Sunday, 26 January 2014

सर्ग: ११- गोपा



नैराश्य-कृष्ण-जलद,
सजल सघन गहन, उमड़े,
भींगे कातर मनः-क्षितिज पर,
शत-शत, टीस भरी कौंधों के,
मर्मान्तक कशाघातों से अनवरत भर.
अब बरसे. तब बरसे
हर पल कम्पित सिहरे-सिहरे.
हर अर्थ, जीवन के,
व्यर्थ निरर्थक, बिखरे-बिखरे.
फिर भी, जाने किस पीड़ित प्रतीक्षा में अधीर,
रहे सतत विकल.
प्राणों पर प्रच्छायित यह वेदना
विमूर्छित, विजड़ित. अवसाद.
रूप विपर्यय प्रसाद का.
जो है, निगूढ़ आमूल दृढ़ अवस्थित,
ओढ़, श्यामल सघन पटल विषाद का.
नभ.
जाने कब से यों ही मौन अवाक.
तड़प तड़प जाता,
संभलता नहीं,
जल संकुलित वारिद भार.
पीड़ित वक्ष,
अर्ध झुका नमित,
उन्चास पवन में विदग्ध स्वांसें भरता.
और यह,
ज्वारों के, गगन घर्षित आघातों से आक्रांत,
अवश विभ्रांत व्यथित नितांत,
महार्णव भी.
अतूर्त अत्यूर्मियों में सर धुन-धुन कर,
हाहाकार मचाता है.
निसंग निरीह एकाकिनी विरहनी, काली रातें.
आहों के दग्ध धूम फेंकती लेती है.
गहन निःस्वांसें.
इधर उधर सर्वत्र, रही,
बावली सी भ्रमित भटकती.
भूल कर भी, एक सजी उजली किरण ने,
झांका नहीं.
उसकी अथाह आँखों का शून्य समुद्र,
चकाचौंध मचाता, अंशु जाल फेंकता,
कहाँ नहीं, मचलता, कहाँ नहीं अटकता.
यह सतत गामी निरंतर भास्वर,
दिनमणि.
यह भी पथ श्रांत क्लान्त, अशांत.
मुख से आरक्त रक्त फेंकता,
गिरता-पड़ता, कराहता, आया,
सांझ की स्नेहिल स्निग्ध ममतामयी, उन्मुक्त बांहों में,
जल जल का संत्रासित पीड़ित,
खो देता समस्त मस्त मदीला रंग विलास.
अप्रत्याशित असामायिक असह्य आघातों से
आक्रांत अशांत आहत विक्षिप्त.
गोपा.
थी, उसी भांति विषण्ण उदासीन व्यथित.
उद्विग्न विपन्न अतीत-चिंतन, निरत सतत,
विकल विचरती मूक. वेदना घूर्णित अनुक्त अचूक.
जो, झकझोर गया, आमूल,
अरमानों के पल्लवित मंजरित
सुदृढ़ रसाल के एक-एक पाट.
छिन्न-भिन्न हुए उजड़े,
उसके सरस रसीले अभिनव नवल गात.
आंधी, ज्वलित चली,
निशंक, निर्द्वन्द्व, निर्बन्ध, अंध,
मन के नितांत सूने निःशब्द नीरव प्रांगण में.
कण-कण जल कर हुए विदग्ध,
अहर्निशी ज्वलित गहन तपन में.
आज भी,
मन.
आशंकित कम्पित.
जाने क्यों ?
घुमड़ रही भरी-भरी कोई आंधी.
निरभ्र अदभ्र मनः-गगन में.
आँखों के सूने रीते वातायन में,
उमड़ रहे हैं.
नीर भरे सजल कजरारे सावन-भादो.
आई घूमती, सघन कृष्ण कादम्बनी मदमाती. 
फिर, पीड़ा के कालकूट हलाहल में डूबी.
स्मृतियों की टीसों से, सहस्र दंशित,
तड़ित-ध्वांत अशांत आकाश मन,
नियति नयन उन्मीलन सी, कौंध रही.
गोपा.
निराभरण, काषाय-वसन नत आनन,
खिन्नमना, थी ,
उन्मन.वह.
केशर पराग मीलित विवर्ण कंजन कली.
ज्यों.तपः-कुटीर में,
निर्वात निष्कंप निसंग दीपशिखा जली.
व्यथा किरण-जाल संकुलित, क्लान्त,
स्वयं-प्रभ चन्द्रमुख. तपः-तेज पूरित,
तन्मय विसुध.
आज.
पीड़ा की बंधी ग्रंथियों में,
जाने कौन ग्रंथि खोल रही थी.
स्वतः अपने में ही,
मंद-मंद, अस्फुट कुछ बोल रही थी.
दर्द की लहरों पर दोलित.
आया था सजीव सवाक अतीत.
उसके उद्वेलित ह्रदय द्वार लगा,
अश्रु आप्लावित अर्धनिमीलित आँखों का,
प्रत्युत्तरित दर्पण बना.
वह,
आँखों में ऑंखें डाल उन्मुख,
बोल रहा था,
वह सब,
जो,मदिर क्षणों में सुरभित
उच्छवासों सा था गया बीत.
कांपी यशोधरा.
स्वयं से.
निज मन से.
भोगे हुए क्षणों से.
आज.
यह.
कौन सा बंद पृष्ठ खोलेगा.
किस मंजूषा के पट उन्मुक्त कर,
कौन से स्नेहिल उपहारों को तोलेगा.
उन सब को,
गोपा के अबाध अश्रुओं में
आकंठ स्नात कर लेगा.
फिर शयित सुप्त ह्रदय क्षतों की,
सिली सीवन उघड़ेगी.
