Thursday, 5 January 2012

सर्ग : २६ - वैशाली पतन



सत्य ।
सदा छला गया, असत्य से ।
अन्यथा, वह । न होता इतना मारक गरल ।
तड़प गया, अमृत सा अन्तरदह तक निर्मल ।
दुर्दुष दारुण दिनमान,
जलाता रहा, अनवरत गगन को,
रहा, जबतक गतिमान ।
और, सुधाकर !
रात्रि भर, अमृत-सीकर-निसृत कर,
करता रहा, उसके विदग्ध फफोले शीतल ।
चुनता रहा रश्मि-करों से उसके छिटके नखत-अश्रुओं को अविरल ।
सदा, सदभावना हुई उत्पीडित,
असद की ज्वलित विषाक्त ज्वाला से ।
तृष्णाएं, होती रही संवर्धित पल्लवित पुष्पित ।
स्वार्थ-अहिन की जड़ें जमाकर,
होता रहा निश्च्छल प्रेम प्रद्युषित मौन सतत,
तपः-साधना-यज्ञ प्रज्वलित कर ।
वैशाली !
संस्कृति, ज्ञान, अध्यात्म की, सुरभित स्वच्छ निःश्वांस ।
कर बैठी मुनि बने, दुरभि-संधि निरत छद्मवेशी,
मगध दशकन्धर पर,
वैदेही सरिस विश्वास ।
कूटनीति में सरलता, सदा छली जाती है ।
पुष्प सृकाओं में छिपकर वह, विस्फोटक लेकर आती है ।
मारक इसकी गतिविधियां, स्वांस-स्वांस, तोड़ कर जाती है ।
अजातशत्रु, मगध राजा, जब देखा उसने,
बल से नहीं, केवल छल से, पा सकता था वह वैशाली-साम्राज्य,
कुटिल छल की ठानी उसने ।
सरल ह्रदय से, स्पष्ट सरल बात निकाली उसने ।
निष्कपट ह्रदय । छल नहीं जानता ।
उसकी अमृत-धारा, उसमें, उसने, सहज स्नेह उतारा ।
स्थल हो, सुरम्य समतल, या कांतर अराल विरल,
एक रूप ही सबको आप्लावित करती है,
प्रवाहित, निर्मल गंगा की धारा ।
अजातशत्रु,
अति क्रुद्ध, विक्षुब्ध ।
बुलाया उसने, निज महाअमात्य वर्षकार को ।
मुझे किसी प्रकार, वज्जियों, लिच्छवियों को विजित करना है ।
गंगा तट की भूमि का शुल्क हस्तगत करना है ।
निज संघटन, एकता, परस्पर सम्मिलन से,
दृढ़ है अति ये विचार और शक्ति से ।
संभव नहीं प्रत्यक्ष युद्ध ।
हैं वे दूरगामी विवेक समबुद्ध ।
बड़े बड़े विशाल प्रासाद, गढ़ । नीवों में
क्षुद्र मूषक घुस,कर देते हैं, ध्वस्त नष्ट ।
शत्रु !
साम, दाम, दण्ड, भेद से जीते जाते हैं ।
जिस प्रकार हो कार्य सिद्ध, वही रूप अपनाये जाते हैं ।
सुनता रहा, वर्षकार ।
दूर खोजती उसकी दृष्टि,
सहसा प्राप्त हुई, उसे कोई युक्ति ।
फिर भी मौन रहा वह ।
पुनः बोला अजातशत्रु – अमात्य !
कभी-कभी, कुटिल विरल नदियाँ पाषाणों में उलझ गह्वरों में धंस,
सैकत में शुष्क पड़ी, रह जाती हैं ।
सरल सरित बढ़ती, निष्कंटक सागर तक जाती हैं ।
भंते !
आजकल, प्रभु गृद्धकूट में व्यतीत कर रहे हैं वर्षावास ।
उन्हें जाकर, मेरा शिरसा नमन कहें और पूछें सुख विहार ।
उन्हें सूचना दें ।
मैं वज्जियों लिच्छवियों के प्रति, युद्ध सन्नद्ध हूँ ।
जो हो तथागत की प्रतिक्रया,
अक्षरशः मुझे निवेदन करें ।
वर्षकार ने, सुसज्जित कर वैभवशाली यान, किया गृद्धकूट प्रस्थान ।
तथागत समीप जाकर उसने किया सादर शिरसा नमन,
और प्रभु का कुशलक्षेम पूछकर,
अपने आगमन का उद्देश्य किया प्रगट ।
देखा प्रभु ने वर्षकार को,
आतंककारी आयाचित धूमकेतु को ।
केशर पराग बसी, सुरभि, कब काँटों में पलती है ।
वह कोमल पंखुरियों पर या मधु लिपटी रहती है ।
कुटिल कांटो भरा वर्षकार ।
प्रभु ।
निर्मल शीतल इंदु-प्रकाश ।
जानें क्या ।
यह घात कहाँ ।
आ पहुंची बात कहाँ ।
सरल निश्च्छल ह्रदय, जानता नहीं अनय ।
पृष्ट भाग में खड़ा आनन्द, कर रहा था प्रभु को व्यजन ।
प्रश्न किया- आनन्द !
क्या वज्जिगन, सन्निपात बहुल, होते हैं, नियमित एकत्रित ?
क्या करते हैं ग्रहण गोष्ठियों की सूचना ?
परस्पर विचार विमर्श कर, करते हैं, समस्यायों का समाधान ?
होते हैं एक साथ सम्मलित ?
एकमत होते हैं कार्यरत ?
यदि करते संध-नायक, गुरुजन सामान ।
श्रोतव्य श्रवण करते हैं ।
चैत्य अन्य पूजनीय पूजन करते हैं ।
करते नहीं अन्य की कुलवधुओं, वनिताओं का, बलात् हरण ।
कदापि नहीं संभव उनका पतन ।
ये सात अपरिहारणीय धर्म हैं ।
रहेगा, वज्जिसंध जबतक इनपर दृढ़ अचल स्थापित ।
नहीं होगी अवनति ।
तन-मन-धन से, बाहर भीतर से, रहे सुदृढ़ ।
नहीं कोई अनिष्ट से वे पीड़ित होंगे ।
होंगे नहीं कोई शत्रु से विजित विजड़ित ।
रखेंगे जबतक इन नियमों का ध्यान,
रहेगी उनकी गति ऊर्ध्वमुखी उत्थित ।
होगा सदैव कल्याण ।
सब सुनकर, शिरसा नमन कर,
उठा, आसन से वर्षकार ।
उठते-उठते अति विनीत स्वर में,
भरकर प्रतिहिंसा की ठसके, बोला सव्यंग-
निरंतर चलता वैश्व-विधान ।
पड़ जाता है उसमें भी व्यवधान ।
तिथियाँ भी, घटती बढ़ती रहती है ।
रात्रि, कभी छोटी और कभी बड़ी हो जाती है ।
मानव !
संसृति का एक छुद्र उपादान ।
कहाँ चूँक जाता है,
होता है, काल से अनजान ।
एक नन्ही चीटी से, मारा जाता है करभ विशाल ।
अज्ञात लघु छिद्र से जल समाधि ले लेता है जलयान ।
फिर मानव !
तृष्णाओं का मोहक-इंद्रजाल ।
मृग-मद-कस्तूरी वह ।
हरित मृणों को लुब्ध,
देखता नहीं प्रमादवश,
फैला कहाँ, जीवंतिक जाल ।
पुनः कर शिरसा नमन, किया उसने वर्हिगमन ।
महाअमात्य के जाते ही, प्रभु ने किया, वज्जी-संध को आमंत्रित ।
पुनः सात अपरिहारणीय नियमों की,
की, उनके सम्मुख पुनरावृत्ति ।
वज्जी-संध को सचेष्ट करते हुए कहा-
न रहना प्रमादवश ।
न रहना तृष्णाओं से घिरकर ।
सदा गुरुजनों के प्रति नमस्कृत, सयंत सुशील संवेदित मृदुभाषी,
संध से रहना अनुशासित,
निज नायक के प्रति, प्रतिबद्ध,
आगत-अनागत, के प्रति स्मृतिवान,
कुलवधुओं का करना सम्मान ।
होती रहेगी सौख्य समृद्धि में वृद्धि,
प्राप्त करोगे अभ्युत्थान ।
लौटे वज्जिगण ।
इनसे ही पूर्व लौटा था वर्षकार ।
गया वह, अजातशत्रु के सम्मुख ।
जो बात हुई, प्रतिक्रया हुई, कहा सब अक्षरशः, विधिवत ।
सब सुनकर बोला, वैदेही-पुत्र - अहो !
वज्जिगण-तंत्र संघटन-अदभुत ।
शत्रु, जब हो बलवान ।
न करो सम्मुख प्रत्यक्ष युद्ध-आह्वान ।
उनके घर में डालो भेद ।
जहां हो दुर्बल प्राचीर, वहीँ पर मारो सेंध ।
अन्यथा, अपनाओं विभीषण नीति ।
हँसा कुटिल हंसी वर्षकार –
है सभी समस्याओं का प्रतिकार ।
राजन ! कल राज-परिषद में, आप वज्जिओं की बात उठायें ।
कहें वे गंगातट की भूमि का लेते हैं अनाधिकार मेरे शुल्क ।
पर्वतीय बहुमूल्य वस्तुओं को, प्रथम ही कर हस्तगत, करते हैं विक्रय ।
मेरे प्राप्य, का सब प्रकार से करते हैं अपहरण ।
यह अन्याय नहीं सहूंगा मैं ।
तब मैं, वज्जियों का करूँगा पूर्ण समर्थन ।
आप क्रुद्ध होकर कहेंगे ।
यह ब्राह्मण है ।
अत्यन्त अकृतज्ञ अपकारी ।
मैं यह सुनते ही परिषद से बर्हिगमन करूँगा ।
उसी दिवस, वज्जिओं को बहुमूल्य पर्णकार उपहार करूँगा, प्रेषित ।
उसे आप करेंगे अधिकृत,
और अपमानित कर मुझे, देश निकाला देंगे ।
सुनियोजित मेरा यह कार्यक्रम ।
निश्चय ही वैशाली होगी,
मगध के चरणों में नत प्रणत,
अनायास बिना श्रम ।
अजातशत्रु ने किया यथावत, जो वर्षकार ने कहा ।
अपमानित वर्षकार, जब निष्कासित हुआ मगध से,
उसकी अपमान कथा की चर्चा, फ़ैली सर्वत्र,
तड़ित वेग से । बात पहुँची वज्जी संघ तक ।
उन्होंने अपने सन्यागार में किया लिच्छवियों को एकत्रित ।
आह ! कितना क्रूर अजातशत्रु ।
निज पिता बिम्बसार को भी, यंत्रणा दे देकर, कारागार में मारा जीवित ।
अब यह,  ब्राह्मण अमात्य !
किस प्रकार किया तिरस्कृत अपमानित, लांक्षित ।
अभियोगों पर मिथ्या अभियोगों का आरोपण ।
पदः-स्खलन ।
निष्कासन ।
केवल इस हेतु कि, वज्जिसंघ का किया उसने समर्थन ।
वह ।
सम्प्रति है उस पार गंगा तट के,
है यहाँ प्रवेश पाने को उत्सुक ।
सादर उसको हम सब लायेंगे ।
किन्तु, यह सब सुनकर,
किया उसमें से किसी एक ने प्रतिवाद ।
वह, मगध-साम्राज्य का महामात्य, वर्षकार ।
मायावी है दुर्निवार ।
निज उद्देश्य सिद्धि निमित्त, कितना नीचे जाएगा ।
जड़ में पैठ, छल बाल माया प्रपंच, सब विधियों को अपनाएगा ।
विश्वास करो मत ।
मोहक होता है, स्वर्ण चर्म का विषधर ।
कब, अमृत हो पाया, इन्द्रयाण मारक विषफल ।
यह, ऊपर की बातें हैं ।
इनमें कहीं छिपी प्राणान्तक घातें हैं ।
शत्रु कभी नहीं झुकता है ।
नमित होकर ही कंटक, पैरों में चुभता है ।
वह, महोषधि भैषज कहकर,
उर्वरा उर्वी हरी भरी निरख,
उसमें विष बीज वमन करता है ।
यदि प्राप्त नहीं होती राह ।
वह, पडोसी राज्यों से मिलकर दुरुभिसंधि करता है ।
निज शत्रु को मित्र बनाकर,
अवसर पाकर, बुरी जगह पटकता है ।
घर में घुस पैठकर, समस्त गतिविधियों को,
भलीभांति जानकार अवगाहन कर,
वह, निज रणनीति बनाता है ।
न करें ।वर्षकार का विश्वास ।
वह, विषकन्या नहीं, विष पुरुष,
अप्लावित अकाट्य विषः संभूत गोधुम कृष्ण नाग है ।
निदान राहित है इसका विष ।
अदभुत इसकी सूझबूझ ।
वह मारक अस्त्र अचूक ।
किसी अन्य ने उठकर, किया इन बातों का विरोध ।
यह वर्षकार, प्रकांड विद्वान, सब भांति सक्षम ।
यदि यह विशाल मस्तिष्क, वज्जीगण पा जाएँ ।
किस प्रकार सुदृढ़ सशक्त होकर,
निज साम्राज्य का विस्तार बढ़ायें ।
यह सिद्ध होगा, अमोघ आयुध ।
अत्यंत विचक्षण प्रबुद्द्ध ।
पुनः उठा प्रतिवाद ।
यह सत्य कथन निर्विवाद ।
किन्तु एक ही औषधि से होता नहीं सर्व रोगों का उपचार ।
“दुर्जनः प्रियवादी च नेतु विश्वास कारणम् ।
मधु तिष्ठति जिह्वाग्रे ह्रदय तु हलाहलम् । ।”
किन्तु भवितव्यता ।
विनाश काले विपरीत बुद्धि ।
इतनी चैतन्य सुसंस्कृत वैशाली ।
आज अकारण, जा रही, नियति से छली ।
कहा किसी ने-
जो, मगध के उच्च पद पर प्रतिष्ठित ।
होगा क्यों, उसके शत्रु पक्ष से संवेदित ।
समर्थनों असमर्थनों के मध्य, हुआ वर्षकार का वैशाली आगमन ।
पुनः वज्जी परिषद हुई आमंत्रित ।
वर्षकार से प्रश्न हुआ ।
किस हेतु हुए वे निष्काषित ।
वर्षकार ने, पुनः सब बातें जो हुई घटित, दुहराई ।
सब सुनकर, हुए स्तंभित वज्जिगण ।
यह बात, इतनी तुच्छ, इतनी नगण्य ।
और दण्ड, इतना भारी ।
सत्य ही, मगध राज, है नृशंस दम्भी अत्याचारी ।
हो उठे सब भावाकुल ।
परम अनुभवी मेधावी, यशस्वी, वर्षकार ब्राह्मण,
था, महाअमात्य, मगध का ।
वैशाली ने भी उसे, भावावेश में,
महामात्य का स्थान दिया ।
कहा वज्जिसंघ ने- ब्राह्मण !
