Thursday, 21 July 2022

सर्ग -१ - जन्म

सर्ग १ : जन्म


अनुत्तरित, अलौकिक, अगम्य,

परा चेतना विधान .

अनगनत प्रश्न-विशिख-विधी,

जीवन मुस्कान.

फिर भी करती,

वह,

नव अंकुरित एषणाओं का अव्हान.

जीव !

क्या है जीव ?

निष्कलंक निर्मल स्वच्छ पारदर्शी प्रकाश.

या,

विस्मृत, प्रगाढ़, अटूट विश्वास.

कोई,

निर्विकार ! निराकार !

उसकी अह्मपूर्ण सत्ता की –

साकार रूप अभिव्यक्ति.

एक,

अनन्त अजस्र प्रवाहित महाशक्ति स्रोत का,

लघु कण,

धरा पर उत्क्षिप्त.

कोई आकांक्षा,

आमूल विदग्ध अभिशप्त .

लेता है जन्म,

जीव,

प्राप्त, स्पृहाओं का अंध क्रोड़ .

बंद कपाटों का,

महाविराम.

अंध-वीथियों का अगम्य मोड़.

देता है कौन उसे, दिग्भ्रांत, भटकने को,

निर्ममता से, निसंग छोड़.

जो शाश्वत अभंग अभेध निवॅन्ध स्वछन्द

एक लघु स्वांस को,

किया क्यों पंचतत्व-कारा-कैद-आमरण-बन्द

क्यों एषणाएँ  उनमे जाग उठी .

क्यों मन में यह तरंग जगी.

मै भी रहूँ ,

प्रकृति के नैसर्गिक चित्र-विचित्र,

सौच्छ्वसित अंतर-उद्गारों में.

पल-पल परिवर्तित , सुरभित,

अभिनव-विकसित,

बासंती-मलय-विचुम्बित,

ऋतू रंग-बहारों में.

सात्विकता का अवतंस अंश.

त्वरित कर्षित अवरोहित,

उन्मुख,पंचभूत-कोषों में,

अवडीन, अभिभूत, मंत्रमुग्ध, प्रलोभनों में.

उर्ध्व, पतित,

सतत, निसृत.

अनाम था,

वह !

नामकरण,

जी-व !

चित् मनः आकाश .

व्,

पवन, निवास !

प्राणों का वासस्थान,

जीव !

विगत विस्मृत,

वर्तमान विडंबित.

पंचतत्व-सहस्र पत्र पर

वह,

कम्पित एक तुहिन कण .

वृत्तियों का किंजल्क जाल .

माया का विस्तीर्ण इंद्रजाल.

बंदी प्राण सुरभि .

यही .

विश्व-चेतना-विधान

आवागमन चक्र आघान .

हो गया,

गत, आगत, वर्तमान से,

नितांत अनजान.

प्राण अवतारणा .

प्रकृति संरचना.

जीवन-मरण-स्पंदन-क्रम.

सर्वत्र प्रच्छायित पीड़ित भ्रम.

समय-शिंजनी, अनुरणित

मन ! विकल चकित !

प्रकृति प्रेयसी चंचल नर्तित .

चपल पग .

उठती गिरती ध्वनि,

बनता-मिटता पल.

विश्व !

रंगिणी-क्रीड़ा-स्थल !

पल-पल क्षणभंगुरता, नश्वरता,प्रत्यावर्तन.

यही,

संसृति की अटल,

निष्कर्षमयी नियति-निवेदित, परिभाषा.

जन्म.

उसका, उच्छ्वास.

प्रकृति.

हो पल्लवित, पुष्पित, फल-भार नमित  .   

अन्तोगत्वा अंतिम परिणिति.

नारीत्व चरम.

मातृत्व-लक्ष्य.

चिरकांक्षित अभिलाषा.

विप्पसी बुद्ध के, इक्यानवे कल्प पूर्व,

महिपति वन्धुमा की ज्येष्ठ आत्मजा

खड़ी थी,

बुद्ध-कुटीर में.

