हंस
हंसः ! हंसः !
ध्वनित सर्वत्र
भुवन.
अक्षर शब्द
व्याप्त कण-कण.
नाद-ब्रह्म,
विस्फोटित,
समस्त
रूप-विपर्यय,
उदय-अस्त.
गुंजित अंतर
मनः-नील गगन.
रूप-अरूप.
सत्-चित-आनंद.
अणु-अणु में
संजीवन.
वर्त्तुल नर्तन.
प्रतीक,
कदम्ब शत-शत
गुम्फित पुष्प.
बंद उदुम्बर-सम्पुट
में
जीवन स्वच्छंद.
यह निष्कर्ष सार्थक,
उपनिषद-सार तत्व.
वेदान्त अंतिम
वाक्य, अकाट्य तथ्य.
“ सोऽह्म तत्
त्वमसि.”
हंसः !
सहस्रार मध्य
संतरित.
निष्कल ब्रह्म
उद्घोषित.
आज वही मानस मराल.
क्षत विक्षत
रुधिर स्रावित
रक्त स्नात.
निरख सम्मुख साक्षात्
काल.
गिरा
धरा पर.
मरणासन्न.
अत्यंत निरीह
निराधार निस्सहाय विकल.
वक्ष रक्त रंजित
निसृत,
अर्ध नयन निमीलित
अश्रु विमुन्चित.
निर्वाण
मुक्ति सिद्धार्थ,
विकल हंस विवश
आर्त.
संधान निरत शाश्वत
आवास.
लग राजकुमार के
वक्ष,
कर रहा करुण
प्रयास.
स्नेह पारावार
अपार.
आश्वस्तिमय
सांत्वना पूर्ण प्राप्त,
ऊर्ध्व टूटते भग्न
स्वांस,
कम्पित
व्यथा-विदग्ध,
तन-मन-गात
भयभीत चाक्षु चंचल
झरित जल-कण.
जीवन.
किस जीव की पुकार
है. यह.
मृत्यु के प्रति
दीन पराजित
चीत्कार है.
पानी का नन्हा
बुद-बुद.
एक पवन का झोंका.
बस.
इतनी पहचान है.
इसके क्षण. नींव
रहित अल्प.
मृत्यु अनिवार्य,
नहीं, अन्य
विकल्प.
किन्तु,
यह ममत्व बंधन
आबद्ध,
जीव.
जिन सुदृढ़ भुजायों
के बंधन में था,
अवस्थित.
वहाँ था वह शतशः
निरापद और सुरक्षित.
आहत मराल.
थर-थर गात,
अति म्लान विसुध
लोहित.
कम्पित चल-दल-पात.
कर रहा था
कुमार को संबोधित.
नील गगन में,
नहीं थी, शुकों
की,केकी की,
या अन्य पक्षियों की
पंक्ति.
थी बकों की कातार,
क्यों ?
मैं ही गिरा
शर विद्ध दोनों
पक्ष पसार.
कोई भी खगचर घायल
हो सकता था,
श्री चरणों में, आ
सकता था.
पर मैं आया हूँ.
मुझे ही कहते,
मैं रहता हूँ.
मानसरोवर में,
कैलाश में.
सहस्र शतदल
अमृतमय सहस्रार.
मैं ही,
ज्योतिर्मय
अवस्थित उदभासित,
प्राण शक्ति,
मुझसे ही सुशोभित,
सहस्र शतदल अमृत
सहस्रार.
तुम.
इस चिरंतन
प्राण-पथिक की,
पीड़ा हरने आये हो.
आवागमन-चक्र
विरमित करने आये
हो.
मैं.
आज स्वयं सम्मुख
पीड़ित आया हूँ.
परोक्ष में
जग-व्यथा कहने आया हूँ.
जगत एषणा-शाल्यों
से,
मर्माहत,
निदान निमित यहाँ,
तव छाया में आया
हूँ.
अति थकित व्यथित,
कौन अहेरी.
कौन अहेर.
रखो तनिक यह
विवेक.
ध्यान-मग्न
राजकुमार.
सहसा हो उठे
चमत्कृत.
देखा सम्मुख देवदत्त
की भीषण आकृति.
हंस भयातुर लिपट
गया वक्ष से,
देखा उसने,
साक्षात् काल,
अति निकट से.