आप यहाँ सब प्रकार प्रतिष्ठित समादृत, स्थापित ।
वर्षकार ।
प्रथम वर्ष, रहा शान्त मौन ।
करता रहा निष्ठा से सब कार्य निष्पादन ।
वह, अति प्रभावशाली वक्ता ।
सब विषयों का निष्णात पंडित,
गहन मग्नशील, नीर-क्षीर विवेकी ।
निष्पक्ष न्यायकर्ता, राजकुल राजपुत्रों का गुरू ।
सब मुक्त कंठ से करते उसकी प्रशंसा ।
किन्तु अवसर पाकर,
शान्त पड़े तक्षक ने, धीरे-धीरे शीश उठाया ।
विष वमन करने हेतु, अपना, विषधर फण फैलाया ।
विश्वासों की धरा पर, अपना पैर सबल जमाया ।
धीरे-धीरे वह भीनता विष, अपना रंग ले आया ।
जो कहता, जैसा भी कहता, वर्षकार ।
वह वेदवाक्य ।
जो करता वर्षकार ।
वह न्यायसंगत अकाट्य ।
देख लिया वर्षकार ने,
उसकी मोहिनी माया की छाया में,
वज्जिसंघ घुटनों के बल आया ।
हुए व्यतीत इसी प्रकार,
वर्ष पर वर्ष निर्विघ्न सब प्रकार ।
तृतीय वर्ष ।
वह लगा घूमने वैशाली में घर बाहर ।
जो भी देखता उसे, संभाषण करता सादर ।
कभी किसी से बातें कराता,
कभी किसी को कुछ कहता ।
कभी अत्यंत छोटी नगण्य बातों में,
गाम्भीर्य का नाटक रचता ।
विद्वेष, शंका, विश्रीन्खलन के, परस्पर बीज वपन करता ।
वज्जिगण, धीरे-धीरे एक दूसरे से सशंकित
रहने लगे सब, अपने में सीमित ।
नहीं संघ की बैठक होती, नहीं चैत्यों में जाते ।
मिल जाता कोई सुहृद, आँख बचाकर कतराते ।
नहीं होते किसी के सुख दुःख में, परस्पर सम्मिलित ।
विस्मृत गुरुजनों का सम्मान, नहीं परस्पर आदान-प्रदान ।
हो गए, एक दूसरे के चेहरे सर्वदा अपरिचित अनजान ।
सबमें, केवल अपना स्वार्थ निहित ।
भग्न सब नियम ।
व्यापक हो गयी अनुशासनहीनता ।
किसी का घर, जले या बचा रहे ।
दूसरा क्यों वह ताप सहे ।
एक दिवस, मंत्रणा निमित्त बजी वज्जिसंघ की दुन्दुभी ।
सुनकर, किया, अनसुना सबने ।
कोई संघागार में एकत्रित हुआ नहीं ।
शून्य पड़ा संघागार ।
नहीं किसी को, वज्जी गणतंत्र की परवाह ।
यह, वही वैशाली थी ।
राज महिषी, सौंदर्य सम्राज्ञी ।
जिसकी अभ्यर्थना में सन्नद्ध,
स्पृह सहस्र शत सप्त, प्रासाद, हर्म्य,
नत प्रणत लेकर स्वर्ण कलश ।
इसी प्रकार द्विगुणित रजत कलश, त्रिगुणित ताम्र कलश ।
नित्य अप्लावित, करते थे अभिसिंचित मन्त्र-पूत-जल-निसृत-अभिषेक ।
गरिमा, सुषमा, अतिरेक । आम्रपादप । अर्णवन । सुरम्य वन उपवन ।
कैकी कलरव ।
खग कूल कुंजन मधुरव ।
चित्र विचित्र कंज खचित मुदित तड़ाग ।
सर्वत्र वसुधा सुरभित बहुरंगी पुष्प-पल्लव लसित ।
अहर्निशी मंजीरित प्रक्वणित वीणा ।
नर्तित नवंगना नृत्यांगना ।
सुमधुर गायन मनः-रंजन स्वर लहरी,
ज्यों प्रफुलल्लित आनंदित तरंगित अमृत-तरगिणी ।
वैशाली अनुदरा लावण्यप्रभा ।
स्वर्णिम दामिनी, गजगामिनी ।
केहरी कटि, कलश, भार अवश ।
छलकी गगरी, रुनझुन तगड़ी ।
सिक्त वक्ष-पट्ट शिंजिनी रही अटक ।
मेखला, भार बनी, लहरित दोलित क्षीण कटी ।
वैशाली रूप गर्विता ।
आज वाह निरीह निर्गता ।
निरख रहा उसे क्रूर वर्षकार ।
फुन्कारित विष व्याल ।
जिस प्रकार, सद्दः-अभिसिंचित शमित,
चिता की अर्ध्जलित काष्ठ समिधाओं पर,
पक्षों को संतुलित करता,
पंजों को काष्ठ में धसांता, बैठता,
अनुभवी प्रौढ़ गृद्ध,
डालता है, सर्वत्र विहंगम, किन्तु तीक्ष्ण दृष्टि ।
सद्दः उतर रही थी वैशाली की श्यामल क्लान्त आर्द संध्या ।
शान्त खड़े थे वृक्ष,
तरु शिखाओं पर से भी हो रही थी विलीन अर्क-प्रभा ।
ऐसे ही, खुले अनखुले क्षणों में, वर्षकार,
कर रहा था हृदयंग वैशाली को सब प्रकार ।
वह, वैशाली के वन, उपवन, प्रासाद, हर्म्य,
शाखा, प्रशाखा, बाजार, हाट, नगरों में, ग्राम्यों में, चैत्यों में,
विचरण कर रहा था सर्वत्र ।
देखा, गरिमा का प्रखर, प्रकर्ष प्रचंड मार्तंड ।
विकीर्णित जाज्वलमान ज्योति-प्रभा अखंड ।
आज, निष्प्रभ निस्पंद ।
राहु ग्रस्त ।
पूर्णतः विश्रीन्खिलित अस्त-व्यस्त ।
वैशाली की अप्रतिम लावण्य-प्रभ, राज्यश्री ।
सुअलंकृता गुण सौष्ठव, सौंदर्य स्वाभिमान गर्विता ।
कमनीय सरस रसवंती तरुणी जाह्नवी ।
पड़ी, श्लथ क्लान्त धरा पर ।
पुष्प भार हार टूटे बिखरे ।
भग्न केयूर, भुजबंध, भूलुंठित किरीट, कटी मेखला ।
बिखरे अराल अपाद कृष्ण केश ।
ह्रदय विदग्ध पीड़ा अशेष ।
नील-नलिन-अर्ध-निमीलित, अजस्र अश्रु स्रावित, कम्पित पद्मप्लाक्ष, स्नात,
विगत स्मृति स्वर्णिम स्वर्ण विहान-साक्ष्य,
भग्न स्वप्न सहस्र पत्र । विगलित संतरित सिक्त पात-पात ।
आँखें । मौन ।
स्वप्न जडित स्मृति समाधि ।
उच्छ्वासित व्यथित टूटती, ऊर्ध्व स्वांस निःश्वांस ।
आन्दोलित वक्ष, मृणाल मसृण बाहुलता असमर्थ ।
उच्छ्वास व्यतिक्रम अप्रतिहत ।
मुखारविंद, विषण्ण उन्मन ।
चित्रित पत्रभंग विवर्ण विकृत गहन पवन ।
अवरुद्ध स्वांस । विकल तब-मन ।
शातोदारी, सब प्रकार विपन्न ।
कुटिल निर्मम ह्रास ।
हँसा वर्षकार ।
कहाँ आज ।
वैशाली का वैभव-विलास-साज ।
कहाँ वह, मदमत्त ऊर्ज्वसित यौवन लावण्य-प्रभ प्रकाश ।
कहाँ पुष्पकरिणियों, दीर्घकाओं, बावलियों, तड़ागों में, कंज खचित सरोवरों में,
युवक युवतियां, जल-क्रीड़ा-प्रमत्त ।
अब, बज रहे कहाँ, वीणा, वेणु, परिवाद्नी, प्रणव, मृदंग ।
कहाँ मद पी मदिरालय, रंगिणियों का नर्त्तन ।
कहाँ, यौवन आनंद रस आप्लावित आँखों का, मधु वर्षण ।
हो गए, शान्त ।
जावक-रचित काम-विमोहित-पञ्चपुष्प-अनुस्यूत-शिंजिनी-विलसित,
लास-चपल-नृत्तित-चरण । नीलंजसा-नील-राजित विभ्रमित नील नयन,
मदः-नवोंमेषिता, नवागनाएं नृत्यांगनाएं ।
विसुध विक्षिप्त,
डस गयी, कूटनीति सर्पणी विषः-विदग्ध,
टूटे इनके अंग-अंग ।
कहाँ इनमें, मयंक मनसिज उत्थित सुधा-रस-तरंग ।
वैमनस्य, विद्वेष, गृह-कलह,
अचूक, मारक गरल ।
भीन जाता, रोम रोम अन्तर-हृद-तल ।
उतरे, धनवंतरि भी,
अप्राप्त औषधि ।
अनिवार्य मृत्यु ।
अब भी, कम्पित तृषाकूल शुष्क अधर ।
पर कहाँ शुद्ध शीतल जल ।
हो चुकी निःशेष, जीवन संजीवनी शतहृदा ।
अब केवल अभिशापों से ज्वलित, कम्पित धुतांग वैशाली काम्य धरा ।
देखा, वर्षकार ने अनिमेष ।
हो चुका, ज्ञान-प्रभा, अध्यात्म-चेतना, संस्कार, निःशेष ।
परम आनंदित, वर्षकार ।
ली उसने, परम संतुष्टि की सांस ।
हो किस प्रकार,क्षत-विक्षत यह शव ।
कैसे अधिकृत हो इसका अपार वैभव ।
मृत यह ।
शेष अब, तांडव, विप्लव ।
वर्षकार ने, कस्तूरी वश करने निमित्त, बीन मधुर अलापा ।
हो उठा मुग्ध वन्य प्रांत ।
विमुग्ध मृग स्वयं बढ़कर उसने निज को मृत्यु-जाल में बाँधा ।
राजनीति,
श्मशान-प्रज्वलित-चिता पर, आवाह्नीय, जागृत अघोर मन्त्र ।
केवल इसमें षड्यंत्र-तंत्र ।
यह बबूल का कंटकाकीर्ण अरण्य,
कांटे ही चुभते हैं, कांटे ही झरते हैं ।
कांटे ही बिछे, सर्वत्र रहते हैं ।
नहीं यह, रसाल का मंजरित सुरभित पल्लव प्रच्छायित, शीतल मधुवन ।
जहां, गुल्मों के अंतराल में शयित विभ्रमित कुंजित,
प्रतीक्षाकुल, किंकर, किंकिरात, कावृत, कैकी, खग-कूल-कूजन ।
गंध-अंध-किंजल्क-वन । षट्पद मधुकर गुंजन ।
सात्विकता-रसः-आस्वादन ।
यहाँ, ध्वांत आकाश तले,
राजनीति, कूटनीति, के शमशान में,
जहां, आदर्शों की जली चिता,
पड़े शव, जले अधजले ।
ध्वस्त महत् विचार-प्रासाद,
निर्वाणित शान्त प्रकाश-आवास ।
निष्ठाओं की मरघट पर,
अशुभ आतंकित करती कूटनीतिज्ञों की उलुक ध्वनि ।
कम्पित अवनि ।
यह राजनीति !
शापग्रस्ता पतिता कर्मनाशा प्रवाहिता सरिता ।
सब पुण्यों का होता है तर्पण ।
दैवत्व यहाँ पतित स्नात,
असुरत्व ऊपर आता है ।
मानवता की पूर्णतः विनाश-यज्ञ में आहूति देकर,
राजनीतिज्ञ, प्रतिष्ठित होता है ।
उनका ह्रदय ।
कहते जिसे, विश्व-प्रेम-निलय ।
अखंड-ऐक्य का वह सागर ।
उस अन्तर, श्याम-पटल में, विषः-अक्षर-भास्वर होते हैं ।
उनका ह्रदय । वह, विषाक्त खिला पुष्प ।
जिससे, मधुर ध्वनि सुगंध निसृत ।
जीव, बरबस आता मंत्रमुग्ध खिंच,
उन्हें भक्षण कर, ये पटल बंद होते हैं ।
बजाते ये, विषःपूत विनाशी बीन ।
रख छद्मवेशी वेश ।
इनके स्वर, लय-गति-ताल-निबद्ध ।
अस्त्र-शस्त्र, कूटनीति, विद्रोह, विस्फोटक, इसके सरगम ।
यह तंतुवय अप्रतिम ।
अपने सुनियोजित ताने बाने पर,
मनः-वांक्षित आकृति उकेरता है ।
हो जाते इनकी क्षणिक भृकुटि विलास से,
वक्र दृष्टि से,
विशाल साम्राज्य, संस्कृति, कला, स्थापत्य विनष्ट ।
यह वह जल प्लावन,
क्षण में जिसे चाहे करे उदरस्थ ।
समय के संग परिवर्तित, इसके नानाविधि रूप, अनेक ।
प्रथम बनता था, यह विषकन्या ।
मृत्यु, सूपकार,मालाकार, सुहृद रूपजीवा, नर्त्तक या नर्त्तकी ।
अब, इसमें, विष-बेल, और भी मारक होकर, फ़ैली, ऊपर चढ़ी ।
अब, इनकी,कूटनीति, करती है सीधा वार ।
वह, विषकन्या, विष-पुरुष नहीं,
अत्यंत, अचूक मारक, मानव-विस्फोटक, नर या नारी बनती है ।
मधुर स्मितों से,
परीक्षित का तक्षक अन्तरनिहित,
पुष्पहार, समर्पित करती है ।
अमोघ वार, प्राणान्तक बनती है ।
यह है, चिर नवीन । मानवता शीर्षस्थ, रोली ।
खेल रही प्राणों की होली ।
सिद्धहस्त खिलाड़ी ।
वर्षकार ।
विषः-प्रमत्त । कर रहा विषाक्त फुंकार ।
यह, वह, वैद्य ।
जो, जीवन का नहीं ।
मृत्यु का रक्षक था ।
उसने, परीक्षण निमित्त की अब भी खोज ।
कुछ भी, सतर्कता, चेतना है, वैशाली में शेष ।
या, सबकुछ सर्वथा हो गया निःशेष ।
उसने पुनः राज्य की ओर से दुन्दुभी का करवाया उद्घोष ।
किन्तु, बजती रही दुन्दुभी ।
रहे, अनावृत संघागार-द्वार ।
न कोई आया, न बैठा, न एकत्रित हुआ ।
न किसी ने कुछ पूछा ।
न किसी ने कुछ कहा ।
जैसा था जो जिस प्रकार, रहा, उसी भांति नीरूद्विग्न, निर्विकार ।
देखा वर्षकार ने ।
व्याप्त कर गया नित्यशः का प्रदत्त विष वैशाली के तन मन में ।
नहीं स्वाभिमान ।
नहीं अभिउत्थान ।
नहीं उत्साह, इनके जीवन में ।
ये, अवरोहित अधिरोहित अपने ही निसंग, अंध सूनेपन में ।
घूम रहे प्रेतात्मा सरिस ध्वस्त हर्म्य सन्निवेश में ।
किसी प्रकार भी उठ पाने में, ये नहीं रहे सक्षम ।
यही, उचित अवसर है, हो आक्रमण इनपर अविलम्ब ।
वर्षकार ने तुरंत की प्रेषित, अजातशत्रु को सूचना ।
बजे, मगध में रणभेरी ।
सैन्य एकत्रित कर मगधराज ने किया, वैशाली की ओर प्रयाण ।
मूर्मुश पड़ी वैशाली ।
पुनः हुआ आह्वान ।
हो किसी प्रकार वैशाली पुनः जीवित ।
रखे हुए आयुध अस्त्र-शस्त्र, हो उठे झंकृत ।
किन्तु, वैशाली की काया ।
विगत गौरव वैभव की, ध्वस्त स्वप्नों की, श्यामल छाया ।
नहीं उत्साह, नहीं शोक ।
निस्पंद पड़ा, वैशाली निर्मोक ।
वैशाली में चढता चला आ रहा था अजातशत्रु बेरोक ।
कहा शासनकर्ताओं ने,
शत्रुओं को गंगा पार नहीं उतरने देंगे ।
एकत्रित हो, लिच्छवी-गण, शत्रु से जमकर लोहा लेंगे ।
किन्तु वैशाली उदासीन ।
कुछ भी हो, वैशाली का,
क्यों हो हम हम उद्विग्न त्रस्त आभाक्षीण ।
हुई घोषणा ।
शत्रु सन्निकट है ।
वह वैशाली की सीमा, कर गया अतिक्रमण ।
अब भी, चेतो वैशाली-गण ।
नगर द्वार कर लो बंद ।
ग्रहण करो अविलम्ब शस्त्र,
वैशाली है दीन त्रस्त ।
बजती रही दुन्दुभी, रणभेरी ।
चतुर्दिक निनादित, चतुरंगिणी सेना गगन-घर्षित ।
चिंगाढ़ रहे सज्जित हस्ति ।
हिनहिना रहे अश्व ।
करवालो तलवार की टकराहट,
आक्रांत धरा, धूल धूसरित अश्व पदाघातों से,
मगध सैन्य अति प्रबल अप्रतिहत प्रवाह,
क्षण में तोडेगा वैशाली द्वार ।
चढ आया शत्रु, शीश पर ।
फिर भी वैशाली बेखबर ।
मिला खुला, अनाकृत वैशाली द्वार,
हुआ वैशाली पर निर्मम प्रहार ।
निहत्थे बच्चे, बाल, अबाल, वृद्ध ।
टूट पड़ी, उनपर सेना क्रुद्ध ।
आह, कराह, रक्त प्रवाह, वैशाली धूल धूसरित लोहित ।
नष्ट हुए हर्म्य, चैत्य, प्रासाद ।
बहे रक्त की लोहित धारा ।
निराभरण, विवर्ण, हतप्रभ क्षत विक्षत, वैशाली को,
बंदिनी कर वहाँ उतारा ।
देखा, वैशाली ने, अश्रुपूरित दृष्टि घुमाकर सर्वत्र ।
जिस प्रकार रक्षार्थ, जननी निरखती,
निज आत्मज, स्वजन, बांधव, सुहृद, कलत्र ।
देखा, उपालंभ क्षोभ दुःख से,
निज निश्चेष्ट कुपुत्रों को ।
जिनके निमित्त उसने धन-मन-तन-जन वारा ।
निस्सहाय, त्रस्त, विकल, आकुल, आर्त, उन्हें, बार-बार पुकारा ।
किन्तु, कहाँ से लहरें लेता उष्ण रक्त ।
जब हो गया वह, शीतल सफ़ेद जल ।
माँ ने, अपमानित, पीड़ित, लज्जित निज शीश झुकाया ।
ध्वस्त स्वाभिमान ।
निष्प्रभ,मुखः-प्रभा, म्लान ।
जीवित ही निज को संज्ञाशून्य अवसन्न मृतवत् पाया ।
आनत मुख, नत पलकों में, अजस्र अबाध जल लहराया ।
ज्योतित प्रखर अध्यात्म-आत्म प्रकाश स्तंभ ।
गौरव-कीर्तिमान ।
भूलुंठित, निरालम्ब । वैशाली,
आसन्न मृतप्राय, निस्पंद, निश्चेष्ट, निष्प्राण । 
अर्धनिमीलित अचेतन आँखों के अंतरिक्ष में,
डूब रहा था, यशः-सांध्य—दिनमान ।
था मर्मान्तक अवसान ।
क्षुधातुर निर्लज्ज क्रूर प्रेतात्मा सरिस
घूम रहे थे वैभव के शमशान में,
धन लोलुप गर्हित, नृशंस,
दो श्रृगाल ।
फैलाया था जिन्होंने,
दुरुभि-संधियों का निर्मम जाल ।
दुखांत नाटक का, सूत्रधार ।
वर्षकार ।
नायक, जिसका मगधराज ।
गूँज उठा, गरिमा के ध्वस्त, सूने, खंडहर में,
दोनों का,

निर्मम अट्टहास ।   

Sunday, 1 January 2012

सर्ग : २७ - आम्रपाली



देखा  ।
लिच्छवियों ने,
वैशाली का वैभवशाली राजपथ,
धूल धूसरित क्षुद्रघंटिका कलनाद रणित,
आ रहे थे, कई यान क्रमबद्ध सुआच्छादित सुलन्कृत ।
चंचल सैन्धव अश्वों से सुशोभित ।
उड़ रही थी ध्वज पताका,
रंग बिरंगे कौशेय वसनों में लहराता,
ताजे डहडहे पुष्प अम्बारों से सुरभित,
केशर, कुंकुम, गुलाल उड़ाता,
सबसे आगे था, एक यान ।
जो था, रंग ज्वारों का स्वर्ण-विहान ।
निज पथ पर,लावण्य-प्रभा-प्रकाश विकीर्णित,
बसंत लक्ष्मी सी थी अवस्थित,
ज्यों,कुंद कवलय सा मौक्तिक की, झूमती सृका,
सौरभ,पराग,मरन्द मीलित ।
श्वेत अश्वों की वाल्गा खींचती,
स्वयं में कुछ गुनती,
आ रही थी,
मंद-मंद मुस्काती, स्वप्नों में खोयी,
आम्रपाली ।
सहसा,गहन निशा में हो आया प्रात ।
कंज कँवल सद्दःविकसित, हीरक, तुहिन खचित,अवदात ।
मलय पवन-विचुम्बित,कम्पित, अरुणाभ पात-पात ।
रस भरे आरक्त मद छूते, अधरों पर थी,
मदिर मारक मोहक मृदुल मुस्कान ।
मधूक पुष्प-गुच्छ केशों में डाल, चित्र विचित्र कंजमाल,
उड़ रहे थे सुरभित मलय पवन में,
शशी मुख पर चूर्ण अलक जाल ।
लंबे लहराते पवन झोंकों में इठलाते,
विष प्रमत्त कृष्ण मणिधर से, बाल खाते,
झूल रहे थे, रेशमी मसृण सुंगधित कुंतल दाम ।
कम्बु कंठ लिपटा मौक्तिक हार ।
मृणाल बाहुलता सज्जित, वैदूर्य,
मरकत,माणिक, हीरक-जटित, केयूर वलय, कंकण, स्वर्णालंकार ।
था स्कंध पर, पवन दोलित अस्त व्यस्त,
दाडिम पुष्प रंग रंजित, सूक्षाम्बर उपसंग ।
उच्छ्वासित उन्नत वक्ष आंदोलित,
लावण्य-झर-ज्योत्सना, झरित ।
स्वर्ण खचित नील सूक्षाम्बर अधो अंशुक क्षीण कटि ।
कुवलय-सृका-मेखला,मणि-खचित, सम्मोहक लोचभरी देहयष्टि । 
मादकता कर्षण की अमिय झरित वृष्टि ।  
बंकिम भंगिमा विलास,
पद्मपलाक्षों में, मदिर सपनों का मोहक इन्द्रधनुषी लास ।
नयन-नील-तड़ाग में, आह्लादित नव मुदित, कंज कलियाँ मुस्कायी ।
पलकों की श्यामल शीतल छाया में,लेता अरुणोदय अंगडाई ।
नील गगन तले, दीपाघरों में, एक संग सहस्र दीप जले ।
रूप अमित ।
लावण्य जलधि उत्ताल तरंगित रंग ज्वारों में,
शर सहस्र रूपों में,हो उठे प्रतिबिंबित ।
लिच्छवी राज-पुरुष-गण विस्मित ।
जो था सम्मुख अकाट्य,
कैसे कोई भी हो उससे उन्मुख ।
यह अमोघ वार ।
अपूर्व सौंदर्य सम्भार ।
बोले राजगण कौतुक से- अम्बे ! अम्बे !
