Friday, 14 December 2012

सर्ग : २४ - अंगुलिमाल

प्रभु
निज चारिका में,
कर रहे थे वर्षवास व्यतीत,
श्रावस्ती में,
अनामपिंडक के जेतवन में,
हो उठे पीड़ित सुनकर,
कोशल के नर-नारी भयभीत संत्रस्त हैं ।
जनजीवन कोशल का, अस्त व्यस्त, त्रस्त है ।
कोई दस्यु दुर्द्वुष अत्याचारी,
मचा रहा आतंक नगर में भारी ।
नहीं देखता वह । बाल, युवा, वृद्ध, नर-नारी ।
रात्रि दिवस, जब भी पाता,
जिसे देखता । नहीं पूछता, नहीं कुछ कहता ।
सीधे करता है प्राणों की ह्त्या ।
लगा दिया उसने कोशल में, शवों की ढेरी ।
मृतकों की उंगली काट-काट कर,
उंगली-सृका, बनाता है ।
उसे ग्रीवा में डाल,
वह सर्वत्र आतंक मचाता है ।
सम्प्रति वह,
श्रावस्ती के विशाल गहन जालनी महावन में है ।
प्रभु ने जालनी वन की ओर किया प्रस्थान ।
निषेध किया लोगों ने ।
प्रभु । दस्यु है विवेकांध ।
नहीं उसे कुछ भी ज्ञान ।
वह ।
शास्ता के संग भी, उचित नहीं करेगा ।
निशंक प्राण हनन को बेधड़क बढेगा ।
कोशल नरेश प्रसेनजीत,
स्वयं सैन्य बल के संग खोज रहे हैं,
कहां है वह नृशंस ।
अतः आप यहीं थमें प्रभु ।
न हो उधर जाने को उत्सुक ।
प्रभु ने मौन उठाया निज कर में, भिक्षापात्र ।
मार्ग में सब सुनाते रहे, उसकी क्रूर कथाएं ।
कि प्रभु अब भी, किसी प्रकार थम जाएँ ।
किन्तु मौन ही प्रभु बढ़ते गए,
उस महावन की ओर
जहां अंगुलिमाल वास कर रहा था ।
रात्रि की कालिमा,
दिवस की मधुरिमा को,
आरक्त रंग से रंग रहा था ।
जालनी वन निस्तब्ध कंटकाकीर्ण था घोर ।
घबडाये पक्षी खगचर भी कहीं छिपे थे ।
नहीं थी कोई हलचल, नहीं था किंचित शोर ।
था केवल, चरणों के नीचे पत्रों का चरमर ।
अथवा झर झर जल प्रपातों का स्वर ।
निज धुन में चलते चलते,
सुना प्रभु ने, अति रुक्ष कठोर विनम्र मानव गर्जन ।
श्रमण ! ओ श्रमण । थम ।
गति तीव्र रही प्रभु की ।
नहीं मार्ग में, कोई बाधा या अवरोध ।
हांफता सा चीखा दस्यु-
कहाँ चला जा रहा सत्वर ।
क्यों है, तेरी गति इस प्रकार अप्रतिहत तत्पर ।
आदेश नहीं सुना तुमने ।
नहीं, किंचित भी, भय है मन में ।
बोले प्रभु, शांत गंभीर मृदु कोमल स्वर में-
मैं स्थित हूँ ।
निश्चल हूँ ।
बोला अंगुलिमाल-
तू ! निरंतर गतिमान ।
क्यों व्यर्थ कहता है ।
ज्योतिर्मय प्रसादपूर्ण प्रसन्न मुख पर,
हल्की स्मित रेखा,
प्रभु ने घूम कर किंचित उसको देखा ।
निशंक निष्कलंक पूर्ण चन्द्र । हो उठा । प्रकाशमय,
गहन विपन का रंध्र रंध्र ।
वह बोला कर्कश स्वर में-
तू ! अहिंसक । सत्य-भाषी । अर्हत ।
मत असत्य भाषण कर, अनर्थक ।
कहा प्रभु ने- अंगुलिमाल !
स्थिर अचल हूँ मैं ।
मलयज मृदुल उशीर-पवन ।
तू, अधीर, उदंड प्रचंड प्रभंजन ।
तू ही भ्रमित थकित, अन्तरवर्हि तप्त ज्वलित ।
निरख रहा अनवरत निज आत्मदहन है ।
अति, चल, विचल चंचल है ।
पल, प्रतिपल, तेरा ही,
जीवन-यात्रा-क्षण, क्षरण होता,
दयनीय, दीन, आर्त विकल है ।
शांत जलधि में, वाडव ज्वाला ।
ध्वांत नील गगन में, जलती उल्काओं की माला ।
रात्रि ।
काली अमावस्या ।
हर तडपती करवट में तीक्ष्ण शूल ही बिंधा मिला ।
दिवस ।
आह ।
कराह ।
लोहित रक्त भरा मलिन छलकता खप्पर ।
क्या ? यह जीवन है, जिसे जी रहा तू ।
केवल । उत्पीडन ही उत्पीडन है ।
दस्यु ! कहाँ तू ! कहाँ मैं ।
मैं !
मैं निर्विकार ।
दंड-भावना रहित हूँ ।
निष्कंप, निश्चल, निर्वात, वृत्ति-रहित,
निज में स्थित हूँ ।
मैं संयम से निवृत ।
तू ।
वृत्ति-जाल-संकुलित, नितांत, असंयमित है ।
तू ।
निज कल्मष-भार-नामित-थकित ।
अतः तेरी गति है मंद ।
मैं ।
निषकल्मष पुष्प सरिस, भार रहित,
मेंरी गति त्वरित स्वच्छंद ।
तू ।
क्यों इस प्रकार दुष्कर्मों के दुर्वह भारों से है, ग्रसित ।
क्यों नहीं यह भार उतार देखता एक बार ।
कहाँ,वस्तुतः तू है स्थिर ।
क्या तू ।
यह खड्ग, यह मृग-चरम ।
और यह अंगुलीमाला, लेकर आया था ।
केवल । देगा साथ अपना कर्म ।
समझ इसका मर्म ।
कर्म । सुकर्म हो या दुष्कर्म ।
उसकी प्रतिक्रया झेलनी है निश्चय ।
फिर अपनी इस अंजलि में किया क्यों ?
मात्र कंटक शूलों का संचय ।
ज्ञान राशि मणियों से, भरी तेरी झोली ।
धूल धूसरित, निष्प्रभ, आभाविहीन, मलिन मुखः-श्री तेरी ।
तेरे उज्जवल प्रशस्त ललाट पर रचित, ज्ञान गरिमा की शुचि रोली ।
तुझसे हो रहा नहीं, किसी प्रकार, वहन,
इस गर्हित कल्मष का दुर्वह व्यर्थ भार,
यह निदारूण आत्म-हनन ।
निरख ।
शुद्ध बुद्ध निर्मल अंतर को ।
स्वयं उद्भासित, आत्म-ज्योति, प्रखर छवि को ।
इस मलिन दर्पण को, वृत्तिविहीन निर्विकार होकर ।
कर स्वच्छ, स्पष्ट, झलमल ।
तू नहीं ।
सम्पूर्ण विश्व ही उतरे इसमें, अमल निर्मल ।
जो प्रखर प्रकाश प्रज्वलित मनः-मानस है ।
न कर, उसे धूमावृत्त । ध्वांत अशांत ।
क्यों घूम रहा विक्षिप्त सा दिशा-विहीन ।
इस आवागमन-चक्र के नीरस प्रत्यावर्तन में ।
विषम, जटिल दुर्गम्य कंटकित कानन में,
निरख, तमसावृत्त घन अन्धकार में,
तेरी प्रज्ञा पड़ी क्लांत श्लथ मुर्मूश,
ले रही वह टूटी थकी स्वांसें ।
तड़प रही,
किसी प्रकार सत्य प्रकाश किरण एक भी आये कहीं से,
सहज भरकर नवउल्लास ।
इस तमस घुटन में,
जीवन, तोड़ रहा दम ।
उर्ध्वमुखी जीवन यात्रा,
किन्तु पडा वह धरा पर,
नहीं आगे बढ़ने में किंचित भी सक्षम ।
तू ।
तक्षशिला का सर्वांग विद्या पारंगत ।
कभी न प्रश्न किया, निज मन से,
किस भाँति किया तूने,
इस विद्याश्री का स्वागत ।
ज्ञान उदधि में, आकंठ डूबकर,
ज्ञान मुक्ताओं से नहीं अपितु,
करकट घोंघों शुक्तियों से,
भरी, निज रीति अंजलि ।
इस लहराते अपार वारापार किनारे, ज्ञान-तुला में,
कर रहा निरंतर, सैकत राशियों का संतुलन ।
दुग्ध धवल आलोकित मनः-अंतरिक्ष ।
सत्य प्रभा उल्लासित,
बार बार दे रही आमंत्रण ।
कर, इस लावण्य जलधि में उन्मुक्त संतरण ।
क्यों सरस्वती के वरदान को,
दे रहा तमसावृत्त मरण वसन ।
ढंकी राख की ढेरी से, निकाल, ज्ञान-मणि,
प्रज्वलित प्रभा विकीर्णित ।
अंगुलिमाल ।
इस प्रकार न हो विषण्ण ।
व्यक्ति, जन्म, जाति, कुल-गौरव, संस्कार से,
होता नहीं कदापि, उच्च या निम्न ।
ये । समाज के आडम्बर पूर्ण स्वार्थपरक । कृत्रिम बंधन ।
निज गरिमा से, मत हो अनजान ।
माणवक ।
क्षण, स्वयं को पहचान ।
देखा ! विशादपूर्ण, पश्चाताप-तपित-कातर आँखों से,
अंगुलिमाल ने,प्रभु की ओर ।
वेदना की काली घटा घिरी,
उसके पीड़ित द्रवित मुख पर घोर ।
उस दैन्य करुणा की हिलकोरों से,
आप्लावित अश्रुभरी आँखों की कोरों में,
डूब रही थी , एक-एक कर,
कठोरता, भीषणता और जगत के प्रति घोर उपेखा ।
हो रहा था, शीतल,
जलता पीड़ित व्यथित आक्रोश ।
ज्यों, हटात् थम जाए,
वृक्षों को आमूल उखाड़ता, तीव्र प्रभंजन,
अप्रतिहत घातक अभिमानी ।
ज्यों थम जाए,
चित्र लिखित सा रह जाए,
गगन-घर्षित-ज्वार-संकुलित-उत्ताल-तरंगित, जलनिधि गर्वित,
नदी,नाद, नीरद का अधिकारी,
प्रभूत मणि राशियों का दानी,
अति अभिमानी ।
अंगुलिमाल ।
समाहित हतप्रभ निष्क्रिय तामस-ज्वाल, मौन ।
जड़ खड़ा ।
गिरे हस्त से अस्त्र शास्त्र निराधार ।
कटे वृक्ष की सरिस ।
शिरसा नत पडा,
श्री चरणों के सम्मुख ।
वह ।
आतप-तपित, दलित,मलिन, रंग रहित,
अश्रु-प्रवाह-अविरल ढल-ढल । कुम्हलाया म्लान पुष्प ।
नितांत तिरस्कृत, व्यर्थ उपेक्षित,
अश्रु-स्नात-मुख । विषण्ण, विक्षुब्ध,
अपलक रहा निरख प्रभु को उन्मुख ।
बोला- करुणा-विगलित, अश्रु-आकुल, भरे गले से ।
प्रभु ! यह है ।
मेंरा दीन पराभव ।
मैं ।
धरा पर पड़ा ।
स्वतः अंतर-वर्हि जला ।
विदग्ध शव ।
हर प्रश्नोंमुख उर्ध्वमुखी प्रज्वलित,
ज्वाला की प्रचंड लपटें ।
पूछ रही ।गगन से ।
धरा से, दिग्-दिगंत से ।
क्यों ?