चंदन चूर्ण विकीर्णित कर सर्वत्र,

थी,

मन ही मन प्रार्थना-निरत .

है.

कंचन-काय-वदन.

सत्-चित्-आनंद .

जिस प्रकार,

कौशल्या-साकेत-महिषी हुई समादृत ,

देवकी और यशोदा हुई आह्लादित.

उसी प्रकार,

मुझे भी करें गर्वित.

महिमामयी महियशी माता होने का,

सौभाग्य प्राप्त हो.

मेरी गोद.

तव प्रकाश-मुदित-मंगलमय हो.

बीते जन्म पर जन्म.

किसे ज्ञात, प्रकृति मर्म.

पड़ी,

विगत स्मृतियों पर कितनी धूल.

किन्तु,

सुप्त चेतना में,

अनजाने चुभता रहता है कोई शूल.

किसे ज्ञात.

विगत जन्म.

वर्तमान में भी, कब अपनापन.

निसंग.

स्मृति-शल्य-विंधा, पीड़ित मन.

वह.

राजकुमारी बनी,

कपिलवस्तु राजनृप की महिषी .

व्यतीत हुए वर्ष पर वर्ष.

नहीं कोई हर्ष.

सूनी गोद.

गहन सोच.

रानी का मन अकारण आकुल.

चल रही मन में आंधी.

सुप्त विस्मृत स्मृतियाँ जागी.

एक बार.

सांध्य प्रहार,

महामाया ने देखा .

शांत शुभ्र ज्योत्सना-स्नात-नीलगगन.

था खिला,

स्वर्ण थाल सा.

रजत कमल किंजल्क जाल,

आषाढ़ का वर्त्तुल,कान्ति अतुल,

ज्योतिर्मय पूर्ण चन्द्र.

था शीतल सुरभित पवन मंद-मंद.

सर्वत्र  झूम रहे

लता गुल्म रसाल पुष्प-भार.

सौंदर्य सुधा-स्नात.

था,

चांदनी का अजस्र दुग्ध धवल प्रपात.

नारी मन !

सुरभि भार उन्मन !

श्लथ.

शनैः शनैः शयन कक्ष की और बढे चरण.

मन !

भरा-भरा अवश .

लेकर एक गहन निश्वास.

पर्यक पर लेती रानी.

निरख रही थी,

चन्द्र-मुकुर में,

निज रूप, नीरस-निरख.

किस प्रकार इठला रही थी,

रूप गर्विता तुषार-निर्मिता चांदनी.

अपलक जग.

मौन देखा,

वर्तुल चन्द्र.

जाने कब कैसे हौले-हौले,

पैर दबाती आई,

नींद उनीदी.

प्रगाढ़ शयन.

तन-मन सौख्य-अयन.

उतरा कब.

मन-प्रागंण में,

किंजल्क जाल सुरभित केशर कुंकुम,

मधुवन में,

एक अलौकिक अपूर्व अप्रतिम महिम,

स्वप्न.

पूर्व दिशा से हो रहा था,

अवतरित,

दुग्ध धवल उज्जवल ज्योतिर्मय प्रभापूर्ण,

गौरवशाली अति श्रेष्ठ,

एक कलभ.

उठा, सुघर तुंड,

था, आबद्ध,

एक रजत कमल सहस्रदल,

ज्यों दीप्तिमान,

उज्जवल इंदु.

तीन बार पर्यक प्रदक्षिणा कर,

हो गया, वह,

कुक्ष में अंतर-ध्यान.

सपने में भी,

रानी का मन.

हो उठा उद्वेलित .

वह सहसा चकित,

हो उठी जागृत.

आह !

यह कैसा प्रतीकात्मक सन्देश-वाहक,

स्वप्न.

 

क्यों ?

श्वेत वक्रतुंड को,

रजत कमल शुण्ड,

लिए,

देखा मैंने.

