कपिलवस्तु के नृप,
महासम्मत !
हो उठे, शुद्धोधन अवाक मर्माहत.
क्षिप्रगति थमी,
निरख, शून्य कक्ष, रिक्त पर्यक.
दीपाधारों के, शेष बचे जलते दीप.
अब भी थे, अश्रुपूरित अपलक.
जली वर्तिकाएँ,
धूम फेंकती केश नोचती, थी,
मृतप्राय अवसन्न पड़ी.
कक्ष में,
असंस्पर्षित श्लथ पुष्प और,
स्तवक पड़े थे.
उन्मुक्त कपाटों, दीवारों, वातायन, स्तंभों पर,
झूल रही,पुष्प सृकाओं में,
मौन ही,
समस्त व्यथा कथा,
वज्राहत सिसक रही थी.
रात्रि,
किस प्रकार पीडित आतंकित,
वेदना के हर मारक विधाओं में ग्रंथित,
हुई थी व्यतीत.
हर मुखरित उभरी गहरी रेखाएं,
मौन वेदना की गहन उदासी में थी अंकित.
अवर्ण्य वेदना.
हत् चेतना .
विस्फारित फटी आँखें,
गहरी ह्रदय छीलती साँसें.
उड़ रहे शुष्क केश.
विवर्ण पीत रक्तहीन निष्प्रभ मुख कान्ति विषण्ण ,
अभिशप्त विक्षिप्त, आहत, अतृप्त, प्रेतात्मा सा,
काँप रहा था, शुद्धोधन.
आँखों के शून्य निःसंग धू-धू करते,
सैकत वन में,
स्पृहाओं एषणाओं के,
संत्रस्त पक्षी विकल विह्वल पंख, फैलाए,
त्राहि मांगते, भाग रहे थे इधर-उधर.
हर रुद्ध कपाटों को खोलता,
खुले कपाटों में झांकता,
आ पहुंचा, जहाँ,
वृक्ष लताओं गुल्मों दीवारों की ओट,
खड़ी थी नववयः-निवेदिता लावण्यमयी कामनियाँ.
चित्र-विचित्र सूक्ष्माम्बरों पुष्पहारों स्वर्णालंकारों,
से सज्जित, छिप रही थी,
भयभीत विधूतित अति लज्जित.
नृप शुद्धोधन अतीव विकल विक्षिप्त विषण्ण.
वेदना-विदग्ध, ज्वलित चट्टानों सी,
आरक्त कठिन दृष्टि, टिकी
सहसा देखा, पुष्प सृकाओं स्वर्णलंकारों
से अलंकृत ,
लावण्यपूर्ण देहयष्टि,
गरज उठा ! सोपालाम्भ विषाक्त तीक्ष्ण स्वरों में,
अब ! किसलिए क्यों ? हो,
सब इस प्रकार सज्जित यहाँ, यों ?
धिक्क् ! ये केशर चन्दन अनुलेपन.
ये मर्मान्तक मारक सम्मोहन .
ये पुष्पधन्वा की खिंची सधी प्रत्यंचा.
अचूक लक्ष्य. बचा न कोई प्रत्यक्ष .
सुरक्षा के अमोघ कवच.
स्मरव्याल फुंकारित, हो उठे क्षत-विक्षत ,
ईषत् यौवन अरुणाभ विकच कंज.
बने, न, उन गमनशील-चरण-छंद .
सूक्ष्माम्बरों कौशेय परिधानों से सज्जित,
यह सुरभि ,मरन्द मीलित सुरम्य , रमणीय सृष्टि ,
आप्लावित नयन नीलान्जसा निस्तृत अमिय वृष्टि ,
लावण्य का अप्रतिहत ज्वार अपार.
मृणाल मसृण बाहुलता श्लथ पुष्पसृका भार.
शातोदारी. स्वर्ण खचित लहरित रूप ज्वाल.
स्खलित मणि गुच्छ मेखला कांचनेय काँची,
गजगामिनी. मनहरण कामिनी कलभोरू !
सभ्रू !