पर्त-पर्त में निहित व्यथा.
फिर जगकर कराह भरी करवटें लेगी.
और नदी किनारे की धुंध भरी आंधी,
लहर-प्रताड़ित पीड़ित घर्षित तन्वी तरणी सरिस.
यह,
करुण तरुण तरुणी झेलेगी.
निसंग शून्य आई, यह बेला.
मन ने सदा ही एकाकी झेला.    

आज.
आँखों के उदास बुझे-बुझे आँगन में,
यादों के सघन सजल बरसते सावन में,
लौटा था,
बीता सजीव सजीला
कस्तूरी मृग मद-भर पूरित उसका,
निश्च्छल भोला अल्हड़, कौमार्य.
कपिलवस्तु के,
आभूषण-वितरण उत्सव पर आमंत्रित,
वह, देवदह से संग सहेलियों के आई थी.
मनोरम राजोद्यान में, एकाकिनी बिछुड़कर,
वह वनमृगी सरिस विभ्रमित चकित,
पुष्प खचित सुरभित उपवन में,
कैकी सी इधर उधर विचर रही थी.
वन-वैभव-विलास से अलसित विलसित,
विस्मित आँखें, ज्यों, मधुरस डूबी
आकुल षट्पद पांखें.
बासंती सरसित सुरभित, मंद, मदिर पवन.
ज्यों मृदुल मदिर मधु सपनों की मधुर छुवन.
हरित पल्लवित पुष्पित यौवन-भार-प्रमत्त,
नमित, लहरित लोलित लतिकाएँ.
निरख शुचि शुभ अनिद्य अप्रतिम पुनीत, कौमार्य.
विकसित प्रसून के अन्तरदह
रस सौरभ से भर अलसाए.
कल कोमल उज्जवल कंज कमल अरुणाभ पद,
अलक्त सज्जित मौक्तिक स्वर्ण शिंजिनी,
मंजीरित अनुरणित. नव अंकुरित हरित दूर्वा,
चरण-स्पर्श-कातर, गयी सिहर-सिहर.
आकुल बंद पुष्प कोरक अंकुर में,
अशोक विकल.
हँसे, उसे अचानक, छू जाये कुमारी के चरण,
निज अल्हड़पन में. वह . फूल उठे,
अंग-अंग, भर-भर नव उमंग. देखे,
वह भी, मस्त उत्फुल्ल यह रसराज-निवेदित,
रस-तरंग. वन-श्री की राजहंसिनी.
दुग्ध धवल अमल शीतल स्नेहिल मृदुल चांदनी,
नभ से अवतरित शुक्ल मंदाकिनी.
स्वयं उसे भी नहीं था ज्ञात.
आकुलित सुरभित मनः-सौरभ से,
क्यों कम्पित गात.
किशोर वय. समय निदय जान न पाया.
ईशत यौवन वयःसंधि.
सद्दः-विकसित मरन्द-मीलित सौरभ पराग झरित,
अभिनव किसलय दल पर,
यौवन का, अप्रत्याशित अलसाया भरमाया अबोल आमंत्रण.
कलिका.
निज अंध-गंध-मादक-मृगः-मद से,
कम्पित उन्मन.
सुगंध विकल.
पल न कल.
मन के अर्धशयित. अर्ध जागृत आँगन में,
सहसा,
यह कैसी मादक अज्ञात चहल पहल.
बाहर भीतर तक, मदिरालास तड़पन.
नहीं ज्ञात. कब जीवन जलजात.
लेकर, अनजान अनकही विकलता,
मादकता से भर रहा छलकता .
मन. सर्वांग सरस रस पूरित,
मोहान्ध, झूम उठा.
आँखों के सम्मुख.
कुछ कहा, कुछ अनकहा.
अर्धसत्य स्वप्न क्षितिज, घूम उठा.
नयनों के नीरव स्वप्न चांदनी में,
सघन गहन आकर्णमूल पद्मपलाक्षों में,
कब उतरा शनैः-शनैः
मनः शान्त निर्वात तड़ाग में,
रसराज. यौवन.
समस्त सम्मोहक आयुधों से सज्जित.
हो उठी.
सांवली कजरारी आँखें,
लज्जा-रस-अरुणाभ-अंजन से अंजित.
रहा न कोई सौंदर्य प्रसाधन.
रंचमात्र भी कहीं वंचित.
जीवन.
यौवन-शरत शर्वरी में, जाती पुष्प सा,
कुसुमित सुरभित, महक-महक गया.
रस की, गंध अंध आकुल होड़ लगी थी.
कहाँ किस मोड़ पर ,
वह. रही एकाकिनी.
मन की सब सजी संजोयी बातें,
संग, उसका छोड़ चली थी.
जाने कितने मादक रस सिंचित
चित्र विचित्र, पुष्पों की,
सहसा, मन के कंवारे आँगन में
हुई अजस्र वर्षा.
मन आकम्पित. भींगा भींगा.
यह मसृणता का उत्स, भी,
न सह सका.
सोयी मनः-वीणा पर,
किन तारों की झंकार.
स्वर अदृश्य, हुए न साकार.
एक अनगूंज गूज.
अज्ञात सा. मारक अचूक.
मन.
मन्त्र-मुग्ध चकित.
कौन देश.
वह आया.
जो प्रगाढ़ तन्मयता में भी,
सतत अपरिचित.
कैसी मदिर मृदुल चांदनी में,
हो उठी, मनः-कान्त मंदाकिनी प्रवाहित.
मन .
सिहरा-सिहरा, गीला-गीला.
डूब गयी उसमें,
अभिलाषा-कुवलय-चित्र-विचित्र-अल्पना.
