कहीं ऊहापोह के झोंके खाते, कम्पित इस आशादीप को,
एक फूंक में, बुझा मत देना.
इस घन अंधकार में,
जो अबतक, मैं स्वयं को ही देख रही,
उस अटल आश्वस्तिपूर्ण विश्वास को भी, आमूल हिला मत देना.
निराशा सम्पूर्ण जगत को आवृत कर लेती है,
लघुकाय अपना व्यक्तित्व.
वह, उसे वृहत कर देती है.
पीड़ित.
स्वयं को ही केवल निरखता है.
सम्पूर्ण विश्व को स्वयं में समाहित कर लेता है.
और केवल निसंग.
जन-संकुलित भीड़ में भी, निज में ही मग्न बना रहता है.
इस समय प्रभु,
मैं हूँ और मेरी पीड़ा.
समस्त जगत समय-काल-रशना-आबद्ध,
इंगित-संकेत-निबद्ध, नियति की निठुर क्रीड़ा.
जिस कालकूट हलाहल को,
हटात एक घूँट में, बलात मैंने पान किया.
वह मेरा अपना बीता दुःख है, जिसे मैंने आत्मसात किया.
यह दूसरे का जिया दुःख नहीं,
नहीं, केवल आँखों से ही देखा गया.
यह शत-प्रतिशत अक्षरशः बीता है.
निसंग ही झेला गया.
अमृत मंथन का कालकूट हलाहल.
नीलकंठ के वाम अंग ने छककर आकंठ किया पान.
रखा, असह्य ज्वाला विदग्ध विष का सम्मान.
वही- अर्धनारीश्वर का बाम अंग.
मैं.
नारी हूँ.
शिव तो, सोमेश्वर.
हर क्षण अमृत-तरिंगिणी-स्नान.
कहाँ उसे व्यथा का ज्ञान.
प्रभु !
पुरुष, ह्रदय परुष.
अनुभूति संवेदन भाव-प्रवणता से, संपोषित नहीं.
जो, दुःख, एक दृश्य सरिस, बीत गया आँखों के सम्मुख से,
जो अपनी नहीं, व्यथा पराई है कथा.
उस बीते दुःख से, श्रुत दुःख से,
अति दुरूह असह्य है, अनुभूत दुःख.
एक यथार्थ .
दूसरा, उसकी प्रतिबिंबित प्रतिछाया.
सुनने अथवा देखने वालों को,
वह, भला कब अवगाहन हो पाया.
प्रभु की आँखों के सम्मुख से, जो दुखद घटनाएं बीत गयीं,
वे तथागत को, सत्य, समर्पित कर जीत गयी.
किन्तु, आँखों का दृश्य विधान.
अन्तर बेधित शर-संधान.
दोनों में, महान अन्तर है.
तुम्हारा परीक्षित सत्य.
तपः सम्पुट में तप, होकर परिपक्व,
अब, प्राणवंत सरस अमिय संभूत अचूक है.
मेरा झेला गया दुःख.
वेदना-विदग्ध विषः-संतृप्त तीक्ष्ण अभूत है.
सत्य, सत्य में भी अन्तर है.
ह्रदय परिस्थिति विशेष बाधित, सत्य ही ग्रहण करता है.
मेरा पीड़ित सत्य. आहत लोहित, पराजित, विक्षिप्त, रक्त-रंजित,
क्षत-विक्षत यहाँ पड़ा, तड़प रहा है.
मुझे सहस्रफण-फुन्कारित-दंशित विष-ज्वाला से, अभी मुक्ति दिला दो.
यह तृषा पपीहे की, यह चाह, चकोरी की, इस अटूट पिपासा की,
चिर तृप्ति, त्वरित दिला दो.
मैं अति दीन आतुर सी मांग रही भीख.
मेरी रीति झोली भर दो.
मेरा सुत मुझको लौटा दो.
आहत रक्त स्रवित मुर्मूष शर-बेधित, हंस,
लगकर तव ममतामय आश्वस्तिपूर्ण प्रशस्त अंक,
हो गया, सचेतन निर्भीक निशंक.
तुमने, उसकी पीड़ा हर ली.
उसको जीवन गति दे दी.
मेरे, मृतप्राय निरुपाय विकल प्राण पपीहे को,
निज संजीवन कर से सहला दो, इसकी समस्त पीड़ा हर लो.
यह, निस्पंद मूक पड़ा प्राण वेणु, इसमें एक फूंक लगा दो.
दोनों की धड़कन सस्वर हो जाए.
मृत जीवन में अमृत लहराए.
नहीं, नश्वरता, अविनश्वरता, मुझे अपेक्षित.
मुझे वांक्षित, मेरा चिरकांक्षित.
मेरा, बनता मिटता जीवन, मुझको लौटा दो.
जन्मे हम कितनी बार.
या मरे कितनी बार.
आएगा, आगत भी, अगणित बार.
इससे क्या लेना देना.
बीता जो. वह आता नहीं.
जो आने वाला है, इसकी चिंता क्यों ?
यह वर्तमान प्रत्यक्ष पकड़ में, साक्षात ज्वलित चुनौती है.
माँ की आर्त विकल कातर, अंधी ममता रोती है.
मेरे, इस जीवन का सौदा, अभी यहाँ, इसी समय तुरत पटा दो.
भूलो. भूलो. सब भूलो.
मत आगत के सपनों में झूलों.
क्या लेना देना, आवागमन, प्रत्यावर्त्तन, अनवरत अनगनत जन्म-मरण से.
जो, जब जैसा आएगा. गाँठ बाँध निज पाथेय लाएगा.
वर्तमान.
केवल वर्तमान.
यही अपनी प्रखर स्पष्ट पहचान.
सत्य यही जीवन दिनमान.
इस भरे छलकते, कालचक्र-चषक का,
एक-एक, अंतिम बूँद, छककर पी लेने दो.
क्या होगा ?
विगत या आगत जन्मों में.
वहाँ, अभेद्य अन्धकार है.
उन, शाश्वत बंद कपाटों से, सर टकराना क्या ?
जो सुलझ न पाया अबतक,
उससे उलझ-उलझ, रह जाना क्या ?
हो कोई, काल या महाकाल.
कल्पना ही उसकी विकराल.
रहा वह, सदा का मौन अज्ञात.
व्यर्थ, यहाँ इसकी बात.
जो, सत्य सम्मुख है, उसकी उलझी गुत्थी सुलझा दो. 
नहीं अपेक्षित शाश्वत विश्राम.
प्रतिपल, प्रतिक्षण, परिवर्तित, नश्वरता की,
नैसर्गिक मादक मोहकता में, आकंठ डूब, रम जाने दो.
शाश्वत और चिरंतन.
महाश्मशान.
चिर शयन, एषणाओं का.क्या ? 
अमरत्व के शुष्क अधर, लगा, मदिर मधुर, रस, उन्माद नश्वरता का.
यह प्रकृति की रमणीय कमनीय मनोरमता, उसकी नवोदित लावण्य-प्रभा.
उसके श्याम सजल सरस रस वर्षण में,
आकंठ, भींग भींग जाने दो.
उसके हर संकेत के संग, रहेंगे हम सदा निमग्न.
यह प्रकृति.
माँ है.
हम इस वात्सल्यमयी स्नेहिल छाया में, विचरेंगे.
माँ हूँ.
मेरे वात्सल्य गगन का, यह निर्वाणित दीप.
अभी प्रज्वालित कर दो.
मेरा सुत मुझको लौटा दो.
मत कहो बात, अमरत्व की. 
निवृत्ति, निर्वाण, अनुसंधान की.
मेरी आत्मा का यह आत्मज.
मेरी धड़कन मुझको लौटा दो.
क्या होगा, लेकर वीरान भूमि, भूमा की.
उड़ रही जहां सुनहली धूल.
मुझे सदा प्रिय, शाश्वत की,
यह अनजाने की भूल,
पंचतत्व जिसे कहते हैं.
यह संसृति का नंदन-वन.
इसमें, बीते, पूर्व जन्म की कसक,
वर्तमान की, व्यथा अथक,
आगत की, प्रतिबिंबित प्रतिछाया है.
यहाँ, मनः-आकाश-प्रच्छायित-मात्रप्रवण-नील-नीरद की शीतल स्नेहिल छाया.
तड़प भरी तड़ित की माया.
अतीत-वर्तमान, सांध्य मिलन, कर रहे, आगत का अभिनन्दन.
कण-कण में, प्राणवंत जीवन-स्पंदन.
हर विगत स्मृतियों का, बीते जन्मों के, शयित, सुशुप्त, सपनों का,
यह, चित्, विश्राम-सदन है.