वह.

हंस,मयूर,वृषभ, मृग, नीलकंठ,

चातकचेती, चकोर, चकांग, पपीहा.

कुछ भी हो सकता था.

श्वेत गज.

सात्विकता, परम शान्ति,

निर्मूल भ्रान्ति का द्योतक.

भुवन विदित सप्तलोक प्रकाशित

विघ्न निघन करम् अंतिम शरणम,

सुख सौख्य स्मृद्धि वरदायक वरेण्यम् .

गज गणेश या विनायक.

निष्कल निरंजन दुःखत्रिताप भंजनम्

पराज्ञान परिचायक !

 

ग –

कूटस्थ ज्ञान, यतिगण-लक्ष्य-संधान !

परम व्योम, उत्तम लोक, वर-अमोच,

नील निर्मोक.

ओंकार स्वरूप,

पूर्णम परेशम् ,सुरपदम्-दिनेश.

परम प्रखर प्रचंड प्रभासित,

सप्तलोक मार्तंड उद्भासित.

उद्घोषित, पूर्ण ब्रह्माण्ड महत्वाकाशं.

विस्फोटित, घोर निनादित अनुरणित गुंजित कण-कण झंकृत.

महावाक्य ‘त्वम प्रत्क्षयम तत्वमसि’

वय्क्ताव्यक्तम अच्युत अविनश्वर.

अग्रपूज्य गजश्रेष्ठ वरेण्य

अध्यात्मजगत दिनेश्वर.

शब्दब्रह्म नाद वर्ण रूप रंग

प्रकाश विस्फोटक

महत्वाकाशं उद्भावक,

सर्वज्ञ समग्र श्रृष्टि धारक.

गणप, तत्वनाम् परम तत्वम् ,

षोडषान्तपदावासम.

 

ज-

मांयिक, प्रपंचजाल विस्तारित संहार सृजन

सत-रज-तम पूर्ण्,

प्रलय आदि-अंत समाहित

श्रृष्टि उत्पत्ति,

वृत्तिजाल फुन्कारित स्पृहा व्याल.

 

अतः

गज-अध्यात्म क्षेत्र का विचरणकर्ता .

पूर्ण ज्ञानबोध निर्वाणशोध .

पूर्णानंद परानंद.

गंडस्थल-मदःझरित

अजस्र ज्ञानामृत निःसृत.

वक्रतुंडः-ब्रह्म रूप मस्तकम् .

मायारूपं अधोकण्ठम.

मायाः-ब्रह्म सम्मोहनी.

भक्ति परम पद अनपायनी.

जाज्वल्यमय प्रखर प्रकाशित रजतकमल.

सुशोभित

उत्थित स्वस्तिमय शुभ शुभ्र शुण्ड.

शुण्ड-अव्यलोक, अव्यय मायाभंजित,

प्रपंच विखंडित.

निष्कल नीर-क्षीर निर्णायक.

त्वरित तीव्र तीक्ष्ण सुगंध अवगाहक.

प्रज्ञा विवेक परम ज्ञान का परिचायक.

 

अमृत स्वरूप अनूप एकाक्षर.

अ, उ, म, ब्रह्मा, विष्णु, महेश.

श्रृष्टिकर्ता, पालक, संहारक,

सत्-चित्-आनन्द अशेष.

राग-विराग, संहार-सृजन,

महारंग रंग अमंद

कं खं साक्षात ब्रह्म.

श्रीह्रिद्यम् आधारपीठम् घृति बलम्

मूल मरूत प्राणम् .

अघोक्षजम् अव्ययम् .

गणेश-तत्व जलम,

सम्पूर्ण विलय, महाप्रलय.

ण-निर्वाण-सन्निवेश,

वट-पत्रशायी,

परा-अपरा र्वीभूत,

निर्धूत, सर्व रूप विपर्यय,

श्री चरण-नीच.