रखा, संजों कर, एक अनछुवा वेणु.
किन अज्ञात करों ने, उसे छुवा.
किसने सोये रागों में, प्राण संजीवन फूक भरा.
क्यों ?
धीर गंभीर नीर भरी,
भरी-भरी, मनः-कालिंदी.
तड़प उठी.
सिहरी कंपी चमत्कृत विकल,
दोनों उपकूलों से,
घबड़ा कर चिपकी रही डरी-डरी.
अंततः शत-शत लहर विचूर्णित मर्दित,
मर्माहात घूर्णित पीड़ित,
आकुल, आकुंचित,
रिक्त कलांकुर पात्रों को लेकर
तृणित कराह उठी.
सब, अनजाना अनगाया.
शब्द, नाम, रूप, अपिचित.
जिसे मन ने कभी न पहचाना.
किसके स्वागत में मन में बेकल धूम मची थी.
आया.
वह अतिथि अनजाना.
मन.
पिछली पहचानों की कोई
विस्मृत गांठें रहा था खोल.
यह अनगूंज गूँज.
अनुक्त रसीले अबोल बोल.
सिहरे, सहमें मन ने ,
कुछ स्वीकारा पर
आँखों ने नहीं जाना.
किसने दी यह लाज़ भरी मादकता घोल.
अंध मुग्धता.
त्रिभुवन-निकष-निचोड़-मादकता,
प्रच्छायित मनः-गगन में.
कैसे तन्मयता के क्षण में,
कैशौर्य.
अचेतनता में ही, विदा मांग गया.
कब किन अनछुवे पलों में,
यह नवीन समारोह.
केशर कुंकुम सुरभित गुलाल,
उड़ाता आया.
मलयज वन, हो उठा मनः-मधुवन.
नीलराजि रंजित नयन क्षितिज पर,
सप्त रंग सुरधनु मदिर मोहक मुस्काया.
मनः-तड़ाग रजत राका स्नात.
आकम्पित विस्मय विमुग्ध पात पात,
स्वप्न कँवल, पवन दोले में लहराया.
ईशत-यौवन प्रत्युष में,
विकच अभिलाषाओं के केशर मरन्द
सुरभित गुलाल उड़ाया.
मनः-आकाश.
रंग ज्वार से भर अकुलाया.
वह. देवदह की कान्त कमनीय
नवांगना राजकन्या.
षोडश कलाओं का शशांक.
षोडश बसंत, आया,
जिसके वयः-प्रांगण में.
लावण्य-प्रभ पूर्ण ज्योत्सना.
अनभिज्ञ, निज सौंदर्य गरिमा से.
विचर रही थी,
बहुमूल्य रत्न जटित अलंकार,
निसंग चित्र-विचित्र विलसित अंग-अंग.
तन पर लिपटा इन्द्रधनुषी
सूक्ष्म उत्तरीय लहराता.
दाडिम-पुष्प-राग रंजित अधोन्षक
ज्वलित लपटों से सज्जित.
कृष्ण कादम्बनी के,
सप्त रंग चाप में शत-शत टूटती
तड़ित प्रभा वर्तुल वल्लरियें,
कहीं पुष्प कर्णिका भी न जाय,
कोमल वपु में चुभ.
अप्रतिम अपूर्व रूप अदभुत. 
झलमल झलमल पट.
ज्यों शरत शर्वरी में,
नील गगां में,
ज्योतित नखत.
वह.
अप्रतिम अलौकिक अनूठा
लावण्य-प्रभ नवांगना.
स्वप्न सरी ज्योत्सना स्नात कुमुदनी.
केशर कस्तूरी पराग चर्चित अंग-अंग,
मुखः-छवि ऊर्ज्वसित चित्रित, पत्र-भंग.
लोलोई लहरित अमिय आप्लावित, अमृत तरंगिणी.
कल कोमल निश्च्छल मुक्ताभ, राजहंसनी.
निज सुगंध आकुलित चकित विभ्रमित, मृगः-मद कस्तूरी.
कब.
अप्रत्याशित अयाचित सहसा हिमपात हुआ.
हिमकण-शल्य, विद्ध पीड़ित हर जलजात हुआ.
उनका, कमनीय कल कोमल कान्त कलेवर,
मकरंद मरन्द मीलित मदिरालास सोमरस,
मुदित उत्फुल्ल हास, कुम्हलाया.
पात-पात कलान्त कृष्णाभ,
नवल सौष्ठव पूरित अंग निष्प्रभ हो आया.
लाक्षागृह सा सन्धुक्षित विदग्ध प्रज्ज्वलित,
अग्नि शिखाओं से आवेष्ठित,
मनः-सौख्य-सौंध !
जलकर ध्वस्त भस्म हुआ.
क्या हुआ अचानक.
हुई न आहट.
मिली न कभी रंचक भनक.
जैसे.
कोई सहृद वार्तालापों के मध्य में ही
हो जाए मौन.
सहसा हो ज्ञात.
वह. अभी था.
अब रहा नहीं.
यह. वज्राघात.
जीवन मरण सरिस अवसाद.
सह पाना. सहज नहीं.
खोजो.
घबडा कर.
कहाँ स्वांसें . कहाँ धडकनें.
कहाँ प्रकाशित प्रतिच्छायित आँखें.
जो कुछ भी करो प्रयास.
सब व्यर्थ निरर्थक.
पीडाजनक.
कटी डोर जिस नौका की
वह हुई समय प्रवाह समर्पित.
कब बनी वह पुलिनों की.
ऐसा ही था. मेरा सुख.
मृत उल्लास.
रहा न जिसका भास्.