बोला अति कठोरता
से देवदत्त-
कुमार. इसे मैंने
शरबद्ध किया है,
यह मेरा अहेर मुझे
लौटा दो शीघ्र.
कहा कुमार ने-
देवदत्त.
इस प्रकार न हो
व्यग्र.
किसने मारा, किसका
अहेर,
नहीं रंचक इसका
मुझे प्रयोजन.
मैंने शर खींचा
इसके तन से,
उत्तरीय-चीर से
इसको प्रक्षालित कर,
बांधा. विलग किया
मर्मांत पीर से.
इसकी पीड़ा हरण कर,
निज बाहों में
इसको लिपटा कर
आश्वस्त किया.
भयाकुल जल भरे
नयन,
धड़कते ह्रदय से,
इसने मुझको
रक्षार्थ
कातरता से देखा.
अब यह मेरी शरण
में,
सुरक्षा पा गया.
हो गया निश्चिन्त.
तड़पा देवदत्त-
किन्तु मैं लेकर
जाऊंगा.
प्रत्युत्तर में
धीर स्वर में बोले कुमार,
कदापि नहीं.
त्यागो यह विचार
यहीं,
मत विवाद बढाओ.
जीवन हरण से,
जीवन-दान कहीं
श्रेष्ठ है,
इसे यहीं समझते
जाओ.
जो जीवन दे नहीं
सकता,
अधिकार उसे क्या,
किसी के वह प्राण,
अकारण ले ले.
निष्ठुर प्रकृति
सरिस,
जब जैसा जो मन में
आये,
वैसा ही कर ले.
मानव हो.
उदात्त विचारों से
पूरित.
न करो, इस प्रकार
क्रूरता घृणित.
विकास-चरण गमनशीलता
में,
सचराचर सब, चेतन
संवेदन पूरित.
व्यथा शल्य से है
पीड़ित.
ज्वालामुखी-उद्गार-सागर-ज्वार,
पर्वत ह्रदय फाड़,
सरित प्रवाह.
सब अपनी समर्थता
में है,
मुखरित.
एक सर्वव्यापी
प्राण संजीवनी,
चेतना,
सबमे एक समान
प्रवाहित.
पत्थर, पाषाण,
नदी,
तरु, पादप, जड़,
जंगम,
सब निज
अनुभूति-कथा कहते हैं.
उनकी भी भाषा है.
मूक पीड़ा की
परिभाषा है.
मानव.
निज प्रकृति में
सीमित.
उसे नहीं ज्ञात.
यह विश्व सकल
कितना विशाल
भास्वर अमित.
यह पक्षी.
उसी प्रकृति का है
उपहार.
मात्र अपेक्षित
शुद्ध निश्च्छल
प्यार.
जल रहा जग अनवरत
अपनी असह्य विवश
पीड़ा से,
दे सको तो दो
उसे शीतल संजीवन
स्नेह फुहार.
यह. पक्षी ही
नहीं.
समस्त विश्व ही,
एषणा-शल्य-बेधित-क्षत-विक्षत,
लोहित, रहा कराह.
निकालो बिंधे शर.
करो उपचार.
देवदत्त.
न बन. बबूल का
कटंकित पादप
निरर्थक.
न बन नागमणि का तीखा
कंटक.
कोई तो खोजे
निदान.
शान्त करे तड़पते
प्राण.
आज नहीं तो कल,
मृत्यु खींच रही,
जीवित स्वांसें
प्रतिपल.
कोई जा चुके,
कोई जा रहे,
कोई जायेंगे,
किसी क्षण.
फिर क्यों ?
किसी का प्राण
हरण,
क्यों मनः-ताप
उत्पीड़न.
विश्व-चषक में,
नियति ढाल रही,
केवल,
वेदना-कालकूट-हलाहल.
दुःख का वारिधि
लहराता है.
भंवर फंसा कैदी
जीवन,
सतत् छटपटाता है.
नहीं किनारा. नहीं
घटवाला.
नहीं कहीं,
विमुक्ति. विमोचन.
निरख. यह स्वच्छ
नील गगन.
ये फल भरे झुके
हरित तरुवर.
ये पुष्करिणी,
निर्झरिणी.