समस्त नश्वर अविनश्वर,

गणों तन्मय, मह्त्वाकांशम्,

दश इन्द्रियों एक मन का स्वामी- ईश.

गणेश !

गणेश-ब्रह्ममूर्घा, सहस्रशीर्षा,

सारस्वताश्रय सह्स्रपत्र नीलय,

घ्रिणि कवि देवार्थ नृगजाकृति,

पूर्णब्रह्म, ब्रह्मणस्पती, वाकपति, कान्तदर्शी,

महावाक्यसंदोह, तात्पर्य मूर्ति, अनंतश्री,

अक्षयकीर्ति भवशीर्ष सारं, सुरस्तोमकार्य,

क्षिप्रप्रसादन, अमोघः ओंकाररूपं ,

ब्रह्मस्वरूपम, वर्णविधान, श्रृष्टि आघान,

सात रश्मियों का दानी.

सात्विकता का अभिमानी.

विनायक-निराकार-साकार.

निरंजन,

इहा-व्याल भंजक वैनतेय परम श्रेय          

रजत-कमल –

सप्तलोक सहस्रार विकच विमल.

जल-थल-नभ,

चौदहों भुवन सुरभित.

कीर्ति-कौमुदी अमल विकर्णित.

पूर्ण ब्रह्म प्रखर प्रभासित.

प्रकाश पारावार प्रकाशित आप्लावित.

र-. अग्निबीज.

ज- विष्णु, मोक्ष, शून्य.

त- अमृत.

क – ब्रह्मा, विष्णु, इष्म.

म- शिव, चन्द्रमा, जल, यम.

ल- इंद्र, गमनशीलता.

अतः-रजत कमल-

अमृत पद-संकेत.

सौख्य, समृद्धि, सौभाग्य,

अभ्युदय अभिषेक.

ब्रह्मरन्ध्र, सप्तज्ञानालोक,

सत्य-संध-सह्स्र्सार,

सहस्रदल विकच झलमल.

अचल अविचल युगल दम्पति सदाशिव-

त्रिपुरसुंदरी, निष्कल निश्छल.

गज, गणेश,विनायक.

परम ब्रह्म ज्ञान परिचायक.

 

महामाया की उनींदी आँखों में

अभिलाषाओं का बहुरंगी प्रभात मुस्काया.

संभव है यह शुभ स्वप्न.

चिर अभिसिप्त लेकर आया.

मै भी.

कौशल्या, यशोदा, पार्वती, अदिति सी होऊँगी

परम गौरवान्वित सौख्य मुदित.

यह साक्षात अग्रपूज्य वरेण्य गणेश का

अवतरण.

दुःख भंजन.

पुलकित, तन-मन-जीवन.

जल-थल, अग-जग, नील गगन.

सोचा रानी महामाया ने,

यह कैसा आमंत्रण.

किसका आवाहन.   

अंग-अंग रोमांचित कम्पित.

किसी अप्रत्याशित के प्रति अधीर प्रतीक्षित.

क्यों ह्रदय कमल पर.

सात्विक पीयूष पुंज का वर्षण.

क्या ऊजर्स्वित उर्वी पर हो रहा

समुद्र का मंथन !

अमृत का दोहन !

क्या मनः-आकाश से,

हो रहा अवतरित शाश्वत

निष्कल परम ज्ञान चेतन.

प्रज्ञा का तीव्र प्रकाश.

आलोकित तन, मन, आत्माकाश.

दे रहा यह किसका आभास.

नृप शुद्धोधन ने रानी महामाया को,

विषण्ण मन चिंतन रत देखा.

रानी के अति गरिमामय

गौर वर्ण विग्रह पर

थी

क्लान्तता शि‍थिलता विषाद की रेखा.

शीघ्र ही नृप ने

चौसठ नैमतिक ब्राह्मणों को किया निमंत्रित.

