Wednesday, 12 February 2014

सर्ग : ८ - अंतिम श्रृंगार


अंतिम श्रृंगार
ति उद्विग्न चिंतन निरत कुमार,
पहुंचे कानन में.
संध्या,
प्रतीची से अपलक शान्त निरख रही थी.
लहराता था, उसका सुरभित सुरमई आँचल,
दोनों कर से,
बहुरंगी गुलाल झार रही थी.
उड़ रहे थे श्यामल रेशमी केश.
था मनमोहक सुरम्य वेश.
जाती पुष्प रजनीगन्धा सदृश,
कुछ नखत गगन में बिखर रहे थे.
शाक्य कुमारों के साथ,
करते समधुर परिहास,
उतरे सिद्धार्थ.
स्वच्छ नील जलपूरित तड़ाग में,
आकाश भी लुब्ध,
झाँक रहा था,
पुष्कर के दर्पण में.
जल विहार करते
मधुर गायन वादन,
सुनते.
आषाढ़ पूर्णिमा का प्रभा विकीर्णित,
पूर्ण चन्द्र, नभ पर आया.
श्वेत कमल सा,
दुग्ध धवल चांदनी में
वह.
मुस्काया,निरख,
जल मे उतरा है वरुण देव,
या,
विश्व-कमल-किंजल्क-जाल में,
केशर की डोरी में आबद्ध,
अनंग है आया.
चन्द्र.
श्वेत सहस्र फणों से अमृत निसृत करता,
अवकाश सरिस,
शीश पर छाया.
यह, अद्वितीय अप्रतिम रूप अशेष  
उतरा,
धरा पर भुवनेश,
प्रकृति का रस-आप्लावित मन थर्राया.
सिहरा जल.
सिहरा नभ.
सिहरा वन, उपवन, जन-मन-कानन.
विश्व वीणा के सुप्त तारों में,
हो उठा. मंद निस्वन. मदिर प्रक्वण.
श्वांश खींचकर चित्र लिखित,
प्रकृति रही,
आशंकित निरख.
नियति स्वीकृति.
साक्षात्,
जल में नारायण.
सूर्य हुआ उत्तरायण.
या आज.
रत्नाकर की आतुर बाहों में,
चाँद, उतर कर आया.
यह रूप असीम.
विश्व ही बना क्षुद्र सीप,
जिसके अंतर में मुक्ताफल
अपूर्व अद्दिप्त.
समस्त भुवन में,
लावण्य जलधि आप्लावन आया.
देव विभूति.
दिव्य ज्योति. आनन पर,
आलोकित ज्योतिर्मय संकल्प प्रकाश,
था,
छाया.
झर रहे वारि मौक्तिक हार,
अवस्थित,
स्फटिक श्वेत शिला-पट्ट पर
सेवक समूह घिर आया.
आज.ऐश्वर्य,
स्वयं कर रहा था
प्रभु का अलंकरण.
केशर छूकर तन सिहरा
अंगराज चन्दन शरीर से विकल,
लिपट रहा.
सुगंध, अंध,पवन-पवन में डोल,
रहा.
जड़ता में भी जाने क्यों कम्पन आया.
समस्त प्रकृति में संजीवन था लहराया.
बहुमूल्य रत्नजटित आभरण,
स्वर्ण खचित अमूल्य राजकीय वसन,
नख-शिख तक.
शेष रहा न रंचक.
शीश रत्नजटित स्वर्ण किरीट.
बाहों में अनन्त,
केयूर वलय. कंठ हीरक मौक्तिक माल.
सुशोभित कृष्ण चिकुर स्वर्ण मौक्तिक जाल.
हीरक मणिक मरकत शत
यह.
अंतिम भौतिक श्रृंगार.
गिर चरणों में बार-बार,
मांग रहा था विदा.
समर्पित कर समस्त ऐश्वर्य गरिमा.
ज्यों ही, नगर जाने को,
कुमार ने रथ पर रखा प्रथम चरण.
रथ स्पर्श करते ही,
सवाक चलचित्रों सा, हो उठा,
सब बीता समय स्मरण,
हर्षोल्लास आद्दिप्त मुख पर
पुनः विषाद के श्यामल घन छाये.