यह ।
अभिशाप-ताप ! नियति-अट्टहास !
मात्र, मुझ ही से !
मेंरी स्वस्ति-सुरभि-समर्पित-सात्विकता,
सहस्र-पात्र विकसित ।
शुद्ध, प्रबुद्ध, रजत-राका-स्नात,
ज्ञान-नर्मदा । ज्ञान-यज्ञ-यजन,
पूरित जो रही सर्वदा ।
उदात्त उल्लासित,
अभिलाषाओं से, उच्छ्वसित उद्वेलित,
जिसका वक्ष रहा सदा ।
वह परम पुनीता निर्मल सलिला सरिता ।
सहसा कर मुझे अनादृत, तिरस्कृत,
क्रुद्ध, विक्षुब्द्ध, व्यथित, अप्रतिभ ।
हटात्, विपरीत दिशा को त्वरित हो गयी प्रवाहित ।
क्योंकि अलकृत अनुचरी को निज वाग्दत्ता समझ,
मैं शॉणभद्र !
मैंने तमस-दास-कन्या की ग्रीवा में,
जयमाला डाली ।
यह अदृष्ट संरचना ।
किम्कर्त्तव्यविमूढ़ ।
अधर्म-अश्व-आरूढ़ ।
मैं ।
विपथगामी ।
मर्यादा रहित ।
ध्वांत-अशांत ।
क्रोधांत ।दुर्दांत ।
आहत अहम्, दर्पित पीड़ित ।
मैं नियति छालित विडम्बना-मर्दित,
राजकुमार शॉणभद्र !
चाहता था करना स्पर्श ।
अतूर्त अगम्य अदभ्र गगन ।
छाया, घोर तमस गहन, नितांत अवश ।
विलुप्त, सद्, असद्, विवेक ज्ञान ।
अदम्य मेंरी गति ।
रही न शेष स्मृति ।
जो आया सम्मुख ।
सब ध्वस्त, नष्ट ।
भीतर ही भीतर मैं ।
अति दीन त्रस्त ।
प्रारब्ध-प्रहार-प्रताड़ित-पतित ।
कर रहा सर्वांग आत्मसात् ।
मैं । अत्यंत, विषण्ण ।
निसंग ।अशांत ।
पर्वत पाषाणों, उपत्यकायों, अधित्यकाओं, से टकराता,
गह्वर नदी नद भरता,
अप्रतिहत, गमनशील जल प्लावन, घोर मचाता ।
कम्पित आर्द पुलिनों की लहर दशनों से चबाता ।
बढ़ता जाता,
नैसर्गिक रमणीक वन वैभव सौष्ठवश्री रसः-चंचरीक ।
विशाल प्रशस्त मैं । दु
र्द्वुष, प्रकर्ष, अमर्यादित, निर्मम, निर्भीक ।
ब्रह्मपुत्र ! उद्भूत प्रभूत उर्ज्वसित
अहम् अभूत ललित लौहित्य ।
मैं ।
नियति निठुर प्रहार प्रताड़ित
राहू-ग्रस्त, निष्प्रभ आदित्य । भूलुंठित,
अति नगण्य जीव ।
झेल रहा अंतर पीड़ा अतीव ।
सर्वत्र प्रज्वलित दावाग्नि ।
ह्रदय भी, क्षुब्ध वहिल कान्क्षित,
रसः-निसृत शीतलक अहिल ।
खोज रहा अमिय पान करता,
अजस्र सुधा झरता, त्रिताप हर्ता,
कहाँ, तरु पादप विटप विशाल ।
जिसकी शीतल छाया ।
करे शमित दग्ध यह काया ।
कहाँ वह कल्पतरु ।
कामधेनु ।
मैं वह विदग्ध शापित इंदु-दाह ।
जो अपवादों के नीलाम्बर में छिप, आर्त विकल रोया ।
शरण खोजता दीन मलीन ।
तव स्वस्ति-प्रभ स्नेहिल सघन छाया में आया ।
प्रभु ! तव ! पावन पुनीत स्नेहाद्र शीतल शरण सतत अपेक्षित ।
मैं निठुर जग में नितांत उपेक्षित ।
नहीं, कभी एक प्रकाश-किरण,
इस निसंग कुटिर में आई ।
नहीं, स्नेह-वारि-सीकर तप्त मनः-प्रांगण शीतल कर पायी ।
प्रभु ! अपना आत्मबल ।
होता है सर्वथा निश्च्छल ।
वह सुदृढ़ प्राचीर बनाता है ।
गहन ममत्व, सांत्वना देता है ।
भीरू विधुतित पीड़ित को, बाहों में भर,
जग को, निर्मम ठोकर देता है ।
किन्तु यहाँ तो, अपना सत्व ही, निष्प्रभ दीन हुआ ।
निरख । कातर त्रस्त विकल । अपनी छाया ।
आह ! अपने ही कुरूप विरूप जघन्य स्वरूप से,
मैं हूँ, अति घबडाया ।
यह मेंरा वीभत्स विकराल भयानक दुर्दांत, अस्तित्व ।
जब भी पड़ी, विश्व-दर्पण में इसकी प्रतिच्छाया ।
उसने, अत्यंत तिरस्कार घृणा से,
बार-बार, विक्षुब्ध होकर, इसे ठुकराया ।
अपने ही दुर्वह भार से, टूट रही यह,
जीर्ण शीर्ण, मलिन क्लांत अशांत तिरस्कृत काया ।
पल इस सदाबहार तमाल वरुण वृक्ष की,
पल्लव प्रच्छायित शीतल छाया में,
जलती, टूटी, उखड़ती, स्वांसों को,
शीतल हो लेने दें ।
युग-युग के इस धावित प्राणों के पक्षी को,
इन डालों के गुल्मों में,
अपनी पहचान बना लेने दें ।
मैं अदृष्ट प्रहार पीड़ित,
सौभाग्य-सौख्य वंचित ।
सर्वत्र अनादृत । ज्ञान-तेज-प्रभा-विशीर्णित ।
धन-जन-समाज-सम्मान, सबसे विलग तिरस्कृत ।
प्रारब्ध जिसपर प्रबल प्रहार कर जाता है ।
वह बलात यंत्र-चालित, नियति-रशना बद्ध,
शीश झुकाकर खींचा चला जाता है ।
यदि पड़ा हटात सम्मुख, कोई भी परिजन, स्वजन सुहृद ।
उसे देखते ही होकर विमुख, दूर से राह काटता
आँख बचाता, बढ़ जाता है ।
गहन परिचय का, यह अपरिचित विषम भाव,
विशक्ति विद्रूप तीक्ष्ण, अतीव, ह्रदय पर उकेरता,
उसे क्षत विक्षत मर्माहात कर जाता है ।
बरबस बबूल का तीखा काँटा, मन के सूने सूखे आँगन में,
झर झर कर अनवरत, भर जाता है ।
कहते हैं, जिसे भाग्य ।
गरल सुधा दोनों ही उस के पास ।
किसी को देता अमिय ढाल ।
किसी के अधर लगे हलाहल कराल ।
यह रीति अंजलि ।
क्या उसे ज्ञात ।
अदृष्ट डालेगा उसमें,
डहडहे वरदान-सुमन ।
या, अभिशाप-ताप-तप्त-अगन-अगार ।
एक ही स्थान, समय, परिस्थिति,
किसी के शीश सज्जित सौभाग्य-किरीट ।
किसी को प्राप्त अशुभ अरिष्ट ।
कोई हंस कर कहता,
अहो भाग्य ।
कोई ठंडी साँसों में,
आँखों में आंसू भर कहता,
हा । हत भाग्य । दारूण प्रहार ।
कहाँ हरित दूर्वा शतग्रंथिका ।
पूजन अर्चन में, देव-चरण बनी शिंजिनी,
होती है मुक्ति प्रदायनी ।
कहीं, वह केवल अहर्निश प्रतिपल ।
पद तल कुचली जाती है ।
प्रभु ।
इन्हीं में से मैं भी हूँ एक ।
सकी न, नियति जिसे रंचक देख ।
हुआ न, वांछित द्विजत्व का स्वस्तिमय अभिषेक ।
नियति, मुझे भी, यश-किरीट सुसज्जित कर सकती थी ।
मैं भार्गव वंशज, कोशल के राज पुरोहित का आत्मज ।
निज कुल परम्परा निर्वहण कर सकता था ।
किन्तु, सम्मान का शीर्ष पद-विमुख ।
मैं साष्टांग धरा पर गिरा ।
नियति के ठोकरों से विसुध,
समस्त ज्ञान-स्तवक बिखरे ।
व्यंग कुलिश कठोर अट्टहास वाण सहस्र, एक संग बिंधे ।
भूलुंठित व्यथित विक्षिप्त । आर्त विकल, त्रस्त ।
मैं चीखा ।
निस्सहाय, निराधार, निरावलंब ।
क्यों ? क्यों ? क्यों ?