सब प्रकार से पाद्य अर्ध निवेदित कर

उनका स्वागत, अभ्यथॅना सत्कार कर,

करबद्ध विनीत किया अभिभाषण.

श्रीमन् !

रानी के स्वप्न पर रंचक विचार करें.

शुभ अशुभ जो भी संकेत मिले.

शीघ्र उसका प्रतिकार करें.

सारी रात रानी अति अधीर विकल रहीं.

जो कुछ भी उथल-पुथल मची मन में.

कुछ भी किसी से वह कह न सकी.

गणना कर देखें.

रानी को किंचि धीरज दें.

कुछ क्षण मौन रहकर,

गणना कर,

सब ब्राह्मणों ने एक साथ कहा-

राजन !

आदरणीया परम सौभाग्यवती रानी ने

मातृत्व सोपानों में चरण रखा है.

स्वप्न अतीव शुभ है महाराज,

जो भी नवजातक जन्म लेगा

वह.

युग प्रवर्तक होगा.

वह.

यदि ग्राहस्थ धर्म में प्रतिष्ठित रहेगा.

निश्चय होगा.

चक्रवर्ती सम्राट.

यदि हुआ कहीं सन्यस्त.

होगा निश्चय,

वह,

बुद्ध,

विवृत्त कपाट.

मानव मन .

कितनी उलझन.

रानी हुई प्रसन्न.

नतशीश, चिन्तामग्न.

रानी ने सोचा.

हुई सफल.

किसी जन्म की प्रार्थना.

पीड़ित अंतर तपः-साधना.

मन भीतर ही भीतर,

मधु आप्लावित महका-महका.

जीवन.

रस सौरभ मंजरित,

प्रति पल झूम रहा.

उदय हुआ सकल पुण्य.

जीवन.

केवल इसी निमित,

नहीं अपेक्षित अन्य.

मनः-आकाश-स्नात-उत्कुल

दुग्ध धवल चांदनी.

रानी,

माहिमामायी पयस्वनी मन्दाकिनी.

नारी का समस्त सौंदर्य सारभूत,

मातृत्व,

निष्कर्ष-निचोड़ अभूत.

दिवस पर दिवस.

हुए व्यतीत.

फल-भार स्वर्ण कमल पी.

एक दिवस.

सोल्लासित कहा महामाया ने

आज.

वैशाख पूर्णिमा पुष्य नक्षत्र .

मन ! पृत्रालय गमन, अति व्यग्र.

राजा शुद्धोधन ने आदेश दिया.

देवदह जाने के निमित्त

समग्र उपाधान हुए प्रस्तुत .

राजपुरुष, राजवधुएँ, राजभृत्य,

स्वर्ण शिविकाएं हुईं सज्जित,

समस्त भोज्य सामग्रियां,

रानी के उपचार निमित्त फल फूल,

औषधियां,

और नाना प्रकार के उपहार स्वर्ण खचित,

परिधान, सजे मंजूषा में.

पूर्ण राजकीय वैभव.

प्रभुता मना रही थी उत्सव.

निज परिचारिकाओं के संग,

भर मन में अतीव उमंग.

रानी ने पितृ-गृह को प्रस्थान किया.

शिविका के पटल हटाकर,

सस्मित चकित मुदित,

देख रही थी,

रानी,

प्रकृति का ऊर्जस्वित वन वैभव विलास.

ऊपर निर्भर नीलमणि सा,

स्वच्छ धुला आकाश.

उज्जवल वक् पंक्तिबद्ध,

पंख हवा में फैलाकर अह्लादित,

उड़ रहे थे अंग अंग में भर उल्लास.

था रानी का तन,

मातृत्व भार से खिन्न विषण्ण.

निरख मन  ही मन मुस्काया.

आदि-अंत, दोनों करबद्ध.

सूर्य, चन्द्र बनकर लहराया.

आकंठ जल में स्नात,

मुग्ध विभोर,

देखा महामाया ने सर्वत्र.