पिछली कोई बहकी, भूली, साँसों को, इन स्वांसों से मिल जाने दो.
आवागमन-पटल, विचित्र चूनर.
कहीं भी, अपनी भी, कोई छाप पड़ी, रंचक, यह पहचान बना लेने दो.
कोई सोया तार, कहाँ, बजा या कहाँ बजेगा.
मन-वीणा के शान्त पड़े तारों को छू लेगा.
कौन स्वर, पीड़ा का झंकृत हो लेगा.
सब भूल, उसी में खो जाने दो.
इस ममत्व के उफनते ज्वार में, टूट गिरा, वात्सल्य-जलजात.
उसे, मत, विलीन हो जाने दो.
हे अर्हत ! रागातीत. बीतराग.
दुर्द्वुष प्रज्वलित ममता की आग.
कुछ शीतल जल अभिसिंचित कर,
उसे त्वरित बुझा दो.
जिस पीड़ा से विकल, चाहा था करना तुरंत दूर,
वह, दूरंत, कर रही अबतक, चूर-चूर.
इस कांटे को, अभी उखाडो समूल.
बोलो. बोलो. आँखे खोलो.
मत रहो मौन.
या बस. इतना कह दो.  
समस्त गवेषणा, मनन, चिंतन, ध्यान,
रहा अभी तक, उस परम सत्य से अनजान.
सब निराधार निरर्थक.
केवल है,
भूल. भूल.
सर्वत्र बिखरे हैं तीखे शूल.
मुझको, इतना भर समझा दो.
लगा रही बावली सी मैं, एक ही रट,
अब तक न मिली तुमको आहट.
किसकी पीड़ा कर रहे निवृत्त,
व्यष्टि- समष्टि में, किया चयन किसका.
या, यह भी, रहा केवल मनः-रंजन,कौतुक, मात्र भ्रमित मन का.
जो, प्रश्न, शाश्वत दशन-दबे-अधर मुख बंद मिले.
जिनके स्वर, कभी न खुले.
उनको कैसे कोई कर पाए स्वच्छंद.
मन, इसी द्वंद्व में काष्ठवत् है अवसन्न.
ये प्रश्न चिरंतन है मौन.
अपने में ही सतत विदग्ध रहे जले.
कभी न इनके उत्तर, कहीं मिले.
तुम भी, ना, कर दो.
या, हाँ में, अमृत-सीकर-निसृत कर दो.
अन्यथा, यह भी वाग्जाल, इंद्रजाल.
मानव, निज तर्क-वितर्क से रहा, निज को साल.
जाने कबकी, यह दौड़-धूप.प्राप्त,
तर्क-जाल का, रीता सूखा अंध-कूप.
नहीं कहीं अमरत्व.
मिला न किंचित उसका सूत्र अथवा सत्व.
व्यर्थ सारे अनर्थ.
जीवन-मरण-नश्वरता.
शाश्वत सत्य.निर्वाण.
सत्य संधान. कपोल कल्पना.
हर बार प्रलय, हर बार विलय.
बार-बार संहार-सृजन.
क्षार समेट, कर रहा, मानव, नव-निर्माण तपः-यजन.
जीव स्वयं ही मरता या जीता है.
वही, निज का नियामक, विधायक होता है.
उसका,कोई नहीं,
नहीं वह, किसी का.
यदि आत्मा, किसी का दर्पण नहीं.
तब कहाँ समर्पण की विधा बनी ?
यह समस्त सौंदर्य सृजन, कृतत्व.
मात्र, विनाश का आमंत्रण क्यों ?
क्यों माधवी सजी होती है मात्र श्वेत परिधान पहनने को.
क्यों चलती हैं स्वांसें, जब इनकों थमना ही है.
महाविराम, क्यों करता है निष्ठुर क्रीड़ा.
क्या रहा मूल्य जीवन का,
जब, सूत्रधार इसका कोई अन्य बना.
हम, रीते ही आये, रीते ही रहे सदा के.
यह मर्म ज़रा समझा दो.
यदि, कुछ भी ग्रहण किया है, उसे, प्रत्यक्ष यहीं दिखला दो.
मेरा सुत अभी जिला दो.
देखो मेरी व्यथा.
अंतहीन करुण कथा.
इसे ह्रदय से चिपका कर, निराश यहाँ से उठकर,
जाने किन कांतर बीहड़ विरल पथ पर चलती ही, जाऊंगी.
अगम अपार पीड़ा की बीती, सदा अन्धकार-अश्रु-सिक्त भींगी,
खाली हाथ, वहाँ लौटूंगी.
मुख जडित काष्ठवत्, कुछ कह न सकूंगी.
मुझे देखते ही, आँखों के सम्मुख, श्वसुर-गृह-कपाट शीघ्र बंद होंगे.
पितृालय भी यह व्यथा-भार वहाँ कर, घुट-घुट पीड़ा में घुलते,
सदा नीर-नयन-भरे मिलेंगे.
दोनों ही स्थान, असह्य,
धरती-आकाश, निठुर निदय है.
बंजर धरती पर, प्रकृति भी नहीं सदय है.
अंततः तू ही, एकमात्र अंतिम शरण.
होकर आर्त तव चरण किया ग्रहण.
ज़रा, आधि, व्याधि, मरण.
आये तव सम्मुख निरावरण.
अपने पिंडपात्र से, मृत्यु, कहीं दूर हटा दो.
मेरा गौरान्वित सम्मान, पुनः मुझे दिला दो.
मेरे प्रभु ! मेरे प्रभु ! हो न यों मौन विमुख.
दुग्ध भरा वक्ष, पीड़ा से हो रहा दग्ध.
अकारण यह स्रवित न हो.
भीतर ही भीतर जलकर शमित न हो.
यह समस्त भुवन.
किसका कौतुक.
नहीं जानने को मैं उत्सुक.
मेरा सत्य.
निसंग, निरावरण जल रहा.
इसकी जलन, त्वरित मिटा दो.
करो कोई ऐसा उपचार.
हरा भरा हो जाए मृत संसार.
बहुत सुने जीवन दर्शन.
शान्त न कर पाए वे ममता का कातर क्रंदन.
किसी प्रकार तोड़ो, यह यम बंधन.
या फिर, मुझको भी, मेरी अपूर्ण आकांक्षाओं के संग,
जडित, विश्वामित्र-शाप-ग्रस्ता, रम्भा-पाषाणी-शिला बना दो.
किसी प्रकार, यह सोयी धड़कन जगा दो.
यह पुष्प सरिस कोमल तन.
किस प्रकार पड़ा कुम्हलाया तव चरण.
प्रभु ! करो इसे ग्रहण, इसे ग्रहण.
सूनी वन्ध्या शिलाओं पर, निसंग अकेली नीरवता से,
शीश पटकती सरिता.
वैसा ही यह जीवन.
नितांत निराधार रीता.
विगत अनगनत जन्म-जन्म की भग्न शून्य,
पीड़ित स्मृति-समाधियों, की प्रत्युत्तरित, संवेदित धडकनों को,
स्नेहिल शनैः-शनैः सहलाती,अपने में ही, कुछ कहती, सुनती, गुनती.
मैं अवसादपूर्ण विषण्ण अवकाश तरंग में दिग्भ्रमित भटकती बहती, मूक हवा हूँ. लयरहित बेसुरे, विकृत, नीरस, स्वर, परस्पर अन्तर में,
एक दूसरे से उलझते टकराते, सुनी अनसुनी, करते,
केवल अपनी ही धुन में, द्वंद्वों में, बिंधे, घूमते रहते.
भूली स्मृतियों की टीस भरी काली कादम्बनी के तप्त निश्वास उच्छ्वास,
नयन क्षितिज पर उमड़ घुमड़ बरसते रहते.
अश्रु-आप्लावित पुलिन लगे, आशा के पंकज. शीश पटक-पटक, 
जल में क्रंदन करते रहते.
हे ! करूणाकर ! हे सर्वेश्वर !
पीड़ा की मर्मान्तक अथक अन्तर-यात्रा, अंतहीन.
जाने कितने जन्मों की सघन वेदना, कर रही वहाँ, व्यथित चेतना दीन.
प्रभु, जब, ज्ञान-ज्योत्सना-निसृत, अजस्र, विकच, विकसित हुए होंगे,
तव, जन्म-पटल-शतदल-पत्र-सहस्र. जन्म-जन्म की,
घायल विगत स्मृतियों के, अंकित व्यथा-कथा के,
उड़े होंगे,कम्पित थर-थर, वेदना-विगलित, एक-एक पत्र.