किन कर्मों का यह दारुण अभिशाप प्राप्त,
अविलम्ब ।मैं ।
वह ज्वलित शाप ।
जो । कभी शमित न हुआ ।मैं ।
अनगनत नखत-संतुलित घूमायित ध्वांत,
अशांत, समूह ।
ग्रह कक्षा में जो दिग्भ्रमित रहा घूम ।
बना अशुभ संकेत का प्रतीक ।
जिसे निरख कहते सब ।
हा ! अरिष्ट, अनिवार्य अनिष्ट ।
सर्वनियन्ता की कठोर  कोप-दृष्टि ।
करते, अशांति, निर्वाणार्थ, ग्रह दान सभीत ।
मैं ।
अंतर-वर्हि, तप्त विदग्ध विक्षिप्त ।
कृष्ण धूम धूमायित अग्नि उल्काओं से, प्रढूपित,
पीड़ित अति धिक्कारित लांछित, सतत उपेक्षित
संत्रसित, अभिशापित, अनाहृत ।
संघुक्षित देव-प्रक्षिप्त अवकाश तरंगों में,
विभ्रमित भटकता ।
मिला न जिसे प्रारब्ध सेतु ।
क्यों जल रहा मैं आमूल, किस हेतु ।
मैं अवकाश खंड में, प्रचंड ज्वाल तरंगों में,
विकल दिग्भ्रांत भटकता,
मैं ।
टूटते टकराते, घर्षित मर्दित,
धू-धू ज्वलित अनगनत धूमकेतु समूह ।
परिस्थितियों से त्राहि मांगते,
फंसा, नियति-जाल-चक्रव्यूह ।
एक स्वाती बूँद, विमुक्ति विमोचन का,
आकंठ अतृप्त मैं चिरतृषित दात्यूह ।
नहीं, स्वयं बने,
ये गरजते हाहाकार मचाते उत्तालित अवाध समुद्र नैसर्गिक ।
मेंरे ही उष्म उच्छवासों, आहों, अटूट अश्रु-धारों से निर्मित ।
ये अहम् भरे विशाल बाहें फटकारते चतुर्दिक ।
यह मैं ।केवल मैं ।
प्रभु ।
देव-आहूत शुचि मन्त्र अराधनीय अभूत ।
भटक गए पथ ।
उज्जवल स्वयंप्रभ वरदानों पर पड़ी,
जलते अभिशापों की काली छाया ।
मैं ।
शापभ्रष्ट खंडित अणुओं से विचूर्णित, दिग्भ्रमित मंत्र ।
मिला न जिसे वांछित अभीष्ट ।
मैं ।
मुक्ता चुनता राजहंस ।
आदर्शों का पिपासु चक्रांग,
जले जिसके अंग-अंग ।
अपने जघन्य जालों में कर गया बंदी,
मत्सर पूर्ण आसुरी षड्यंत्र ।
आमूल । धू-धू जलता रहा ।
प्राप्त न रंचक नीरद वृष्टि ।
अदृष्ट असह्य आतप से, तप्त विवश ।
सब भांति समर्पित आह्लादित भारती,
उसके पावन पुनीत चरणों पर । सजी,
प्राणों की दीपित आरती ।
स्वांस-स्वांस, ज्ञान-सुरभि से पावन ।
तन-मन नव ज्ञानोंन्मेष का नन्दन-वन ।
बना जीवन एक पुनीत पवित्र तपोवन ।
और ह्रदय प्रज्वलित ज्ञान-यश ।
आह निठुर नियति ।
कर गया ।
असुर उसपर निसृत, रक्त-कलश ।
हो गया पूजन-स्थल,
रक्त भरा अति अशुभ कल्मष ।
प्रभु ।
जल रहे मन्त्र ।
जल रहा ह्रदय ।
जल रहे अच्छे बुरे, अर्जित कर्म ।
जल रहा मैं ।
अनवरत विषण्ण ।
जलते तपते निरभ्र नील गगन में,
प्यास ! प्यास ! भटकता,
नितांत तडपता,
मैं छूँछा रीता बादल का टुकडा ।
जिस पर विद्युत् कशाघात अनवरत पडा ।
अश्रु बहे जो आँखों से,
सूखे, घनी उपेक्षा के सैकत वन में,
या ठंडी आँखों के राहों में,
दम तोड़ते, अर्ध विक्षिप्त,
उपल बने, अटके अदृष्ट की बाहों में ।
हर सांस सांस में तड़प भरी है ।
हर धड़कन में व्यथा घनी है ।
ये टूटती खींचती भागती साँसें भी,
जिन्हें, बरबस पकड़ रहा मैं ।
वे भी, अब अपनी कहाँ रही हैं ।
ये भी, कहीं रखी,बंधक सी ही,
मुझे मिली हैं ।
जो भी जीवन ।जिया मैंने ।
नियति-चषक में छक कर,
विष ही भरपूर पिया मैने ।
आरे की धारों से,
काट रहे गगन-वक्ष, ये नक्षत्र ।
इन नखतों की, तीखी कटीली धारों से,
विधीं कराहती सूनी काली रातों को,
अनगनत बार, आँखों के अश्रु आप्लावित
संवेदित, अश्रु-वाष्पावृत धूमायित,
वारापार में उतारा ।
एक एक काँटों को चुन चुन कर,
इस निसंग ह्रदय प्रांगण में, झारा ।
नितांत निस्सहाय आर्त विकल ।
उस मौन सर्वनियंता को निराधार पुकारा ।
अपनी ही, व्यर्थ हुई अनुरणित
प्रतिध्वनियों के, विषाक्त नागपाश में,
निज को अवश, बंदी पाया ।
आह क्यों ? किसलिए मुझे ।
अदृष्ट के अप्रत्याशित अबूझ, निर्मम प्रहारों ने,
इस प्रकार निठुरता से, चरण ठोकरों पर उछाल, ठीकरों सा ठुकराया ।
मैं वह दिग्भ्रमित प्रेतात्मा ।
जो लहू टपकते रक्त रंजित फारस लेकर
घूम रहा, आदर्शों के वध-स्थल में ।
हर शव । प्रश्न बने, प्रतीक्षाकुल मौन
पड़े, उत्तर की निष्फल आशा में ।
हर बार का, किसी पर भी, चला असि का वार ।
शत शत टुकड़ों में काट गया मुझे ।
अविराम प्रज्वलित हृदयाग्नि,
जो अब कदापि न शमित हो सके ।
जल गया ।
यह त्रस्त विकल पक्षी प्राणों का ।
भूल गया अपनी पहचान ।
वह था क्या, कौन । कभी का ।
मैं वह असुर ।
तपोवन में जिसने राक्षस-भोज बनाया ।
निष्ठाओं के प्रतीकों को आसुरी भोज खिलाया ।
मैंने ज्वलित भग्न मन्त्रों की केवल फेरी उल्टी जप-माला ।
उच्चादर्शों के मृत शवों पर बैठा ।
मैं मन्त्र जगाता, वीभत्स अघोरी ।
प्रभु ।
कहाँ कहाँ तक निरखू । सारी की सारी यह उजली चादर,
काली मिली थी जो अति निर्मल निश्कल्मष उजली ।
जन्मते ही, राजाज्ञा होनी थी मेंरे प्राणों के वध की ।
किन्तु करुणा उत्पन्न हुई, जाने क्यों नृप के ह्रदय में,
हिंसा भावना, अहिंसक हो उठी ।
उसने नामकरण किया मेंरा,
अहिंसक नाम दिया ।
और यह नाम ।
अक्षम्य विकट विद्रूप बना ।
कहा प्रभु ने, गंभीर शांत स्वर में –
धरा पर उत्पन्न तृण, आकाश नहीं छूते हैं ।
ये मानव मानस के स्थूल मनः-विकार,
हैं । अत्यंत निराधार ।
तोड़ ।
इन मोटी प्राचीरों को ।
यह शरीर ।
यह मन ।
इसके ये निर्मित, बनते मिटते विकार ।
समझ ।
ये क्या हैं ?