सघन संकुलित श्यामल प्रच्छायित पल्लवित,

विशाल तरू के तले,

लता, गुल्म. गुल्म परस्पर एक दूसरे से,

आलंगित लिपटे मिल रहे गले.

पुष्प भार मंजरित सुरभित पुष्पित,

झूम रहे शाल.

सांध्य रविकर-सप्त रंग किरण,

नवल हरी तरू शिखाओं पर

बिखेर रही चित्र विचित्र रंग चूर्ण.

इत्र तत्र पुष्करिणी निर्झरिणी.

कुवलयों के मिस मनः उद्वेलित नव उल्लास.

प्रकृति बनी अभिसारिका.

हरित पुष्पित सुरभित

बहुरंगी पहन चूनर उपसंग. 

मदः-विभोर अलसित अंग-अंग.

पुष्प पराग केशर,

अनुलेपन पत्र भंग.

भ्रमरावली पद, क्षुद्रघंटिका शिंजिनी निःस्वप्न,

चपल चंचल पग नर्तित,

यह सौंदर्य.

अति अनुपम परम पवित्र अनूठा.

रंगिनी.

सघन श्यामल प्रच्छायित देवदार चिनार,

अंगारक, अश्वत्थ, अमरफल, रसाल.

कहीं वन कुल्यायें,

कही बह रहे जल प्रपात,

खिले तड़ागों में चित्र विचित्र जलजात.

परस्पर संलापों में,

क्रीडा कौतुक में पच्चीस गव्यूति की दूरी,

अनजाने में बीत गयी.

आ गया, लुम्बिनी का मनोरम उद्यान,

कपिलवस्तु की सीमा छूट गयी.

यह.

मनोरम नैसर्गिक पुष्प भार मंजरित,

सुरभित रमणीय कानन,

था शाक्य महिषी लुम्बनी का

चिरकांक्षित विजन वन.

महामाया का मन उन्मन उन्मन.

हुआ निरख.

उत्फुल बदन

रानी का सुंदर आनन.

वहाँ उतर कर विश्राम हेतु योजना बनी.

महामाया अति प्रसन्न.

देखा, पश्चिम में रक्तवर्ण,

दिवस क्लांत दिनमणि.

शाल वृक्षों की हरी शिखाएं,

हो रही थी अरूणाभ हरिताभ सुरमयी.

पक्षियों का मधुर कल कूज़ं.

विश्राम निमित गुम्फित हरी पल्लवों में,

उनका अवरोहण.

रानी पथ-श्रम-भार क्लांत.

स्वेद निकर से तपित अशांत.

वहाँ उतर एक स्वच्छ तड़ाग में,

मनः-तृप्त कर स्नान किया.

जल पर,

थी प्रतिबिंबित,

उनकी कान्त कमनीय अपूर्व छाया.

उसी जल मे,

पूर्व का उदित चन्द्र,

और,

पश्चिम का गमनशील दिनमणि.

दोनों का प्रतिबिम्ब निखर आया.

अवतरित निसंग एकाकिनी

अरण्य चंद्रिका.

अनुत्तरित रूप.

हियःपूर्णित अचूक हूक.

अभूत सम्मोहन

मनः-दर्पण.

हो रहा कहाँ किसे समर्पण.

पड़ती जिस जल पर छाया.

वह.

सौंदर्य संभार विकल अकुलाया.

अक्षम भार वहाँ करने में

व्यालोलित लौल लहरित जल,

अंजलि भर भर रहा उछाल.

उज्जवल हीरक जल प्रपात

कुसुमित मुकुलित जलजात.

सांध्य लालिमा,

श्याम हो चली.

उतर रही ज्योत्सना.

कर में,

सुधा रसपूरित पूर्णघट सुधाकर.

रानी ने देखा मुग्ध धवल नभ

सत्वर आई तड़ाग तट.

आरोहण क्रम में चरण तले,

कोई पत्थर आया,

डगमगाई रानी

सम्पूर्ण तन बल खाया.