क्षितिज चूमती,
श्यामल वनराजि
श्रेणी.
यह.
आहत पक्षी.
स्वस्थ्य होकर,
पुनः लंबी उड़ान
भरेगा.
कभी सरोवर. कभी
तरुवर.
जहां चाहेगा,
सहज विहार करेगा.
इससे तुम्हारी कोई
हानि नहीं.
यह नन्हा जीव.
तुम समर्थशाली का,
मात्र, अनुग्रह
पात्र ही बन सकता है.
एक लघु दया का कण.
इस निरीह का
जीवन-वारिधि बन सकता है.
मानव.
यदि,
दया, प्यार,
अहिंसा, करुणा,निर्वैर मन में रखे,
वह,
स्वंय
इस स्वर्गीय
अनुभूति में,
निर्मल-मन
प्रसन्न,
हृद-भार रहित हो
सकता है.
घृणा, क्रोध,
मंत्सर, अहम, स्वार्थपरता,
कांटे ही कांटे
हैं. केवल,
ज्वलित वहि्ल में
विदग्ध,
अनवरत सुलगता
मानव.
असह्य उत्पीड़न में
जलती,
उसकी, दिन-रातें
हैं.
ये मन की उपज,
वपन करो,
पुष्प, सरस
सुगन्धित,
या काँटों की कृषि
करो.
अपने ही, एक कर
में,
अमृत,
एक में हलाहल.
जिसे चाहो जैसे
भी,
आत्मसात करो.
मानव !
परम शक्तिशाली है.
उर्ध्वमुखी निरंतरगामी
चेतना,
परम वैभवशाली है.
फिर, क्यों न हो आरोहण.
क्यों अवरोहण की
बात उठे.
नीचे खाई, खंदक
अन्धकार.
ऊपर परम शाश्वत
प्रकाश मिले.
बोला वितृष्ण सा
देवदत्त-
मत मुझे पुष्पक
वाक् शरों से मारो.
मैं, अपना अधिकार
अवश्य लूँगा.
मुझे अभी यह हंस
लौटा दो.
बढ़ता विवाद थमा
नहीं.
दोनों ने कहा,
चलो चलें राजा के
समीप.
वे जो निर्णय
करेंगे.
वही मान्य होगा.
दोनों एक संग गये.
राज्य सभा में, राजा
शुद्धोधन ने,
पक्षी, प्रतिपक्षी
की बात सुनी.
बोले हंसकर –
प्रिय वत्स
देवदत्त !
तुम निश्चय हे हो
धनुर्विद्या के धनी.
यह विशाल वन
प्रान्त.
अहेर तुम्हारे
निमित्त
प्रचुर कहाँ नहीं.
जितना चाहे अहेर
करो.
जितने जीवों को
चाहो.
निज संधानों के शर
से विद्ध करो.
किन्तु.
यह.
अहेर नहीं. एक दीन
शरणागत है.
लज्जित है यह
भुजाएं,
जो आश्रय देकर
ठुकराती हैं.
यहाँ प्रश्न अहेर
का नहीं, शरण का है.
यदि कोई, अभावग्रस्त
दीन अस्वस्थ अथवा
आहत, क्षत-विक्षत,
तुम्हारी छाया में
आएगा.
तुम भी वही करोगे,
जो सिद्धार्थ ने
अभी किया है.
मानव !
सद-असद वृत्तियों
से निर्मित.
किन्तु प्रथम
सद-वृत्तियाँ ही,
होती हैं अग्रगामी
प्रस्तुत प्रभापूरित.
यदि वे भास्कर
ज्वलंत हैं,
असद वृत्तियों की
श्यामल छाया,
स्वतः हट जाती
हैं.
यहाँ प्रश्न शरण
और करुणा का भी है.
जिस पर भी करोगे
दया,
वह आभार व्यक्त कर
सनत,
तुमको ह्रदय से
साधुवाद कहेगा.
जलते पत्थर पर जल
डालोगे,
वह शीतल सुखकर
होगा.
पादप में जल दोगे,
वह फल से तुमको भर
देगा.
आहत की सेवा
करोगे,
वह
आशीर्वाद से मार्ग
सुगम कर देगा.
अतः
प्रिय देवदत्त.
क्रूरता की
रक्तरंजित असी त्याग,
ममता के मधुर दीप बाल.