घूर्णित तृषित गहन गंभीर कलंकुरों सरिस
नाभि ! ज्यों ,
मंथित लावण्य अब्धि.
पंचतत्व छंद, पंचयार विद्ध !
समस्त कर्षण, केन्द्रित, स्तब्ध !
सम्मोहन का अजस्र अमृत दोहन .
विचलित विसुध, स्मर-भार-पीड़ित,
सुर, असुर, देव, किन्नर,विमुग्ध, विजड़ित.
लहराता अमृत चषक.
कोई भी जाये सत्वर ललक .
की मैंने, सज्जित रंगशाला.
चित्र-विचित्र वाद्द्य गायन
अपूर्व मोहिनी बाला.
जिनकी पद्मपलाक्ष आकर्णमूल
अर्धनिमीलित मदिरालस , अलसित आँखों में,
मादक सपनें सोते थे.
कोई भी रंग कहीं खो जाए,
सब रंग, अनंग के,
अबूझ अनूप वहां होते थे .
आँखों की कज्जल कृष्ण कनीनिका से,
विकीर्णित सहस्र रंग तरंगों से,
नाना रंगों से रंजित हो उठे,
किंजल्कों के, फूलों के रसराज निवेदित मधुवन.
मोटी नमित पलकों से,
सीखा,फूलों से लदी लतिकाओं ने होना नत.
अतोल, उन आँखों के अबोल बोल.
आकम्पित अंतरदह तक आमूल जाए डोल.
कहने को वे, निश्च्छल आँखें, भोली
थीं.
किन्तु उनमें अमिय नहीं,
मर्मान्तक हलाहाल की मारक होली थी.
वह. बहुरंग तरंग.
आपाद निमज्जित अंग-अंग .
जिनकी तन्मयता अभंग ,
एक बूँद: लावण्य-स्वाति-नवल-सरस जलधर में,
परम तृप्त मन-शितिकण्ठ विमुग्ध विभोर.
कहाँ-कहाँ से खोज-खोज कर मैं लाया .
यह सम्मोहक मृगछलना .
प्यास ! प्यास ही ! अदम्य गहन भरी .
पल न जहां तृषा बुझी .
नख से शिख तक लोच भरी मादकता.
निज में नहीं समाती नवनीत सदृश
कोमलता मनोरमता.
विद्दुतमाला सी लहराती, बलखाती,
कमनीयता.
आप्लावित इठलाता सौन्दर्य रहा छलक.
समय-चंचरीक. निशंक निर्भीक.
सरस रस-मर्मज्ञ.
तन्मय, विमुग्ध, विस्मित,
कर रहा पान.
परम तृप्त अंतरतम तक छक,
ऐसा अप्रतिम सौन्दर्य.
वह भी रोक न सका.
यौवन की अकिंचन लघु क्षीण तरणि.
कर न सका मदमस्त ज्वार संकुलित,
गगन घर्षित, लावण्य जलधि उसे,
निज बाहों में आबद्ध ,
व्यर्थ, लानत धिक्कारित ,
यह . वंचक सम्मोहन.
व्यर्थ. व्यर्थ.
यह अमृत दोहन.
हा हत् भाग्य .
शुद्धोधन.
जब प्राप्त होना ही था,
अदृष्ट का यह मारक आत्महनन.
अधर लगा केवल कालकूट हलाहल.
क्यों किया माध्वी पर यह कर्षण.
जब अप्राप्त रहा पादप रसाल.
प्राप्त, केवल कीकर,
बबूल, कंटक करील कराल ,
घूम रहे सर्वत्र
नैराश्य विषः-फुंकारित कृष्ण व्याल.
तुम.
कान्त कमनीय रमणीय मनमोहिनी .
मात्र कोमलता सुषमा से बनी.
जिनके पगतल, धरा पर पड़ते ही,
स्वतः चढ़ जाती उनपर लाली.
ज्यों शतपर्णी की पुष्प भार नमित तुहिन खचित,
लचक उठी हो, डाली.