प्रसन्न सद्दःस्नात कंज अवदात आनन पर

पीड़ा की श्यामलता.

मन सहसा घबड़ाया.

वह बीस कदम भी चल नहीं पाई,

दक्षिण कर से,

उसने शाल वृक्ष की झुकी डाल को पकड़ा.

मन में कुछ खड़का.

आशंकित आकुल अवश कम्पित तन.

कुक्ष में, घूर्णित प्राणान्तक आकुंचन.

आह ! यह कैसा प्रबल प्रभंजन.

आमूल झकझोर उठा.

अंग-अंग,

आंधी सी उठी तीव्र मरोड़ मूर्छना.

आँखों के सम्मुख अर्ध चेतन शिथिल

चेतना ने देखा धुंध चढ़ा.

यह क्षण.

जीव.

विगत अनगनत जन्मों का,

स्पष्ट साकार अंकन.

शयित प्रकृति आसन्न प्रसूता नव-जागरण.

अभिनव-सृष्टि आमंत्रण.

रानी,

गरिमामयी महिमामयी जननी.

यह वह सन्धानित चिरकांक्षित,

क्षण.

काल,

ढीली करता है,

जन्म-मर-अवधि-शिंजिनी.

यह,

स्वांस निःस्वांस काल का,

जीवन,

मात्र एक क्षण,

इसके अंतराल का,

क्या है जीवन.

शाश्वत अनुत्तरित प्रश्न.

जन्म तिथि,

भाग्य विधी.

प्रारब्ध, दैव, नियति अवृष्ट.

स्वर्ण जाल में दोलित नवजात शिशु.

ज्यों मंडलकार प्रभा पुंज में,

केंद्रित पूर्णेन्दु.

चार महाराजाओं ने मृग-चरम में

उन्हें

सादर आच्छादित किया,

तदोपरांत

राजपुरुषों ने दुकूल वैत्र-पात्र,

में ग्रहण किया.

कौशेय दुकूल से बाहर आकर,

प्रभु,

खड़े हुए,

उत्फुल्ल अम्लान सद्द विकसित,

शाश्वत नवल अमल सरसिज सुरभित,

हीरक तुहिन निकर,

खचित सज्जित मुदित.

साक्षात् उद्भासित हिरण्य गर्भ.

मर्दित कोटिषः अर्क दर्प.

सहस्र पत्र कमल दल में.

केशर परिमल पराग मरन्द मीलित,

ऋतुराज रंग विलास उल्लास लास मुदित.

मन-वृन्दावन में.

हृद-कुवलय-मानस में.

परम प्रसन्न प्रसाद पूर्ण लावण्य-प्रभ,

मुखारविंद, अप्रतिम गरिमा.

साक्षात साकार,

सत्-चित्-आनंद प्रतिमा.

आकर्णमूल आयत शांत निर्वात वारिश,

सरिस गंभीर लोचन.

प्रथम पूर्व दिशा की और अपलक दृष्टिपात

किया.

ज्ञान-क्षीर-जलधि उत्थित,

यह.

शाप विमोचन.

पुनः पर्यवेक्षण किया दशों दिशाओं का.

उत्तर दिशा की ओर

निरख प्रभु को गमनशील.

चार ब्राह्मणों ने मणि खचित

स्वर्ण छत्र डुलाया.

अन्य अलौकिक देवपुरुषों ने सादर,

खड्ग, उष्णीण, पादुका, अलंकार,

आभरण उपहार

दिया.

प्रत्येक पद के नीचे

एक पद्म खिला.

सात पग,

प्रभु ने धरा.

पंक्तिबद्ध सात शतदल धरा पर,

शरत चन्द्र सरिस विहँसा.

सातवें कमल पर,

अवस्थित,

बोले प्रभु परम प्रसन्न चित.

जगत में, मै श्रेष्ठ हूँ.

यह सात कमल.