अब भी, बीते जन्मों की दुर्वह पीड़ा से झुके हुए होंगे,
अश्रु-सिक्त, तड़पते गतिशील,
तव नयन वीथियों से, देखा होगा,
अपलक आँखों ने, चकित व्यथित, उनको सम्मुख.
हजार कथाओं को कहने को, हुए होंगे वे उन्मुख.
वे सब भी, रंचमात्र नहीं बन पाए,
इस अदम्य अगम्य अन्तर-मंथन के आमुख.
करुणेश ! विश्व वेदना सन्निवेश.
प्रशांत पूर्णम परेश.
अनुभूति-प्रकृति, करती है अन्तर-दोहन.
नहीं जानती वह निष्कृति.
एक चोट गंभीर गहन गहरी, ह्रदय हिला देती है.
प्रभु ! वह, सब आघातों का मापक, निकष तुला, परिभाषा बन जाती है.
जो, निराधार गिरा धरा पर जलकर.
किसे पता, उसपर क्या बीती.
जैसी ही आमूल, तन-मन, जीवन से सतत जली हूँ.
अन्तर-वर्हि, अनगनत असह्य ज्वलित, तप्त विदग्ध फफोले.
संज्ञा शून्य, जड़ चेतना, स्तब्ध अवसन्न अन्तर-हृद-वेदना.
यह व्यथा.मात्र अनुभूतियों का, स्पंदन-उद्वेलन.
जितनी ही तीव्र तीक्ष्ण, उतरी, गहन, लेकर हृद-धड़कन.
किन्तु अबोल सदा की, वाक् रहित.
अरूप.
भला क्या बोले.
वही जानता इसे भलीभांति.
जो हतभाग्य, बलात् इसे झेले.
प्रभु ! जो चाह रही वही करो.
न देना कोई उपदेश.
यह भूमि ! मात्र रही उपदेशों की आगार.
शमित न कर पाए अबतक आत्मा की शाश्वत पीड़ित प्यास.
ये छूंछे वेदान्तर.
बढे इनसे केवल, गहराते गहन व्यथा भार.
उपदेश ! पाषाणों पर वज्र सरिस पड़ते हैं.
केवल स्वर ही स्वर हैं, अर्थ नहीं निकलते हैं.
ये व्यथा नहीं समझते.
गहन नीली पीड़ित काली कालिन्दी के, प्रच्छायित सतह ताल पर,
रजत चांदनी से रहते हैं.
जलता है जिसका अन्तर, झरता है आंसूं का निर्झर,
जो निसंग रहा निज पर निर्भर.
उसके भी आंसू, बहते-बहते अब, सूख चले.
वे भी भला, किसके बल पर ढले.
निस्सहाय, अन्तर-हृद में ही घुट-घुट कर पड़े जले.
वेदना की अंधी आंधी, अंग-अंग तोडती पल न थमी.
एक बार. हाँ, कर दो.
या ना के तीखे शूलों से, फैला रीता आँचल भर दो.
निसंग प्राण रहे सदा के,
जो मिले, वे भी, चले गए कोरी बात बना के.
अविकारी को कोई व्यथा नहीं, रहा कब वह संसारी. 
विकारी की विकल वेदना हरे कोई, तब हो वह, ज्ञान का सच्चा अधिकारी.
वही अर्हत, रागातीत, जो आत्म शान्ति का दानी.
अन्यथा, निज अहम का पोषण करता,
वह भी रहा, निरा अभिमानी.
अवस्थित रहकर कगार पर, पार उतरने की बातें बेकार.
जो जल में आकंठ डूबकर, उसे पूर्णतः अवगाहन कर,
हो गया, संतरण के पार,
और डूबते का भी किया उद्धार,
वही, उच्चात्मा है निर्विवाद,
उसे कोटि-कोटि साधुवाद.
कांपे प्रभु के, डहडहे किंशुक, प्रवाल, लावण्य-प्रभ कुसुमित, अधर भरे-भरे.
निरख सिहरी गौतमी, अंतरतम तक.
बंद अर्धनिमीलित पद्मपलाक्ष,
स्वप्नावस्थित, ध्यानावस्थित, नील इन्दीवर पात,
मंद मृदु अस्फुट स्वर.
निसृत उद्वेलित अमिय झर.
खुले अधर.
दाडिम सज्जित मुक्ताभ दशन.
शान्त गाढ़ गंभीर गिरा- “ गौतमी “!
चौकी मलय-बयार-विचुम्बित-नीरव-निस्तब्ध, सरिता.
हुई चैतन्य, पगतल बैठी प्रणत करुणाद्र वनिता.
अश्रु-झरित-आपाद-स्नात-वेदना-प्रतिमा.
आहत चूर्ण-चूर्ण, वात्सल्य-स्नेह की गरिमा.
भींगी पलकों से अपलक अनिमेष, क्षण स्तब्ध देखा प्रभु को.
प्रभु, आयत निर्विकार, प्रभा-विभ्राजित शान्त लोचन.
शाश्वत आश्वस्ति.
शाप विमोचन.
लहरा रहा था वहाँ, प्रज्ञा का, प्रज्वलित ज्योति प्रकाश राशि- वारिश,
डूबी, गौतमी.
शुष्क कृष क्षीण तरणी सी घूर्णित चकित,चेतना रहित.
समस्त वाचलता प्रगल्मता, असह्य दण्ड बन दे रही थी तारणा.
प्रभु चरणों पर रख शीश, गौतमी निरालम्ब निस्सहाय फूट पड़ी.
“ गौतमी” ! धीरज रख.
किसी वेदना को अबतक क्या पाया किसी ने भी सुखप्रद.
तू अपवाद नहीं.
अनित्य नाशवान की यही प्रकृति है.
यदि इसमें रहना है.
सतत स्पृहाओं अभावों में अनवरत जलना है. 
इन सब क्लेशों से आवृत जीव, नितांत अकेला है.
विकल उसके तन-मन-प्राण, उसी प्रकार,
जिस भांति, किंजल्क-जाल, केशर-सम्पुट-कैद-सुरभि,
तड़प रही, उन्मुक्ति, विमोचन हित.
यह संसार.
प्रज्वलित यहाँ जलते अंगार.
इनमें चलकर, सुख शान्ति कहाँ है.
इस अनित्यता के मेले को,
किस प्रकार तूने झेला.
सुना तेरे तर्क-वितर्क.
सम्प्रति तू है अत्यंत विकल मर्माहत.
जिस विचार पीड़िका पर है अवस्थितं
किंचित वहीं से तू डाल विहंगम दृष्टि.
यह अनित्य का मोहक सम्भार.
केवल अस्थि पंजरों के हैं अम्बार.
निर्वाणार्थ, निमित्त, अस्थि फूल,
पतित पावनी जाह्नवी में प्रवाहित किये जाते हैं.
उसी प्रकार, आवागमन-महाश्मशान-चक्र में,
जीव, मात्र अस्थि पुंज है.
जाने कितने जन्मों का अपने कर्मों का वह, कारण शरीर.
संचित अर्जित संस्कार.
विगत जीवन स्मृतियों का, अवशेष समूह है.
निरंतर, समय प्रवाह में, कर्म जाल आबद्ध, मुक्ति उपलब्धि हेतु, प्रवाहित होता है. हर जन्म. एक परीक्षा.
परम सत्य से, याचित भिक्षा.
मनन, चिंतन, उत्थापन.
यही आत्म दीक्षा.
पंचतत्व, घूर्णित गर्हित कल्मष, जीव,
बलात् बंधा नितांत विवश.
वह केवल, कर्मों से ही होता मुक्त.
यदि स्पृहा निरत रहा, वह, चलता फिरता जीवित शव ही रहा.
किस उपलब्धि निमित्त यह हठ-धर्मिता.
जब ज्ञात नहीं पूर्वजन्म और आगत भी अज्ञात रहा.
जीव का, कब कोई अक्षुण्ण अमर अस्तित्व रहा.
वह समय-पाश-पशु, अवधि-रशना कसा.
व्यर्थ भार वहन कर रहा नश्वरता का.
उसे भी पूर्णतः है ज्ञात.
क्या है ?प्राण-वहन.
कर रहा महाकाल, अनवरत भक्षण.
एक निवाले का अन्तर, यह क्षण-प्रभ जीवन.
मध्यांतर-अंतराल, केवल मोहक इंद्रजाल.
अज्ञात अनन्त आवागमन श्रृंखला,
गिना न जा सका, आदि अंत जिसका.
किस कड़ी को पकड़ के तू बैठी है.
वह भी तुझको ज्ञात नहीं.