सहसा, ज्यों,
इंद्रधनुषी वारिद से
शम्पा आकर टकराए.
सांध्य काल
कभी कुमार, नहीं थे, राजपथ पर आये.
आवागामान का हुआ कोलाहल.
जो थे जैसे. वैसे ही दौड़े आये.
दोनों ओर नार-नारियों की,
पंक्ति सजी थी.
हर गृह में, वाटिकाओं में,
सुन्दर दीप मालिका प्रज्वलित.
अवली थी.
अगरु, धूम, पुष्प, गंध से
समस्त वातावरण सुरभित था.
प्रातः हो अपराह्न, मध्याह्न, सांध्य हो.
हर रूपों , हर स्थिति में,
कपिलवस्तु राजनगर का. रूप अमित था.
प्रत्येक प्रहर  नवीन रूप का,
करता था वह चयन.
आज.
रूप शिरोमणि. राजकुमार को लेकर,
वह था. गर्वित मनः-प्रसन्न,
कहा किसी ने अति मृदुल
स्नेह विह्वल, स्वर में
“ नित्वुत सुन-सा माता,
  नित्वित सुन-सो पिता.
  नित्वुत सुन-सा नारी
  यस्यामयी दिशों पतीति.”
“निवृत है वह माता.
जिसका ऐसा सुत है.
निवृत है वह पिता परम,
जिसे प्राप्त उनके सदृश ही सुत है.
वह नारी परम निवृत है,
जिसे प्राप्त ऐसा पति है.”
सुन कुमार ने,
कल हंसनी रूपसी अनिद्य सुंदरी,
कृशा गौतमी की भावाकुल वाणी,
रोका रथ.   
सस्मित उसको देखा.
एक अति कोमल तन्वी.
अपाद लोच भरी लावण्यमयी.
प्रश्न किया कुमार ने-
किसके परम निवृत होने से
होता है मन शान्त.
सस्मित उत्तर दिया गौतमी ने-
मनः-राग जब होता उपशम.
समस्त दोष हो जाते निष्प्राण,
वृत्तियाँ हैं मनः-दोष.
उनके शमन से होता है मोह-भंग.
मोह !
समस्त विकारों का मूल.
जब मन करता उसको निर्मूल.
अहंकार !  स्वतः शान्त हो जाता है.
अहम !
समस्त श्रृष्टि का उद्बोधक उपक्रम.
यह एक विश्व कर्षण.
समग्र एषणाएं करतीं इसका अयन.
जब हो जाता इसका भंजन.
होता, सुप्त विवेक का जागरण.
विवेक.
विवेक खोलता प्रज्ञा द्वार.
और प्रज्ञा,
साग्रह करती श्रद्धा का मनुहार
काट, समस्त कटंकित,
तर्क जाल.
आस्था की उच्च पीठिका.
निर्वात निश्चल ज्योति दीपिका.
व्यापक फैला,
शीतल शाश्वत,प्रकाश.
चिरंतन आनन्द.
अचल विश्वास.
कहते जिसको. विमुक्ति निर्वाण.
यही अंततः मानव कल्याण.
सस्मित देखा उसे कुमार ने,
आँखों में उमड़ा, आनन्द-ज्वार.
वह.
अनिद्द्य सुंदरी शाक्य कुमारी बाला.
उसने.
उनके विदग्ध ज्वलित ह्रदय पर,
शीतल अमृत जल डाला.
सौंदर्य ज्ञान की प्रतिमा.
निज, अध्यात्म दर्शन की
दीपित पावन, गरिमा.
कुमार ने, साग्रह क्षिप्त किया
उसके प्रति,
कंठ से उतार बहुमूल्य मौक्तिक माल.
उसे मन ही मन निज प्रथम गुरु मान.
सादर साभार प्रदत्त किया, गुरु दक्षिणा.
कुमारी.
ग्रहण किया उसने निज अंजली में
वह मौक्तिक सृका.
किन्तु स्वयं ही निज वश में
उसका ह्रदय न रहा.
वह.
सौन्दर्यानुभूति अभिभूत आकम्पित,
अन्नादातिरेक, हुई.
विमुग्ध विभोर चमत्कृत
निरख आलौकिक रूप अमित.
अनुराग प्रतीक चिन्ह जान,
ह्रदय भावाकुल रहा धड़कता.