अभी. आरम्भ ही हुआ था,
श्री गणेश.
आमुख भी जिसका अप्रगट रहा.
क्षण में, पटाक्षेप हो गया.
प्रतीक्षकुल प्यासी आँखें.
ध्वांत नैराश्य में दिग्भ्रान्त विकल पक्षी.
पथ श्रांत खोजती राह तडपती पांखें.
आँखों का यह आनंदोत्सव.
सहसा ठिठका, अश्म हुआ.
पलकों के उन्मीलन सरिस,
पल मात्र में वे सरस उन्मादी क्षण
हुए व्यतीत,
उच्छवासों. आहों से आक्रांत कातर वक्ष.
सदा रहे सघन घन से भरे-भरे.
सत्य ही कहा किसी ने.
समस्त ब्रह्माण्ड.
इसी लघु तन-मन में.
यह मनः-ताप.
आँखों की अजस्र अटूट बरसात.
स्मृति टीस से भरी पीड़ित कौंधें.
विरह तड़ाग में,
विगलित जीवन जलजात.
आँखों का मदिरालास झूमता बसंत,
अयाचित अग्नि ज्वलित पतझार.
आया, सौरभ-सिंचित-कलिदल किसलय,
द्वार.
ले गया. झकझोर, मरोड़
एक-एक कली झार.
प्रकृति चिर यौवना.
जर्जर जीर्ण वसन निराभरणा.
रही आँसुओं में सिसकती.
क्या बीता.
कुछ कह न सका वज्राहत मन.
शोकमग्न विषण्ण यशोधरा.
धरा पर मौन पड़ी हुई.
अर्धनिमीलित शयित व्यथित विभ्रांत.
हर पल-विकल चंचल विक्षप्त,
उन्मुक्त करों से कर चुके थे,
दान, निज विश्राम.
नयन कोरों के अविरल गिरते जलधार,
अभिसिंचित सिक्त हो रहे थे
बिखरे कृष्ण कुंतल दाम.
मन.
कितना निराश्रित उद्वेलित अधीर.
व्यथा, तीक्ष्ण फरस से,
अनवरत, ह्रदय रही थी चीर.
अश्रु-आप्लावित अरुणाभ.
नयन कगारों पर,
अर्ध रात्रि में पूर्ण चन्द्र सी ज्योतित
गौतम की छाया उतरी.
अपलक मौन निरख रही थी
वियोगिनी विरह चकोरी.
मूक, आँखों की भाषा. खोज रही थी,
पीड़ा की अनुक्त नयी परिभाषा.
यह. अगेय गान.
स्वर न दे सका.
अधर, मुखर न हो सका. 
सिमट गए अकिंचन शब्द कलेवर.
यह अनुभूति-भार, वहन न हो सका.
वज्राहात. हरी भरी लतिका.
जिस पर सद्द पतित हुई शम्पा.
चेतना लौटी.
सजग किया गहन उमड़ती गहरी साँसों ने.
देखा,
सम्मुख. मनः-क्षितिज से जो आँखों में उतरा.
उद्वेलित ह्रदय तड़ाग.
लहरों को बाहों में भर भर कर भी, वह.
वैसा ही प्यासा का प्यासा बना रहा.
नीरव निशीथ में,
बिना कुछ कहे
जो मौन त्याग कर चला गया.
उससे अब कुछ भी कह लेने को
शेष ही क्या रहा.
नहीं सिहरे जिसके चरण.
नहीं कंपा जिसका मन.
समस्त पूजन अल्पनाओं को
जो कुचलता सहज बढ़ा.
सब मिटा कर,
महाशून्य खींच कर हो गया विरत.
अब.
इस अपार अदभ्र निसंग सूनेपन में,
कोई बात नहीं उभरती.
सब लुटा टूटा पड़ा, बिखरा,
निश्प्राभ, निष्प्राण.
कैसे समझे उसे.
अभिशाप या वरदान.
यदि कहीं स्नेह की किंचित भी होती स्निग्धता.
क्यों प्राप्त ही होती यह विरह-विदग्धता.
क्यों ?
जल गया नवल नीर भरा झूमता,
स्वाती-घन का सजल सरस अंग
अचानक.
रह गया प्रतीक्षाकुल चिरपिपासित
तड़पता चातक विभ्रांत.  
कभी न कहू की कज्जल काली रातों ने,
शशि मुख को देखा.
कभी न कृष्ण क्षपा आभा में,
पूर्ण चन्द्र खिला.
निर्दय नियति ने
नितांत निस्सहाय बनाया.
पीड़ित स्मृतिओं में भी,
कोई वश नहीं.
इस परित्यक्त मनः-आँगन के,
कपाट खुले या बंद रहे.
निर्द्वन्द्व आगमन विचरण है सबका.
बिना अनुमति के वे सब धृष्ट,
निरंकुश स्वच्छंद रहे.
अवश देखता रहा. मन.
कैसा उजड़ा.
वीरान हुआ, उसका नंदन वन. उठा,
समय का प्रचंड प्रबल अप्रतिहत
हिम-शल्य-खचित झंझा झकोर तीव्र प्रभंजन.
कहाँ. क्या टूटा. क्या ध्वस्त हुआ.
मन काष्ठवत्. रंचक भी कर न पाया अवगाहन.
उमड़ा उद्वेलित अबाध आँखों का जल प्लावन.
आंकुचित वेदना विमूर्छित भूलुंठित,
गिरी धरा पर.
मरोड़ गयी, तन-मन,
पीड़ा की कौंधों की तड़पन.
जल गया मन.
जल गया तन.
उठी अग्नि,
ऐसी गहन.प्यास.