यह समस्त सौन्दर्य सुषमा कमनीयता ,
हो उठी केंद्रीभूत एक ही स्थान पर,
शरत हास बिखेरती दुग्ध धवल निष्कल शरत शर्बरी.
क्या कहूं . इसे अब मैं.
यह मात्र. रही अरण्य चंद्रिका.
जिसे न प्रत्युन्तरित सहज दर्पण मिला.
वह .
निर्झर सा झरता उन्मुक्त निश्च्छल ह्रास.
लज्जित जिसके सम्मुख सागर जल उच्छ्वास लास.
कितनी निराभरण.
स्वयं में ही व्यंग बनी.
हो. काष्ठवत किम्कर्त्तव्यविमूढ़ .
हुए क्यों निष्क्रिय तव बाण अचूक.
क्यों अब, हो बनी.
नागफणी पर बिछी नीहारिका.
किस उद्दाम यौवन ज्वार की, हो कुहेलिका.
बिना कस्तूरी की निस्सार एणिका.
मात्र, विरह ज्वाल विदग्ध वेदना पर,
आहुति सी हो रही निसृत.
जब. चन्द्र नहीं.
अरे चन्द्रपायिन.
तुम क्यों निज विद्रूप बनी हो स्थित.
सदाबहार बासंती मदिरालस वन वैभव.
पल-पल परिवर्तित सौदर्य भंगिमा अभिनव.
रणित क्वणित कल कूजित मंजीरित शिंजिनी,
सज्जित चारु चपल चरण .
कर, स्पर्श जिनका नव श्वादल भी जाते सिहर.
झुक झुक लहराती कादम्बनी सी,
अपाद कृष्ण कुंतल दाम .
मुखः-प्रभा उद्दीप्त नीलान्जसा ललाम.
कहते हैं.जिसे. चंदानन.
नमः-निशिनाथ.
केवल घटता बढ़ता है. यह.
प्रतिपल रसः-आप्लावित जीवन रसवंत.
निमिष निमिष में इसमें
उजर्स्वित उन्मद सम्मोहकता है.
अपार अंतर है दोनों में.
सौन्दर्य पारखी .
यह रूप.
नयन तुला पर विमुग्ध परखता है.
यह. सृष्टि का मनोरम उपहार.
स्मर का अमोघ वार.
हो गया नीरस, निष्प्रभ, कर्षणविहीन .
अतिदीन .कहाँ गया वह अमिय सन्निवेश.
निरखता अभंग तन्मयता में, जिसे चकोर अनिमेष.
ये कमनीय आनन्.
अंधे दर्पण.
जिन पर, वांछित चिर अभीसिप्त प्रतिबिम्ब, टिका,
न क्षण भर.
क्यों खड़ी अब, काष्ठवत चित्र लिखित सहमी सी.
अभी उतारो. चित्र विचित्र सुरभित सूक्ष्माम्बर .
सौदर्य, ज्वाल लपट दाड़िम सम,
सहस्र खण्डों में, बेध रही मेघाम्बर .
लानत है.
लानत है. नारीत्व का आहत अहम .
चूर्ण कर रहा मेरा मर्म.
समस्त रक्षा कवच हो गए भंग.
तड़प रही वेदना निसंग.
यह उफनता तुम्हारा सौन्दर्य.
यह सम्मोहन.
कर रहा निर्मम व्यंग .
भर रहा शरों में निसंग.
खिंची रही प्रत्यंचा.
पर हो न सका उद्दीप्त संकल्पित विराग का भंजन.
धिक्कारित लांछित यह,
तिरस्कृत यौवन.
माना.वह. स्थिर अडिग चट्टान सरिस था.
पर इसे चुनौती देता यौवन का
गर्वोन्मत उजर्स्वित अभिमान कहाँ था.
क्यों खड़ी अब.
जड़ प्रतिमाओं सी.
क्यों नहीं पुष्प सृकाओं सी बिछी,
उसकी राहों में
क्यों नहीं, केशर किंजल्क से चूर्ण अलक जाल में,
सौरभ सरिस त्वरित आबद्ध किया,
मेरे प्राणों का धन.