आ रही तुम, कहाँ किधर से ।
रथ से रथ, धुरी से धुरी, टकराती,
अश्व टापों से धूल उडाती,
क्षुद्र घंटिकाओं का कलनाद मचाती,
हो क्यों इतनी चंचल-मन, उन्मन ।
इतने यानों के संग, क्यों क्षिप्रगति अति निःशंक ।
जल पूरित शीतल बरसाती बयार सी,
आ रही, कहाँ से सपनों में खोयी ।
रजत चांदनी में आँखें धोई,
किसी उल्लास उदधि से, आमूल नहा के ।
कशा खींच, अश्वों को रोक,
उन्नत ग्रीवा, भर स्वर में उल्लसित ओज,
हंसी, उन्मुक्त हंसी, रूप गर्विता ।
दाडिम दशनों की प्रभा धवल ।
चांदनी भी जिस पर जाए फिसल ।
झरे हरसिंगार ।
कंज अवदात ।
विहंसा प्रात ।
आरक्त डहडहे प्रवाल अधर रस छूते । सौंदर्य ।
अबोध अवर्ण्य बोल भरे ।
स्तब्ध दर्शक ।
रूप ।अकथ अथक ।
सम्मुख साक्षात, अमृत मंथन की उत्थित उदित लक्ष्मी,
अपाद बल खाती लहराती मादक लह्वी ।
किम्कर्त्त्यविमूढ़ ।
निरख, प्रवीण प्रगल्भ वाग्मी ।
सुरभित सरसित दोलित नवल अमल
आम्रमंजरी की अमिय-अप्लावित अजस्र निसृत निर्झरी ।
रसः-ज्वार की ऊर्ज्वसित उत्ताल तरंगित स्वर्णिम लहरी ।
रजत राका स्नात, समस्त कमनीयता, अरुणाभ मुक्ता पर छहरी ।
बोली सस्मित- हो न चकित ।
मैं गयी थी आम्र निकुंज वन में,
अपने मानस मधुवन में ।
उन दिव्य प्रभा-पुंज के पावन श्री चरणों में ।
सादर होकर नमित किया कल, उनको साग्रह,
भात पर आमंत्रित ।
जेतवन स्वर्ण खचित गौरवान्वित भूमि ।
उससे भी कहीं अधिक होगी,
मेरी नगण्य कुटीर गरिमामयी भूरी भूरी ।
उनका, हार्दिक अभिनन्दन है ।
होती कोई राजमहिषी या गृहणी ।
उनके निमित्त,यह,
सामाजिक या धार्मिक सम्मानित अनुष्ठान रहा होता ।
किन्तु ।
मेरे अनगनत बीते सुषुप्त जन्म ।
जीवंत प्राणवंत चैतन्य बोल पड़े ।
प्रभु ।
परम आत्मा ।कदम्ब ।
आस्था-गोपीजन-चरण थिरक उठे ।
सूने प्यासे प्राणवेणु के रंध्र-रंध्र से मधु रस छलक उठे ।
उल्लासों की नील नवल कादम्बिनी माला झुक झूम रही ।
कितनी प्यासी है,
मन की यह अपेक्षिता परती धरती ।
सांत्वना-अष्मा से अंतरतम तक सिसक उठी ।
यह, अमिय वर्षा हुई ।
ज्वार-संकुलित-गगन-घर्षित-विष-विदग्ध,
कालकूट हलाहल-उदधि में,
परम सत्य और पिपासित प्राण,
मिल रहे अनन्त क्षितिज में ।
कोई पूछे-  अम्बे ! क्या यह संभव है,
उदधि, समाहित हो, सीपी में ।
मैं बोलूंगी, निश्चय ।
विश्वास न हो तो, देखो, मेरी इन आँखों में ।
आज वर्तुल नृत्य हो रहा, मेरे जीवन के कण-कण में ।
बासंती धूम मची है, मन के, चिर प्यासे आँगन में ।
झुक, झूम बरस रहा है, श्याम सजल, जलद घन,
आतप तपित-ज्वलित, सैकत वन में ।
अवाक देखा, लिच्छिवियों ने, बोले अनुनय के स्वर में- अम्बे !
तू, वैशाली का गौरव है ।
रसराज-सरस मोहक उत्सव है ।
तू सदाबहार चिरंतन अभिनव है ।
तू जनपद कल्याणी, परम वैभव शालिनी ।
अपूर्व कमनीयता सौष्ठव की, अंतिम सीमा है ।
मत, वैशाली को लज्जित होने दे ।
यह भात, राज वैभव के मध्य, संपन्न होने दे ।
शत सहस्र सवर्ण मुद्रा ले ले,
किन्तु, इस भात से राज-पुरुषों को सम्मानित होने दे ।
हंसी सव्यंग आम्रपाली ।
अश्वों को कशाघात लगाती,
दोनों कर से वाल्गा संभालती,
आँखों की गर्वित तुला पर, भ्रूभंगिमा खींच,
उसने यह विनिमय तोला ।
घनी उपेक्षा से, उन्हें मुड़कर देखा ।
बोली स्वर में वजनों को रखती- नहीं ! लिच्छिवियों ! नहीं ! कदापि नहीं ।
“सचेपि में अय्य पुत्त । वैसालि साहारं दस्सथ एवमहं । तं भत्तं दस्सामीती ।”
आर्य पुत्रों ! यदि वैशाली का समस्त जनपद भी, दे दे ।
मैं यह महान गौरवशाली, भात नहीं दूँगी ।
कहती हुई, बिना उत्तर की प्रतीक्षा करती,
अश्वों को बढ़ने का करती संकेत,
वह चली गयी, क्षिप्र गति से ।
मन ही मन वह थी चिरंतन निरत ।
स्वीकारा जिन्होंने रूपजीवा का भात ।
वह है सर्वश्रेष्ठ अर्हत ।
उसका विमल प्रकाश, स्पर्शित सृष्टि का पात-पात ।
हो चाहे हिम-किरीट ।
हो चाहे कांतर गह्वर ।
सर्वत्र, करुणा-किरण, विकीर्णित एक समान ।
यह रूप, यह लावण्य श्री, यह सुषमा ।
भले ही हो वैशाली की गरिमा ।
मेरे निमित्त, यह, रत्न जटित स्वर्ण मंजूषा ।
बंदी, विष-प्रमत्त-व्याल,
बंद पिटारे में घूम-घूम,
अहर्निशी शीश पटक-पटक, उड़ा रहा विष-ज्वाल-धूम ।
जल रहा, ह्रदय, जल रहा अंग-अंग ।
पीड़ा अविनश्वर अनवरत अनन्त अभंग ।
जाने कौन, यह व्यथा मौन ।
इन आँखों के नैराश्य कृष्ण क्षितिज में,
डूबी, जाने कितनी पीड़ित रातें काली ।
रही आकंठ स्नात, व्यथा पारावार अथाह ।
आज, किंचित जो शीश उठा ।
सम्मुख स्वर्ण कलश छलकता सुप्रभात मिला ।
आँखों के नीलम प्रांगण में, प्राची का नवउल्लास हँसा,
शत शत रंग तरंगों के, पीड़ा पारावार में,
आकंठ डूबी अम्बे ।
जल में शैवाल सरिस, केश रहे लहराते ।
और, जल निसृत सिक्त सीमान्त पर, रक्त चन्दन सा, सौभाग्य झरा ।
लगी ललाट पर गौरान्वित स्वस्तिमयी शुचि रोली ।
भाग्य कुसुम, झूम झूम मुस्काया ।
प्रथम बार, सदियों की जकड़ी श्रृंखला टूटी ।
दोनों पक्ष फैलाकर प्राण पपीहे को,
अनन्त-आकाश, स्वच्छ प्रकाश,
गगन विचुम्बित ऊंची, उन्मुक्त उड़ान मिली ।
करुणा की एक किरण, छू गयी,
उपेक्षित तमासावृत्त तिरस्कृत, मन का आँगन ।
पल में दिखा, कितना क्या कुछ, टूटा बिखरा, पड़ा ।
अपनी मर्मान्तक पीड़ा में पड़ा, निसंग निराधार सिसक रहा,
कैसा यह स्वर्ण विहान हुआ ।
शीतल तुहिन कणों का मधु वर्षण ।
जन्म जन्म के, पीड़ित विदग्ध ह्रदय फफोलों पर,
चन्दन का यह स्नेह-सिक्त, शीतल अनुलेपन ।
ज्वलित वहिन से निकल, तड़पते प्राण ।
कर रहे मलयज वन में भाव विभोर, विचरण ।
कोई तो एक मिला, जिसने,
नहीं की उपेक्षा, नहीं किया तिरस्कार ।
सबके निमित्त खुला, उसका, प्रेम प्रकशित स्नेहिल सिंह द्वार ।
लहरा रहा, शान्त निर्वात निर्मल अरुणा शान्ति का पारावार ।
मैं हूँ कौन ।
सब ज्ञात, रहे मौन ।
और साग्रह आमंत्रण किया स्वीकार,
फुलसुन्धी बन मन थिरक रहा,
रसराज-निवेदित-गंधाकुल-वन-उपवन में,
जहां स्वयं बसंत, बनकर अनन्त, अंजलि भर-भर
रहा बिखेर डहडहे, रंग बिरंगे सुरभित फूल ।
डाल-डाल में, पात-पात में, नवजीवन है ।
नवरस स्फूरण है ।
मन गया सबकुछ भूल ।
यह अलभ्य सौख्य ।
मेरे सौभाग्य का अथ-इति, विराम ।
पागल मैं, झूम उठी, मृगः-मद-कस्तूरी, सहज बनी ।
अपने ही आनंद के मधुवन में,
घूम रही भाव विभोर ।
जिन चरणों के नीचे मिटी, वैषम्यता उंच नीच की दूरी ।
उनकी उपस्थिति में, स्वयं पूर्ण हो गयी,
यह अनन्त यात्रा, जो सदा की रही अधूरी ।
अम्बा ! आज नहीं अम्बा ।
समस्त ब्रह्माण्ड आज निहित, उसके अन्तर में ।
सीमा छोड़ चली कलेवर । असीम,
नत प्रणत उन चरणों में, सेवारत तत्पर ।
देखा आज ।
कंठस्थ नहीं आत्मस्य ज्ञान ।
स्वतः विवेचन ।
अभिनव विज्ञान ।
श्रद्धा के अनगनत डहडहे कँवल खिले, प्रभु-पदरज-कण-कण में ।
यह जीवन ।
कंटकित तीक्ष्ण शूलों का सैकत तपित वन ।
आज खिले पुष्प, नागफनी के हर चुभते काँटों में,
वह अश्रुल हीरक किरीट पहन, प्रतीक्षाकुल है, प्रभु राहों में ।
आज, तन-मन का, कण-कण, कर रहा विमुग्ध नर्त्तन ।
आज नहीं विष-विदग्ध ज्वाल फुन्कारित, सहस्र फणों में,
मनः-शयन । उत्तल तरंगित वारापार अपार ।
रजत पराग झारित दुग्ध धवल चांदनी ।
जिसमें, केवल, शुचि शुभ्र
प्यार ! प्यार !
कर रहा तृषित, प्राण पपीहा संतरण,
आमूल स्नात,पंख पसार ।
आँखों में, गगन समा जाता,
किन्तु यह सुख, ह्रदय अकिंचन, पार नहीं पाता ।
कामधेनु, कल्पवृक्ष भी कही नगण्य,
सर्वोपरि अलभ्य यह आमंत्रण ।
थिरक रहे चरण ।
आज नहीं वे धरा पर ।
पूछे कोई मुझसे, कौन परात्पर ।
यही कहेगा हुलसित मन ।
जाओ देखो ।
वह, समाधिस्थ, निष्कम्प दीप ।
निज आसान पर, वे, करुणा के स्वामी ।
उन्हें पता है ।
मन कितना तपा और जला है ।
कितनी घोर प्राणान्तक असह्य व्यथा है ।
किन तमिस्रा की दुर्गम विरल घाटियों में निसंग,
यह, बंदी जीवन ।
मुंह ढांपे, पड़ा सिसक रहा है ।
नहीं कभी किसी ने, आदर से देखा ।
सदा, आँखों की जलती धूप में,
उपालंभ घृणा की, तप्त सलाखों से सेंका ।
नहीं कभी संग संग चलते चलते भी,
भूल कर भी मुड़कर पूछा,
अम्बे ! क्या कहीं तुझे भी चोट लगी है ।
क्या तेरे भी, आहत अन्तर में,
व्यंग बाणों की तीखी निर्मम मर्मान्तक, असह्य टीस भरी है ।
एक, दया का सिक्त । जिसमें आमूल मैं डूब गयी ।
जाने, अनगनत जन्मों की यह असह्य तपन ।
उसमें कहाँ विलीन हुई ।
वह,  परम शान्ति और सुख ।
उसे भी, उन्मूलन करने, वे आये हैं ।
सब प्रकार से अपदस्थ, मरणासन्न की,
अंतिम स्वांस, कुचलने आयें हैं ।
कदापि नहीं, हस्तगत करने दूँगी, यह भात ।
इसमें शान्त शयित शीतल हो गए, समस्त अक्षुण्ण आघात ।
अपने में ही मग्न, जा रही थी आम्रपाली,
सघन पल्लवित पुष्पित, सुगन्धित निकुंजों की, अनुरथ्या से,
उपवन की सघनता के अंतराल से,
एक मधुर कोलाहल की ध्वनि आई ।
ध्यान निमग्न अम्बे, चौंकी,
चकित दृष्टि उसने दौडायी ।
कई सज्जित यानों में थीं कुलवधुएं,
उसे निरख, प्रत्य्त्तर में मुस्कायी ।
बोली उनमें से कोई एक-
आह ! आर्ये अम्बे !