प्यास रटते-रटते,
तृष्णा, बुझी नहीं.
दूर दूर तक अपार विस्तीर्ण रहा फैला,
आँखों का, एकाकी विशाल जलता सैकत वन.
प्यासी हिरणी.
घायल व्याकुल पीड़ाकुल दिग्भ्रान्त.
हुई बंदिनी.
घेर गया उसे, ऐन्द्रजालिक मृगजल.
दिखला कर समीप आने का छल.
अब.
मनः-ऊर्जस्वित मानस जल.
कर रहे अनवरत मौन प्रक्षालित,
उन पुनीत पावन स्वर्ण कँवल चरण,
निज अबाध अजस्र स्रावित अश्रु-वारि से.
मृणाल बाहुलता में उन्हें कर आबद्ध,
समस्त व्यथा कथा उनपर न्योछावर कर,
निज मस्तक को उनपर
रगड़-रगड़ समझ रही,
अंतिम अवलंबन.
अंतिम शरण.
अबोल बोल.
स्वर रहित मौन प्रश्न.
था, जिनका स्वर, पागल उद्वेलित धड़कन.
जीवन धन.
मनः-मधुवन.
वीरान हुआ.
यह निःसंग तपः-कुटीर पल न धीर.
सहस्र खण्डों में, व्यथा गयी चीर.
प्रभु.
निज स्वांसों से नहीं.
श्रीमन् स्वांसों से ही,
मैं जी रही थी.
यह विछोह. कितना पीड़क.
एक-एक पल.
वार संकुलित अत्यूर्मियों के अभेद्द प्राचीरों से भी,
कही अधिक कठिन मारक.
चला कैसा ज्वलित विदग्ध प्रभंजन.
हरित पुष्पित सुरभित पल्लव प्रच्छायित,
शीतल स्निग्ध, मनः-आँगन,
भर गया. पीट पत्रों से,
ध्वांत अशांत नैराश्य प्रताड़ित आघातों से.
बुझा.
जलता सौख्य दीप.
नितांत निसंग निभृत.
नहीं, कोई समीप.
केवल, वेदना अतिथि.
घूम रही घोर तमिस्रा में घर बाहर,
कैसे भूलूँ.
वह प्रथम मिलन.
लेकर आया था जो मधुरस का वर्षण.
मैं.
विस्मय विमुग्ध विभोर हिरणी.
किसी पुष्प वाटिका से सहसा,
प्रभु के समक्ष आ निकली.
वह.
कपिलवस्तु का परम्परागत
अलंकरण वितरण समारोह था.
यह उत्सव, मेरे निमित्त
प्रथम और अभिनव था.
आर्य !
ज्यों स्वर्ण रथारूढ़ पूर्व उदित अर्यमा.
या, किंजल्क जाल विकीर्णित पूर्ण चन्द्रमा.
अथवा, रत्नाकर से स्वर्ण कलश लेकर
लहरों के मध्य अवतरित वरुण देव.
वे.
अप्रतिम अलौकिक अवस्थित थे सस्मित.
ह्रासोज्वल कुंद पुष्प बिखेर रहे थे.
क्षण.देखा मैंने.
वह.
भव्य व्यक्तित्व अप्रतिम.
देदीप्यमान महामहिम.
साक्षात सारल्य माधुरी की प्रतिमा साकार.
उन्मुक्त करों से कर रहे थे,
स्वर्ण अलंकरण वितरण.
कुमारी राजकन्याएं
सभ्रांत कुलीन बालाएं.
निज आँचल में सह्रास नभ्र नमित.
भर नव उल्लास
साग्रह ग्रहण कर रही थी आभूषण अमित.
मृदुल मधुर मनोरंजन का मनहरण कलरव था.
कौमार्य-सुगंध से,
समस्त वातावरण पुनीत सुरभित था.
अभी तक, मुझे.
अपनी ही मंत्र-मुग्धता से
विमुक्ति नहीं मिली थी.
मन के उत्सव सौष्ठव सौंदर्य प्रवाह से,
अवश घिरी थी.
आर्जव कौमार्य अछूता मृगः-मद.
मादकता अबूझ.
लेता था हिलकोरे.
रजत राका में प्रस्फुटित पत्रों पर पत्र.
केतकी, गंध-अंध आकुल.
मचल रहा था, छू लेने को,
इन्द्रधनुषी अंतरिक्ष की स्वर्णिम कोरें.
अटपटे अल्हड़ चरण,
मदिर क्षुद्र घंटिका जहां-जहां.
वन उपवन में व्याप्त श्लक्ष्ण निस्वन.
पड़ना कहीं, पड़ जाते कहीं, चरण.,
बढ़ जाते कहीं, निष्प्रयोजन.
अन्तर-वर्हिमन. उन्मन उन्मन.
अबुझ गंतव्य. अबुझ पथ.
स्वंय नहीं ज्ञात,
कौन पथ करना चयन.
अज्ञात गोप्य
यौवन का, यह मारक सम्मोहन.
कर उठा, वह,
मदिरालास समस्त भुवन.
मनः-कालिंदी.
बिखरी कल्पना चांदनी.
समय,
पुष्पित नमित पल्लवित कदम्ब.
अनुरणित शयित वेणु, झंकार.  
स्तिमित चकित अन्तर निरालम्ब,
विस्मित सर्वत्र निरखती,
स्वप्रावस्थित,
आ पहुंची मैं,
बालाओं की हर्षोल्लसित कल कूजित,
संकुलित भीड़ चीरती.
नहीं पता.
क्या देखा, आँखों ने.
कैसे क्यों कर इतना सब हो पाया.
मन.
भावाकुल.