कोई जीवन, अपना नहीं, मात्र धरोहर है काल का.
तेरी भांति बावली पटाचारा भी आर्त विक्षिप्त रोयी.
सब व्यर्थ.
जल पर प्रतिबिंबित रवि शशि छाया.
कब कभी किसी के पकड़ में आया.
केवल माया ने सबको मृगमरीचिका में दौडाया.
जिसे आत्मज तू कहती है.
उसमें तूने प्राण प्रदान नहीं किये.
तू मात्र निमित्त बनी जीव की, नहीं बनी अंतिम प्रयास.
आत्मा अविछिन्न अभंग अजर अमर शाश्वत.
वह महाशक्ति-श्रोत-अनन्त-अपार.
नहीं होता उसका विभाजन या वितरण,
मात्र ज्ञानाभूति प्रगाढ़ हृदयंगम.
यह है केवल तेरा अहम ममत्व की आर्त अंध चीत्कार.
कर इसे ही स्वीकार.
मात्र निरर्थक, सत्य आभासित, मिथ्या ममता.
इसकी रही हर जन्मों की ऐन्द्रजालिक मोहक छलना.
अहम पर आवेष्ठित यह परिवेश.
छला इसने अगणित बार.
मंत्रमुग्ध-विजड़ित जीव.
किंचित विवेक का रहा न लेश.
मानव ! अपने कृतत्व में, निज अहम ही निरखता है.
मृगमरीचिका इसका ताना बाना,
इसमें, मृगशावक सा आबद्ध विवश बंदी रहता है.
तू क्या निश्चय ही कर रही रुदन, सुत के निमित्त.
नहीं, इसमें केवल तेरा सौख्य, तेरा अहम निहित.
क्या अन्य के मृत पुत्र हित, कभी भी विलाप किया किंचित.
पुत्र, सब एक सरिस,
फिर, इसी पुत्र के ही प्रति, यह क्रंदन रुदन उत्पीड़न क्यों ?
जाने कितनी गोदें, हर क्षण रीती होती हैं.
समय प्रवाह में, होनी, अंजलि, भर-भर, इन माताओं के आंसूं पीती हैं.
इसके प्रति, क्या कहीं शूल चुभे तुझको.
या कसक हुई अन्तर को.
यदि नहीं. तो इसके ही हित में क्यों ?
यह मात्र अहम ही तो है.
जीव के मांस दर्पण में, उसके कण-कण में,
दर्पित अहम बहुरंगी रूप निरखता है.
मानव, इस अहम, इस छलना में, अविराम निरंतर पलता है.
निस्पृह, तटस्थ आत्मा, इस मेले का केवल दर्शक है.
वह देख रहा, इस असहनीय पीड़ा में भी जीव,
किस प्रकार मन्त्र-मुग्ध अथक है.
यह अहम.
समझ इसका मर्म.
यह सैकत का तडपता मृगजल है.
अब बुझी तृषा, अब वह यहाँ मिला,
किन्तु कहाँ पहुँच, वह लहराता दूर चला.
जीव, केवल व्याकुल विकल गया छला.
गौतमी !
अनित्यता के कार्यकलाप क्षणभंगुर हैं.
यह संसार.
केवल आदान-प्रदान.
नहीं किसी के प्रति प्रतिबद्ध है.
मनुष्य ! केवल स्वयं को करता प्यार.
जहां उसे, निज अह्लाद, उल्लासों का प्रत्युत्तर, होता प्राप्त.
बस वहीं तक, उसका स्वार्थ.
क्षण भर, पूर्ण दृष्टि निरख अपलक प्रभु को,
बोली गौतमी- हे जन्म कर्म के स्वामी !
क्या, पाषाणों का ह्रदय फाड़ विकल बहती है जो सरिता.
उछाल उछल निज जल लहरों में बढ़ती है,
क्षिप्र गति से ज्यों क्षणदा,
क्या वह स्वयं निज जल पीती है ?
क्या मंजरित फलित भार नमित पादप, निज फल खाता है.
कहा प्रभु ने- गौतमी !
सरिता का उद्देश्य मात्र सागर-मिलन.
गत्यावरोध लाते जलप्लावन.
वृक्ष ! प्रतीक अहम का.
अंकुरण नाना बीजों का,
करता है, वह भी केवल निज अहम प्रत्यारोपण.
वे उसके प्रतिबिंबित, अपनत्व अहम के नाना दर्पण.
दोनों में नहीं समर्पण.
मानव की वंश-परम्परा-श्रृंखला,
निज पहचान का अटूट क्रम-चित्रांकन.
पर ! यह किसकी पहचान.
होना जिसके प्रति सचेष्ट,
उसी से, वह, सतत सदा सर्वथा अनजान.
पीड़ा कातर चीख उठी गौतमी-
आह ! व्यर्थ यह अरण्य  रोदन.
निरर्थक मनः-उत्पीड़न, आत्म दोहन.
अबतक तो, पाषाण भी पिघल जाता.
आह ! जो रहा सौख्य में, पला सौख्य में.
जिसकी जन्म-घुट्टी ही में, मौक्तिक प्रवाल भस्म पड़ा.
स्वर्णपात्र भी, तिरस्कृत पत्रों सा, रहा, उपेक्षित सर्वत्र पड़ा.
भला, वह, निर्धन निरीह की पीड़ा क्या जाने.
कैसे उसकी असमर्थता माने.
जीवन.
घोर विसंगति.
असह्य अतृप्ति.
उसे ज्ञात ही कहाँ.
जो, परः-दुःख की, श्यामल छाया से ही कुम्हलाया.
आह ! भाग्य !
वह भी अबतक जाने क्यों, पराई व्यथा न अवगाहन कर पाया.
अब उससे, कुछ भी कहना क्या ?
यह लांक्षित जीवन.
रहा अहर्निशी व्यस्त निरंतर.
नित्य का अशन व्यंजन जुटाते,
किस प्रकार श्रांत क्लान्त,
रही गिरती, अनवरत कार्यरत, रात्रि की बाहों में.
तीक्ष्ण बिंधे कांटे, हर पल अपलक जग,
रही चुनती काली रातें, बैचेन तडपती विकल करवटों के.
नहीं याद, बीती कोई ऐसी रात.
जो, जलती, बुझती, सुलगती न रही हो,
आंसू में, आहों में.
और समस्त इति वृत्तियों का, यह अंतिम अध्याय.
बन गया अवश निरुपाय.
यह, मेरे सपनों का आशा-दीप.
लुढक गया, धूम फेंकता तीव्र प्रभंजन में.
लगी आग सर्वत्र, रही न किंचित शीतल छाँव.
मलयज-प्रच्छायित उशीर वन में.
यदि मैं लौटी, खाली हाथ.
दिया न भाग्य ने मेरा साथ.
पुनः उन्ही अग्नि झरित खिची तेवरों के नीचे,
रहना होगा,जबतक चलती हैं स्वांसें.
घनी उपेक्षा, मौन तिरस्कारों की विषाक्त फुंकारों में,
घोर दमन, को सहना होगा.
यह दुर्वह कठिन पावना, किस प्रकार होगा इसका भुगतान.
सहेंगे मौन जाने कबतक ये पीड़ित विकल प्राण.
आह ! आप्लावित यह अमिय छलकता गागर.
हे करुणा के सागर.
एक अकिंचन सीकर भी नहीं,
क्यों हुए आप इतने कृपण.
हे ! विघ्न, निघ्न, करण संताप हरण.
केवल एकबार, एकबार, सुन ले मेरी दीन गुहार.
तव प्रकाश विभ्राजित मंडलाकार.
मैं तव पावन पग धूलि.
नमित अगणित बार.
हे कृपा सिंधु. दीनबन्धु.
अप्रतिम मैं.
निरख, तव अदम्य-प्रखर व्यक्तित्व तेज-प्रभा-पुंज-इंदु.
यह अपार अथाह प्रकाश-पारावार.
इसमें. खड़ी रहूँ तो सहारा न मिले.
डूबूं तो किनारा न मिले.
तनिक छाँव आने दे.
पल एक ठांव, पाने दे.
बड़ी सघन विशाल वरद-वृक्ष-शीतल छाया.
तपित धावित चिरपिपासित प्राण-पपीहा तव चरणों में आया.
कुछ स्वातीकण झरने दे.
जन्म-जन्म की तृषा मिटने दे.
तू ! पराशक्ति.
या अपरा दिव्य विभूति.
तू केवल दैवशक्ति-शीर्ष-किरीट-कीर्ति.
यह अजर अजस्र यशः-मरन्द झरने दे.
मनः-चंचरीक को इसमें रमने दे.