जाति, वंश, कृत्रिम संस्कार,
मात्र मानव अभ्युदय के, हैं, कठिन दुर्गम कारागार ।
ये अहम् एष्णाओं, वृत्तियों को क्षीण नहीं,
अपितु स्थूल बनाते हैं ।
इन कंटकित तीक्ष्ण चुभते, शूलों से विलग होकर,
ससीम से उठकर असीम में,
ज्ञान, विवेक, निर्द्वंद्व गत्यावरोध रहित, हो जाते हैं ।
यज्ञ, यज्ञ-सूत्र,जन्मगत द्विजत्व,
किसी को श्रेष्ठ नहीं बनाते ।
ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण है वही
जो निष्कलंक निर्विकार उदात्त, विचारों के होते हैं ।
मैं उनको ही ब्राह्मण कहता हूँ ।
जो इनसे संभूत-
“ उसभ पवर वीर महेसि विजिताविन ।
अनेज नहातक बुद्ध तमहं ब्रह्मण । ।”
इनसें अलग ब्रह्मत्व का अस्तित्व नहीं ।
अतः अहिंसक ।
जो अहिंसा जगी नृप के मन में,
निरख और कार्यान्वित कर,
निज, व्यथा कातर छिन्न भिन्न हुए, जीवन में,
शुक्ति मुक्ताओं से हो सज्जित,
बन, कज्जल कृष्ण सम्मोहक,
गंध-अंध-आकुल पुष्कलक ।
निश्चेष्ट पडा ज्ञानामृत,
आत्म-चषक-आप्लावित जाए छलक छलक ।
होता- शनैः शनैः प्रभापुंज-दिनमणि, रश्मि विकीर्णित उदित ।
प्रकाश से,
नव विकसित पुष्पों से,
पक्षियों के मधुर कलरव से,
प्रकृति का,हरित पल्लवित,
तन-मन आँचल जाता है भर ।
रात्रि । 
प्रकाश को तडपती है ।
उषा ।
प्रकाश को मचलती है ।
क्यों तेरे मानस में हठीली, घन तमसाछन्न क्षपा,
अविराम घिरी रहती है ।
हटा शीघ्र इसे ।
मत कह तेरे सब द्वार रुद्ध हुए ।
यदि, पीड़ित करते प्रश्न मुखर हैं ।
तो निश्चय ही कहीं अवश्य सुरक्षित,
उनके उत्तर हैं ।
हतबुद्ध स्तब्ध खड़ी जडवत तेरी नृसंष कठोरता ।
बाहें दोनों फैलाकर बुला रही,
उसे, सात्विक स्नेहाद्र आतुर ममता ।
अब भी चेत ।
चल उठ देख ।
तेरा ह्रदय किस प्रकार प्रतीक्षाकुल है ।
हो कसी प्रकार प्राप्त, करुणा दया सदचेतना ।
निरख । निज सूने मनः-प्रांगण को
जिसे छोड़ चुके असद योद्धा,
इस तमस-रण को ।
इस असात्विकता के ध्वस्त क्षत विक्षत श्मशान में,
ज्ञान-गगन के नीचे एकाकी जल रहा अनवरत सत्य दीपक ।
केवल तेरा मन ही उसका साक्षी ।
चल उठ ऊपर उठ ।
यह सब सुनता मौन ।
कर उठा माणवक करुण स्वर में आर्तनाद ।
विकल व्यथित कम्पित उसकी थर-थर गात ।
बोला, अश्रुसिक्त अवरुद्ध गले से-
प्रभु ! प्रभु ! करुणा निधान  ।
परुषता से शाश्वत अनजान ।
कौन उठेगा प्रभु ?
मैं ! मूल्य नहीं, मृण भर भी जिसका ।
पथ में भग्न होकर, आत्म-ज्योति-कलश बिखरा ।
सिसक रहा, एक एक टूटा टुकडा ।
जो शोषित है, वे शोषित होते ही रहते हैं ।
ठोकरें ।
ठोकरों के ही निमित्त हैं ।
केवल, हीरे ही किरीट हो सकते हैं ।
कोयले !
उन्हें भला, हीरे का सहोदर कौन कहे ।
वे तो, धरती की धधकती दाहक ज्वालामुखियों की भट्टी में,
बर्फ कफ़न आच्छादित, मौन तडपते बलात जलते रहते हैं ।
उबलते लावा की लहरों पर करवट ।
अनवरत भूचालों की आहट ।
अंध गुफा में, कृष्ण क्षपा में,
मात्र, एक प्रभात-किरण को, तरसते रहते हैं ।
यदि उदगार प्रताड़ित, बाहर भी धक्के खाकर आये,
तो, अश्म बने, ठोकरों में पड़े रहते है ।
जन्म से पूर्व ही भवितव्यता !
ह्तभाग्यों की लौह-लेखनी से लिख जाती है,
नियति-निर्णीत-प्रारब्ध ।
कर्मों के ताने-बाने में आबद्ध वह ।
रहा, सदा का अज्ञात । 
उठने को मुझे न कहें प्रभु ।
उठकर चरण-धूलि कहाँ जायेगी ।
बनेगी, आँख की किरकिरी या मिट जायेगी ।
अतः मैं सदा नामित इस श्री चरणों में,
यही मेंरा अंततः पावन-तीर्थ, चिरंतन विश्राम ।
जाने किन अज्ञात दिशाओं से,
पथ-श्रांत क्लांत भ्रांत यह प्राणों का पक्षी ।
तव शीतल सुरभित आह्लादित छाया में आया ।
जन्म-जन्म का हारा भटका ।
तव चरण रजकण चन्दन को तरसा ।
मैं ।
प्रभु का, अनगनत गत जन्मों का क्रीत दास ।
श्री चरण-शरण अंतिम प्रयास ।
जले ये कातर  निराधार अश्रु दीप ।
तव कल कोमल पदतल समीप ।
मुझे निज चरणों में, शीश छिपा लेने दें ।
मैं श्री चरणों की चरण धूलि ।
बस यही सांत्वनामय आश्वासन पा लेने दें ।
मैं दोषी नहीं प्रभु ।
घृणित षड्यंत्रों का अहेर बना ।
मैं ।नयन-वेधन का पक्षी ।
जिसपर, संधानित सबका तीर सधा ।
बोले प्रभु करुणार्द्र स्वर में-
माणवक ! मेंरे चरण स्पर्श न कर होकर इतना आर्त विकल ।
सबमें प्रतिबिंबित प्रत्युत्तरित, एक ही मनः-दर्पण ।
कोई अति भास्वर प्रखर झलमल ।
कोई धुल धूसरित धूमल ।
किन्तु हम तुम, सब एक बराबर ।
महाकाल की मात्र धरोहर ।
निरख देदीप्यमान आत्म-स्वरूप अक्षर ।
मत हीन भावना से भर ।
तू नहीं किसी से कम ।
तू तन मन से पूर्ण सक्षम ।
तू अहिंसक के नाम से ।
ज्ञानी है निज पांडित्य से ।
तुझे भलीभांति विदित है ।
धर्म अधर्म की रेखांकित निर्धारित मर्यादा ।
कोई भी दृढ़-संकल्प-प्रतिज्ञा ।
किसी की प्रेरणा, आज्ञाओं से, निर्देशित नहीं होती है ।
उसके अंतर की निहित, सत्य पुकार ।
 करती है सब पर कुठारघात ।
धरती के भीतर से,कभी, अन्धकार विदीर्ण करता,
जाज्वल्यमान सूर्य नहीं फूटा ।
अनवरत अविराम गतिमान समय सयंदन-चक्र,
कभी कहीं भी, किसी क्षण, किसी प्रकार भी, नहीं टूटा ।
सागर । कभी पुलीनों पर झुक,
बना नहीं, नद का भिखारी ।
एकनिष्ठ ।
सिद्धांत अचल ।
कभी नहीं डिगते हैं ।
जो कहती है, नीर-क्षीर-विवेकमयी प्रज्ञा,
मात्र, उसे ही सुनते हैं ।
सत्य ।सदा का निष्पक्ष ।
वह । कटु समीक्षक ।
स्पष्ट निर्णायक,सत्य वक्ता है ।
वह कभी नहीं, कदापि, किसी अन्य विकल्प में रहता है ।
आजतक ।
सत्य ने, कभी किसी को,पथभ्रमित नहीं किया ।
सत्य पथ पर उसने सदा प्रकाश दिया ।
कहा ग्लानि भरे स्वर में, माणवक ने-
प्रभु ! संतुलन करती तुला की निष्कंप स्थिर तीली ।
भली ही सीधी अवस्थित हो ।
वह केवल जड़ अचेतन वस्तुओं के प्रति ही
निष्पक्ष और सदा होती है सक्षम ।
किन्तु पल-पल परिवर्तित विचलित उद्वेलित,
आवेग आवेश भरा मन ।
कभी आक्रोश, कभी क्षोभ ।
कभी अवसाद, विषाद, शोक ।
कब सम हो सकता है ।
सकता है उसे कौन रोक ।
भावनाएं, घातों प्रतिघातों के प्रत्यावर्तनों से,
छिन्न भिन्न आक्रान्त अशांत ।
कोई तुला बनी नहीं ऐसी,
जो, माप सके प्रतिक्रियात्मक परिवर्तन ।