समझ न पाया.
इस उद्वेलन,अन्तर मंथन,आलोड़न में,
शब्द, स्वर तोड़ चुके निज बंधन.
केवल.
आँखें ही थी संवेदन.
निरख मुझे.
खिली उनकी, मुक्ताभ दाडिम दशनि अवलि.
घूम कर देखा, रथ की ओर.
हँसे किंचित.
सरल, सौम्य मुख कुतूहल,कौतुक,
मृदुलान्किल.
फैला कर अपनी दोनों भुजाएं.
दिखलाया, निज रिक्त हाथ,
सह्रास बोले –
जो कुछ भी था हो गया समाप्त.
जो भी था मेरे पास, हो चुके सबको प्राप्त.
चकित देखा मैंने मर्माहात.
सह्सा ठेस लगी अचानक.
उत्फुल्ल मुख प्रभा विलसित, हो उठा म्लान.
पीड़ित. मन ! कभी यह सोच भी न पाया.
मैं भी. क्या जा सकती रिक्त हाथ.
अन्तर उद्वेलन सहज दबा कर
अत्यंत विनीत बोली साग्रह.
स्वर, लज्जित, सहमें-सहमें.
शब्द, अस्फुट, अटके-अटके,
तब. नहीं मुझे कुछ भी यहाँ मिलेगा.
सहसा कौंध गया मन में,
देवदह, गमनोपरांत,
क्या कोई भी स्मृति-चिन्ह शेष, नहीं रहेगा.
अलंकार-विलसित-विद्रूप-सस्मित,
सखियों की मौन आँखें.
क्या-क्या नही कहेंगी.
यह आयाचित आहत अपमान.
सहसा आँखों में उमड़ा.
स्वयंप्रभ उद्दीप्त ऊर्ज्वसित स्वाभिमान.
शीश उठा अपलक देखा मैंने.
कहा पुनः-
मैं देवदह की राजकुमारी.
लौटूंगी ऐसे ही नितांत रिक्त निरी.
देखा प्रभु ने.
सरलता का सात्विक सम्मोहन.
किस प्रकार आर-पार करता अन्तर-दोहन.
मंगाकर अलंकार, दिया मनमाना.
कितने करुणार्द्र हैं प्रभु.
मन ने उस दिन जाना.
अंजलि भर-भर अजस्र वर्षा आभूषणों की,
भरकर उत्तरीय अंचल, वे गिरे भूमि पर.
कौतुक यह.
दाता का.
देते कर, थमे नहीं.
मन आकुल घबड़ाया.
कहीं यह बढ़ती राशि.
चरण अवरोधक, बने नहीं.
कहा विकल होकर,
क्या इतना सब, सह पाऊँगी.
गहन अलंकरण.
कोमल तन.
क्यों कर, कर पाऊँगी भार वहन.
कहते-कहते स्वर गाढ़ हो आये.
अस्फुट से, सिहरे से,
वे कंपते अधरों में रहे बल खाए.
ऊपर उठी आँखों में, जल.
प्रतिबिंबित उसमें छवि निर्मल.
सस्मित बोले प्रभु-
मेरा आभूषण.
जिसको जितना भी दूँ मेरा मन.
क्यों कोई रीता रह जाए.
तन-मन उसका भर जाए.
कहते-कहते, मेरी ओर निरख हँसे.
ह्रासोज्वल आयत लोचन,
सहज स्नेह तरल हो आये.
उतरा आंखों में प्रभात.
कंज कँवल उत्फुल्ल अवदात.
स्वामित्व-सिंहासन पर आरूढ़,
पुरुष.प्रकृति को, कर रहा था
उल्लसित उन्मुक्त दान.
ऊर्ज्वसित अखंड आदिम स्वाभिमान.
आकाश.
पुरुष.
धरा .
नारी.
चरणों पर नमित करवद्ध साभार.
अद्द्योपरांत अनन्त उपहार.
अटूट क्रम.
मति विभ्रम.
ह्रदय.
आमरण आजन्म गया, उनपर वार.
ज्ञात नहीं अबतक,
हुआ कौन आभारी.
पुरुष या प्रकृति-नारी.
यह सम्मोहन पारावार अपार.
जितने भी पल बीते.
अनुक्त अवर्णन्य अलभ्य मदिरालास,
सुरभित थे.
मनः-कारा में कैदी, गंध-आकुल-सुवास.
प्राप्त, सहसा प्रकाश.
दोनों के मध्य अनुभूति संवेदित.
मनः-मंदाकिनी.
दुग्ध धवल अवकाश तरंगिणी.
अंजलि भर-भर,मौक्तिक ह्रास.
बिखेरती आई.
धरा-गगन तक व्याप्त,
सात्विक शुभ्र प्रकाश.
कैसी मनः-मुग्धता तन्मयता विस्मृति.
समझ न पायी.
मैं.
आमूल कांपी.
रंचक सुधि न रही.
सब शून्य.
जड़वत.
मैं अवाक,
काष्ठवत् हो आई.
वे अबोल क्षण.
क्या-क्या बोल गए, मन में.
भींग गया. मन का क्वारा आँगन.
मन अधीर.
अनजान पीर.
आये, नयनों में कंपते नीर.
जाने कैसा धुंध, छा गया.
तन-मन आँखों में.
निरभ्र नील मनः-गगन में,
गहर गहर गहरी श्यामल सजल बदली छाई.
बोझल पग.
विषण्ण वह,
नयन क्षितिज पर शनैः- शनैः उतरती आई.
उस क्षण भी.
इस आनंदातिरेक का,
पीड़ा ने ही, अभिषेक किया था.