केतकी-वन में ज्यों कैकी कूंके,
हो उठे, वन उपवन रस विभोर ।
आ रही कहाँ से, जा रही किस ओर ।
दिन में भी, यह मनहरण चन्द्र ।
विद्ध हुआ कौन चकोर ।
यह दिव्य प्रभा ।
प्रज्वलित रूपशिखा ।
मुख पर विकीर्णित, मादक-मदिरालास-उल्लास-लास-प्रभा ।
कशा खींच, अम्बा बोली सस्मित-
मेरा भी यही प्रश्न शुभे !
आज, गृहों को छोड़ क्यों वन वैभव के भाग्य जगे ।
गृह मंदिरों के सुशोभित स्वस्तिमय प्रज्वलित, दीप ।
अकस्मात, क्यों वन वीथी में सहसा, मचल पड़े ।
उनमें से किसी एक ने, अम्बे को तीखी आँखों से देखा ।
कंज कँवल की अजस्र रूपमाधुरी को,
आँखों आँखों में अवलेखा ।
बोली कुछ कटुता का पुट देकर-
सुना प्रभु हैं तेरे ही आम्र निकुंजों में ।
शिरसा नमन करने, हम सब,
जा रही उनके ही पावन पुनीत, श्री चरणों में ।
अश्वों को कशा देती, व्यग्र बढ़ने के उपक्रम में, बोली आम्रपाली –
में भी अभी आ रही वहीँ से ।
सव्यंग बोली कोई छलना-
मत खेल यहाँ, यह मृग मरीचिका की छलना ।
अब वे, नहीं रहे कपिलवस्तु के राजकुमार ।
नहीं अपेक्षित उन्हें, रूप धन वैभव सम्भार ।
वे निस्पृह ! निर्विकार !
निश्चय ही, तेरे हठी मन ने, मानी होगी हार ।
यह तो हमसब हैं ।
हत् भाग्य ।
लगी आग घर में, हरे भरे सावन में ।
स्वामी के गृह-आगमन में विलम्ब,
दे जाती, ह्रदय में व्यथा अविलम्ब ।
आज वे, हँसते, उल्लसित घर आयेंगे,
या, मुख पर, उनके श्याम-जलद-खंड लहराएंगे ।
कहीं, तेरी विषः-ज्वाला से प्रमत्त,
वे तड़पते हुए तो नहीं मिलेंगे ।
क्या इन प्रतीक्षाकुल ह्रदय को, हंसकर प्रत्युत्तर देंगे ।
कैसी काल रात्रि सी उमड़ी हो,
हम लोगों के सौभाग्य मुदित जीवन में ।
अब शेष बचा एक पवित्र स्थान,
क्यों वहाँ गयी, किसे कृतार्थ करने ।
तुझे, यहाँ हटात देखते,
ह्रदय पर, शत-शत वज्र निपात हुआ ।
अश्रु आप्लावित आँखों का सागर,
जो शल्य बिंधा, आर-पार हुआ ।
यह, अप्रतिहत रूप की अदम्य ज्वाला ।
कब किस समय कौन शलभ, जलेगा मतवाला ।
इस जलते धू धू करते दावानल में,
विभ्रमित शुष्क तृण सा मन,
त्राहि-त्राहि करता घूम रहा,
होगा वह, सत्वर ।
नियति-विवश-बलात्, क्षण में भस्म ।
नहीं कोई अन्य विकल्प रहा ।
अश्वों को रोक, मुड़ी, रूप की ज्वाला,
आकर्णमूल वारिज नयनों में,
छिटकी आतंक मचाती, क्रोध की चिंगारी,
लहराई विष प्रमत्त हाला ।
कपें अधर । फूटे स्वर ।
जो कुछ भी चाहा, तुम सबने निशंक कह डाला ।
हो तुम सब, निज कुल्गौराब की पुनीत सम्मानित सीमारेखा ।
कभी, रसराज-पल्लवित-विकसित-रसमंजरित, कुवलय पर,
अकस्मात, अकारण, वज्र निपात, होते देखा ।
क्या ?
सुधा निसृत पूर्णेन्दु, राहू से ग्रसित, व्यथित,
निष्प्रभ म्लान नियति-प्रहार-आक्रांत, तिल-तिल मिटते देखा ।
जला कँवल, जले अश्रु अबाध ढल-ढल  ।
ग्रसित हुआ मयंक किंजल्क
या वन हुआ विदग्ध विगलित रंक ।
दोनों में, दोष, क्या किसी एक का भी था ।
दोनों, दुर्दैव-दंशित विषदन्त ।
देवियों !
असमर्थ, असहाय, निरुपाय, विवश परर,
दोषारोपण, समाज प्रदत्त-स्वीकृत एक, सरल विधा है ।
प्रक्षुण्णित और कुचली जाती है,चरण तले की दूर्वा,
किन्तु उसी जाति के अश्वत्थ तले,
उसे दैव कहकर विष्णु-आवास मानकर,
सदा, समाज का, शीश झुका है ।
मैं हूँ कौन ।
तुम लोगों की देन, समाज का असाध्य अरिष्ट ।
मौन ही रही जिसपर, सृष्टि ।
क्या बीत रही, उसपर, पड़ी न अबतक भी,
धरा आकाश की दृष्टि ।
वैशाली के राजउद्द्यान के,
आम्र वृक्ष की छाया में,
पड़ी मिली मैं,
एक अनाम अनाथ अभिजात्य कुल की कन्या ।
किसी सभ्रांत गृह में, सतत पली ।
क्या ?
मेरे इस आशाओं के नव कुसुमित उपवन में,
मेरे उल्लसित मुदित मन में,
तुम सरिस बनने की, इच्छा, नहीं प्रबल घनी थी ।
किन्तु, संभव है, मैं थी,
किसी राजकुल से प्रदत्त,
अभागी अभिजात कुमारी का, पीड़ित अभिशाप ।
उस, मौन अभिशाप्ता के सरिस,
प्राप्त हुआ, मुझे भी, अकारण,
अप्रत्याशित, नियति-प्रताड़ित, अन्तर-दह ।
अविस्मरणीय, अवर्ण्य, असह्य, निरंतर मौन कराह ।
अविराम ज्वलित ह्रदय-ताप ।
यदि, कही भी मेरी माता होगी ।
वह दिन,
उसके, और मेरे लिए, आत्मघाती,
शत-शत,वज्र-निपाति, अति भीषण दारुण, रहा होगा ।
कुटिल भाग्य !
कटु अट्टहास करता,
नितांत विश्वासघाती, सम्मुख खड़ा मिला होगा ।
फटा होगा, धरती का मूक विवश अन्तर ।  
आकाश, स्तब्ध टूटा, आनत झुका होगा ।
जिस दिवस,
एक दूर्वा सी पवित्र,
हरिद्रा सी शुभ,
ऋचा सी स्वस्ति,
कुमारी के,कौमार्य का,निर्लज्ज निर्भय निर्मम,
विनिमय हुआ होगा ।
और सौंदर्य !
तक्षक नाग सा निज विष ज्वाल-विदग्ध-प्रमत्त,
अपने ही मारक मर्मान्तक विष से,
तड़प-तड़प, सर धुन धुनकर,
शीतलता का क्रोड़ खोज रहा होगा ।
कहीं कोई, समाधान का, उचित मोड़,
कदापि नहीं मिला होगा ।
वह व्याकुल अधीर आकुल निस्सहाय, जला होगा ।
पवित्रता ! पंकिलता के घृणित पतित पावडे पर,
अदृश्य-आघात-कशाओं से प्रताड़ित,
बलात् वद्ध विवश, चली होगी ।
मोम सी वह, जल-जल, गली होगी ।
उस दिन, वैदिक सभ्यता संस्कृति की,
चिरातन की उन्नत गरिमा, शीश झुकाकर,
अपनी पतित, विकृति पर, आर्त आहत रोयी होगी ।
उस दिवस से अबतक,
कैसे हो रहे, व्यतीत, पल-प्रतिपल, अहर्निशी ।
घुला था, जिस क्षण, अमिय-आप्लावित-प्याली में,
मर्मान्तक मारक विष ।
मन ! यह अवर्ण्य व्यथा कहे किसे ।
विदीर्ण हुआ ह्रदय, शतसहस्र टुकड़ों में ।
कातर रोया अनुक्त पीड़ा के पहरों में ।
पर,साक्षी रहा कौन ।
अदृष्ट भी था निःशब्द मौन ।
वह, क्या वास्तव में पूजा थी ?
मदनोत्सव में, अनंग-पूजन-अर्चन के मिस, 
घोषित कर, सर्वश्रेष्ठ सुंदरी ।
जनपद कल्याणी ।
सौंदर्य कला के अभिनन्दन के परोक्ष में,
नारी गरिमा की परिभाषा की,
एक नवीन व्याख्या हुई थी ।
कौमार्य की शुचि निष्ठा का,
निरीह अज सरिस,
जघन्य पाशविकता की वीभत्स, बलिवेदी पर,
मूक बलिदान हुआ था ।
वाक्-विदिग्धता के पुष्पित कुटिल चक्रव्यूह में,
आजन्म उसे आबद्ध कर, संत्रसित पीड़ित कर मारा ।
प्रदत्त समाज की मूक अंध कारा ।
सौंदर्य ।
किसी एक का नहीं,
कितनी सुन्दर युक्ति थी ।
इसमें, निर्बाध स्वेच्छारिता की सुगम विमुक्ति थी ।
कहते-कहते, भावावेश में, काँप उठी आम्रपाली ।
जल उठा दर्प, ज्यों मणिहीन सर्प, तडपी वह ।
जब रक्षक ही भक्षक थे, करता कौन रखवाली ।
फिर वही प्रश्न ।
टूटा शीश पर, सहस्र अशनि ।
क्या ? नारी बस इतनी ही है ।
यही है, सौंदर्य सुषमा गारिमा का मूल्यांकन ।
क्यों न मिला, इस रूप को, किसी का एकाधिकार विश्वास ।
क्यों नहीं सहज स्नेह से, दिया किसी ने सम्मानित पूजित, आवास ।
जला ।
यह जीवन जला ।
सदा नितांत अकेला रहा ।
तुम ललनाएं ।
तुम पर, वरदान सरिस, धरती-आकाश की छाया ।
विदा किया, पितृगृह ने,
श्वसुर गृह ने सादर सहर्ष अपनाया ।
समाज ने ही, तुमको यह सम्मान,
और मुझे, यह अपमान दिया ।
मैं, नितांत निसंग,
अटूट व्यथा सतत अभंग ।
नहीं कोई पिता या माता,
नहीं कोई घर स्नेहिल अपनाता ।
नहीं प्रतिक्षाकुल राह देखती, कोई आँखें ।
नहीं फ़ैली, अंक में, भर लेने को, कोई स्नेहिल विह्वल बाहें ।
तुमलोगों का घर, मंदिर है ।
सहज शुचि स्नेह से सुरभित है ।
पाकशाला का व्यंजन, स्वामी के निमित्त होता है अर्पण ।
उसमें भी, आप्लावित रस माधुर्य अमित है ।
यहाँ, निमित्त रहित, निष्प्राण भोजन,
व्यर्थ रसहीन हुआ रहता है ।
सजा हुआ मंदिर ।
पर देवता कहाँ है ।
पुष्प सृकाओं से सज्जित शय्या का कौशेय आच्छादन,
मरण वसन बना रहता है ।
कहाँ वहाँ, तव, ह्रदय धड़कन ।
कहाँ उसमें, श्रद्धा स्नेह समर्पण ।
कहाँ स्वामी चरण पावड़े बना,
वह आत्म-सुरभि से, लिपट जाता है ।
एकाग्र एकनिष्ठ निष्ठा का,
वहाँ, ज्योति-दीप जला रहता है ।
किन्तु, लक्ष्य रहित निमित्त रहित,
यह, आहत लोहित अभिलाषाओं का,
अविराम,पीड़ित, मर्दित, नारीत्व ।
अनाम शय्या पर शयित,
आमूल अन्तर-दहित, ज्वलित,
एक, अमिट प्रश्न चिन्ह ।
स्तब्ध निःशब्द नील गगन के, दर्पण में,
निरख रहा, ह्रदय की ज्वाल तरंगित उत्ताल-वह्नि ।
कोई तिथि, नहीं निश्चित ।
कापालिक सा खडा द्वार पर मिलेगा,
कौन अतिथि ।
जीवित शव पर,
अपने सोये मृत मन्त्र जगायेगा ।
ये, अलंकार, ये आवरण, ये लहराते बहुरंगी परिधान ।
मात्र हैं, सुसज्जित बहुचित्रित कफ़न धवल ।
आर्तनाद, करता है, नारीत्व ।
ध्वस्त विचूर्णित पद दलित होता, आहत स्वाभिमान ।
निसृत अजस्र, नयन-झर, ढल-ढल,
काँटों भरी हर सांस, शूलविद्ध हर प्रतिपल ।
सुरभित सुहाग कुंकुम सीमन्त जटित,
वालारुण सरिस रोली, शुभ्र शुभ्र भाल पर,
तव, दप-दप दीपित । प्रसन्न प्राची का भव्य प्रकाश,
गौरवान्वित गरिमामय लावण्य,प्रभामय ललाट ।
वह,  कुंकुम, इन आँखों के सम्मुख ।
उसमें, उष्ण आराक्त लोहित, आप्लावित लहराता है ।
कितनी,  रीती हल्की हास्यास्पद है,
तू ।
अम्बे ।
वह छलक छलक स्वयं कहता है ।
हर बार, मांग में कुंकुम भरते,
तव दर्पण, सहर्ष सगर्वित मुस्काता होगा ।
वही कुंकुम, इन, कंपती उँगलियों में
अटका,क्यों, किससे प्रदत्त,किसके निमित्त,कहता,
सह्स्र फालों सा, अन्तर में आर-पार, हो जाता है ।
तुम ।
सौभाग्यवती, पुत्रवती जब होती हो ।
स्वतः वंश परम्परा वृद्धि की समादृत महत्वपूर्ण श्रृंखला की,
एक कड़ी बन जाती हो ।
उन्हीं जातक संस्कारों को संजीवन देने,
रंग भरने, और जागरूक प्राणवंत बनाने,
हम भी सम्मलित होते है ।
सब प्रकार समार्पित होते है, हर्षोल्लासों में ।
पर कभी किसी ने इस पर भी, किया विचार ।
जो निर्झर, शत-शत धारों में फूट पड़ा,
रवि, शशि, सप्तरंग-किरण-प्रकाश
निज अन्तर में भर-भर, लहर-लहर,
परम प्रफुल्लित,उद्वेलित, उड़ा रहा,
जल-ह्रास-चषक में आप्लावित कर,
बहुरंगी रंग ज्वार अपार ।
हर लहरों में कंपन, थिरकन, आकुंचन ।
लय, गति, तालों में मादक नर्त्तन ।
क्षिप्र गति, मुख पर हास-ज्योति-प्रभा-मुखरित ।
अन्तर, घन अन्धकार में, पीड़ित वेधित स्मृति ।
फिर भी कंकण-क्वणित-रणित,
चपल-चरण,पागल विभोर नर्तित ।
कभी सोचा या देखा ।
उस प्रकाश-किरण-जाल के नीचे,
सतत प्रवाहित मौन जल ।
है, कितना व्यथित पीड़ित और विकल ।
तीव्र प्रकाश में, अदम्य उल्लास में,
तव ।
गौरवान्वित भरी गो़द देख ।
घन अन्धकार में, निज संतान, छिपी, पडी देख ।
क्या माँ की ममता, विक्षिप्त नहीं होती ।
सहस्र टुकड़ों में विकल तडपते अन्तर की,पीड़ा,
निज तप्त अश्रुओं से धोती है ।
हर बार यही सांत्वना देती ।
नहीं नियति ।
नहीं अदृष्ट ।
यह है, पतित समाज निकृष्ट ।
जिसने देवाराधन निमित्त बनाया निषिद्ध, मुझे,
अभिशापित केतकी-पुष्प ।
नहीं ज्ञात ।
किस अज्ञात व्यक्ति के हाथ,
अज्ञात काल, अज्ञात नाम से, उसका सुत होगा ।
सम्मुख भी कभी यदि आ पड़े ।
नितांत अपरिचित सरिस एक दूसरे को देखते, दोनों होंगे ।
सभ्रांत श्रेष्ठी कन्या, धवलयश की विदुषी दुहिता,
सालवती ।
कब  उसने जाना था,
भाग्य, इतना निर्मम होगा ।
जनपद कल्याणी से सम्मानित कर,
छद्मवेशी विजय, पराजय का कंटक-किरीट पहनायेगा ।
वज्जी-संघ ने, उसे नगरवधु बनाया ।
नहीं चाह कर भी, बलात् विवश उसने,
रूपजीवा का घृणित जीवन अपनाया ।
अनाम पिता का पुत्र, जीवक ।
तक्षशिला का आर्युवेदिक निष्णात वैद्य,
और सीरिया,
अनिद्य सुंदरी संतान अवैध ।
अंततः यही परिणाम हो पाया ।
नहीं समाज प्रतिष्ठित या समादृत ।
रहे मौन बहिष्कृत ।
नहीं समाज, धर्म, राज व्यवस्था ने सादर अपनाया ।
किसका था उत्तरदायित्व ।
कौन था धर्मपिता ।
हम, समाज पीड़ितों का,
दोषी कौन ?