क्यों नहीं. क्यों नहीं.
क्यों नहीं
वह चन्द्र छिप पाया
खिला रहा,
कुमुदनी का लहराता वन
सौरभ-उन्मद उपवन अमंद.
जाओ. आँखों से सम्मुख से जाओ.
प्रक्षालित करो अंगराग अनुलेपन.
त्यागो कौशेय वसन.
करो धारण वल्कल वस्त्र,
अभी काटो इन केशों को,
गिरे भूमि पर मणिधर से तड़प-तड़प कर.
तुम्हारे योग्य नहीं राज-कक्ष.
हो गए सभी अस्त्र निरस्त्र,
उत्तर दो.क्यों ?
भूलुंठित कुंठित हुए सब अनुत्तरित .
कर गए इस प्रकार व्यथित.
किसलिए क्यों ?
अब शेष यही प्रश्न.
क्यों गिरा, नंदन वन में अप्रत्याशित अशनि.
नारी .
कहाँ ?
अजेय अप्रतिम महामहिम सौंदर्य सौष्ठव.
रमणीयता कमनीयता ऋजुता आर्जव.
नहीं जो हो सका,
तन से संभव.
हुआ नहीं क्यों मनः शक्तियों का
सात्विक उद्भव.
कैसे माना.
तन से.मन से.
तुमने निज दीन पराभव.
कहाँ रहा मनः-मुकुर पर
अनकहा अनछुवा प्रतिपल परिवर्तित
अमोघ, सम्मोहन. अमृत दोहन.
वह. रूप क्या.
जो. अनुत्तरित रहा.
पुरुष जिसे आंक न सका.
झाँक न सका, इन इन्दीवर आँखों में,
निज मन का विमुग्ध विमोहित उल्लसित ज्वार.
अब. क्यों कर रही विचरण.
पुष्प शर-निसंग सन्निवेश में,
जब, असमर्थ हो रही.
यह संजीवन स्सम्मोहन.
यह मादकता.
यह सौंदर्य-सुधा-चषक छलकता लहराता,
सतत अछूता.
जाओ.
किसी कन्दरा में छिप जाओ.
या मंदिर के सोपानों पर,
देव समार्पित निवेदिता नत हो जाओ.
यह हर्म्य. सरोवर, वन-उपवन, रंगशाला.
अब केवल, लहराती कालकूट हाला.
अदृष्ट का निर्मम वज्र प्रहार.
टूक-टूक व्यथित ह्रदय,
नियति निदय,
क्षत-विक्षत आहत अन्तर.
अनवरत सहता है दिन रात.
नहीं इस घोर तमिस्रा का कहीं प्रभात.
आहत नारीत्व निरखना,
पुरुष अहम् ने कब स्वीकारा.
नारी स्वयं में हो पूर्ण.
पुरुष निज मद में चूर्ण.
पहने वह.
निज उन्नत ग्रीवा में
नारी के कर से जयमाला.
एकाधिकार उसी का.
वह. जीत कर भी हारा.
अमोघ रस रंग रंगिनी.
अलसित ललित कँवल चरणों में
रुनझुन उन्मन मदिर मृदुल शिंजनी.
कहाँ कैसी क्या हुई चूक.क्यों ?
सम्मोहन लहरी, सहसा हो गयी मूक.
हो रहा असह्य विवश विकल व्यथा से,
ह्रदय बरबस टूक टूक.
छिन्न भिन्न बिखरी रंगशाला.
प्रवेश कर किसी मत्त करिवर ने,
दुर्दांत गयंद ने,
कदली-वन विदीर्ण कर डाला.
यहाँ,
किसी के कर में वीणा, वेणु, मृदंग.
रस-आप्लावित मदमाते कमनीय कुसुमित लावण्य-प्रभ,
अंग-अंग. झूम रहे,
लय ताल स्वरों के संग-संग.
अर्ध शयित शयित अलसित,
चिकुर लोल लहरित आवृत अर्धमुख.