हे ! परम चैतन्य कदम्ब.
आर्त ह्रदय- अवलम्ब.
तव पावन-पदः-कंज की मैं चूर्णित मर्दित दलित धूल.
त्वरित दूर कर अन्तरविद्ध तीक्ष्ण शूल.
माना.
हम सब, परा जगत की, विस्मृत में भूली एक भूल.
पर यह मेरा कुम्हलाया ह्रदय फूल.
मन आर्त विकल अति पीड़ित हारा.
गहन निराशा की अभेद्य कारा.
एकमात्र तू ही मेरा कूल किनारा.
परा ! अपरा ! का मेला कहाँ है.
फिर भी !
तटस्थ समय, सब झेल रहा है.
तू भी ऐसा ही कर.
हे परम दयामय परात्पर.
नितांत निराधार मैं.
केवल तुझ पर ही निर्भर.
तू ही एकमात्र अकेला, मेरा स्वामी, मेरा दाता.
तव चरण- बंधा मन, भाग-भाग तव शरण में जाता.
तू ही मेरा जन्म-मरण, चिरंतन स्वामी, भाग्य विधाता.
जग, जो भी कुछ कह ले तुझे.
एकमात्र साक्षी मेरा ह्रदय.
तू सर्वग्य सर्वथा सदय.
तू ! त्रिपर्व, त्रिसंस्थ, कान्त्दर्शी,
त्रिशूल-त्रिताप-त्राता.
कर शीतल तन-मन.
दे शाश्वत निदान.
अभय दान.
हे सत्य-संध-आधन.
प्रभु ! केवल एक बार, करें विचार.
पराई पीड़ा निरख विकल होकर आप बने बीतराग सन्यस्थ अर्हत.
जो स्वतः अकेला झेल रहा, क्यों उसके प्रति मौन बने प्रस्तर.
एक, बिचारा बीत गया.
सारा रस छीज गया.
सोचें तनिक, कितनी अगम गहन विरल है,
यह पीड़ा की मर्मान्तक घुटनभरी यात्रा.
कितना थका यह प्राण पथिक है.
ज्ञात नहीं यह भी, अबतक अभी भी,
यह पथ, शेष हुआ या बचा अधिक है.
कंटकाकीर्ण संकुलित ये अनुरथ्यायें,
क्षत विक्षत रक्तरंजित कम्पित पग, धूल धूसरित काली संध्याएं,
दिन जला, शीश पर मनमानी.
रातें ! बीती अपलक जग.
अन्य के दुखों पर तव आंसूं छलके हैं.
उनकी व्यथा क्या जानो, जो जन्मजात पीड़ा में ही पलते हैं.
नहीं चाहते कदापि वे भी,
आनंदकांक्षी हृद-धड़कन पर हर क्षण पीड़ा की निर्मम नर्त्तन.
जानता मन. नित्य अनित्य का संगम.
भाराक्रांत जीवन यात्रा दुर्गम.
किन्तु रात्रि की कज्जल काली आँखों में उतरता मयंक, बनकर उसका दर्पण.
जीवन भी चाहता आशाओं का लहराता सदाबहार नंदनवन.
मन का, सौख्य-सुधा-सिंधु में निशंक संतरण.
प्रभु !
यह विराग,
है असमय का राग.
इससे, सन्धुक्षित प्रज्वलित अविराम, बढ़ रही,
धधक रही, यथार्थता की निठुर आग.
उसे शमन करें.
हा ! हत् भाग्य.
उपेक्षा पात्र.
देवता भी उनपर होते नहीं दयाद्र.
मैं, अकारण किस प्रकार हुई दण्डित.
जीवन के समस्त अर्थ हुए चूर्ण विखंडित.
इन ध्वस्त भग्नावशेषों के टुकड़ों को उठा-उठा कर,
खोज रहा मन, उनमें मौन हुए अनुत्तरित प्रश्न.
संसृति की वीणा का निस्वन,
कौन कर पायेगा, अकेला वहन.
जन्म ही मांगता नत-प्रणत घुटने टेक अंजलि-बाँध,
प्रकृति से, चिर परिचित कांक्षित धड़कन.
सदा साग्रह चाहता प्राण.
उल्लास भरा, आह्लादित प्रत्युत्तरित सापेक्षित, आमंत्रण.
निज कृतत्व का उससे सहर्ष अनुमोदन.
कोई भी प्राणी सामान्य, करेगा कब शून्य का आह्वान.
वह, सदा का सामाजिक, परस्पर संवेदित सम्भाषित.
आप, निर्विकार, निवृत्त.
संसार-सन्यस्त, दूरस्थ अवस्थित,
समाधिस्थ, ध्यानावस्थित.
आपका, ध्यान जगत.
इस जग से कहीं अधिक, वैभवशाली मनोरम आप्तकाम पूर्ण है.
इसके, सब द्वार खुले.
सब द्वार बंद.
मुझ जैसों का प्रवेश निषिद्ध.
उसकी, निःश्रेणी, क्रमशः आरोहण.
ध्यान, ज्ञान, मनन, चिंतन, सयम,
तर्क-वितर्क, मौन संलापन.
आत्म-प्रकाश-ज्ञापन.
वह, अभ्प्प्त अपरिमेय अलौकिक शाश्वत प्रकाशित, आत्म-प्रतिष्ठान.
जल रहा वहाँ शीतल स्वच्छ प्रलक्षित
उदभासित, कोटि-कोटि दिनमान.
किन्तु, हम नगण्य.
नहीं विकल्प अन्य.
सदा अपेक्षित, क्षण, प्रतिक्षण, आदान-प्रदान.
परस्पर मान-सम्मान.
हम सन्यस्त नहीं.
वियोग, मानव का मानव से, व्यथा पंहुचाता है.
अटल सत्य, असत्य का, सभी जानते.
किन्तु इस शाश्वत सत्य को,
स्वयं पर घटित कदापि नहीं मानते.
नित्य स्वांसों की लड़ियाँ टूट रहीं,
जाकर, कहीं अन्यत्र वे क्रम-श्रृंखला बनी.
नश्वरता का विकरण, नित्य क्षरण.
किन्तु सब स्वयं को अविनश्वर,
अन्य को नश्वर ही जानते हैं.
वह, मोहान्ध आँखें बंदकर सत्य-चकाचौंध में,
अन्य विकल्प खोजता है.
दौड़ा रहा उसे प्रलोभनों का इहामृग.
जो है अनृत उसे ही सत्य मानता.
प्रभु ! सब जान समझ हृदयंगम कर,
मैं भी वैसी ही मूढ़ जड़ हूँ.
कोई भी आश्वासन, जले पर लवण.
मेरे इस अभागे तिमिराछान्न आकाश में,
ज्योतित नखतों का कहीं प्रकाश नहीं.
ये नभ पर छिटके नखत नहीं,
नियति, अभिलाषाओं के अहेर का,
रक्त-बिंदु, छिटकाती चली गयी है.
सर्वत्र आरक्त रुधिर बूंदे बिखरी,
वे, आशाओं के मुर्मुश दम तोड़ रहे पक्षी की,
प्राणान्तक अबूझ अगम्य व्यथा कहते हैं.
दिन को वे, मौन शयित लुप्त,
उज्जवल मरण वासन आवृत,
रात्रि-निरावरण, अश्रु छल-छल,
निज जवाला में जलते हैं.
भावनाओं का गुरुत्वाकर्षण,
कर न सकेगा कभी भी,
समस्त भुवन भी, वहन.
मेरे सुत को प्राण दान दें.
मैं, जिस प्रकार अभी घूम रही,
उसी प्रकार खोल हर द्वार, यही कहूँगी.
प्रभु ही अविनश्वर परात्पर.अमृतेय. अनुनमेय.
काटे, उन्होंने निशंक, यमपाश के जटिल बंधन.
कहा प्रभु ने- गौतमी !
बस इतना ही तू जान.
त्याग, अंधमोड़, अहम अभिमान.
आत्मा.
निस्पृह निर्लिप्त
आवागमन-चक्र-अंतराल-जाल-मंजीत-निष्क्रमित,
सदैव,क्षिप्र त्वरित गतिमान.
भग्न करती, पञ्चतत्वों का जड़ अभिमान.
निष्कल आत्मा.
न कोई सम्बन्ध न सर्वनाम.
निश्चय ही तुझे ज्ञात होगा.
मृतात्मा अभिमन्यु को,
जब शोकातुर अर्जुन ने चंद्रलोक में देखा.
“ हा वत्स.” कहकर पागल सा दौड़ा,
बोला, निर्मम अपरिचित सा वह-
“कौन पुत्र. कौन पिता. मेरा किसी से नहीं है नाता.”