समय परिस्थितियों अंतरद्वंदों से, घिर, बंदी मन ।
कब जोड़ पाया वह, विवेक से अपनापन ।
यह विवेक भी, कब कहाँ किस क्षण,
मर्माहात हो जाते हैं ।
रूप-विपर्यय की श्यामल छाया में, पड़ जाते हैं ।
उस अबूझ असंस्पर्षित अज्ञात क्षण को, पकड़ पाना,
अवगाहन कर पाना, या उनपर विजय पाना ।
अति दुर्वह है ।
विवेक भला कब हुआ मुखर है ।
लालसाओं प्रलोभनों की संकुलित भीड़ में,
खो चुका उसका स्वर है ।
यदि, यह विवेक प्रचंड प्रबल प्रखर रहा होता ।
कितने संशय, कितनी दुरुभि-संधियाँ,
आमूल ध्वस्त हो चुकी होतीं ।
किसी भी माणवक ने यह कब जाना ।
दक्षिणा के मिस अशुभ धूमकेतु का मंडराना ।
और आशीषों के आवरण में छिप,
छद्मवेशी जलते जटिल अभिशापों का आना ।
मैं तक्षशिला का विद्या-अध्धयन का अध्येता ।
पूर्ण ज्ञान प्राप्त ब्रह्मवेत्ता ।
विद्या-प्राप्ति पश्चात,
देनी थी मुझे भी, गुरु दक्षिणा ।
गुरु, विदा ही नहीं करता ।
वह आशीर्वचनों में निज आत्म-सौरभ भी, प्रदान करता है ।
जो, माणवक की समस्त जीवन-यात्रा का अमोघ, रक्षा-कवच होता है ।
पथ, पीयूष-पयोद-प्रच्छायित, सुगम होता है ।
यह नहीं कि हर पथ कंटकाकीर्ण । हर स्वांस श्रांत अशांत ।
प्राणों में हो व्याप्त गहन तपन ।
वितृषित-जीवन ।
संजीवनी शक्ति क्षीण ।
अति दीन ।सम्मुख बिखरे पथ पर जलते अंगारे ।
होता है मन स्तंभित ।
चरण कम्पित ।
अपार । निरभ्र नभ की भी विद्रूप भरी विषाक्त, स्मित ।
समय निदय ।
बलात बाधित करता चलने को,
तीक्ष्ण खड्ग की दुधारी धारों पर ।
प्रभु ।
गुरु और शिष्य का पिता पुत्र का नाता है ।
अपितु, वह, त्रिणाचिकेत अग्नि का अधिकारी ।
जननी जनक से भी बढ़कर समादृत हो जाती है ।
हर शिष्य को ।ज्ञान संजीवनी से प्राणवंत जीवंत,
आत्म प्रकाश पूरित करता है ।
शिष्य, गुरु के प्रखर प्रभावशाली व्यक्तित्व की प्रतिच्छाया ।
उसमें, गुरु-ज्ञान-संजीवन-प्राणवंत-जीवंत गौरवान्वित होकर,
तेज विकीर्णित करता आया ।
वह । ज्ञान का दाता ही नहीं ।
उसका भाग्य विधाता भी है ।
उसके जन्म कर्म भविष्य का भी,
नियामक निर्णायक निर्देशक है ।
इस, अतल अपार पारावार संसार में,
उसे भेजने के पूर्व,
वह, शिष्य-मृण-पात्र को,
बाहर भीतर से ठोक-ठाक कर उसे सुदृढ़,निरख,
इस भाव-सागर में प्रवाहित करता है ।
तट पर खडा अपलक सजग,
उसकी निर्देशित संतरित यात्रा निरखता है ।
वह, निज औचित्य का परित्याग नहीं करता ।
कदापि नहीं असद कर्मों को देता प्रेरणा ।
गुरु, निःश्रेणी उर्धवगामी आत्म गवेषणा की ।
शिष्य के ज्ञान-क्षितिज पर सर्वप्रथम
ज्ञानोदय का वालारुण उसने देखा ।
विदा-समय गुरु-चरणों पर
निवेदित पूजन अक्षत रोली
शिष्य-नत भाल रचित, आशीष-वचन-रोचित लाली ।
शिष्य-प्राण-वेणु में,
उदान्त भावना का गुरु-मन्त्र उसने फूंका ।
वह तो माध्यम है ।
आत्म शोध विधाओं का ।
निज स्वस्ति वचनों से अभिमंत्रित करने में, कदापि नहीं चूका ।
शिष्य हो अथवा आत्मज ।
निर्मूल संदेहों का प्रत्यारोपण नहीं करता,
और न बिना, प्रत्यक्ष प्रमाणों के,
उसे अन्य के मिथ्या प्रतिभिसकंदनों का, अभियोग लगाता है ।
वह, बनाता नहीं अहेर अनुचित अप्रत्याशित दुरुभिसंधियों का ।
यदि गुरु, इन गर्हित गतिविधियों को प्रोत्साहन देता है ।
तो वह गुरु नहीं ।
वह आदर्शों निष्ठाओं का शव नोचता है ।
अक्षम्य अधम अति निम्न नृशंस अघोरी ।
जिसने परम्परागत उदात्त आस्थाओं की, की जघन्य चोरी ।
कभी किसी गुरु ने,
उस प्रकार अश्रुत अशुभ अभूतपूर्व, गुरु दक्षिणा नहीं मांगी ।
मानव की ह्त्या कर उसकी उंगलियाँ आजतक कभी किसी ने नहीं चाही ।
इन हत्याओं की गहन चिता में
समस्त आस्थाएं सद-वृत्तियाँ भस्म हुई ।
अपने ही आदर्शों के ध्वस्त धुल-धूसरित, ध्वंसावशेषों में,
मैं, दोनों हाथों से केश नोचता, रोता, उन्हें रहा खोजता ।
जो आत्म सौरभ लेकर आया था,
पाया उसे मरण दीप सा जलता ।
उन  खंडहरों के मध्य हा-हा करता, मैं,
अवांड मुख निराधार गिरा ।
मैं तपती वन्ध्या धरती का, वह बीज ।
वपन होते ही भीतर ही भीतर गहन तपन से,
जो अंकुरण के पूर्व ही जले ।
उसके अंतर में स्वप्न शयित समग्र सृष्टि ।
प्राप्त हुई न जिन्हें संजीवन शीतल वृष्टि ।
मैं । सजल झूमता नील  नीरद घन मतवाला ।
जले, जिसके नवल कोमल अंग,
हुई जड़ मानस तरंग ।
भस्म कर गयी उसे,
अभिशापों की भीषण ज्वाला ।
शेष बचे अस्थि अश्म कंकालों पर,
हो रहा, तमस वृत्तियों का, प्रचंड चंडालिका नर्तन ।
यह अंतर-वीणा ।
टूटी विश्रृंखलित, भग्न तडपते बिखरे तार तार व्यथित कम्पित ।
अवकाश तरंगों में आलोड़ित तिरोहित,
भटक गए, मर्माहत विक्षिप्त राग ।
न मिली,पुनः मनः-वीणा,
न मिला, ह्रदय गान प्रत्युत्तरित-वियोगी-आलाप ।
नैराश्य-अग्नि-विदग्ध, पीड़ा का,
सुना न कभी, ऐसा करुण विलाप ।
सूने अन्धकार पूरित प्रांगण में,
अपनी ही मलिन काली परछाई से, लिपट रोया हूँ अनगनित बार ।
हो गया यह निसंग मूक जीवन असह्य भार ।
मैं, यहीं से निज गुरु श्री चरणों में, नत प्रणत करता हूँ
शत शत प्रणाम ।
करें न किसी शिष्य का इस प्रकार आत्म-हनन ।
नष्ट करें न शांति, मनः-विश्राम ।
पतित हो कितना भी मानव ।
कहीं तो सदभावना जगी रहती है ।
नागफणी के तीखे काँटों पर भी कोमल नीहारिका सजी रहती है ।
भस्म क्षार की ढेरी में भी कहीं चिंगारी जली रहती है ।
प्रभु ! कभी कोई नितांत बुरा नहीं होता है ।
अर्जित सुकर्मों का कोई अंश कहीं छिपा होता है ।
कल्मष की कलुषता में डूबे सद्विचार ।
आत्म हनन ।
स्वनिर्मित आत्म वंचना की करते निषेध ।
अनवरत सतत वर्जना ।
इन हत्यायों के पीछे भी, केवल एक ध्येय था मेंरा ।
नहीं कभी, किसी अलंकरण वसन मुक्ताओं के, ,लोभ ने, रंचक मुझे घेरा ।
किन्तु अब यह लोहित खड़ग । कर रहा मुझसे प्रश्न ।
जिनके प्राण हनन किये तूने ।
क्या उसका तू अधिकारी था ?
इस वृत्ति के त्यागने के पश्चात, क्या वे पुनर्जीवित होंगे ?
जो जिसके थे परिजन स्वजन, क्या उन्हें मिल जायेंगे ?
हुए अन्धेरें जिनके घर, क्या उनमें पुनः दीपक जल जायेंगे ?
यदि नहीं । तो जब प्राण-दान नहीं कर सकता था, क्यों प्राण लिए उनके ?