प्रकाश ही प्रकाश
मिलेगा.
यह अहेर.
निष्ठुर
प्राण-हरण.
इससे कहीं अधिक है
श्रेयस्कर.
जीवन संवर्धन.
अहेरी नहीं,
रक्षक ही अहेर का
अधिकारी है.
दिया,
जिसने जीवन दान.
वह.
मानवता का श्रेष्ठ
पुजारी है.
अतः
यह हंस. जिसके
वक्ष लगा.
जो इसका आश्रयदाता
है.
जिसने दिया, जीवन
दान.
रखा करुणा अहिंसा
का मान.
यह मानवता का उच्च
सम्मान.
उसके ही पक्ष में
जाता है.
क्योंकि
उसे विदित है
भलीभांति.
केवल प्राण-प्राण
का नाता है.
देवदत्त.
जीवित रह लेने के
अधिकारी
सब वर्ग एक सामान
हैं.
किन्तु, मात्र
जीवन वहन करना,
शरीर-यात्रा ही
पूर्ण करना,
जीवन नहीं.
जीवन की परिभाषा,
अति गहन विषम है.
केवल.
स्वांसों का आना
जाना,
निरुद्देश्य समय
व्यतीत करना.
जीवन नहीं.
बल के साथ-साथ
बौद्धिकता का भी
संवर्धन हो.
तन-मन एक सामान
संतुलित प्रसन्न
हो,
तो निश्चय ही,
सोने में सुगन्ध
हो.
मानवीय शक्तियां,
सद्वृत्तियों में
लगे,
मानव अंधकूप से
निकले,
स्वच्छ पवन उन्मुक्त
प्रकाश में विचरे.
बल का निकष न
दुर्बल है, न समान बल है.
यदि. बौद्धिकता
से, सलिष्टता से
निज से अधिक
पराक्रमी को करो पराजित
तो वस्तुतः विजय
है.
वह भी, शरीर से
कहीं अधिक
निज ज्ञान से करो
उसे विजित.
इस विजय से उच्च
कोई अन्य विजय
नहीं.
शारीरिक बल.
वनराज, मत्त गयंद,
पक्षिराज,
सब, अपने अपने
स्तर पर, दिखलाते हैं.
इनमें से यदि कोई
एक हुआ विचक्षण,
सब स्वतः पराजित
हो जाते हैं.
शरीर से मन,
मन से आत्मा,
कहीं अधिक वैभवशाली
है.
पार्थिवता नहीं,
सूक्ष्मता
गौरवशाली है.
शरीर पर करो न
विश्वास.
यह आधार रहित मोहक
उल्लास.
इसके बल का भी,
दुरूपयोग न हो.
यदि दे सको निज
सबल बाहुओं से ,
किसी को आश्रय,
करो किसी का कष्ट
निवारण.
वही कार्य है,
श्रेष्ठतम अति
सार्थक.
प्रिय
देवदत्त. .
प्राण ! मानवकृत
नहीं,
यह है ईश्वर
प्रदत्त.
मत.
इसके संग
अनाधिकार,
निर्ममता का
अतिक्रमण करो.
जीव. सदा का मरण
धर्मा.
कब वह कभी चिरंतन
यहाँ रहा.
हर प्राणी.
अपनी पीडाओं से
सतत रहा बिंधा.
नहीं एक पल भी वह,
निर्द्वन्द विचर
सका.
हर सको, किंचित भी
उसकी पीड़ा.
तो हर लो.
मत अनर्थक उसे
उत्पीड़न दो.
दया,प्रेम, अहिंसा
का अमिय अभिसिंचन.
हो शीतल मनः-तपन.
क्यों न वह हो.
उच्चादर्शों का
प्रेरक
हो दुखितों का
मार्ग प्रदर्शक.
इन तीखे बिखरे
काँटों को सहज समेटो.
सुगत.
जग का प्रगाढ़
प्रेम निर्मल विश्वास,
सतत पालो.
प्रज्वलित करो
प्रभा प्रकाश.
मत दीपक को
निर्वाणित कर,
घने धूम में निज
को,
आवृत कर लो.
देवदत्त.
प्राण-हरण नहीं,
स्नेह, दया वितरण.
जीवन का ध्येय बना
लो.
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