हम सब ।
क्यों नहीं सर्वश्रेष्ठ सुंदरियों को,
निज अभीसिप्त स्थान मिल पाया ।
देखो ।
मेरी आँखों में, खेल रही, आहत अतृप्त अभिलाषाएं,
उष्ण रक्त की होली ।
हो साहस, किसी पुरुष में,
लांक्षित करता,
लानत देता हो उनका पुरुषार्थ,
लगा ले, निज भाल पर यह खूनी रोली ।
और करे संकल्प ।
नारी, लक्ष्मी है, सरस्वती है ।
वह केवल, आदरणीया जननी है ।
पतित पावनी जाह्नवी है ।
इसका कोई अन्य नहीं, विकल्प ।
मैं, अभी लौट कर इसी यान से,
उन पावन श्री चरणों में, प्रव्रज्या ले लूंगी ।
किन्तु, पुरुष या समाज का,
नारी के प्रति विषम दृष्टि ।
यह कदापि नहीं अभीष्ट,
नहीं इसे कभी सहन करूंगी ।
इस अत्यंत पीडाजनक मर्मान्तक अपमान का,
मैं,पूर्णरूपेण लूंगी प्रतिशोध ।
किसी भांति, कभी, एक क्षण भी नहीं, थमता,
यह मंथन करता, अनगनत काँटों से बींधता,
माँ का, पीड़ित प्रज्वलित आहत रोष ।
जबतक, स्वाभिमान रहित अति गर्हित लोलुप ये सौंदर्य शलभ,
इन चरणों के नीचे, जल-जलकर भस्म नहीं हो जायेंगे ।
मैं शान्त नहीं होऊंगी ।
उन तप्त क्षारों को चरणों तले कुचलती,
तब कहीं मैं, अन्यत्र बढूंगी ।
नारी को कहकर अबला,
इस प्रकार उसे निर्दयता से सतत छला ।
लूंगी । लूंगी । अवश्य लूंगी, बदला ।
अब हो रहे चंचल अश्वों को, वाल्गा खींचकर उसने रोका ।
उसके, आरक्त हुए जल रहे नयन, किंचित गीले हो गए ।
आकुंचित हो उठे थरथराते प्रवाल अधर ।
विषण्ण विषादपूर्ण मुख पर, पीड़ा के श्यामल बादल छाये ।
बोली व्यथा विगलित अश्रुसिक्त भरे गले से-
नारी हो । न करो नारी का अपमान ।
नारी ह्रदय का, तुम सबको भी है पहचान ।
किन विसंगतियों, विपरीत परिस्थितियों से,
वह, मौन घुट-घुटकर अन्तर-यात्रा करता है ।
कितनी भी मर्मान्तक पीड़ा हो,
अधरों पर हास बिखरता है ।
जहां ह्रदय रोता है, आँखों में उल्लास बरसता है ।
इसका, समय, परिस्थितियों से,
सामंजस्य, स्थापित करने के हित,
तुम, सबको भी है, सहज ज्ञान ।
हर किसी के जीवन में, मृगमरीचिका की चकाचौंध में,
लेती है प्रतिशोध, नियति, होकर निर्दय ।
विजय का हाथ पकड़ कर, सदा, पराजय ही आती है ।
सुख, जिसको कहता रहता है, मन ।
वह भाग्यालाश में उदित,
केवल, दुःख की मिली प्रभाती है ।
यह शरीर, विवश परिस्थितियों का,
यंत्र चालित, चलता फिरता, जीवित शव है ।
जिसे, आँखें या अनुभूतियाँ, सम्मोहन, कहती हैं ।
वह, विष-विदग्ध-ज्वलित हलाहल का,
खिंचा हुआ, मारक मदमाता, छलकता आसव है ।
जिस ज्वाला से अंग-अंग, जलता है ।
यह, रसराज-निमंत्रित, नंदनवन नहीं,
अपितु,पतझारों का नैराश्य पूरित, हाहाकार मचाता,
अन्तर-रोदन है ।
शान्त निर्वात नील रत्नाकर का
अनवरत जलता वाडवनल है ।
मात्र यह, धू-धू करता आमूल आत्म-दहन है ।
ये सम्मोहक मादक मदिरालास, अलंकृत तन ।
ये अमूल्य चित्र विचित्र आभरण ।
किसी मृत महिषी के,
अंतिम विदा श्रृंगार अलंकरण हैं ।
उड़ चुकी, आत्मा जिसकी ।
केवल पंचभूतों का, विकृतिकरण विकिरण है ।
अज्ञात अनन्त पथ पर, जाते ये प्राणी,
मात्र, समय-अवधि-अंतराल रशना में, आबद्ध, जीवित शव हैं ।
इस अनित्यता के चिरंतन, शमशान में,
हर क्षण मना रहे, मरण-उत्सव हैं ।
यह, इस शाश्वत आत्मा, या गवेषणात्मक सत्य का,
दीन पराभव है ।
वह, सब जान, अनजान बना,
मृगजल की चंचल लहरों पर,
निरख रहा, निज प्रतिबिंबित बिम्ब ।
अहर्निशी हो रहा विस्मित,
लहर लहर पर, स्वर्णिम एषणाओं के,
जल रहे, झलमल झलमल दीप ।
और होता है परम प्रसन्न,
कि उपलब्धि,प्राप्ति, उनके अति समीप है ।
करे भी क्या मानव ।
छलते रहने पर भी, छलना में ही जलते रहना,
मानव का नैसर्गिक, धर्म है ।
ज्ञान और कर्म, रहे अभी तक इनके अज्ञात मर्म ।
मन, कहीं अन्यत्र दूर बाँध कर ले जाता है ।
ज्ञान, तीव्र प्रकाश में चकाचौंध बिखेरता,
कुछ, और ही कह जाता है ।
हुआ न अबतक, दोनों का सामंजस्य ।
मानव ।
सत्य-संधान-निरत,
रहा, नियति के हाथों नितांत विवश ।
ज्ञान ।
प्रज्ञा के दुग्ध धवल उज्जवल क्षितिज का,
स्वतः प्रकाशित, शुभ्र नक्षत्र ।
एषणायें ।
बहुरंगी प्रलुब्ध ।
एक आकाश ।
दूसरी धरा ।
कभी न मिलन-क्षितिज मिला ।
इन दो सामानांतर रेखाओं को,
मात्र, शून्य में ही, अवकाश मिला ।
हम सब ऐसे ही प्राणी हैं ।
संकल्प कुछ, कर्म कुछ,
केवल मृग तृष्णाओं के अभिमानी हैं ।
उनमें से कहा किसी एक कुलवधू ने- अम्बे !
मात्र रूप ही नहीं, यह आत्म ज्ञान भी कर रहा,
तव सम्मोहन का अतिरेक ।
सौंदर्य,
तन का ही नहीं, मन का भी है, सीमारहित बहुविधिय अनेक ।
कहा जाता है, समान धर्मा, परस्पर कर्षित नहीं होते ।
किन्तु, यहाँ देखा, तव सम्मोहन में बंध,
मन को बलात् कर्षित होते ।
नितांत अवश फिसलते ।
फिर पुरुष ! अत्यंत निरीह निराधार अकिंचन ।
कहाँ उनमें सयंम का बल है ।
अकारण, दोषारोपण में बंधते हैं ।
तुझसे बस इतना ही, अनुनय है ।
सबल, निर्बल पर क्यों होते हैं निर्दय ।
क्षुद्र चीटी के मर्दन से, करि का सम्मान नहीं बढ़ता ।
आर्ये ! विनीत प्रार्थना है ।
हो रहा व्यर्थ, यह तव ज्ञान ।
यहाँ,ममत्व का घन अन्धकार ।
कदापि न देखेगा, वह, यह प्रकाश, विद्वता का ज्योतिपुंज सम्भार ।
ज्ञान की बंद मंजूषा में, शयित शक्ति कुण्डलिनी को,
क्यों नहीं, मनः-बीन के अनगूंज गूँज से, सतत जगाती,
उन्मुक्त संघ के सिंह-द्वार ।
वे सहर्ष करेंगे, तुझे स्वीकार ।
यदि तू भिक्षुणी बन जाती ।
काँटों से भरी यह वीथिका, तुझे निरख ।
मन हो जाता धक् ।
शीश पर क्षीण तंतु से बंधी झूलती,
तीक्ष्ण कटार जो निरंतर रही लटक ।
कब, सम्मोहन की अंधी आंधी में, झोंके खाती,
शीश पर गिर, कर उठेगी वार अनर्थक ।
यह अपार सम्मोहन,
हर क्षण कर रहा, आत्म-हनन ।
हंसी, विषाक्त हंसी, आम्रपाली ।
निज दुर्बलता का, न करो मुझपर आरोपण ।
मत करो, आसन्न मृतप्राय पर, इस प्रकार,
अभियोगों पर अभियोगों का प्रत्यभिस्कंदन ।
तनिक टटोलो, अपना भी मन ।
क्यों नहीं तुममें इतना आकर्षण ।
जब स्वतः रहा तुम सब पर,
सौभाग्य सुमन का अबाध वर्षण ।
क्यों नहीं ?
कर्षणडोर में बंध पाते, तव जीवनधन ।
अवसर, अवकाश, समय विस्तार ।
धर्म और समाज ने,
रक्त-चन्दन, मुहरांकित प्रमाण-पत्र प्रदत्त किया तुझको, सहर्ष साभार ।
फिर, वाक् शर-विद्ध मर्माहात, ज्वलित चक्षुवार से आहत,
इस, सब प्रकार से घिरी, कुरंगी से,
क्यों मान रही हार ।
कहा एक ने स्वयंग सस्मित- हार ! हार !
हर स्वांस  ।
हार ।हार ।
कहाँ यह अपूर्व सौंदर्य सम्भार ।
अलंकृत, रूप,नृत्य, गायन, वादन, परिमार्जित लोकाचार ।
उन सब का भी, संशोधन शिक्षण अर्जन हो जाता ।
किन्तु, असीम तव बौद्धिकता का विस्तार ।
प्राणों का स्पर्धित पंछी, 
ऊंची उड़ान भरते ही, हो जाता है पतित भूलुंठित निराधार ।
दोनों पक्ष पसार ।
कहाँ स्वर्ण चषक में, लहराती, यह मत्त वारुणी अमृता ।
कहाँ, अंजलि भर छिटका अकिंचन, निर्झर का शीतल जल ।
चट्टानों पर शीश पटकता, अन्तर है ।
दोनों में, एक तृप्ति, एक अदम्य प्यास ।
कर रही विजयनी, मृगतृष्णा लास ।
उस पर, लावण्य को अति मारक बनाता,
ज्ञान गरिमा का विकीर्णित अप्रतिम आत्म-प्रकाश ।
छलक रही अवतरित उषा की मादक छाया सी अरुणिमा ।
तव, नील गंभीर नयन में फ़ैली स्नेहिल शीतलता
लेकर,प्रज्ञा की शुभ्र प्रांजलता की मदिर मोहक ज्योत्सना ।
तिक्त करेला नीम चढ़ा ।
सम्मुख, कापालिक सा अप्लावित रक्त खप्पर लेकर, अट्टहास करता,
तव धृष्ट भाग्य निर्भीक खड़ा है ।
बस इतना ही कहना है, अम्बे ।
तू ही बोल ।
क्या कोई पान कर सकता स्वयं ही, अमिय विष घोल ।
चुनू, कितने कांटें इन भींगी पलकों से,
जल रहा निरंतन तन मन ।
तव, अजस्र झरित रूप चांदनी से ।
यह, लावण्य का लहराता गर्वोन्नत इठलाता अम्बुध ।
उड़ गए होश ।
भूल चुकी हम सब सुध बुध ।
क्या ?
यह एक बूँद अकिंचन सीकर-कण, सागर का दर्पण बन पाता ।
दया करो देवि ।
कौन देख सकता, अरमानों के सजे नीड़ को, तृण-तृण जलता ।
मत, अपने सन्धानित पुष्प धनु की खिंची प्रत्यंचा में,
कोई अन्य मर्मान्तक पृषल्क चढ़ा ।
यही मान ले, मर्यादित सीमा रेखा ।
मत आगे अब न, एक कदम भी बढ़ा ।
वाल्गा खींच, यान पर आम्रपाली ने सरोष निज चरण पटका ।
नूपुर स्वर से, वनस्थली का, कोमल अंतराल बिंधा ।
आँखों के कृष्ण क्षितिज पर, जल उठे उद्दीप्त उल्कावन ।
लहराई पीड़ा की कृष्ण घटा सघन ।
बादलों में बिजली तड़प उठी,
अति उपेक्षा से बोली-  क्यों ?
मर्दित हो मेरा या तव स्वाभिमान ।
दोनों ही रखे निज क्षेत्रों में, स्वअर्जित कीर्तिमान ।
अधिकारों के द्वंद्व युद्ध में, खिंच गयी अब तलवार,
क्यों न संभालें दोनों ही, स्वयं पर पड़ते वार ।
तब भी तुम, नैतिकता सामाजिक धर्म-कवच ढाल से,
हो निरापद और सुरक्षित ।
मैं, दिशा विहीन क्षितिज के नीचे, हूँ,
निरख निसंग नितांत अकेली ।
इतना भी विवेक नहीं, ज्ञान नहीं, औचित्य का ।
क्या कहाँ होता है, उचित और अनुचित कहना,
लोक नीति अनुशासन में अनुबंधित रहना ।
तुम सबसे वार्तालाप ।
केवल अरण्य रोदन,
सैकत समुद्र का सर धुनता, निरर्थक विलाप, निष्फल क्रंदन ।
परवश विवश निरुपाय,
केवल, पत्थर पर सर टकराता है ।
समर्थवान की निष्ठुर निर्मम दृष्टि का,
केवल, काँटा ही उसको बिंधता है ।
मेरे ये चरण, कभी कहीं, थमे नहीं ।
सुगम दुर्गम सबको ठोकर देते,
सब सीमाओं का, अतिक्रमण करते,
ये सदा ही अप्रतिहत यों ही, गतिशील बने रहे ।
रुके वे, जिन्हें कहीं, सांत्वनामय, स्नेहिल विराम की, हो आशा ।
विरल घाटियों, कंटक संकुलित, तिल-तिल, पथ-बाधित-वीथियों में,
असह्य मर्माहत ठोकरों में, राह बनाना ।
इस जीवन की परिभाषा ।
नितांत “ना” के निविड़ अन्धकार में,
अश्रु दीपों से, एक  भी ज्योति किरण खोज लेने की,
रही, दारूण दीन दुराशा ।
मेरी गति, अविराम निरंतर निर्बन्ध निसंग ।
हार ।
हार में विजय खोजना ।
कभी न थकना । कभी न झुकना ।
इस जीवन का, ध्येय प्रेय अंततः सत् ।
हर निर्णय, मेरा अपना है ।
मुझे, नहीं किसी का परामर्ष अपेक्षित,
नहीं किसी से कुछ कहना है ।
फूल हमारे, शूल हमारे ।
दोनों को, इसी ह्रदय में रहना है ।
कदापि नहीं प्रतिस्पर्धित हो सकता,
मेरा ऊर्ज्वासित गर्वोन्नत अहम ।
कहा एक ललना ने- देवि !