जीवन का यह रिक्त स्थान । जो अन्य नहीं भर सकता ।
जो जैसा था उसके अनुरूप, चाह कर भी, अन्य बन नहीं सकता ।
यह घोर अपराध, आमरण क्षति ।
जिसका अन्य विकल्प नहीं ।
मैं वह अग्राह्य तिरस्कृत मधुकरी ।
भिक्षुक भी जिसे त्याग जाता है ।
मैं वारिद का वह, प्यासा टुकड़ा ।
जो ज्ञान क्षितिज पर गया छला ।
मैं हरित दूर्वा पर कुलांचे भरता मृगशावक ।
जाल में डाल ले गया जिसे जीवांतक ।
जन्म ही अभिशापों की छाया से भरा ।
जन्मते ही शस्त्रागारों के सब अस्त्रों पर, विकीर्णित हुई ज्योतिर्मयी प्रभा । ज्योतिर्विदों की घोषणा ।
आह । नियति वंचना ।
यह जातक भविष्य में होगा अपराधी दस्यु ।
हंस उठा प्रारब्ध निर्दय-मत्सर-विक्षुब्ध ।
सत्य ही उदित हुई नियति लेखा ।
ब्राह्मण विद्या-अध्येता के हाथों शास्त्रों का नृशंस जघन्य दुरूपयोग,
इस प्रकार, नहीं कभी किसी ने सुना या देखा ।
मुझे । शस्त्रागारों की चकाचौंध में, मुख ढांप,
इसी घन तमस में छिपना था ।
और, अभिशापों की अनवरत अजस्र ज्वाला में,
नितांत निसंग निरंतर जलना था ।
मैं मेंधावी कुशाग्र छात्र ।
अकाट्य जिसके तर्क निर्विवाद ।
वही मैं । अब इस प्रकार । मलिन दीन निष्प्रभ विद्या-विहीन ।
ज्ञान-जलधि आकंठ डूब ।
मैं फिर भी पिपासित तृषित मीन ।
अहिंसक के शीषक तप्त अधरों पर
पीड़ा के, सहस्र फणों की तीखी चोटें ।
आकुंचित अधरों पर वेदना विष लहराया ।
बोला वह- प्रभु !
मैं तड़पा शीतल जल को ।
पथ-भ्रमित-थकित-तृषित, बादल सा ।
भटका, गिरि, गह्वर, सैकत कान्तर विजन वन ।
जलते निरभ्र के चरणों पर, नत प्रणत विकल,
शिंजिनी सा बंधा रहा पड़ा ।
कहाँ, पियूष पुंज की राशियाँ ।
कहाँ नीर भरी शीतल सजल कादम्बनी ।
केवल, केवल मैं ।
तप्त ज्वलित घूर्णित प्रभंजन ।
और निरभ्र दग्ध मौन नील गगन ।
यही, इन तपते प्राणों को मिला ।
यह हिंसा ।
मात्र एक लघु अंश की छाया है ।
जो कुछ भी, आयाचित, अप्रत्याशित, अवांछित, मैंने पाया है ।
सुनकर धैर्य से अंगुलिमाल-प्रलाप ।
बोले प्रभु, धीर गंभीर मृदु स्वर में,
भरकर अंतर स्नेहिल उल्लास ।
न माणवक ।
न ।
ज्योतिर्मय शास्त्र हुए थे इस हेतु,
कि, किसी विशिष्ट व्यक्ति ने जन्म लिया है ।
उसकी चमत्कृत प्रभा प्रतिभा से, सर्वत्र प्रकाश हुआ है ।
भविष्य । नितांत अलग है ।
उसपर न अतीत और न वर्तमान का, कोई प्रभाव है ।
अतीत ।
कभी वर्तमान रहता है ।
और वर्तमान सम्मुख ही मानव जीता है ।
भविष्य ।
कभी भविष्य बनकर, नहीं,
वह भी, वर्तमान ही, बनकर आता है ।
अतः । केवल देख वर्तमान ।
और उसे ही जी सत्य सार्थकता से, भलिभांति ।
कभी भविष्य की कल्पना में मत रह ।
यह, मृग जल है ।
दिखता प्राप्ति सामीप्य और कभी नहीं हस्तगत होता है ।
केवल, वर्तमान ही वास्तविक यथार्थ है ।
भविष्यवाणियाँ,
आर्त विकल निराश पीड़ा-विदग्ध मन को
मात्र, मृगजलीय शीतलता प्रदान करती, मिथ्या छाया है ।
यह निष्क्रिय आश्वस्ति, निर्मूल सांत्वना है ।
जो गिरा, धरा पर, उसे झूठी सहानभूति भर ही देती है ।
उसके क्षतो की धूल झार बढ़ जाती है ।
मनुष्य, बनता है निज सामर्थ्य और कर्मों से ।
यह सत्य है कि इसमें परिस्थितियों,
असुविधाओं और अक्षमताओं का भी,
योगदान और व्यवधान होता है ।
किन्तु, दृढ़ संकल्पता नहीं निरखता, अन्य विकल्प ।
वह, ना, की राशियों में से, हाँ, को निकाल ही लेता है ।
हर अवरोध नवीन विधा बनते हैं,
अनुभव के नए पथ खुलते हैं ।
यदि न मिला गंतव्य ।
नहीं सोचते कदापि कि यही निर्दिष्ट भवितव्य ।
अनवरत कार्यरत एकनिष्ठ तपः-साधना ।
अनिवर्चनीय आत्मतुष्टि संतृप्ति,
स्वांतः-सुखाय ही पूर्ण उपलब्धि ।
तू ।
केवल वर्तमान में हो स्थित ।
अतीत भविष्य के अंतराल से परे हट ।
वर्तमान के प्रति हो सक्रीय सचेष्ट ।
आवशयक नहीं, आज का अपराधी,
कल भी अपराधी ही रह जाए ।
और, अपराधों पर अपराध की संख्या बढती ही जाये ।
आत्मग्लानि, पश्चाताप, अंतर दहन,
समस्त कल्मष हो जाते हैं भस्म ।
कोई भी जन्मजात अपराधी नहीं होता ।
वृंत पर खिला सुमन ।
प्रथम प्रभात प्रकाशोन्मेष निरखता है ।
उसे क्या पता ।
वह किस स्थान, किस परिस्थितियों में,
कहाँ समादृत या निरादृत होता है ।
माणवक !
मत जन्म या भविष्यवाणियों का चिंतन कर ।
मात्र सत्य अहिंसा का कर पालन ।
यह वह निः-श्रेणी है, जिसपर क्रमशः बढ़कर,
तू, समस्त विकारों का कर लेगा मर्दन ।  
चौंका पुनः संत्रसित अंगुलिमाल – प्रभु !
सत्य ! कबका, भूल गया मैं उसका रूप-रंग ।
कब छूटा यह । कहाँ हुई चूक ।
अब इसे पहचान पाना भी दुर्वह है ।
यह दो अक्षर, सत्य में वस्तुतः हैं, अक्षर ।
अति तीक्ष्ण कटु यह एक शब्द,
मधुकांक्षी अधरों पर, जब यह लग जाता है ।
अधर ही नहीं, सर्वांग तन-मन, अंतरतम तक जल जाता है ।
यह लहराता निज विष-प्रमत्त-कालकूट गरल ।
आतंकित विकंपित है, इससे हर संत्रासित विकल, पल ।
जितना लघु ।
उतनी ही विस्तीर्ण व्यापक विरल बीहड़ है, इसकी यात्रा,
फिसलन भरी अति जटिल है ।
बड़ी ही संकरी, सांस रोकती, यह अंध गली है ।
प्राणों का कातर पक्षी ।
चुनौती-शल्य-विद्ध ।
हर पल जमीन खोजता
अप्राप्ति विक्षुब्ध विफल ।
सत्य ।
यह एक शब्द ।
तन-मन-छीलता आर-पार,
विषः-पूत शल्य ।
भले ही, हजारों आने वाले जन्म,
विंध जाएँ, भीष्म-शर-शय्या पर ।
पर एक सीकर कण ।
जल उठे ।
जिससे जीवन-शतांश क्षण ।
वह ! अति प्रचंड प्रज्वलित प्राणान्तक सत्य-हलाहल का ।
क्योंकर कंठ तले, गले उतरे ।
प्रभु ! सत्य-संविद-संपूरित अंतरदह तल-वेधित, समस्त भुवन ।
मात्र, प्राप्त कर क्षणभर सत्याभास या,
क्षणिक घर्षित, संस्पर्षित, उसकी अति लघु तीक्ष्ण छुवन ।
बने, मानव, त्याग ममत्व कलेवर,
परा-जगत-प्रवर ।
साधू संत ऋषि मुनि अर्हत ।
अदम्य, अटूट, अक्षीण अप्रतिहत,
सत्य-संध, अव्याहत ।असह्य प्रचंड दुर्द्धष ।
यह जीवंतक ज्वाला ।
शिव शुशोभित ।
पहने गले शिवा-अखंड सुहागिनी-रुण्ड मुंड माला ।
जन्म-जन्म की अनंत अमर करुण विरह कथा ।
ह्रदय पला ।
मैं हत् भाग्य ।
गर्हित पतित पड़ी गले, अशुभ अशोभनीय अंगुलिमाला ।
अपाद कल्मष में डूबा ।
तन-मन-जीवन से ऊबा ।
इस पर भी यदि कभी जल रहे अंतरवर्हि तन मन को छूता,
सत्य-समीर-सुरभित-मलय-विचुम्बित, शीतल झोंका आया ।
तुच्छ वणिक वुद्दी अहम् पूरित सत्वर,
पुण्य पाप के, हानि लाभ पर आया ।
नित्य अनृत्य जल से आचमन हो रहा निष्ठाओं का,
आदर्शों के भव्य उच्च देवालयों में,
बज रहे अनवरत घंटे घड़ियाल ।
निम्न जघन्य नृशंस स्वार्थपरता का,
उस गहन विषाक्त घुटन भरे पवन में,
कहाँ सत्य स्वांस ले पायेगा ।
इसे अपना कर भला कौन गृहस्थ, वणिक, शासनकर्ता,
सरलता से जी पायेगा ।
मिथ्या का ही, क्रय-विक्रय ।
उसका ही है सर्वत्र आदान-प्रदान ।
मनुष्य उसी में सतत प्रतिष्ठित ।
बना रहा, अपनी पहचान ।
जो रहे अलग ।
बने अर्गत ।
या सदा रहे समाज-उपेक्षित ।
उनको सांसारिक लोकाचार कदापि नहीं करता आमंत्रित ।
आज ।
असत्य आधार-शिला पर पैर जमाकर,
मानव सुदृढ़ सशक्त खडा है ।
असत्य और अहम्,
यही तो आधार-स्तम्भ,
यदि टूट गया कहीं, गिरेगा मानव निरावलम्ब ।
नाम रूप की संज्ञा है ।
जीवन के प्रति अदम्य ललक भरी आकांक्षा है ।
कौन इसे त्यागेगा प्रभु ।
अरूप, अनाम, अज्ञात,
भला कौन, किसी से रहेगा कदापि झुक ।
अहम्-रहित निर्जीव, गतिहीन, निश्चेष्ट,
जीवन ।किस निमित्त क्यों ?