ज्यों, निरख पूर्ण चन्द्र
हो रहा श्याम जलद खंड छू लेने को,
लालायित खो रहा निज सुध-बुध.
वही नृत्यशाला.
नीरव निःशब्द निःसंग स्तब्ध श्लथ.
केवल विक्षिप्त विकल बावली
घूम रही व्यथा,
विदग्ध अकथ.
कवंल भी.
अति कोमल निज सहस्र पत्रों में
कर आबद्ध षट्पद को बंदी कर लेता है.
निष्ठुर रस लोभी चंचरीक.
मृदुलता भाव प्रवणता को,
सहसा नही तोड़ पाता है.
पात पात की कोमलता से,
घबड़ाता,
पर, कब मुक्त हो पाता है.
तुम में, उतना भी आकर्षण नहीं.
फिर, मत कहो इसे रूप.
कर न सका जो पुरुष मन दर्पण,
दो टूक.
नारी.
सर्वांग सम्पूर्ण,
एकमात्र अटल अचूक
पुरुष का उत्तर है.
एक तीखा चोटीला प्रश्न.
काट गया कर गया मूक,
समस्त उत्तर.
जाओ अभी शीघ्र हटो.
यह निष्ठुर व्यंग मैं नहीं सह सकता.
काँप रहा है तन.
उससे कहीं अधिक पीड़ित है मन.
सहसा, सम्मुख गयी दृष्टि.
स्वामी विहीन दीन छंदक
नत विषण्ण खड़ा था.
उसे देखते ही,
शल्य बिंधे आहत क्रोधित गर्जन करते,
दारुण कराहते मृगराज सा
कर उठा पीड़ित शुद्धोधन
ह्रदय विदारक चीत्कार.
कहाँ तुम्हारा स्वामी
कैसे तुम आये एकाकी?
लेकर, मेरे प्राणोंपम के
राजकीय प्रसाधन, स्वर्ण अलंकार.
मौक्तिक रत्न जटित बहुमूल्य हीरक गुच्छ उष्णीष,
ये पदः-त्राण,
क्या काषाय वसन उसने किया धारण ?
सभी सुखों का किया वारण.
वह नंगे पैरों कंटक वन वीथी में जाएगा.
नहीं. छंदक नहीं.
क्यों नहीं लौटा लाये.
सब यहाँ वियोग में वज्राह्त पीड़ित हैं.
क्यों नहीं समझा पाए.
बोला करबद्ध विनीत भरे गले से छंदक.
प्रभु.
सभी दासः-धर्म को मैने अपनाया.
तुच्छ बुद्धि से जो कुछ भी कह सका.
भली भांति स्वामी को समझाया.
हत् भाग्य हूँ प्रभु .
जो स्वामी ने साथ नहीं स्वीकारा.
मुझसे कहीं अधिक,
पुण्य कर्मों वाला था कंथक,
जो स्वामी विछोह जानकर ,
कुमार के ही सम्मुख,
घोर र्रुदन कर, स्वर्ग सिधारा.
मैं. दास ही नहीं.
समय का भी क्रीत दास हूँ.
उसने भी मुझे नहीं अपनाया.
बोला शुद्धोधन-
हा ! मर्मान्तक अन्तर पीड़ा.
आत्म हनन.
किस आशा में खड़ा,
पीत पतझारों का,
शोकाग्नि प्रभंजन में जलता,
यह कंटक सैकत वन.
कहाँ है. दावाग्नि,
नहीं करती तुरंत भस्म,
क्यों नहीं यह ह्रदय,
हो जाता जड़,
बनता सत्वर जीवित अश्म.
इन आँखों को
क्या रहा देखना शेष.
आँखों के सम्मुख
घूम रहा मेरा प्राणाधार.
काषाय वसन भिक्षुक वेश.
हो जाता संतोष.
मिल जाता पारितोष.
यदि,
जिस प्रकार महामाया गौतामी ने,
इहलोक त्यागा,
उसी प्रकार, सिद्धार्थ भी,
मुझे छोड़ कर जाता.