तुम, मंजरी-माल किरीटनी पादप रसाल ।
सदा उन्नत, तव दप-दप दर्पित भाल ।
तुम, जिसे चाहो, जब चाहो,
भलीभांति कुचलो या सिरमौर बना लो ।
मेरे गुरु के स्वामी
सब तव सम्मुख, करबद्ध मृत्यु सामान ।
फिर भी, एक कातर प्रार्थना है ।
एक ही के चरणों पर, होता यह जीवन बलिदान ।
आँचल फैलाकर भीख मांग रही,
बस इतना ही कर दो उपकार ।
रहेगी तव उपकृत, मानेगी अनुग्रह साभार ।
तुम्हारा क्या, जिसे चाहे चुन लो, जिसे चाहे ठुकरा दो ।
रूप-हाट की रानी हो ।
बोली रथ से कोई अन्य नारी ।
स्वर में था, जलता तिरस्कार ।
रूपजीवा, वारागना, बढ़ा सयन्दन ।
न इसे इतना शीश चढ़ा ।
सुनते ही इतना,
आरक्त-मुख, अंगार बरसती आँखों से,
चीखी आम्रपाली ।
मैं,  रूपजीवा ।
खड़ी यहीं हूँ लाखों में ।
मैं, वारांगना ।
प्राप्त न हुआ अवसर, या मनः-अनुकूल चयन ।
कर रही निरर्थक यों विष-वमन ।
यदि संतुष्ट नहीं निज पतियों से,
वे हो रहे, निज कर्मों से पतित ।
अधिकार प्राप्त है तुमको भी,
करो अन्य जीवन मनोनीत ।
आदि काल में कहा, पराशर मुनि ने भी,
“नष्टे मृते प्रव्रजिते क्लिवे च पतित पते ।
पंचस्वापत्सू नारीणां पतिरन्तो विधियते । ।”
अतः नारीत्व की प्रशंसा, भले ही कर लो ।
मत, पातिव्रत्य का दंभ भरो ।
यह, पातिव्रत्य, सतीत्व ।
निम्नवर्ग और उच्च वर्गों के मध्य,
इसका स्वर, बड़ा ही खोखला बेसुरा बजता है ।
केवल, समाज धर्म से घर्षित होता,
उनकी चक्की के दो पाटों में घिसता,
अंधविश्वास की विषाक्त साँसें लेता,
मात्र अकेला, मध्य वर्ग ही,
इसमें रचता पचता है ।
इसे, जन्मजात संस्कार जान,
मुट्ठी में इसे जकड़े,
अंचल-ग्रंथि में बद्धकर, पकड़ ।
यही एकमात्र संबल लेकर,
वह, आडम्बर पाखंडों से जकडा,
देवि देवताओं के भारों से दबा तड़पता,
अभिशापों, वरदानों से, आह्लादित, आतंकित,
अंध विश्वासों के आच्छादन में, आँख बंद कर लिपटा रहता ।
ये, देवता भी, उच्च वर्ग की इच्छा से,
मन्त्र-चालित आते हैं, जाते हैं ।
निम्न वर्ग भूत प्रेत में ही रह जाते हैं ।
मध्य वर्ग, भीष्म-शर-शय्या पर पड़ा,
समस्याओं के चक्रव्यूह में फंसा,
मात्र, अदृष्ट,नियति के चरणों में,
शीश रगडता, त्राण माँगता है ।
किस स्थान पर, कहाँ नहीं, देश, विदेश, सर्वत्र ही,
यह वर्ग-विशेष ही, मौन घुट-घुटकर जहर घूँट, अनवरत पीता है ।
उन विषाक्त पवन में साँसें लेता, बलात् विवश जीता है ।
शोषण,उत्पीड़न,मानसिक,शारीरिक, आर्थिक, अभाव यंत्रणाओं को सहता,
अपनी दीन असमर्थता को, दैवी प्रहार कहता है ।
वहाँ, उसी स्थान पर, मदोल्लसित गर्वित पूंजीपति,उच्च वर्ग,
जो समाज के सम्मानित शीर्ष कहे जाते हैं,
धर्म, अर्थ, काम,सबको, एक तुला पर रखते हैं ।
यह उच्च सामाजिक स्तर का, पांडव ।
निज द्रुपद-सुता की अजस्र झरित रूप चांदनी की चकाचौंध में,
वैभव, पद-प्रोन्नति, प्रलोभन का,
परस्पर करता है, पातिव्रत्य से विनिमय ।
है, यह भी पातिव्रत्य ही, पति-आज्ञा का पालन ।
अभ्युदय सुरक्षा ।
जो भी मूल्य हो दे देना पड़ा ।
किन्तु कैसा नितांत निर्मम पीडाजनक है,
अन्तर मंथन करता पातिव्रत्य का यह रूप विपर्यय ।
यहाँ जबरन का ओढा गया पातिव्रत्य,
हो जाता है किस प्रकार, उड़ते घन्सारों सा निस्सार ।
उस समय देवियों, कहाँ रहा यह,
अहम पूजित सज्जित रक्त चन्दन ।
क्या होता नही इसका शत शत भंजन ।
इस समाज ने, कहीं कभी नहीं,
किसी रूपमें भी, नारी को नहीं छोड़ा ।
जिस प्रकार,जिस रूप में हो सका,
उसको कुचला,पीसा, तोड़ा, जोड़ा,मोड़ा ।
मुझे यह घनी उपेक्षा उत्पीड़न ।
उन महिलाओं के सम्मुख,
जो, रानी, महारानी, श्रेष्ठ पत्नियां हैं ।
तुम नत प्रणत, उनकी अनुकम्पा को
हो, सदा सतत उन्मुख ।
उनकी भवें हिली नहीं, तुम तन-मन से काँप जाती हो ।
जितना भी वे विष ढाले, असह्य अपमान घूँट,
वह, हंस हंसकर पी जाती हो ।
वहाँ, मान सम्मान मर्यादा सब
चरणों से कुचल करबद्ध खड़ी रहती हो ।
वे, तुम सबको,पतित नहीं लगतीं ?
क्योंकि, वे राज सम्मान से सुशोभित, समाज शिरोमणि हैं ।
धन जन वैभव बल महात्वाकांक्षा, सबसे समर्थ सुरक्षित हैं ।
वे, तव गतिमान जीवन-वाहन-चक्रों की, धुरी हैं ।
उनसे तुम संचालित सुरक्षित जीवित हो ।
और हम सब !
उधर का उद्वेलित दबा ज्वार ।
घनीभूत उमडता मनः-उदगार ।
घातों प्रतिघातों से आहत,झुका ह्रदय भार ।
बड़ी सरलता से वह असह्य बोझ,इधर फेंक देती हो,
क्योंकि दुर्बल ही रहा सदा का, ज्वलित अभिशापों का पात्र बना ।
जलते वाक्य बाणों से, अकारण उसका तन मन छना ।
यही श्रेयस्कर है शुभे,
कि हमसब निज गंतव्यों को बढ़ जाएँ ।
बहुत हुआ समय नष्ट, अब व्यर्थ विवाद नहीं बढ़ायें ।
सहसा बोली एक नारी-
इतने लांछन लगाकर, तुम, यों ही चली जाओगी ।
तुम जो चाहो कह लोगी और हमसब को बलात् मौन कर लोगी ।
इस प्रकार के लांछन अनुचित है अम्बे ।
गार्हस्थ जीवन, स्वामी ही, हम सबके एकमात्र आधार ।
एक ही तुला पर मत संतुलन कर नारी ।
कभी  पड़ जाएगा कोई बाट, अति भारी ।
हंसी, विषाक्त हंसी, वाल्गा घुमाती आम्रपाली ।
बादल, बहुत सघन नील गगन में,
बरस-बरस, गरज-गरज, हो जाते हैं खाली ।
सुविन्यस्त छद्मवेशी भाषाओं में, छिपती नहीं,
विवश कातर रोयी आँखों की लाली ।
कैसी प्रतिहिंसा के जलती ज्वाला तव आँखों में,
कैसी तव व्याकुल रातें काली ।
एक हल्का पवन का झोंका,
झर उठती, तुहिन खचित भरी डाली ।
मेरे अपमान के निर्मोक पर,
जड़ें जमाकर तव अशोक वृक्ष, नहीं पल्लवित होगा ।
उसे तक्षक फुंकारों से जलना ही होगा ।
बार-बार, स्वामी-स्वामी, और पातिव्रत्य की, करती क्यों पीड़ित पुकार ।
ज़रा उस वास्तिवकता को भी आँखें खोल, देखो तो एक बार ।
आत्मभीरुता, आर्थिक-परतंत्रता, सदियों की, आधार खोजती असमर्थता ।
यही है तुम्हारी यथार्थता ।
पत्नी हो या पति हो ।
केवल आदान-प्रदान ही तुला, कर में ।
जितने कदम भरोगी तुम, उतने ही वह भी लेगा ।
नहीं,निज सौख्य साधन में, किंचित व्यवधान सहेगा ।
कितना भी दंभ भरो, निज महिमा का ।
तुमको भान ही कहाँ,पातिव्रात्य सतीत्व पावन गरिमा का ।
निश्चय ही नाम सुना होगा, भिक्षुक महाकश्यप
और उसकी अर्धांगिनी, तेजस्वनी भद्रा कपिलायनी का । 
बौद्ध धर्म के शुभ आकाश में, उषा सी उदित वह दिव्य प्रभा ।
सौभाग्य कुंकुम रक्त चन्दन ज्ञान गुलाल सा,
नवल क्षितिज पर स्वस्ति प्रकाश सदृश झरा ।
वह, परम पवित्र पावन जाह्नवी ।
यशः-कीर्ति की शाश्वत शुभ्र कौमुदी ।
यह उन्नत गर्वित शीश,
सदा रंजित,उसके चरण आलक्तक से रहा ।
जिसने, विवाह से पूर्व ही, मन,संयमित, सन्यस्त किया ।
प्रथम मिलन-रात्रि-मध्यावस्थित, सुरभित, सुमन स्पर्शित सृका-
वैसी ही अचल अटल कौमार्य पावन परिणय की साक्ष्य बनी ।
दोनों ही संग बने भिक्षुक ।
तब भी एक बार भी हुए न असंयमित या मिलन के इच्छुक ।
दो विपरीत मार्ग के मध्य थमकर, अंतिम विदा मांगी भद्रा ने ।
अनगनत जन्मों के संग, और अब नितांत निसंग ।
शाश्वत विछोह ।
भर आये लोचन ।
जीव वरण कर रहा था चिरंतन, विमोचन ।
गिरा धारा पर नत प्रणत साष्टांग,
प्रणाम किया निज स्वामी, महाकश्यप को ।
बीते जन्मों का प्रणाम ।
शाश्वत विदा का प्रणाम ।
वह देवि । उसकी चरण धूलि को,
गौतमी-पत्नी सा यह मन व्यग्र रहा ।
रागाग्नी भस्म-भभूत जावक, उन पावन, चरणों का बना ।
कभी भी उससे किसी भी नारी की, हो सकती है तुलना ।
यह था उसका त्यागमय सात्विक पावन पातिव्रत्य ।
और एक यह,
उग्ग गृहपति की, चतुर्थ पत्नी,
उसकी इच्छा जान, किसी अन्य से विवाह किया,
भिक्षु बनने से पूर्व, उग्ग गृहपति ने ।
यहीं तो, पातिव्रत्य उठा कराह ।
क्या यह धर्म, समाज की रीतियों पर, प्रश्न चिन्ह  नहीं लगाता ?
किस विधान,किस नियम से समाज,
करता है, इन नियमों को निर्धारित ।
कभी, नारी को सती, कभी वारांगना,पतिता, करता है घोषित ।
मुख उसका, कलम उसकी, शक्ति उसकी,
जब जैसा चाहा, उसने निज सुविधा परखी ।
अतः नारी,
पुरुषों के दिए सर्वनामों में मत घूमो ।
हो सचेष्ट ।
स्वयं ही निज को परखो ।
पहचानो ।
यह शोषण, दमन, दर्द, सीज रहा हर पर्त पर्त ।
झेल रही हर नारी, विवश निज परिस्थतियों में ।
तुमको समाज ने जाना, केवल निज मानस तरंग ।
तुम छीज रही, बीत रही, घुट रही,लेकर शाश्वत पीड़ा अभंग ।
अब तो चेतो ।
निज स्वाभिमान समेटो ।
मत करो विवश मुझे इस निदारुण आत्म मंथन को ।
अमृत कहीं और पड़ेगा ।
हलाहल ही, कालकूट,गले लगेगा ।
अपमान,जिसे कहते हैं ।
कर रही कबसे, वह गरल आकंठ पान ।
रच पच कर, सब सह कर, हो गया ह्रदय निश्चेष्ट जड़ ।
अब कोई भी रेखा न सकेगी, उस पर पड़ ।
मान अपमान के परे, हो चुका सब ज्ञान ।
संभालो, अपना पीड़ित अन्तर ।
पड़ें कोई चोट भीषणतर ।
पर्त पर्त काट रहा प्रत्येक वाग्जाल,
मेरा विवेक बनकर सुदर्शन चक्र ।
मैं वह चन्द्र वक्र, ग्रस न सका जिसे कोई नक्षत्र ।
मत ठेस मुझे पहुंचाओ ।
मेरा तर्क-राहू बनकर सहस्र बाहू,
कर रहा ग्रसित,तव, सदियों का अर्जित दीपित सौभाग्य- अर्क ।
मैं, अम्बा नहीं ।
मैं, हर मौसम के झोंके खाती, शिशिर-प्रहार-प्रताड़ित,
हिम-शल्य-विद्ध, घनघोर घटा, अजस्र पावस वर्षा से सिक्त ।
आतप-तपित, निरभ्र निसंग नील नभ के,नीचे,
जलती, दहती,कटंकित बंजर धरती के ऊपर,
अनावृत नितांत उपेक्षित, रही, सर्वदा एकाकी खड़ी ।
हर विपरीत परिस्थितियों से निश्चेष्ट, मौन लड़ी ।
खींच रही, आहत टूटती निज जीवन स्वांसें ।
नहीं झुकी कभी,किसी के आगे ।
मैं ,वह, शापग्रस्ता अहल्या हूँ,
जिसे, न अबतक राम-चरण-स्पर्श-निदान, मिला ।
नैराश्य ध्वांत अशांत ह्रदय अनवरत, अविराम जला ।
उसकी प्रज्वलित उठती लपटों में,
मत निज कर को सेको नारी ।
देखो रंचक, समय निदय, कितना कठोर वंचक ।
यह काजल की कोठरी ।
यहाँ न, प्रकाश किरण कभी उतरी ।
ज़रा मेरे संग आओ, देखो,
आर-पार होती,कैसी है यह तलवार तीखी दुधारी ।
कितनी मर्मान्तक, दारूण,कितनी कारी ।
किस प्रकार अश्रु आप्लावित मेरे चक्षु ।
मेरा पुत्र, विमल कौडिन्य,
जिसका बौद्ध भिक्षु परिवेश ।
वहीँ अजातशत्रु और अभय कुमार ।
प्राप्त उन्हें राज सम्मान राज्याभिषेक ।
जबकि तीनों एक ही पिता के पुत्र ।
किन्तु नियति, कैसी विचित्र कितनी अदभुत ।
जाओ देवियों ।
सौभाग्य लक्ष्मियों ।
निज गृह जाओ ।
उत्तरोत्तर सौख्य संवर्धन,
आत्म तुष्टि मलय विचुम्बित, शीतलता पाओ ।
मेरी भी अश्रु-अंजलि,निज आँचल में लेती जाओ ।
जब भी, किसी जनपद कल्याणी का हो चयन ।
सतत करना उसका निषेध, त्वरित वर्जन ।
ये आँसू तुमको याद दिलाएंगे ।
पुनः न दारुण व्यथा की पुनरावृत्ति हो ।
तुमको सचेत करते जायेंगे ।
यदि नारी निज रखे स्वाभिमान ।
अर्जित करे वांछित सम्मान ।
सदा यही सचेष्ट होना ।
मत किसी को कभी, उस स्थिति में आने देना ।
प्रत्येक गृह यदि संकल्प करे ।
कभी न नारी यह यह स्थिति ग्रहण करे ।
वाल्गा खींचकर, अम्बा ने अश्वों को संकेत किया ।
उन सब यानों के मध्य, राह बनाती, धूल उड़ाती,
सघन धुंध में, एक उज्जवल नखत सी, हो गई विलीन,
आम्रपाली, रथ पर अवस्थित ।
वह थी अत्यंत व्यथित ।
आरक्त दशन, दबे अधर,
उमड़ रहे, आँखों से, बाहर आने को,उद्वेलित अश्रु-झर ।
सोच रही थी, मन ही मन ।
कैसा विचित्र विषम गुम्फित है, नारी मन ।
जब कातर ह्रदय विदीर्ण निराधार, करता है, अटूट क्रंदन ।
रोष का आवरण डाल,
करती है, वह, सतर्कता से आच्छादन ।
और यह क्रोध,
आहत अहम की करुण, ह्रदय विदारक चित्कार,
जानता जिसे अन्तर भलीभांति,
किन्तु वाह्य में करता नहीं स्वीकार ।
अथाह रुदन का ह्रदय-मंथित, ऊर्ज्वसित पारावार ।
ज्वार संकुलित आबद्ध घिरी,विवश दीन निरी ।
फिर भी, भरती मिथ्या दंभ ।
हम नहीं किसी से कम ।
किन्तु वास्तविकता की तीखी विषैली विद्रूप मुस्कान ।
सहस्र शूलों से, विद्ध करती, विकल बनाती, तन-मन-प्राण ।
विस्तीर्ण व्यापक विशाल ।
मनः-अंतरिक्ष अंतराल में,
चूर-चूर हुए,मादक सपनों के,
एक एक कण को चुनती,
कैसी लगी चोट, कितनी लगी चोट ।
हुई न प्राप्त इसे, कभी किसी की ओट ।
आंसुओं से धो-धो कर, उन्हें मौन निखार-निखार, निरखती ।
कितनी गहराई से टूटा है, कितना कहाँ कहाँ बिखरा है ।
उन टूटन,उस बिखरन को चुन चुन कर,
करती, अन्य रचना का नवीन सृजन ।
वह मात्र, स्मृति ही है ।
किस सीमा तक है, यह मर्मान्तक भंजन ।
सूना पथ, सूना मन ।
तर्क वितर्क के सघन धुंध में,
क्षत विक्षत, रूई के गोले सरिस,
उड़ रहा आहत विषण्ण मन ।
खींचती, ढीली होती कशा समान,
मनः-गगन प्रभंजन में, फंसे पतंग सदृश,