किस विधि, किससे, जीवन होगा संचालित ।
अहम् ही तो जीवन-स्फूर्ति है ।
जीवन की जीवंत प्राणवंत धुरी है ।
यश, सृष्टि ससृति सर्वांग भुवन-कर्षण केंद्र,
देन उस अदृश्य सर्वनियंता का ।
जो कहता मैं नहीं ।
सर्वत्र हूँ ।
हूँ भी, नहीं भी ।
क्या यह ।
उर्ज्वसित दंभभरी उद्घोषणा नहीं ।
और, शीश पर तना यह नीलाकाश ।
लेकर पञ्चतत्वों का सारभूत विश्वास ।
मात्र खोखला, धूल ही है ।
फिर भी, निज अहम् सुरक्षित रखने के निमित्त,
अक्षुण्ण अस्तित्व के प्रति सत् सायास ।
ले रहा उनचास पवन के गहरे दंभ भरे निस्वांस ।
समय ऋतुओं को चित्रित करता,
सूर्य, चन्द्र के आप्लावित चषक, महा तृषित सा पीता,
दसों दिशाओं के स्तंभों के बल पर औंधा,
दीन, त्रिशंकु सा लटका मात्र,
महाकाल का है एक झटका,
फिर भी नखतों के सपनों में रहता ।
शरत-शर्वरी में आकंठ नहाता ।
वृत्तियों में जकड़ा
 अहम् भरा अकडा ।
आशाओं के उल्का वन में जलता रहता ।
अनगनत धूमकेतु कशाघातों में
अनवरत प्रताड़ित पीड़ित
 अहम् त्याग विलग नहीं होता ।
और धरा !
बड़ी दीन है बेचारी ।
सदैव सर्वदा दुराचारों की मारी ।
जिसे, अनवरत अंतर दहन और उत्पीड़न ही, मिला ।
हर किसी से मर्दित दमित शमित रही ।
उसने भी, दैन्य भरा छद्मवेशी  अहम् नहीं त्यागा ।
तार तार हुए वसन ।
रही करती कातर क्रंदन ।
उसमें भी है निज अक्षुणता की
निरी  अहम् भरी उद्वेलित हृद-धड़कन ।
निरीह दिखती ।
दंभभरी ऐंठी अकड़न ।
और यह ।
गगन घर्षित दुर्द्धष
कहते जिसको रत्नाकर जलनिधि ।
उत्ताल तरंगों को उछाल उछल,
मदमत्त प्रमत्त अहंकारों से भरा,
हाहाकार मचाता ।
लहरों के भुजबंधों में सरिताओं को,
भर-भर कंठ पान करता ।
अदम्य प्यास की धूम मचाता,
पुलिन, किनारे हटते जाते ।
तट, सैकत के छिपते जाते ।
फिर भी और और के शोर मचाता,
मोटे अधरों से उन्हें कुतर कुतर कर
आत्मसात करता, बढ़ता जाता ।
कहा प्रभु ने-
जिस असत्य को संकेत कर रहा,
वह, मनः-वृत्तियों की एक वीरागी भूमिका है ।
यह जड़ता ।
असत्य ही नहीं मिथ्या है ।
भ्रम है ।
तूने अबतक जो कुछ भी किया या कहा ।
वे सब । छद्मवेशी रूप हैं ।
तेरे दुर्दांत जटिल,  अहम् के । असद वृत्तियों का उन्मूलन ।
स्वतः निर्मित करता, सत्य-सोपानों पर उर्ध्वगमन ।
यह केवल प्राप्त, सत्य अहिंसा से ही मात्र ।
ये दो अमोघ अस्त्र ।
छिन्न भिन्न हो जाते समस्त कर्षण बन निरस्त्र ।
अतः । तू  अहम् का कर त्याग ।
देगा, सत्य ही, इसमें तेरा साथ ।
सत्य ।
समस्त दुर्बलताओं से निवृत्त कर,
आत्मबल से पूरित करता है ।
शाश्वत ज्ञान प्रकाश की चकाचौंध में,
 अहम् के हर्म्य ।
खंड-खंड, धुल-धूसरित ध्वस्त, टूट-टूट कर गिरते है ।
निवृत्त प्रसादमय मनः-आकाश ।
सात्विक विचारों को, स्वच्छ धवल निर्मल आवास मिलते हैं ।
यह ध्वांत अशांत अहंकार  अहम् का,
स्वयं विनष्ट हो जाएगा ।
देखा चकित सा, अहिंसक ने प्रभु को,
आयी पीड़ा की हल्की सी स्मित रेखा ।
“ अहम्” – बोला वह-
यह सतत, मनः-रूपायित, वैकल्पिक-वैशिष्ठ्य,
समस्त भुवन-प्राण ।
यही तो है, अपनी चिरकान्क्षित पहचान ।
 अहम् ही तो है जीवन आधार ।
उतरे जीवन में बनकर अनूप-
धर्मनिष्ठ  अहम्, दया  अहम्, दैन्य  अहम्,
वैभव  अहम्, शौर्य  अहम्, भीरु  अहम् ।
रूचि के अनुसार पहने हैं जीव ने,
एक से एक,  अहम् परिवेश ।
पुनः कुछ मुस्कुराकर बोला –
यह प्रव्रज्या भी है निजत्व का उर्ज्वसित  अहम् ।
प्रभु ।
मात्र विष्णु ही है शून्य ।
निर्विकार ।
अतः कौन त्यागे यह  अहम् आधार ।
आई,प्रभु के प्रशांत मुख पर, हल्की करुणा की स्मित रेखा ।
कहा सांत्वनापूर्ण संवेदक दयाद्र होकर-
“भार्गव वंशज द्विज”
जो कुछ किया असम्बद्ध प्रलाप तूने,
वह है, तेरे आकाश भरे पीड़ित मन की,
असंतुलित मानसिक विक्षिप्तता ।
इस नैराश्यपूर्ण ध्वांत अन्धकार में,
तू भटक रहा, ठोकरें खाता ।
हर मार्ग हुए अवरुद्ध, हर खुले कपाट बंद ।
तू कैदी पक्षी सा, टकराता उड़ रहा,
मिले कहाँ, कोई प्रकाशपूर्ण प्रशस्त रंध्र ।
वह  अहम् ।
निकृष्ट घृणित ममत्व की,
स्वार्थपरक आत्मकेन्द्रित प्रबल घनीभूत भावना,
चुका रही नियति निर्मम होकर तुझसे,
जन्म-जन्म का निज पावना ।
चल उठ ।
मेंरे संग आ ।
संयमित शमित हो ।
हो निर्बंध ।
स्वाधीन, भार रहित ।
अब कदापि न हो,
इन कुलिश कल्मषपूर्ण भावना को समर्पित ।
संयम, नियंत्रण से, होती है मनः-वृत्तियाँ शक्तिहीन क्षरित ।
होता नहीं, मानव अशांत विचलित ।
नियंत्रण और शमन ।
अमोघ औषधि समस्त विकारों की ।
अंगुलिमाल ! शमन कर प्रतिहिंसाओं को ।
क्षण चकित निरख प्रभु को,
अति संशयात्मक होकर बोला- प्रभु ।
घोर अंतर है ।
नियंत्रण और शमन में ।
शमित मनोवृत्तियाँ, बंजर वन्ध्या मनः-भूमि ।
निष्कंटक और सुगम हैं ।
उन्हें कष्ट ही क्या ?