रथ, चला गया धूल उड़ाता.
रहा धुंध में गौतमी का मन चक्कर खाता,
आज.
दिवस था असाधारण.
निज कक्ष में कुमार. कर रहे थे
मौन विचरण.
उद्यान में,
भौतिकता ने निज चरम सौंदर्य से,
किया था, कुमार का श्रृंगार.
वे राजसी आभरण अलंकरण,
थे तन पर असह्य भार.
और,मन !
उसकी व्यथा दुर्निवार,
विषादपूर्ण मनः-आकाश तले.
पीड़ित स्मृतियों की समाधि पर
सर टेक कर अनुभूति मौन बैठी थी.
चेतना विछुब्ध विमूर्छित थी.
किन्तु.
कृशा गौतमी रूपसी ने,
आज, मन का किया श्रृंगार,
भूषित किया उसे सुसज्जित कर ,
उदात्त विचारों का हार.
चिंतन को,
एक उन्मुक्त नवीन क्षितिज मिला.
पहन सप्त रंग परिधान.
हँसा.
अरुणोदय, लेकर स्वर्ण विहान.
प्राची पर, प्रभा ऊषा.
उसकी आँखों में उज्जवल प्रकाश खिला,
कुमार को, जीवन का एक नवीन सूत्र मिला.
दृष्टि अन्वेषण कर रही अन्यत्र,
आज.
आषाढ़ पूर्णिमा पुष्य नक्षत्र,
व्याप्त उज्जवल धवल रजत राका,
सर्वत्र, खिल रहा ज्ञान सहस्र पात्र कंवल.
सौरभ अमृतमय अमंद.
कुमार का मन.
ज्ञान अंध आकुल.
खोज रहा.
कहाँ सुरभि,कस्तूरी-मृग व्याकुल.
ज्ञान पिपासित हृद-अंजलि में,
तृषा निवृत,
दिया कृशा गौतमी ने अमृत दान.
करो,
इसे तुम आकंठ पान.
परम तृप्त होकर निर्दिष्ट करो
अपनी पहचान.
यह विलास.
राजसी परिवेश.
नहीं जीवन यहीं शेष.
मानव.
स्वयं एक पावन सन्देश.
समस्त संसृति में है उसका वैशिष्ट्य विशेष.
खोजता है उसे.
क्यों यह संसार सन्निवेश.
यह केवल रिसती,व्यथा
पीड़ा अशेष.
हर सुख.
क्यों दुःख की श्यामल छाया ?
सब जान, विमुग्ध, विमूढ़,
क्यों मन ने बलात विवश,
इसे अपनाया.
क्यों नहीं अब तक इससे निष्क्रमित,
विमुक्त हो पाया,
क्यों ! क्यों ! क्यों ! 
क्यों यह पीड़ा अनुभूति.
मन वेदना-विगलित, तन रोमांचित.
क्यों बरबस अकारण
व्यथा विह्वल लहरों में
दोलित आलोड़ित,
मन टीसों से भर आकुंचित.
क्यों निराशा की यह कज्जल वर्षा.
ह्रदय सावधान, न हो  सका ,
सहसा.
केवल. दुःख
कह रहा अंध मन जिसे सुख.
एक पर एक अप्रत्याशित प्रहार.
सह न सका अंतर,
यह दुर्वह भार.
उड़ गए.
हर रंग
मोह, भंग कर गए.
ध्वस्त समस्त
कामः-छंद मानस तरंग.
मन,
एकाकी नीरव निःसंग.
देखा.
शैशव का वर्तुलाकार
निर्जीव निर्भीक.
उस पर गर्वोन्नत खड़ा
जड़ें जमाकर
अंगार पटल खचित
दंभपूर्ण यौवन अशोक.
और
जरा का तक्षक,
विषाक्त ज्वलित फुन्कारों से
उसे जर्जरित कर,
बना उसका भक्षक.
मृत्यु हिमोज्ज्वल श्वेत पटल के नीचे
पड़ रही मुर्मूष
समस्त स्पृहायें मृत आँखें भींचे.
धिक्क जीवन !
धिक्क जीवन !
दुःख का दावानल.
प्रत्येक जीवन-स्वांस.
मृत्यु-मुहर-अटल.    


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