सत्य ही, आत्मा निर्बन्ध.
कब माना उसने छंद.
घूमकर यदि वह, अपने बीते अनगनत जन्मों को देख सके.
अपने ही सहस्र जन्मों के आत्मीयों के संग,
वह कैसे, किन रूपों में स्वयं को बाँधे.
इस क्षणभंगुर चैतन्यप्रभ जीवंत ठहरे कुछ क्षणों को ,
मत, निरर्थक, मिथ्या परिचय का भ्रम दे.
समय असंवेदनशील शाश्वत गतिमान.
आत्मा अजन्मा.
समय कभी बंधा नहीं.
मत कर, व्यर्थ क्रन्दन.
समय का, शाश्वत अविराम निरंतर चलता मंथर सयंदन.
उसके वज्र कठोर घूर्णित चरणों के नीचे,
रजकण से चूर्ण हुए, रवि, शशि,नखत तारक गण.
उसके कंपन से ध्वस्त हुए,
विशाल दीखते, क्षुद्र नगण्य, हिमवंत शिलाखंड.
आये जलप्लावन, भूमि स्खलन.
नष्ट विनष्ट हुए, प्रकृति के सुरम्य रमणीय कमनीय मधुवन.
तार-तार हुए उसके, हरित सुरभित कुसुमित बहुरंगी चित्र विचित्र.
वसन.
वह. अपनी धुन में रहता है.
नहीं किसी की सुनता है.
उसकी गति. अंध, प्रमत्त दुर्दुष अप्रतिहत.
किसे लगी चोट, कौन हुआ विलग,
इसके प्रति, वह, कदापि नहीं सतर्क या सजग.
वह रहा सदा कार्यरत यंत्रवत.
कहा बिलख कर गौतमी ने- हे शास्ता ! हे भाग्य विधाता !
यह प्राण, प्यासा है, अन्तरघट तक प्यासा.
ये जीवन दर्शन, अंधे दर्पण.
कर रहे केवल आत्म-दहन.
प्रभु ! न करें उपेक्षा.
नश्वर की.
दोनों एक दूसरे से सम्यक संतुलित,परस्पर पूरक हैं.
वे प्रत्युत्तरित दर्पण,
अविनश्वर का,
वाक्
प्राण.
नश्वर ही है.
वह उसकी सत्य-अभिव्यंजना, उसकी रसना है.
अन्यथा, वह मूक वधिर अपंग.
दे रहा उसे कौन स्वर.
कहाँ उसकी वर्चस्वता है.
यदि खिले नहीं प्रसून, कौन सुरभि का अवगाहन करता है.
पुष्प.
सुगंध की आधारशिला.
उससे रहित वह निरर्थक सर्वथा.
ये विराग.
फीके पड़ गए, इसके राग.
ये, चार दिन की भोगी गयी औषधियां, हो गयी पुरानी.
रही न इसमें मौलिकता, किंचित नवीनता गुणवत्ता.
सब ओर से निराश मन.
बार-बार तव चरणों में निराधार झुक जाता.
जलता त्रस्त विकल प्राण, खोजता इन्ही पावन चरणों में शीतलता.
अतः ! हे अशेष ! मत दें उपदेश.
बढ़ती जा रही व्यथा अथक.
जाने क्यों अबतक इस तन में प्राण.
हैं ये किसके बंधक.
धैर्य-बाँध, कभी का टूटा.
पंखरहित विकल प्राणों का पंछी, छटपटाता रहा, अब डूबा, तब डूबा.
किसी तट, उसे पंहुचा दे, यह मनः-ताप बुझा दे.
जो, अलौकिक, अप्रत्यक्ष अस्पर्शित, उसके प्रति नाना विधान.
प्रत्यक्ष जो यहाँ पड़ा, खोज रहा, निष्फल अलभ्य निदान.
उपदेश नहीं, आशीष मुझे दें.
मेरी सूनी गोद, अविलम्ब तुरंत भर दें.
कहा प्रभु ने- गौतमी ! शान्त सुना मैंने, तेरा उदगार.
तू, वह नहीं जो, सर्वसाधारण में हो पंक्तिबद्ध.
वजनी, गूढ़, गुरु, विचारणीय, है तेरे कथ्य.
तू गहन मनन चिंतनशील, नीर-क्षीर-विवेकी है.
ज्ञान-यज्ञ-यजन विदुषी है.
विचक्षण कुशाग्र तर्कमयी मनीषी है.
क्या कभी झाँक कर तूने, निज निवीड़ अंध अटल अन्तर-दह में देखा.
मनः-अन्धकार में, शान्त, निश्चेष्ट, अचेतन, प्रशुप्त,
शयित,पडी उज्जवल धवल चमकती, प्रज्ञा की विद्युत-लेखा.
उच्च मनः-आकाश-क्षितिज पर, निश्चय ही कदाचित, उसका भास हुआ होगा.
तू, जिस स्थान पर अवस्थित,
हो नहीं सकती कदापि वहाँ, क्षुद्र स्पृहाओं, एषणाओं की निर्वाध क्रीड़ा.
फिर तू क्यों इस प्रकार अधीर है.
तुझमें क्यों है ऐसी मर्मान्तक पीड़ा.
लेकर गहरी निश्वांस, अति उदास, बोली गौतमी –
प्रभु ! जलप्लावन. अंध, अप्रतिहत, औचित्यरहित,
नहीं देखता, शुभ अशुभ.
वह, विध्वंसक है.
जब, गरजता विनाश करता चला जाता है.
अपनी क्रूर क्रीड़ा अंकित कर जाता है.
तट पर, सिकता का अश्रुसिक्त, भींगा, वक्ष सिसकता है.
समस्त सौष्ठव, सौंदर्य, क्षत-विक्षत, अटूट अजस्र क्रंदन.
अन्तर मंथन होता है.
वह अति दीन, श्री विहीन.
केवल रहता है शेष अपना खालीपन, घूर्णित रीता सूनापन.
उस, अभाव की आश्वस्ति, भला दे पाता कौन.
अनगूंज गूँज, व्यथा का, सैकत रेखाओं में, पीड़ा का आकुंचन कंपन.
कौन समझता है ?
प्रभु ! शोषित, पीड़ित,मर्दित का अन्तर-दोहन.
वैसा ही उपेक्षित, नियति-प्रहारित, मानव जीवन.
किन्तु घोर निराशा में.
निस्तब्ध, निभृत, निसंग, निस्सहाय, एकाकी, कज्जल-काली रातों में.
ज्योतित झिलमिल नखतों के, मौन सन्देश भरे,परस्पर संवेदित-संलापों में,
कहीं सुदूर प्रज्वलित धूमल-प्रकाश का, कभी-कभी मिला, हल्का सा आभास. 
भावों के ज्वार संकुलित, लहर-प्रताडित, पीड़ित, सूने तट पर,
अनवरत  भींगती ह्रदय-गुफा की प्राचीरों, से घिर,
कहीं दूर छिपा, घन-अन्धकार में.
युग-युग से अविराम, प्रगाढ़ तन्मयता में,
निश्चल, निष्कम्प मौन, शान्त.
कोई, ज्ञानी,  ध्यानावस्थित है.
किन्तु करूँ क्या.
अन्तर और वर्हि कार्य कलापों से,
अप्रत्याशित, अयाचित, अदृष्ट अवर्ण्य असह्य, आघातों से,
मन कातर, अतीव विचलित है.
एक ही विचार, चिरंतन कर रहा पीड़ित.
एक शक्ति की ही प्रमुखता, सतत प्रवाहित संचारित
वह, जड़-चेतन-अविनश्वर-नश्वर में.
फिर, अमरत्व क्यों इतना दुर्दम्य शाश्वत चिरंतन.
और नश्वरता, बार-बार पीड़ित, रूप विपर्यय, प्रत्यावर्त्तन में.
यह मेरा सुत, क्या कहीं, इसमें वही पञ्चतत्व. 
क्या नहीं, शाश्वत प्राणवंत जीवनधारा थी.
कारण क्या ?
अमरत्व, अजर अमर अपरिवर्तित,
यह इस प्रकार काल कवलित.
प्रभु ! करें किसी प्रकार इसे जीवित.
एक ही उजली चादर.
आधी प्रकाश, आधी छाया में.
क्यों एक निरावरण.
एक अवगुंठित माया में.
बंद मंजूषा में, बंदी शयित स्पृहायें.
किसने खोला, विकल एषणाओं के, विष फुन्कारित व्याल.
यह किसका इंद्रजाल.
हम निरीह, बने अहेर.