सुख दुःख दोनों ही थे सम्मुख,
पर उनकी, पड़ती छाया.
एक सदृश ही काली थी.
नहीं थी कहीं सुख-प्रतिच्छाया  में,
उज्ज्वलता,
या दुःख की परछाईं में
श्यामलता.
सुख-दिख की रिक्त प्यालियों में,
केवल घूर्णित मंथित विकल शून्यता.
उस दिन स्पष्ट ज्ञात हुआ.
मन का यह, उद्वेलन.
कहते जिसे.
सुख या दुःख
दोनों में एक ही,
प्राण संजीवन धारा है.
किसी एक वस्तु के ही,
उज्जवल स्यामल दो रूप.
दे जाते दोनों ही,
अन्तर में गहन व्यथा अचूक.
आनंद.
आमुख आमंत्रण है दुःख का.
किसी अतल गहराई में ले जायेगा, वह.
सुख.
उसकी मात्र, निठुर, विडम्बनामयी क्रीड़ा है.
सुख.
सहर्ष.
दुःख के स्वागत में,
चित्र विचित्र अल्पना सज्जित करता है.
और.
दुःख !
उस रमणीयता कमनीयता को
निष्ठुरता से, चरण ठोकरों से.
मर्दित करता है.
अन्यथा.ये उन्मादी पल.
क्यों हुए इतनी मारक.
अनुस्यूत इसमें,
जाने कितने अनजाने जन्म-मरण.
आगे भी खड़े ये प्रतारक बन कर
अचूक संहारक.
यह भोला कौतुक.
कितना अदभुत.
सौख्य.
सम्मोहन.
नहीं कहीं.
केवल.
उतरी गंभीर गहन गहरी चोट.
मैं. निज सुगंध में आकुल.
मृगः-मद हिरणी घायल.
संज्ञा शून्य, रही खड़ी सब भूल,
मन्त्र मुग्ध जडित.
धूल उड़ाता.
बढ़ गया स्यंदन.
चक्रवात बगोलो से घूमायित अन्तर तत्क्षण.
जड़ चेतन में क्षिप्र वर्तुल, नर्तन,
अणु-अणु के अवचेतन में
मादक स्पंदन.
क्यों ?
आनंद के ऊर्ज्वसित उद्वेलित
आवेगपूर्ण, प्रवाहित उत्स पर,
विषाद के अप्रतिहत अनवरत
निर्मम हिम-शिला-खंड गिरते हैं.
क्यों ?
आँखों के, रजत स्नात स्वप्न कँवल.
अश्रु-तड़ाग में डूबे रहते हैं.
क्यों जल पर पड़ती उनकी ही, प्रतिच्छाया में,
उनकी दुःख की व्यथा-कथा अनुस्यूत.
मौन तुहिनाश्रु खचित सिसकते हैं.
यौवन के अर्ध निमीलित द्वार पर,
साभार अयाचित.
स्वतः मणि विकीर्णित मदः-रस ऊर्ज्वसित यह दो पल.
ह्रदय शतदल पर,
शुद्ध, बुद्ध, प्रबुद्ध, हिरण्यगर्भ सदृश्य था,
प्रखर भास्वर उदभासित.
था जीवन चरम. प्राणोपम सतत अधीष्ठित .
जीवन.
सर्वथा शून्य.
नहीं सान्ध्य ! नहीं प्रातः!
पीड़ित स्मृतियाँ ले गयी सबको,
निज अंचल में बाँध.
जो भी पल बीते.
असह्य कठिन रीते.
कांतर अन्तर.
कितना और सहे.
नित्य ही, निसंग सूने मनः-तड़ाग में,
शनैः-शनैः पग धरती उतरी सांझ.
आमूल थर-थर कम्पित हो जाता है अन्तर.
कौन नयी व्यथा के ताने बाने बुनती,
पुनः आज वह आ रही, नितांत निदय.
सूना मन.
सूना आँगन.
उन्मुक्त कपाट खुले वातायन.
मात्र.
नैराश्य के ही रहे आमंत्रण.
यह मन.
भरे-भरे.
भीरु, सदा के डरे-डरे,
अहर्निशि मनः-गंगा में,
वह, पूर्ण चन्द्र सा खिला रहा.
अपलक प्यासी आँखें रही निरखती,
ह्रदय-विरह चकोर चिंगारी चुनता रहा.
उस सौदर्य सुधा में आकंठ डूब,
विमुग्ध, मन्त्र जड़ित,
प्यासा का प्यासा ही रहा.
अंध मुग्धता का अप्रतिहत अबाध जल प्लावन,
भूल गया मन.
सीमा का बंधन.
उस पथ पर जल रहे यह अश्रुदीप.
वह विरही पथ, कभी न लौटा
हुआ न कभी समीप.
शूल से बिंधे, वे अविस्मरणीय अलभ्य दो पल.
जिसमें, पञ्चतत्व भी हो गया तिरोहित.
केवल. दो प्राण दीप.
जल गए वहाँ समय काल के भी क्षण.
समस्त, कगार पुलिन कर आत्मसात्
वह तदात्मता का जल प्लावन.
उस सम्मोहन कर्षण रस वर्षण में,
दो प्रेम हंस का,
तन्मय संतरण.
किन्तु.
प्रबल प्रेम में तीव्रता अक्षुणता.
हो जाति उसमें ध्वस्त धराशायी विलीन,
समस्त सामाजिक संबंधों, परिवेशों की,
जटिल कृत्रिमता या दिविधा.
एक प्रकाश.
एक तृप्ति.
अबाद्ध सर्वगंगा की धारा.
स्नात, सब एक सामान,
वैषम्यता का कारा.
यह.
उदात्त उदार भावना.