जो भस्मासात कर चुके स्पृहाओं को ।
हो चुके प्रहीण, जिनके नीवरण ।
क्या जाने वे मनः-मंथन, उत्पीड़न ।
आमूल झकझोरती प्रबल झंझा का अतिक्रमण,
हो जाता, अपने मन का भी विस्मरण ।
ऐसी असहनीय अतियों का,
भला हुआ, उन्हें क्या, कभी भी अनुभव ।
क्या देखा, कभी भी, विषाक्त, अट्टहास मध्य,
निज ध्वस्त होता दीन पराभव ।
जहां वृत्तियाँ ।
शांत नहीं, दमित नहीं,
वे बन रही अटल मुखर भास्वर ।
उन्हें मौन, अनवरत झेलते रहना,
रंचक आभास भी, न होने देना ।
अति कठिन असाध्य दुर्दांत मर्मान्तक है ।
वे मानव ।
जो कंटकाकीर्ण मनोवृत्तियों से जकड़े ।
द्रवित अश्रु, अश्म बने पड़े ।
वेदना-विदग्ध-ह्रदय ।
अन्य के प्रति जिसमें,
निरंतर लहलहाती ईर्ष्या की सदाबहार बेलें ।
अविराम धधकती स्पर्धा की ज्वाला ।
नैराश्य ।
कृष्ण सघन घन नाला ।
वेदना की तड़ित कशाओं में क्योंकर,
एक पल भी, वह, शान्ति भला पा ले ।
यह सब अनवरत जीवंत प्राणवंत,
फिर भी अधर निश्चेष्ट दशन दबे ।
एक शब्द, प्रतिवाद का मुखर न हो सके ।
शमन वृत्तियों से,
यह, कहीं, कठिन है झेलना । प्रभु ।
शीतल क्षार पर कोई सरलता से चल लेगा ।
हर दूरी को, वह, पूरी कर लेगा ।
किन्तु हर स्वांस में विषः घूँट पीते ।
आहों से जीर्ण कंथा सीते,
दुष्कर है, विरल कान्तर पथ पर चल पाना,
एक डग भी भर पाना ।
वही जानता जो इसे कर रहा सहन ।
पाषाण सरिस जीवन कर रहा वहन ।
ये समस्त मनः-उपद्रव ।
अपेक्षित नहीं इन्हें  अहम् पराभव ।
ये निज अस्तित्व जमाने की है प्रक्रिया ।
व्यक्तित्व के पहचान की है समेंत विद्या ।
ये पीडक व्रण ।
क्षण न विश्राम लेने देते हैं ।
सस्मित कहा पभु ने- माणवक ।
जग ।
 अहम् मत्सर, ईर्ष्या, स्पर्धा ।
घृणित कल्मष, पुद्गल का ।
ये भी, विलीन हो जाते हैं ।
शांत जल की सतह पर, गिरती वर्षा की बूँद,
वर्तुलाकार, निज  अहम् सीमा निर्मित करती है ।
किन्तु शांत जल में, वह स्वतः समाहित हो जाती है ।
यदि आज कोई वृत्तियों पर विजय पाता है ।  
निश्चय ही वह प्रथम, समस्त लालसाओं ममताओं का हनन करता है ।
शांत निर्विकार मनः-भूमि ।
सहज उपलब्धि है ?
कदापि नहीं !
पाषाणों को भग्न करना सुगम है ।
नदी प्रवाह भी कहीं रोका जा सकता है ।
किन्तु मन !
इसके, क्षण-क्षण परिवर्तन ।
उन्हें पकड़ पाना संभव नहीं ।
जो होता है भिक्षु,
वह, उर्वी सा, सहनशील पवन सा,
स्वच्छ गतिशील,
और गंगा सा होता है गंभीर सुशील ।
माणवक !
क्या कभी भी, नितांत एकाकी शांत क्षणों में,
गंभीर गहनता से किया तूने, निज अन्तः-प्रेक्षण ।
कभी भूल कर भी दिया स्वयं को,
कोई भी, भूला बिसरा क्षण ।
मनुष्य, स्वयं अपना गुरु ।
अपना उद्धारक है ।
अपने भार का स्वयं वही वाहक है ।
मानव मन ।
स्पष्ट सप्रमाणिक प्रत्यक्ष दर्पण ।
वह ।
कितना उतर गया नीचे ।
कितना चढ़ गया ऊपर ।
अथवा, रह गया मध्य में ही, द्विविधाओं में फंसकर ।
ह्रदय, निर्द्वंद्व निःसंशय सटीक बिना हिचक, बताता है ।
दो टूक निर्णय देता है ।
अतः ।
अपना दीपक स्वयं बन ।
निरख ।
इस ध्वांत अशांत नैराश्यपूर्ण कंटक वन में,
कितना अकेला निरीह दीन ।
तू बैठा, विवश अपंग क्षीण ।
जिसकी जैसी होती है मनः-भूमि,
उसी के अनुरूप, निज प्रकृति, लेती है ढूंढ ।
पतनोन्मुख होती है असद निम्न मनोवृत्तियां ।
ऊर्ध्वमुखी आरोही होती हैं सद्वृत्तियाँ ।
व्यक्ति विशेष उसे अधिरोहित, अवरोहित, सतत बनाता है ।
यह । मानव मन ।
ये दो विकल्प ।
किसे वह करता है ग्रहण ।
स्वीकारेगा ।
अमृत मंथन या आत्म हनन ।
दोनों ही उसके वश में ।
अतः अहिंसक चल । मेरे संग ।
कर विश्राम, जेतवन में ।
ली माणवक ने गहरी सांस ।
दिया प्रभु ने, जीवन के प्रति विश्वास ।
बोला वह- प्रभु ने भी,
कृषा गौतमी को गुरु-दक्षिणा
उज्जवल अमूल्य मौक्तिक माल दिया था ।
यह कैसी गुरु दक्षिणा है प्रभु ।
जिस निमित्त मैं बाध्य हुआ था ।
हँसे प्रभु – भूल जा माणवक ।
प्रतिशोध । प्रतिहिंसा । नृशंस जघन्यता है ।
मानव इससे आबद्ध ।
सदा नीचे गिरता है ।
त्याग इन्हें यहीं ।
अब तू मेरी छाया में है ।
लेन-देन को त्याग कर, बड़ी दूर आया है ।
यह, विरोध रहित, प्रतिशोध रहित, अंतर वेदना,
केंद्रीभूत गहन, सीमित न होकर,
व्यापक मर्मान्तक असीमित हो जाती है ।
मानव, निज स्पंदित मंथित जीवंत व्यथा में,
विभोर, विश्व वेदना-संधान-निदान-निरत, हो जाता है ।
वह देख ।
सम्मुख आ गया आश्रम ।
आज तू रह श्रमणों के साथ,
कल प्रातः ही जा भिक्षाटन को,
पहन चीवर काषाय वसन और लेकर पिंड पात्र ।
मार्ग में तुझे निरख, नगरवासी अपशब्द कहेंगे, या करेंगे निर्मम प्रहार ।
रहना मौन न करना प्रतिवाद ।
और न करना उनपर आघात ।
यह सहिष्णुता मन की,
और क्षमता, प्रहार सह लेने की ।
निर्मन्यु निर्विकार  अहम् रहित, बनायेंगे ।
आगे के पथ क्रमशः खुलते जायेंगे ।
प्रभु के निर्देशानुसार,
गया नगर अंगुलिमाल ।
काषाय वसन चीवर पिंड पात्र ।
मात्र यही विरमित था,
उसका सन्यस्त निवृत संसार ।
पूर्ण दिवस व्यतीत कर लौटा वह अपराह्न ।
मौन खडा अपलक दृष्टि केन्द्रित कर
निरख रहा था, प्रभु की ओर ।
ध्यानावस्थित थे प्रभु सघन वृक्ष की छाया में ।
सहसा खुली दृष्टि ।
देखा सम्मुख, खडा अहिंसक ।
फटे चीवर, बह रही थी शीश से उष्ण रक्त की धार ।
भग्न पिंड पात्र ।
आप्लावित लाल रुधिर, हो रही धरा भी लहू सिक्त ।
शरीर क्षत विक्षत रुधिर-रंजित,
था वह निर्विकार मूर्तिवत ।
था शांत खड़ा,  अहम् भंजक ।
अकस्मात्, देखी प्रभु ने उसमें ।
राजउद्द्यान के शर-विद्ध मराल की छाया ।
राजभवन का वह आहत हंस,
विकल पक्षी ।
पुनः उनकी छाया में आया ।
आज वह ।
अहेरी नहीं ।
दस्यु नहीं ।
वह ।
ज्ञान-मुक्ता चुनता मराल ।
नहीं था वह अंगुलिमाल कठोर कराल ।
आज वह ।
था बना स्वयं नियति-अहेर ।
गिरा चरणों पर, दोनों पंख पसार ।
आहत उसके तन-मन-प्राण ।
मांग रहा, अति विकल,
शाश्वत त्राण । शाश्वत त्राण ।
विद्ध हृदय में मर्मान्तक मारक वाण ।
वांक्षित शीतल अनुलेपन चिर कांक्षित ।
प्रभु देशना । मात्र, ऐषणा ।
अनगनत वैसे ही पीड़ित तपित व्यथित प्राणी ।
श्रवण कर रहे प्रभु अमृत वाणी ।
चिरंतन ज्ञान । सत्य शीतल प्रकाश ।
आवागमन मुक्ति अक्षुण्ण आवास ।
अनगनत जन्मों से सतत यही प्रयास ।
प्राप्त, उल्लसित उज्जवल उदान्त प्रखर ज्ञानाकाश ।
शाश्वत शान्ति अविछिन्न दृढ़ विश्वास ।
उड्डन निमित्त ज्ञान-गगन में,
था मनः-पक्षी तैयार ।
सोल्लास ।



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