प्रभु ! ऊब गयी मैं भी अब इस जीवन से.
करें न किंचित देर.
कहा प्रभु ने- गौतमी.
तू स्वयं सक्षम, निज निदान संधान में.
कहीं से ला.
एक मुट्ठी पीतवर्ण सिद्धार्थक.
हरण हो अविलम्ब, यह पीड़ा मर्मान्तक.
किन्तु वह पीली सरसों,
जिस गृह, कभी आया न हो काल.
कभी न निधन हुआ हो, किसी पिता या माता की,
ममता की बाहों में, निर्जीव न हुआ हो, उसके सपनों का उत्सव.
जहां चिरंतन, रसराज तरंगित हो आनंदित, प्राण-सुमन अभिनव.
ऐसे ही गृह की, वांक्षित सरसों पीली.
प्राण विछोह विप्लव से हुई न हो, जिनकी, आँखें गीली.
अभी. अभी.
तुरंत लाई प्रभु.
पीली सरसों के दाने.
बिखरे कहाँ, नहीं घर आंगन, खेतों खलिहानों में,
ये पड़े मिलेंगे मनमाने.
मृत वत्स वक्ष से लगाकर वह उठकर भागी, सत्वर.
गयी जिसके भी द्वार. विदीर्ण कर गयी उसकी, विकल करुण गुहार-
“एक मुट्ठी भर पीली सरसों दे दो. मेरी असह्य व्यथा हर लो.”
सुनकर तड़प भरी पुकार, हर घर की नारी,
खड़ी हो गयी, खुले कपाट पकड़ निज द्वार.
न कर कातर चीत्कार.
भरे पड़े सरसों के अम्बार.
ले ले, जितना भी चाहे,
मत भर विषाद की पीड़ित आहें.
अश्रु पोछती आँचल से बोली, गौतमी-
मुझे वांछित उस घर की ही सरसों,
न आई हो वहाँ, मृत्यु कभी.
चौकी, उसे घेर कर सब नारी.
यह, क्षयिष्णु संसार.
अनित्यता का व्यापार.
नश्वर जग से, कैसी ये बातें न्यारी.
क्या श्रृष्टि आरम्भ से, प्रलय-पर्यंत तक, कभी भी ऐसा होगा.
जो जन्म लेगा, अनिवार्य मृत्यु.
भला क्या कालचक्र में, व्यतिक्रम कभी पडेगा.
गए इन आतुर बाहों, व्याकुल धडकनों को छोड़,
गोद के नवजात शिशु, अचानक मुख मोड़.
रही जिन स्वामी की छाया शीश पर,
वह भी हो गया निष्प्राण पराया.
हर क्षण, हर यम,  जीवन ले जाता है.
खुले हों या बंद हो कपाट,
वह सबमें निधडक आता है.
जिसके घर से जिसे चाहा,
समय असमय बिना बताए,बेखटके ले जाता है.
बाल, अबाल, वृद्ध, युवा, बलशाली, वैभवशाली, समर्थ, निर्धन, विपन्न.
उसके पाशों में अटकी, एक सामान सबकी ग्रीवा.
कब किसे खींच ले जाएगा, इसे वही जानता है.
हर घर पर एकछत्र सर्वत्र, इसकी श्यामल प्रच्छायित छाया.
यह, महाकाल की अटल सफल माया.
जन्म-मरण, आदि-अंत.
एक सृका में गुथे, एक संग.
यही अथः इति, पंचतत्व की अंततः-निवृत्ति.
जीव, उन्मुक्त पंचभूत त्याग उड़ जाता है.
यह शरीर निर्जीव निष्प्राण, यहीं पड़ा रहा जाता है.
यही शाश्वत अविनश्वर चिरंतन, सत्य.
मरण धर्मा अनित्य.
निर्विवाद इसे अपनाते हैं.
पूर्व जन्म, वर्तमान अथवा आने वाला जन्म.
सब, एक श्रृंखला की क्रमबद्ध कड़ियाँ हैं.
किस क्षण, कहाँ से, यह कड़ी कब टूटेगी, या पुनः जुटेगी.
यह उन्हें जोड़ती, फेंकती, आवागमन चक्र की अदृश्य लड़ी है.
किसी जन्म अथवा मरण पर, अपना वश नहीं.
केवल कर्ता ही इसे जानता.
हम सब सूत्रधार के संकेतों पर, चलने वाली कठपुतली हैं.
सब सुनकर, कहा गौतमी ने बिफर कर-
नहीं ! मृत्यु यहाँ विवश है.
मेरा सुत पुनर्जीवित होगा.
यह विश्वास अटल है.
जड़ है प्रकृति.
नहीं जानती जीवन-मर्म.
आँख बंद वही करती है.
जो है प्राचीन प्राकृत धर्म.
निश्चय टूटेगी, उसकी रूढ़िवादिता.
जब होगा, नव-ज्योति का उन्मेष उसके अंध-ह्रदय-गह्वर में.
आज दूर होगी उसकी हठवादिता.
होगा, विश्वास भंग.
जब जीवित मेरा सुत, देखेगी, चलता-फिरता मेरे संग.
और पुलक भरा होगा मेरा, अंग-अंग.
अवश्य मिलेगी मुझे सरसों पीली.
उल्लास प्रभा से भर जायेगी आँखें गीली.
दे रही चुनौती, मैं,महाकाल को.
प्रकृति ! प्रकृति ! केवल बकवास.
करते रहे सदा निराश. इसके विधान.
सर्वदा रहे अधूरे, आधाररहित, तर्करहित निरर्थक समाधान.
हुए न पूर्ण कभी इससे कोई निदान.
जो बना या बिगड़ा.
जो अर्धनिर्मित या विकृत.
सबके प्रति, बस एक वाक्य, यही प्रकृति है.
इससे ऊपर जो कुछ भी है, आज उसे ही पाना है.
यह संसृति जिसकी परछाई, स्पष्ट, आँख भर उसे निरखना है.
इस मायाविनी ने, हर प्रकार से बहलाया.
कभी कहा पूर्वजन्म का कर्म योग.
कभी कहा आने वाले जन्मों में, कट जायेंगे सारे शोक.
किन्तु प्रत्यक्ष वर्तमान का, इसके पास,
सटीक सतर्क अकाट्य उत्तर कहाँ है ?
ठेल रही, पूर्व जन्म, आगत में.
जल रहा, वर्तमान.
उसका निदान कहाँ है ?
नहीं इन बातों में कोई बल.
खोजे मानव नए विकल्प.
मैं, जाती हूँ अन्यत्र.
जाने, कहाँ-कहाँ की ठोकरें खाती,
सुनती रही, एक ही बात सर्वत्र.
गौतमी, आकर खड़ी हो गयी, निर्जन विजन वन में.
अपने पीड़ित एकाकीपन में.
एक सघन वट-वृक्ष की श्यामल शीतल, छाया में.
रखा सुत को हरित कोमल दूर्वा पर.
आँखों में जलभर आया.
आह ! ह्रदय.
तू भी इसके संग ही, फटा क्यों नहीं.
दोनों के प्राण एक संग ही, बिछुडे क्यों नहीं.
किन्तु पता ही क्या ?
वहाँ भी, एक ही साथ, एक ही राह,
एक ही आवास, रहा होता.
या बाहर आते ही, दो विपरीत मार्ग मिला होता.
जीवन ! अब हर प्रकार दुर्वह प्राणांतक है.
किन्तु, मृत्यु !
जिसके बोल अबोल.
अणु-अणु में डोल,
हर रसः-आप्लावित प्याली में, मौन रही मारक विष घोल.
पुनः एकबार,मृत शिशु को देखा मौन पड़ा.
थी उसके निश्चल भोले मुख पर, अनगनत पीड़ा की नीली रेखा.
अद्भ्य ज्वाला तर्क ज्वार भीषण उमड़ा.
विस्फारित आरक्त आँखों में पीड़ा का, अग्नि झरित आक्रोश.
समस्त जग के प्रति घोर क्षोभ.
बोली- छला. छला. सबने मुझे यहाँ छला.
धरती-आकाश, कहीं नहीं, कोई सहृदय मिला.
न कहीं निदान, न समाधान.
मन.
ध्वांत, अशांत, क्लान्त, श्रांत.
जब प्रत्यक्ष उदाहरण.
सावित्री-सत्यवान का.
मृत शरीर में पुनः प्रवेश किया सत्यवान की आत्मा ने.
कैसे कहते हैं लोग. विनाश, मरात्मकता, ही चयन किया नश्वरता ने.
कहाँ रही अमरता, कहाँ रही क्षणभंगुरता.