किसी प्रकार भी धैर्य नहीं बाँध पाता था, पीड़ित मन ।
अन्तर संघर्षण विचार-मंथन उद्वेलन,
गहन रात्रि की घोर तमिस्रा को, करना चाहता आत्मसात,
एक अकेला उडगण ।
ली, उसने गहरी सांस ।
वह, कितनी अकेली निस्सहाय निरुपाय निराश ।
एक दिवस, उसका भी कौमार्य, सहस्रपत्र सा,
उत्फुल्ल प्रफुल्लित, निष्कलंकित था ।
मनः-प्रांगण में, अपने ही मादक सपनों में,
मृगः-मद कस्तूरी सा, मन्त्र-मुग्ध-विभोर था ।
आँखों में, उल्लास रंग ज्वार ।
काल्पनिक अनाम अज्ञात, स्वप्नों के राजकुमार, निमित्त,
रसराज-निवेदित-सुरभित थी
रसपूरित-पुष्पित-पल्लवित झुकी वन उपवन लतिकाएँ साभार ।
उस अविस्मरणीय दिवस को, उस वज्र प्रताडित क्षण में,
मनः-क्षितिज सज्जित कल्पित स्वप्निल परिणय मंडप,
टूट-टूट, छिन्न भिन्न हुआ था ।
जिसका, न रूप, न रंग, न नाम, न पता ।
जो था अनाम अज्ञात,
किन्तु ह्रदय में अचल रहा सर्वदा ।
उस स्वप्नों के स्वामी के चरणों में । गिर,
शीश रगड़ रगड़,
केशों के चरण रेणु स्वच्छ कर,
उसने, ह्रदय विदारक मर्मान्तक रुदन कर,
अंतिम विदा माँगी थी ।
कौमार्य सुरभी से सुरभित तन-मन ।
कण-कण स्वतः प्रज्वलित अग्नि से, गया जल ।
मृत सपनों की उठ रही अर्थी पर,
खुले केश अनावृत, होकर अत्यंत व्यथित,
उसने स्वतः मन अर्चित रक्त चन्दन, सीमान्त के धोए थे ।
और दोनों कर, पटक-पटक, सुहाग चूड़े, तोड़े थे ।
उन चूड़ों की झंकार, कर उठे ह्रदय पर शत-शत प्रहार,
उतारे,पद से सुहाग-नुपूर,
जिसकी एक-एक किंकिणी, जल उठी बनकर, उद्दीप्त ज्वलित चिंगारी ।
नत पलकों में छलके, बंधे अश्रु,
नगर-वधु शिंजिनी बांधते ही,
झर उठे, शत-शत, झरनों से अबाध ।
उन क्षुद्रघंटिकाओं की ह्रदय बंधती आरपार होती, कर्कश खनक,
उससे भी, समाज के वधिर कर्ण, हुए न सजग सतर्क ।
जब भी कोई क्वारी बाला के चरणों में,
जनपद-कल्याणी के घुंघुरू बंधेंगे,
उसके उद्वेलित पीड़ित उत्पीडित अश्रु,
लावा से जलते असह्य अंगार बनेंगें ।
विवश क्रोधाग्नि की प्रज्वलित लपटों में,
लानत के धिक्कारित अजस्र प्रवाहित, अबोल बोल भरेंगे ।
तडपेगा, यह कौमार्य, हजारों बार,
कहाँ वे, समय के आततायी, अश्वरोही जघन्य सवार ।
लूट कर, चले गए, जीवन-सौरभ, निष्कलंक सुकुमार ।
कहाँ वे, कौमार्य के दावेदार ।
पूजन की पुनीत पवित्र पुष्प सृकाओं पर,
डाल गया बनकर विषधर, दंशित विषाक्त फुंकार ।
समाज के दरिंदों से,
अरक्षित सुकुमारियाँ, होती रहेंगी इसी प्रकार,
शोषित मर्दित अपमानित ।
आदि से अंत तक, अपरिणाम रहित,
इस व्यथा कथा की होती रहेगी पुनरावृति ।
यह समाज केवल सर्वांगीण करता है,
अपहरण ही अपहरण ।
कदापि नहीं, कभी भी, किसी विधि भी, प्रदत्त करता,
शोषितों का संरक्षण ।
इस समाज का,
यह असाध्य गलित कुष्ठ,
उसके ही विष से पीड़ित है ।
सघन घुटन में घुटता, स्वच्छ उन्मुक्त पवन को तरसता ।
यदि भूलकर भी,
स्वच्छ वायु वातावरण की ओर, चरण बढे भी तो,
हर स्थल, निषिद्ध वर्जित है ।
यह, ज्वलित शाप,
न शमन हुआ,न लौट सका ।
सरिता भी, पर्वत का ह्रदय फाड़, जब अबाध बहती है,
ऊँचे-नीचे,गह्वर, खाई, समतल, विरल,विषम,पठारों, उपत्याकायों से,
होकर सबसे मिलती, आगे बढ़ती है ।
बाहें फैलाकर, सागर अपनाता है ।
पथ श्रम हरण कर आश्रय देता है ।
यह नहीं प्रश्न करता, क्या उसने झेला ।
उसके कल्मष प्रच्छालित कर,
उसे सहर्ष अंक में भर लेता है ।
किन्तु, यह पतिता, धर्म-च्युत, समाज-निर्गिता ।
इसे, विवेक, न , न्याय पर तौलता है,
न,पूछता है ।
लेकर मृगजल का लहराता दर्पण, केवल कहता है ।
निरख, जल ही जल है ।
पर कहाँ यहाँ रंचक भी तृप्ति है ।
अवसर पाते ही, दृष्टि बचाता, या निर्ममता से ठोकर देता,
निज मार्ग प्रशस्त करता, वह, बढ़ जाता है ।
निदान रहित, यह शाश्वत रिसती पीड़ा,
समाज की लज्जरहित हीनता,
बौद्धिक दीनता,
प्रदर्शित करती है केवल, निज असमर्थता, संकीर्णता ।
मौन घुटती विवशता ।
कोई भी अपना कभी न रहा ।
केवल रही यह ठोकरों में, नियति के निर्मम, कंदुक क्रीड़ा ।
निज अन्तर-मंथन चिंतन में, रही सोचती ।
किसने जाना, यह टूटा मन ।
काली कृष्ण अर्ध निशा में,
अपनी ही मर्मान्तक घोर व्यथा में,
रहा, अकेला निस्सहाय तडपता ।
अपलक अनिमेष, खुली आँखों की,
जलती तपती चट्टानों पर, रही टूटी अनवरत,
पागल सी तड़ित शतहृदा ।
पीड़ा की कौंधों में विजड़ित,
मन के अपार अन्धकार पूरित,
विस्तीर्ण विशाल एकाकी सूने सैकत-वन में,
रही भटकती,लेकर शत-शत टुकड़ों में मन टूटा,नितांत निसंग अकेली ।
घन अन्धकार भर, पादप अंतराल,विह्वल दिग्भ्रमित व्यथित,
रही चीखती कैकी, आर्त विकल ।
क्षत विक्षत हो रहे थे, रात्रि के पल,प्रतिपल ।
रही डूबती,पीड़ा के पारावार संकुलित लहरों में ।
किसने जाना, क्या बीता उसके आतुर कातर प्राणों पर,
इन कंटकाकीर्ण खाली सूनी राहों में ।
केवल रहा,निरखता, स्तब्ध मौन नील गगन-दर्पण ।
था प्रतिबिंबित उसमें ही उसका आकुल मन ।
आँखों के, आप्लावित नैराश्य उदधि में,
कितनी,ज्वाल फेंकती जलती, उल्काएँ डूबी,
कृष्ण नैराश्य-धूम, धूमायित,बुझी पड़ी ।
कितनी उल्लसित कुसुमित कलियाँ,
विकसित होने से पूर्व ही,
वृक्षों के पातों से मुख ढांपे, रोती, सिसक रही ।
धरा के, अंकुरित सपनों के शव,
उसके ही, पीड़ित आर्त वक्ष पर,
आतप तपित जले पड़े ।
मौन, बिलख कर रोयी, माधवी ।
अन्तर प्रस्फुटित ज्वालामुखी को, शमित करने,
शत शत आँसू के धार बहे ।
फिर भी, हर मौसम के तेवर सहती,
उनके अनुरूप सहज सजती,
पूर्ण समर्पित बनी रही ।
अपना यह, मर्मान्तक उत्पीड़न,
भला वह किससे कभी कहे ।
सदा कसे उसके पत्थर अधर रहे ।
कहा सिसक कर मन ही मन उसने ।
रो ह्रदय, पागल ह्रदय रो ।
इस घनी उपेक्षा की तीखी तपन को, अश्रुओं से धो ।
नहीं, स्नेहिल-नयन-छाया ।
नहीं कोई,समीप आया ।
नहीं कोई, तेरा सहारा ।
नहीं शीतल छाँव को,किसी ने कभी पुकारा ।
चला जा रहा, अवधि-सीमा-पथ पर,
प्राण-पीड़ित,नितांत अकेला ।
किसने, इन मूक व्यथा तप्त कम्पित, अश्रुओं को झेला ।
जलें न, ऐसे प्राण कोई,
जल रहा जैसा,
यह, प्राण हारा ।
क्षितिज टकराती निराश आँखों ने,
देखा नहीं, कभी उजला सबेरा ।
रिक्त पाकर, ह्रदय-प्रांगण,
तीव्र प्रभंजन, आमूल झकझोर डाला ।
निर्बल का,भला कौन साथ देता है ।
उसे असमर्थ जानकर अति वितृष्णा से,
कटुक्तियों का जूठा व्यंजन,उपेक्षा से,
उसके सम्मुख फेंक देता है ।
व्यथा का, छलकता विषम चषक,
जो, मारक प्राणान्तक भैषजों से, गया संवारा ।
वह, मात्र केवल है तुम्हारा ।
नहीं कोई, नीलकंठ, पान कर सके, इसे आकंठ ।
विषः-मूर्छित है, गगन ।
विषः-मूर्छित है धरा ।
हाथ में लेकर, इसे विवश,
घूम कर सर्वत्र दृष्टि फेर कर,
हार कर नियति ने अंत में,
तुझको ही पुकारा ।
पान कर ! पागल ह्रदय पान कर !
तन्मयता की, अभंग मादकता का,
नयी अनुभूतियों का, आह्वान कर ।
ठोकरें जितनी भी मिले,
मौन ही आत्मसात कर ।
चेतना के नव ज्ञानोंन्मेष में,
प्रज्ञा-प्रभा का अभिषेक कर ।
सहसा, रुके अश्व ।
चौकी आम्रपाली ।
देखा,सम्मुख निज गृह को ।
रथ त्याग, वेगवती आंधी सी आई, निज कक्ष में ।
ज्वारों का उद्वेलन, मंथन,
अनगनत कंटकों की विषाक्त तीक्ष्ण चुभन,
चुभ रही थी,मर्माहत वक्ष में ।
गिरी, कटे वृक्ष सरिस निराधार शय्या पर ।
सिसकी के हचकोलों से, काँप रही थी थर-थर ।
आँखों के अबाध अश्रुवेग के,
झर-झर, झर रहे थे निर्झर ।
आरक्त अधर, व्यथा आकुंचित प्रबल मुखर ।
लेकर गहरी निश्वांस,
बोली मन ही मन ।
आह !
जो गिरा धरा पर उल्का सरिस,
दूर्वा सा हुआ हर पदतल घर्षित मर्दित ।
उठा नहीं, शीश ।
बरसे जलते अंगारे ।
अस्तित्व ही नहीं रहा, कभी जिसका समाज में,
वह खड़ा हो, किस बलपर, किसके सहारे,
किस धरा पर पैर जमाकर ।
किया मैने निरर्थक विवाद ।
क्यों नहीं, व्यंगबाण आत्मसात कर,
शीश नत किंचित सस्मित, मैं बढ़ गयी त्वरित ।
यह, श्याम जलद खण्डों सा, ह्रदय-पटल पर,
अनवरत गिर रहा विषाद, गहनतम मर्मान्तक अवसाद ।
तोड़ रहा है अब तन-मन को, कौन सा अहम ।
अदूरदर्शिता का ध्वज लेकर उतरा था,
अपनी निरीह निस्सहायता अपंगता का,
किंचित भी भान न हुआ ।
पड़ रहे थे अनवरत विषाक्त तीक्ष्ण बाण ।
तब भी अकिंचनता का ज्ञान न हुआ ।
अम्बे ! किस वंचना ने तुझे घेरा ।
लेती है नियति, निर्मम प्रतिशोध ।
इस, चकाचौंध मचाती,
मनमोहक मृग मरीचिका की,मनः-दुग्ध छलना में ।
आह ! किस निमित्त ।
क्यों ?
की मैने धृष्ट प्रगल्भता ।
जिसके, जन्म का भी, पता न हो ।
नहीं शीश पर हो जिसके,
स्वस्ति-वचन कहता, अभय-दान देता,
पीयूष-प्रच्छायित-शीतल, नील गगन ।
नहीं हो, पथ श्रम थकित चरण तले,
वात्सल्यपूर्ण, अश्वस्तिमय, स्नेहार्द्र धरा ।
अशांत, उद्भ्रांत, नितांत, निसंग, व्यथित मन ।
अपार अवकाश तरंगों के, विद्युत प्रकाश कशा-प्रताड़ित,
ज्वलित उल्का-वन में,
संत्रसित, तडपते मन को,
रहा निरखता, मौन शान्त, वेदना-वारिधि-क्षितज विचुम्बित,
उत्तल निर्वाध लहर दोलित,
रहा देखता, अपनी ही छाया, अपनी ही काया ।
खंड, विखंडित, दारू सरिस, संज्ञाशून्य जडित,
निश्चेष्ट काष्ठवत् लक्ष्य-रहित, पवन-संकेत-प्रवाहित ।
मनः-आकाश के निस्तब्ध अन्धकार पूरित आँगन में,
जाने कितनी रातों को,
तारों के धागे से,
चुप चुप अश्रु विमुन्चित करते,
निज,जीर्ण शीर्ण फटे आँचल को
मैंने स्वतः सीते देखा ।
क्यों ?
प्राणो का पागल एकाकी पंक्षी,
वृक्ष वितानों, गुल्मों, लतिकाओं से,
लिपट-लिपट, रोया आकुल विह्वल सा ।
किन स्मृतियों को रहा खोजता,
पाषाण समाधियों में, जाकर उदास खोया ।
क्यों उद्वेलित झरनों का बना दर्पण ।
क्यों नील तड़ागों की तड़पन से भर,
सबकी पीड़ा को, हृदयंगम कर,
विकल आर्त स्वर में चीखा ।
क्यों ?
जड़ जंगम, सबकी धड़कन, रही करती हृद-मंथन ।
इनकी,मौन व्यथा-कथा सुन-सुन, होता रहा मन, विषण्ण उन्मन ।
क्यों रही, भटकती सदा, विक्षिप्त सी ।
क्यों ?
अनुभूतियाँ, इतनी जीवंत मुखर मर्मान्तक तीखी ।
अनगनत बार अनवरत, देखा, वेदना वारापार में,
आमूल जल-मग्न, यह शरीर,
मृण सा, शत-शत, टुकड़ों में बिखर,
भंजित, गल-गल, धुलकर, विलीन होते ।
नहीं पता रहा, कहीं, अस्तित्व का ।
रहा वाडव ज्वाल, प्रमत्त उमडता ।
बुद-बुद सी, नर्त्तन करती एष्णायें त्राण मांगती,
भागती, रही उबलती, भंवर पात्रों में फंस्-फँसकर ।
फिर भी, पीड़ा की लहरों में चिपका संत्रसित,मन,
उससे वितृष्ण विमुख नहीं हुआ ।
कितना पीड़ित,कितना कटु तिक्त मन, झुका व्यथा भार ।
हिम शल्य खचित वात्याचक्रों से कम्पित मनः-आँगन में,
अंधी आंधी गयी निठुरता से, अनगनत तीक्ष्ण कांटें झार ।
मन ही मन बोली, वह ।
नहीं रहा कुछ शेष ।
मात्र, यह सालती निरंतर व्यथा अशेष ।
दर्द की, तपती जमीन पर अनवरत, चलते हुए,
अंतिम छोर पर रुका, यह थका मन ।
घूमकर नियति से है, पूछता ।
अब सम्मुख पग रखने को किंचित भी कहीं बची, नहीं धरा ।
यदि शेष हो, तेरे समीप अन्य,
अब  भी कहीं संत्रास की कोई, नयी अछूती, विधा,
उसे भी दे, मेरी प्रह्वान्जली में,
नियति, धरा आकाश से, यही तो मिला,सर्वदा ।
यह एक सत्य जीवन का, अनित्य जिसे कहते हैं ।
जब यह अनित्यता भी, दे जाती है निर्मम निदारुण आघात,
वह, परम सत्य, जिसमें सब ध्यान निरत, लाएगा क्या परिणाम ।
नहीं किसी को ज्ञात ।
झंझा-झकोर-आंदोलित यह मन,
इतना पीडित क्यों, क्यों इतना विषण्ण,
मेरा यह विह्वल मन ।
निराधार अटूट क्रंदन ।
झर रहे, अबाध अजस्र अश्रुकण ।
यही इस व्यथिता का, नितांत उपेक्षिता का,
तव पावन श्री चरणों में, अभिनन्दन,
अर्चन,स्तवन, सम्पूर्ण समर्पण ।
मेरे अन्तःप्रेक्षी ।
तुमको ठीक पता है, कितना गहरा यह आघात लगा है ।
यह ह्रदय, अनगनत शल्य बिंधा है ।
यह मेरी आर्त पुकार, कम्पित तव करुणा-पारावार ।
किसने कब देखा है प्रभु,
आँसू से, जलती आँखों को ।
वेदना-विदग्ध-कंटकित,
नैराश्य-ध्वस्त, गिरती,निरालम्ब निसंग आहों को ।
अवर्ण्य वेदना की अतल गहराईयाँ, छू नहीं पाती उन्हें,
जितनी भी संवेदित हो, अनुभूतियाँ ।
किन्तु आपने उन्हें शतशः किया अवगाहन ।
आप ने भात नहीं स्वीकारा ।
स्वीकारा विस्तीर्ण व्यापक अपार सैकत वन का, आमंत्रण ।
आ रहे प्रभु, स्वस्ति वचन कहने ।
इन विदग्ध अश्रुकण को चुनने ।
तव, विश्व-वेदना-सम्भारित अथाह प्यार अपार ।
मैत्री-कौमुदी-प्रच्छायित-जल-थल-नभ-वारापार ।
इन गहन गंभीर स्नेहिल छाया में आया, नत प्रणत,
यह आतप-तपित, पिपासित प्राण ।
अब भी मन अति विकल,
कांटे सा चुभा एक ही प्रश्न ।
वह, मान अपमान हुआ किसका ?