अगणित विछोह-शूल-सृकाओं से,
ह्रदय के, सहस्र टुकड़ों को अनुस्यूत कर लेता.
इन दिवा रात्रि के अनवरत, चुभते काँटों में,
निज सुत को अश्रु निमज्जित कर,
स्मरण कर लेता.
किन्तु ! वह है.
इसे कैसे भूलूँ.
वह मेरा होकर भी, मेरा नहीं,
किसी अन्य का.
यह दारुण व्यथा क्यों कर सह लूं.
मेरे.विदीर्ण ह्रदय के,
पीड़ा-कम्पित टुकड़ों की धड़कन को,
वह, अनवरत कुचलता, कहीं दूर हुआ जाता.
पीड़ित ह्रदय.मात्र तड़पने के.
कुछ नहीं, बोल पाता.
आह ! मेरे स्वप्न,
अब रहे खेल उष्ण रक्त की होली.
भाग्य श्री.
खड़ी रही जहाँ कर में लेकर रोली
वह ललाट पर लगी नहीं.
उसके कर से वह,
बूँद-बूँद. रक्त-सीकर सी,
हो रही निसृत.
पान कर रही उसे.
उल्लसित निठुर नियति, चिर तृषित.
उस कक्ष में.
जानें किस प्रकार.पड़ी होगी गोपा.
वह. वज्राहत पीतवर्ण विवर्ण कंजकली .
नैराश्य ज्वार उदधि में, नियति ने उसे डाला,
निसंग निराधार. बंद पद्म पलाक्ष उसके.
अधर पत्थर से जकड़े.
समय का सयंदन.
वज्र चक्र से कर गया,
उसे शत शत टुकड़े.
स्वांस-स्वांस ने,
उसके, असह्य व्यथा कथा को पाला.
निर्मम नियति प्रभंजन ने,
आमूल भंग कर डाला.
शय्या पर संज्ञा शून्य पड़ी,
पीत पतझारों की छाया.
एक एक विकच कुसुमों को,
नैराश्य व्याल ने ,
दंशित कर फुन्कारा.
वह. केवल आहत स्वांसों की माला.
नहीं एक भी, प्रकाश किरण.
घिरा सघन तिमिराच्छन्न,
भविष्य दुर्वह दारूण काला.
अब. कह लेने को भी शेष रहा क्या.
अदृष्ट से, अनुत्तरित व्यथा भार मिला.
उपकूलों से बिछुड़,
बीच भंवर में, घूर्णित नौका.
ज्वार संकुलित गगन घर्षित,
लहरों की बाहों ने,
उसे सर्वदा के लिए,
कैद कर डाला,
चारों ओर लहर प्राचीरों की, माला.
दिशाहीन.
पथ विहीन.
अति क्षीण दीन.
धरती-आकाश, मध्य फंसा भाग्य.
हा देव ! यह तूने क्या कर डाला.
क्यों निश्च्छल भोले, मौक्तिक मन को,
तूने ! आजन्म बंदी कर,
व्यथा-शुक्ति में ही पाला.
क्यों ?
मिलन-क्षितिज पर,
ज्वलित उल्का वन.
मौन माधवी का कातर अन्तर.
क्यों पंकिल शय्या पर, खिला कमल.
क्यों ? स्वप्न की आँखों में, निसृत,
अजस्र अश्रुधार अविरल छल छल.
क्यों ?
नगपति का हाहाकार मचाता जल प्रापातों, झरनों में,
अबाध रोदन.
क्यों ?
रत्नाकर के अमृत मंथन में,
प्राप्त अनिमंत्रित कालकूट हलाहल का,
ज्वाल फेंकता असह्य दहन.
हर सुख की परिभाषा
दुःख ही क्यों है ?
क्यों प्रभात का ह्रास पद्मरागी,
बनता,
संध्या के आँचल की अश्रु खचित थाति.
क्यों ? क्यों ? क्यों ?
सर्वत्र दुःख ही दुःख क्यों है ?
No comments:
Post a Comment