सप्त मणि विधान.

अति मानस के सात सूर्य.

प्राण केन्द्र सप्त ग्रंथि अभिभूत.

उन्मुक्त हुए पत्र-पत्र

अमृत अप्लावित सहस्रार शतदल.

अंतः-सलिला खिली दुग्ध धवल चाँदनी.

गुप्त निगूढ़ प्रकाश.

प्राप्त जिसका आभास.

अनगूंज गूँज व्याप्त,

शयित, मनः-वेणु.

स्पर्श मात्र गुंजित अनहत नाद.

अपेक्षित संधान प्रयास निर्विवाद.

पुनः उठी, दृष्टि थमी.

उत्तर दिशा की ओर,

जो था वन वृक्ष संकुलित,

निर्झर प्रपात वन्य सरि सरित निसृत,

अनादि काल की गौरव गाथा,

अंतर में भर,

हिमालय हिम किरीट पहन उन्नत,

अवस्थित सुदृढ़ निर्भय निसंशय.

ज्ञान-क्षितिज पर,

ज्ञान-राशि-प्रकाश-दिनमणि का

लौट-लौट गया,

चित्र विचित्र किरण जाल लेकर,

नव-नव दर्शन विचार मंथन का .

उड़ेल रहा उन्मुक्त ह्रदय से,

समाधिस्थ, ज्ञानी, ध्यानी,

मुनि, योगी, अर्हत,

लेकर निज विमल कीर्ति यश.

यह,

उत्तर दिशा का वन्य पर्वतीय प्रदेश.

इसकी हृदय में छिपी.

ज्ञान-राशि मंजूषा अशेष.

प्राप्त हुआ, कुछ विगत परिचय.

बीते जन्म का तप-कर्म-संचय.

परिचित सी चिर दीन की उत्तर पर्वतीय,

विरल हिम श्रृंखला.

यह स्थान.

जिसने केवल किया प्रदान

शुद्ध ज्ञान.

परम निष्कल सत्य.

यही प्राप्त चिर शांति.

इस स्थान ने , कभी नहीं,

द्दढ़ संकल्प निरत को छला.

जितना ही सूना

उतना ही भरा पूरा.

सम्मुख प्रत्यक्ष साक्षात,

नवजात शिशु,

एकमात्र जीवन आधार.

कर्णधार.

परात्पर प्रभु.

दिव्य आलौकिक उज्जवल उद्दीप्त

प्रखर तेज प्रभा,

बिखरी कान्ति लावण्य की,

मनः-हारिणी मनोमुग्ध रमणीय रजत,

ज्योत्सना उच्छल तरल

तरंगित स्वर्गंगा.

आकंठ स्नात नील गगन.

भाव विभोर विसुध वसुधा.

सहस्र धारों में सर्वत्र प्रकाश-प्राप्त झरा.

उद्वेलित अतूर्त अत्युर्मियों की,

गगन घर्षित तरंगित प्रभा माला.

आप्लावित अमृत मंथित

संजीवन मादक हाला.

लुम्बिनी वन प्रान्त.

शोभा सौंदर्य उल्लास मुदित अपार.

मंगल वाद्य सस्वर तरंगित उन्मन.

रानी.

उल्लास भरी,

जो थी मनः-कामना.

वह आज वनस्थली में पूरी हुई.

अनिमेष अपलक देखा शिशु को

ह्रदय लगा विभु-मुख को

समस्त सज्जा के संग,

भर अतिशय उमंग.

लौटे समस्त राजपुरूष

कपिलवस्तु.

सुना नृप ने

शुभ जन्म पुत्र रत्न का,

समस्त नगर में

शंख ध्वनि के संग सवर्ण मुद्रा लुटाया,

जो भी आया द्वार पर,

उन्हें दान उपहार भरपूर निवेदित कर,

लौटाया.

आदेश दिया.

शीघ्र आमंत्रित करो

राजपुरोहित को.

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