इस नश्वरता का ! 
नहीं ।
मेरा ।
पर मैं ।
मैं हूँ कौन ?
यह प्रश्न,
युग युगान्तरों से, दिग दिगान्तारों से,
गूंजता अनुरणित, अनुत्तरित,
सदा का उत्तराभिलाषी, रहा मौन ।
मैं हूँ ।
पर मैं हूँ क्या ?
नहीं ज्ञात ।
हुई विसुध सी अम्बा, कुछ हल्की सी तंद्रा आई ।
जलते तपते विदग्ध ह्रदय पर, कोई, शीताल छाया लहराई ।
पतझारों के कंटकाकीर्ण शुष्क सैकतवन में,
मलय-विचुम्बित-तुहिन-खचित-शीतल झोंका आया ।
शान्त हुआ मन, पीड़ा से घबराया ।
प्रत्युष से भी पूर्व, पिछली रातों में,
ज्यों गंध-अंध-आकुल हो उठता है, वन, उपवन, सरि, कानन ।
उनके पल्लव-पल्लव, पात-पात को, हौले-हौले छूता,
करता है, पवन मादक सुरभित गुंजन ।
अम्बे के ह्रदय सरोवर में, स्वप्न शयित,
अदृष्ट-वज्र-निपात-विगलित,
कातर थर-थर कमल दलों के वन में,
हुआ निसृत, शीतल गहन तपन क्षत,
भर लेने को, वात्सल्यमय अमिय वर्षण ।
अम्बे ! मत आँसू से भर ।
मत पीड़ा से कंटकित निर्जन वन में,
विक्षिप्त विभ्रमित,कस्तूरी-मृग सी विसुध विचार ।
दुःख से जलता अम्बर है ।
दुःख से भर, रत्नाकर हाहाकार मचाता है ।
दुःख ही दुःख सम्पूर्ण जगत में ।
पंचतत्व का आँचल पकड़,
प्राणी, उसमें ही जकड, बंधा रह जाता है ।
तू नहीं हीन ।
नहीं दीन ।
मनः-वृत्तियों की विकृतियों को,
सत्य प्रकाश में, कर विलीन ।
चलता पवन, निकला वचन, कदापि नहीं सकता लौट ।
विष-शल्यों से आहत को, मात्र, अपेक्षित उपचार,
क्यों, कब, कैसे, किससे, चोट लगी,
व्यर्थ उनका संधान ।
सुधा बरसाता मयंक ।
कहाँ रहा, निष्कलंक ।
मनः-मुकुर पर जमी धूल ।
जितना उसे झारेगी,
तव छवि स्पष्ट,प्रतिबिंबित, और उभर कर आएगी ।
झार-झार, यह कल्मष झार,
यही, पंचतत्वों का संग्रहीकरण ही, पीड़ित करता, अहम है ।  
ऊर्ज्वासित मनः-वृत्तियों का चरम, घोर ममत्व ही अहम है ।
यह, एषणाओं का कल्मष है ।
इनमें बंधा प्राण, नितांत विवश है ।
वीचि-संकुलित, मानस-उदित, अशांत, दृढ़ संयमित मन,
निर्विकार निवृत्तियोंमय होता शान्त ।
बिखरे मन को एकत्रित कर,
निज, उज्जवल शुचि उदात्त विचारों के सोपानों पर,
क्रमशः शनैः-शनैः, चढ़ ।
हो, एकाग्र, एकनिष्ठ, आमूल समर्पित ।
निरख, अपार पारावार शाश्वत प्रकाश, उत्ताल तरंगित ।
समस्त अंकुरित अभिलाषाओं को, कर छिन्न-भिन्न ।
मनुष्य !
निज एषणाओं का, घनीभूत धूम है तिमिराछन्न ।
इस धुंध को कर विदीर्ण ।
कहा अम्बे ने, सविनय कम्पित स्वर में-
किन्तु,प्रभु ! कौन मैं ! कौन वह !
किसको होता,मनुष्य समर्पित ।
अनित्यता के सोपानों में, चढ़कर,
अमृत-पद पाना,
कदापि नहीं संभावित ।
पंचतत्व-जनित वृत्तियाँ,
नश्वरता का ही सतत करेगी, सृजन ।
किस प्रकार असत्य से सत्य का, होगा अनिवार्य यजन ।
अम्बे ! कौन ! कहाँ ! किसके प्रति !
इन उलझनों में मत पड़ ।
बिछे कंटकों को, पथ से, उन्हें अलग कर ।
विवेचना, विचारों के निकष पर
वृत्तियों का शोधन, जितना खरा उतरता है ।
बस, उतने से ही बंध ।
जिसे नहीं देखा ।
नही चेतना ने अवगाहन किया,
उनपर, अन्य के कथन का, मत अवलम्ब ग्रहण कर ।
स्वयं साक्षी हो ।
समस्त अन्धकार हटने पर केवल, प्रकाश रह जाता है ।
उसका चिंतन कर ।
यह, चिंतन,मनन, आत्मदोहन,
शोधन का,लहराता, विशाल विस्तृत पारावार ।
लहरों ने, तट पर उलीच-उलीच,
ज्ञान-शुक्तियों को, उरुवेला में है डाला ।
इनमें, ये,
रीती, अनरीती, मौक्तिक-सौष्ठव से भी,
है भरी पड़ी, स्वयं-प्रभा-प्रकाशित,
निरख । 
कहाँ ज्ञान की प्रभासित ज्वाला ।
मन के विशाल अपार प्रांगण में,
ज्ञान की, दुग्ध धवल विमल आभा में,
सत्य शोधन संकेतों की, खली अधखुली बंद पड़ी,
प्रज्ञा की, ज्ञान-गर्भित, गरिमामयी, अलभ्य मंजूषा ।
निरख ! मनः-क्षितिज पर, हिरण्य-कलश लेकर,
उतर रही,प्रभा विकीर्णित सस्मित, उषा ।
मत भटक, कंटक वन में ।
शूल ही शूल भरे पड़े हैं, दुःख आप्लावित पीड़ित जीवन में ।
जन्म-जन्म के, ये ताजे क्षत ।
किसी, सुनहले सपनों ने,
कभी भी, नहीं सांत्वना दी ।नहीं, सुश्रुषा की ।
आजन्म कराहता रहा मानव मर्माहत,
अनवरत टीसों से आहत ।
कभी किसी के भी, वेदना-विदग्ध-व्यथित,
आँसू, बहे, जितने भी वे,
नहीं, इन्हें शीतल कर पाये ।
असाध्य ये, निदान रहित ।
पीड़ा देते, व्यथा मरोड़ लहरों से भरते,
गहरे ही होते आये ।
हाहाकार मचाता, अन्तर-रोदन,
करता रहा, निरंतर, ह्रदय-मंथन ।
इन, खुले ताजे लोहित क्षतों पर,
समय,
केवल दोनों हाथों से, नमक ही, रहा झारता,
और तड़प देखकर,
निर्मम जग कुटिल सदैव स्वयंग रहा मुस्कुराता ।
सब देते हैं साथ उसी का,
जो मंथर गति से, अप्रतिहत, अवरोध रहित चलते जाते हैं ।
जो, ठोकर खाकर गिरा धरा पर अनाथ,
नहीं बढाता, कोई उसके प्रति स्नेहिल हाथ ।
नहीं समय ।
नहीं साथी ।
कोई होता उसपर सदय ।
अतः उठ । स्वयं कर परीक्षण अपना ।
अपनी ज्योति स्वयं जला ।
देख, मनः-कुटीर के घन तमस अन्धकार में,
अपनी निरीह निसंगता ।
सूनेपन में, कितना कुछ जो था संजोया,
क्षत विक्षत टूटा बिखरा ।
अपना यह फैला संसार समेट ।
मत ह्रदयघातों को,
दुनियां की वितृष्ण ज्वलित आँखों की धूप में सेंक ।
हो निर्द्वंद, कर सब,ग्रंथित छंद भंग ।
निर्बाध पवन, उन्मुक्त ज्ञान गगां ।
कर उन्मुक्त यहाँ विचरण ।
यहाँ, नहीं विषमता ।
एकछत्र व्यापक समता ।
नहीं विशिष्टता ।
नहीं अशिष्टता ।
एक समान सब प्रच्छायित ।
स्नेह,प्रेम, सत्य, मैत्री कि विराट विशाल छाया ।
जन्म जन्म का तपता प्राणी,
इस वात्सल्य-वटवृक्ष-छाया में आया ।
लेकर गहरी सांस, चिंतन निरत रही अम्बा ।
आह सत्य । अकाट्य सत्य ।
अनगनत जीवन-मरण, नाना परिवेशों का प्रत्यावर्तन ।
जाने कब से क्यों ?
कर रहा जीव निरर्थक अथक भ्रमण ।
यदि यह कष्ट मात्र एषणाओं का ही किंजल्क जाल,
भग्न न हुए, अब तक क्यों, ये लिपटे संकुलित मृणाल तंतु ।
किसके संकेतों पर क्यों, लेता है जीव बार बार जन्म ।
यह मात्र इच्छाओं का भ्रम,
तो जीव या  प्राण या कोई शक्ति,
जिससे यह जीव अभिव्यक्त,
क्यों नहीं नष्ट होती, एषणाओं के संग ।
क्यों यह शाश्वत अहंग,
यह जीव, क्षरित विशीर्णित होकर भी,
कहीं अवश्य संजीवित स्पंदित है ।
कहीं न कहीं प्रवेश-प्राप्ति, निमित्त,
सदैव रहता तत्पर है, आकांक्षित है ।
फिर, किसका जन्म ।
किसका मरण ।
कौन निरंतर धावित है ।
यह ।
इस विराम ।
इस प्रश्न पर,
क्यों हो जाते सब ज्ञान विज्ञान तर्क वितर्क मौन ।
यह कौन चिरंतन सूत्रधार ।
प्राप्त जिससे जड़ जंगम को आधार ।
अबतक जो हो न सका ज्ञात ।
केवल पुष्पित वाक्-वैचित्र्य,
क्यों हैं, संधान निरत सब मौन ।
अचिन्त्य अगम की भाषा,
अति दुरूह जटिल परिभाषा ।
मात्र यह प्रश्न ।
है इतना ज्वलंत मुखर,
कर न सका, कोई अबतक गौण ।
जो, मोक्ष के द्वार पर  खड़े हुए,
क्यों वे, पुनः अवतरित हुए ।
संसार-वेदना अपार ।
ये अवतार भी, नहीं सके इन्हें उतार ।
इच्छाओं की समाप्ति पर,
अंकुरित उसी क्षार में,
फिर सवांस लेती, कोई इहा ।
यह रहस्य अभेद्य, इसे न कोई जान सका ।
तर्क की निःश्रेणी से क्रमशः ऊपर चढ़ते हैं, प्रज्ञावान ।
तर्क करता है अति सूक्ष्म ज्ञान का, आह्वान ।
किन्तु, जहां पंहुच कर,
समस्त ज्ञान-वैभव-प्रकाश निरख कर,
नमस्कृत होता है,
स्वयं ज्ञान-सुरभि-श्रद्धा, का पादुर्भाव होता है,
वह, हाथ पकड़ कर शनैः-शनैः उससे भी आगे ले जाती है ।
जहां, तर्क, ज्ञान, विज्ञान, जिज्ञासा,
सब कुंठित, शमित हो जाती है ।
अतः तर्क न कर अम्बे ।
अमृत में, तर्क हलाहल, मत डाल ।
यह, मात्र प्रकाश दिखलाता है ।
मार्ग विरल, सुलभ हो जाता है ।
श्रद्धा के विकसित रसः-आप्लावित सहस्र शतदल पर,
पीत स्वर्ण सा, ज्वलित, सत्य प्रकाश, हिरण्यगर्भ, निरख ।
निसंग निर्विकार होता, जीव,
उस अमृत पद में, एकाकार ।
निष्कल्मष ,निष्कलंक, निर्वात, निशंक ।
अचल, वह स्थित प्रकाश,
व्यापक, विशाल, विस्तीर्ण,
आर-पार, उसे, देख ।
उस अपने एकांत क्षण में,
समस्त तर्क वितर्क दबाकर निज उद्वेलित वक्ष में ।
उसके मानस ह्रदय कमल सहस्र पत्रों पर,
थे अवस्थित,जो, पावन पुनीत कंज कमल श्री-चरण अवदात ।
श्रद्धा पराग स्नेह सुरभि-मीलित,
हो रहे थे वे, अविराम अजस्र झर, झरित अश्रु स्नात ।
उन काल्पनिक अभूतपूर्व अलौकिक ज्योतिर्मय,
चरणों पर रख निज तप्त शीश,
नत प्रणत विकल बोली-
हे ! जीवन-स्वांसों के संजीवन ।
हे ! करुनानिधान ।
हे अमृत-पद-त्यागी ।
रागातीत,परम विरागी ।
तू ! सत्य-प्रकाश-आगार । वेश्व वेदना सम्भार ।
करबद्ध विनत मोक्ष रहा खड़ा तेरे द्वार ।
कर सतत उसकी अवहेलना,
तू स्नेह सुधा,निसृत करता,
अविराम रहा, पीड़ित तपित जग को, बारम्बार पुकार ।
तव प्रकाश प्रखर दुर्द्वश ।
काषाय वसन फाड़ उदभासित ।
समस्त भुवन चकाचौंध प्रकाशित ।
मलिन पड़े समस्त रवि शशि उड्गण खचित ।
पतित पावनी गंगा, अनगनत धारा निसृता प्रवाहित ।
भींग गए, जल-थल-नभ ।
उज्जवल प्रकाश-प्रभा-उदभासित-ज्ञान उदधि अपार ।
तू परम शांतिमय । शाश्वत सदय ।
अनन्त अभंग अटूट प्रगाढ़ विश्वास ।
परम तृप्ति,तृषा निवारक । शीतल शमित प्यास ।
हे । विशाल आश्रय दाता । अंतिम आवास ।
यह, जन्म जन्म का, पथ श्रांत क्लान्त प्राण पथिक ।
तव, अक्षयवट-चिर शाश्वत, शीतल छाया में आया ।
तेरा महान शान्त आप्तकाम, चीवर ।
तप्त ज्वलित निरभ्र नील गगन में,
पीयूषपुंज सजल सरस सघन श्याम जलद सरिस,
आर-पार, स्नेहिल दुकूल बन, लहराया ।
जली धरा या जला मन ।
तू सबपर एक प्रकार कष्ट-निवारक, शीतल अनुलेपन ।
नितांत, निभृत, निसंग,कंटक-सैकत-वन । 
उसपर प्रच्छायित तू, सुरभित मृदुल मलयज-पवन । 
संजीवित कण-कण ।
चिरतृषित आकुल प्राण पपीहे का,
तू अजस्र निसृत स्वाती धन ।
सत्य, अहिंसा, करुणा, मैत्री, अपार विश्व प्रेम ।
सर्वदा शाश्वत स्वस्तिमय कुशल क्षेम ।
साक्षात शोक-विमोचन । विमुक्ति-सन्निवेश ।
तू ही अमृत-मंथन-अवतरित, विश्वमोहिनी रूप, अशेष ।
अमृत कलश ।
पावन सन्देश ।
अंततः हे परमेश्वर ।
हे परेश ।
तू ही एकमात्र निरालम्ब का,
अंतिम शरण ।अंतिम शरण ।
अशेष ।
हे समस्त भुवन-वंदन ।
त्रिविध ताप-हरण ।
आर्त-ह्रदय, निसंग वरण ।
शिरसा नमामि ।
प्रानिधाय कायम ।
तव स्वस्तिमय अमृतमय श्रीचरणम्  ।