रुका कैसे समय का स्पंदन, अविराम निरंतर, चल्रा.
सावित्री ने ऐसी ही वृक्ष की छाया में,
यमपाश से विमुक्त कर,
मृत सत्यवान को पुनः जीवित पाया.
कहाँ गया था पंचतत्व, कहाँ गयी थी नश्वरता,
जब, पंचभूत-विकिरण में, पुनः प्राण संभूत जीवन लहराया.
फिर मेरा सुत, क्यों हुआ मूक.
पूंछूं किससे.
इस नश्वरता की मोहकता ने सबको मुग्ध बनाया.
किन्तु, रख निज वक्ष पर दोनों हाथ, उसने मन को समझाया.
सत्यवान. सत्य-अनुष्ठान.
प्रथम सावित्री ने ही चयन किया था, आध्यात्म-सोपान.
स्वामी था निश्चय ही,
किन्तु, वह केवल था माध्यम, सत्य-अनुसंधान का.
आत्म-शोधन.
चरम निष्कर्ष निदान का, यही था.
नचिकेता भी.
दोनों के द्वार, मृत्यु, स्वयं नहीं आई.
अपितु, उसे ही दिया इन दोनों ने, स्वयं जाकर, आमंत्रण.
इन्हें छोड़ देखा ही किसने, क्या है उसके व्यापार, निरावरण.
एक पटल अभेद्द अटल माया का,
फाड़ दिया, निज आत्मबल अध्यात्म-प्रकाश से.
वह.
सत्यवान नहीं हुआ पुनः जीवित.
इसमें थी सावित्री की ज्ञान-यजन-ज्योति-ज्योतित.
और नचिकेता !
घोर उपेक्षा से उसने अनित्यता को फेंका.
यमगृह में अवस्थित होकर, उसने स्पष्ट प्रत्यक्ष यम को देखा.
प्रत्यक्ष सम्मुख किया उसने संभाषण.
केवल नित्यता को ही किया वरण.
और मैंने ! मोहन्धता के प्रबल ज्वार में, आर्त विकल उसे पुकारा.
साक्षात नहीं देखा.
केवल आभास और प्रतिक्रया का ही, किया अवगाहन.
आभास और प्राप्ति !
दो विपरीत विभिन्न स्थिति.
एक मानस पटल-प्रतिबिंबित छाया-आकृति.
दूसरा स्पष्ट स्वीकारोक्ति.
प्रत्यक्ष साकार निर्मित.
पान किया जिसने, मृत्यु का मारक घूँट.
प्राप्त उसे ही अमरत्व की छूट.
माया मोह की, उद्वेलित धडकनों पर,
हचकोले खाती डगमग करती,
मैं, भला कहाँ खड़ी होती हूँ.
किस बल पर निराधार,
मैं, हवा में महल बनाती हूँ.
जब चरण तले ठोस धरा नहीं.
परा, अपरा का, कभी कदापि मेल नहीं.
एक प्रकाश.
एक घन अन्धकार.
मैं.
दोनों के मिलन क्षितिज पर, उद्भ्रांत ठोकरें खाती हूँ.
प्रकाश, प्रकाश से ही मिलता है.
केवल उसे ही स्वीकारता है.
अन्धकार कब प्रकाश से गले मिली.
व्यर्थ मैंने अनित्यता की वीणा में,
नित्यता का स्वर संधान किया.
अमृत, अमृत है.
कब उसने कालकूट को अभय दान दिया.
मरण धर्मा को निश्चय ही पञ्चतत्व में मिलना है.
सब अनन्त-यात्रा के अविराम गतिमान पथिक.
अवधि किसी की न्यून या अधिक.
देखा जिन्होंने, स्वयं यम गृह को,
या गए यम का अनुसरण करते, उसके विराम स्थल को.
वे भी, सदा शाश्वत कहाँ रहे.
कहाँ है ? सावित्री-सत्यवान या नचिकेता.
भले ही, कालचक्र में व्यवधान व्यतिक्रम पड़ा कुछ क्षण का.
जब, महान विभूतिया, समय से टकराती हैं.
वे, ऐसा भी अवसर, कभी-कभी ले आती हैं.
किन्तु काल, करता सर्वस्व भक्षण.
वह केवल पंचतत्वों में एकत्रित करता, निज मनः-वांक्षित अशन.
महाअघोरी, महाश्मशान सेवी.
केवल, महाविनाश का सृजन करता है.
महा निष्ठुर.
नैसर्गिक अनुपम सौंदर्य श्रृष्टि को,
स्वयं बनाता, स्वयं नष्ट-विनष्ट करता है.
उदेश्यरहित इसका कार्य.
अकारण करता निर्मम प्रहार.
प्रचंड ज्वाल फेंकती अविराम जल रही
महाकाल की विशाल प्रज्वलित चिता.
कर्षित सब गिर रहे अवश शलभ से.
अदम्य ज्वाल. असह्य ताप.
कोई कहीं नहीं बचा.
अत्यंत विषण्ण.
गहन उदास.
लेकर ठंडी गहरी उसांस.
क्षण देखा, मौन निठुर निरभ्र आकाश.
सर्वत्र घूमती हताश खोजती आँखें ठहरी
निर्जीव निरीह निष्प्राण निर्वाणित शिशु पर.
पागल सी झपट उसे खींच वक्ष से चिपकाया.
शीतल काष्ठवत् शरीर को बार-बार सहलाया.
विह्वल कातर विकल विछोह के अजस्र चुम्बन से भर,
ऊष्म उबलते अश्रुओं से नहलाया.
पुनः धरा पर रख, मृण पुष्प पत्रों से ढँक,
कर-पुट में पुष्पांजलि लेकर मृत शिशु की प्रदक्षिणा करती,
उस पर बार-बार पुष्प फेंकती बोली –
“द्दौ शान्तिरन्तरिक्षः शान्ति पृथ्वी.
शान्तिरापः शान्तिशेषधियः शान्ति.
वनस्पतयतः शान्तिॅ विश्वदेवा शान्ति.
शान्तिर्वहम शान्ति शान्ति सर्वेशान्ति.
शान्तिरेवशान्तिः सा माँ शान्ति रेधि.”
क्षण थमी. पुत्र पर झुक सहलाती बोली-
यह चिरनिद्रा. अनन्त विदा.
“सो. मेरे प्राणोपम सो.”
यह शाश्वत विछोह.
मेरे सम्मोहित अंध मोह.
मैं गयी नियति से हार.
अब कदापि नहीं मिलन.
इस या उस पार.
विस्तीर्ण व्यापक कज्जल अयेद्द अन्धकार.
यह चिर विराम.
मेरे हृद धड़कन.
सौख्य-आराम.
मेरे जीवन सर्वस्व.
कर चिरनिद्रा में शान्त प्रगाढ़ शयन.
ओ मेरे अन्यतम अभीपिस्त.
प्राण सुरभि सुकुमार.
मेरे शाश्वत पीड़ित प्यार.
आंसू से भींगा मुख.
मुड़कर देखा अंतिम बार.
हे पंचतत्व ! लौट रहा तेरा सत्व.
यह मेरा अंतर्भेदी गहन ममत्व.
हे क्षिति जल पावक गगन समीर.
समर्पित तुझको, तेरी धाती भर असह्य पीर.
वह त्वरित गति से लौटी जेतवन की ओर.
चल रही निसंग पथ पर
ज्यों नीरद से पतित क्षिप्त तडपती बिजली,
या सागर से भटकी वाडव-ज्वाला बहकी.
प्रभु, सघन वृक्ष की छाया में समाधिस्थ.
गौतमी सम्मुख मौन खड़ी अपलक.
देख रही, निःशब्द विपन्न विषण्ण.
समस्त प्रभंजन बरसातों वज्र निपातों के पश्चात,
ज्यों शान्त धुला स्वच्छ नील गगन.
जड़ हुए मुख पर पीड़ा के आकुंचन. 
विजड़ित पीड़ा का मुखरित स्पष्ट सूक्ष्म वर्णन.
दो अश्रु बिंदु डब-डब, नखत से चमके.
पत्थर बने अधर की आकुंचन, पीड़ा से सिमटे.
दोनों बाहें फैलाकर, धरा पर साष्टांग गिरी.
अप्रतिम जड़ प्रतिमा निरख, काँप उठी, अवनि.
आ रही थी, विहार-चैत्य से, पूजन की संध्याकालीन मन्द्र-मन्द्र, ध्वनि –
“बुद्धम् शरणम् गच्छामि.  बुद्धम् शरणम् गच्छामि. बुद्धम् शरणम् ........”




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