जो व्यष्टि से समष्टि में होती अवतरित.
पृष्ठभूमि –
उदार चेतानाम वसुधैव कुटुम्बकम की.
नारी.
कोमलता सौंदर्य आजर्व सौष्ठव की गरिमा.
तन्वी तरुणी सुधामयी अन्नपूर्णा.
यदि निज कर्त्तव्य ज्ञान से उदभासित,
सहज स्वतः स्वामी उद्देश्यों को,
पूर्ण समर्पित,
वह.
प्रिय की प्रेयसी प्रियतमा गृहणी, अर्धांगिनी,
अनुराग राग रंगिणी,
सुख दुःख की निर्विवाद अडिग सहचरी.
निज आत्मजों की
पतित पावनी जाह्नवी पयस्विनी.
ज्ञान संवर्धन निमित्त,
वाणी तेजस्वनी.
स्वामी पद-रज-अनुगामिनी.
वह लक्ष्मी आह्लादिनी.
पति-पत्नी,
पुरुष-प्रकृति,
संचारित उनसे समग्र संसृति.
क्यों कर आज हो गयी, वह,
जीवन मूल्यों की अवांछित वंचना.
बनी मात्र नारीत्व-विडम्बना.
कराह उठी,
अन्तर-द्वंदों में घूर्णित व्यथित, गोपा.
सोच रही थी मन ही मन.
कृष्ण नैराश्य क्षितिज पर
नीड़ खोजता चक्कर खाता,
प्राणों का, पथ श्रांत पक्षी
किस प्रकार हताश
गिरा धरा पर तड़पता,
क्षत-विक्षत करुण-क्रंदन करता.
टूट गए पंख.
मिला न पल्लव-प्रच्छायित स्नेहिल पादप-अंक.
जलता रहा शीश पर निरभ्र नभ.
जल रही पाँव तले की शुष्क धरा.
पीड़ित उद्वेलित वक्ष में,
अनवरत जो दुःख कंटकित साल रहा,
अंततः वही, टूटी साँसों का काल बना.
कैसा है मन.
जो पथ खींच ले गया स्वामी को,
उसी पथ पर नित्य सांझ को,
मैं दीपक बाल रही,
कर रही अनुनय वीथि से,
ले गयी जिस प्रकार उन्हें,
लौटा ला, उसी प्रकार यहीं.
उन राहों से अवश मन की डोर,
सदा बंधी रही.
हा ! हत् भाग्य !
कब डस गया.
विष-प्रमत्त ज्वाल फुन्कारित,तक्षक रौद्र रूप विकराल,
सौख्य मुदित पुष्पित हरित पल्लवित, सुरभित तरुवर को,
आमूल भस्म हो गया वह,
उड़ रहा क्षार.
रहे शेष केवल तीक्ष्ण कटीले शूल.
जीवन.
केवल.
भूल.
भूल.
घिर व्यथा-प्रभंजन वात्याचक्रों में
घुट घुट विकल भ्रमित हर टूटते क्षण.
मन में लौह धुरी सा गड़ा,
अचल संकल्प तर्क.
सकल द्वंदों ऊहापोह को काट रहा,
भास्वर प्रखर प्रज्ञा-अर्क.
सदा शून्य मनः-आकाश में,
परम  भास्वर सस्वर
दिग्घोषित करता रहा है.
गोपे !
काट, ममत्व तंतु जाल.
हो निवृत्त !  
मनः-वृत्तियों पर कर संयम,
आत्मतुष्टि.
मात्र हीन भावना प्रवृत्ति.
उठ ! ऊपर.
लघु तृष्णाओं का क्या मोल?
ये अनवरत अमृत में,
विष रही घोल.
पर्थिविकता !
रमणीय क्षणिक मनोरमता.
केवल, अंध-कूप मनः-जड़ता.
यह क्षण भंगुरता,
नाना प्रकार से तड़पाती है.
शाश्वत सुख को,
लघु प्रलोभनों के मिस, छल कर ले जाती है.
औरों का सुख.
अपना सुख.
जिसने जाना.
जीवन की वास्तिवकता, सार्थकता, उदात्त भावनाओं को,
आमूल उसी ने पहचाना.
“स्व !”
इसने ही यह अनित्य अनंत संसार रचाया.
आवागमन चक्र को,
अटूट और सबल बनाया.
निज स्थायित्व पर शुद्ध अस्तित्व,
निरख,
विषाक्त विद्रूप मुस्कानों के संग,
चिरंतन से इसने,
सहज आँख मिलाया.
और निशंक होकर बोला,
किसने कहा- तू नित्य.
मैं अनित्य.
महाकाल के शाश्वत हम दोनों चरण.
अनन्त काल से अनवरत गतिमान.
तू.
एकरस नीरस ऊब भरा.
मैं.
नित्य नवल, पल-पल, परिवर्तित,
आसव-रस छलका रहा.
जीव ! जिसे चाहे, करे वरण.
बैठा रहे, सैकत भूमि में,
या इस मधुवन में करे विचरण.
स्व का सम्मोहन.
मन्त्र मुग्ध मनः-गगन.
यह कंज कँवल पटल सम्पुट कारा.
कैदी मनः-चंचरीक बेचारा.
तुषार कण.
नम-निसृत.
कमल पात पर मुक्ताफल सरिस सज्जित.
बिखरा, प्रभा-विकीर्णित, झलमल झलमल, करता,
वृन्त-वृन्त, पुष्प शीतल.
उनकी ताप गहन हरता,
उनके अन्तर में चिपका,
रश्मि जाल नर्तित,
मुक्ताफल कहलाता है.
वहीँ, धरा पर टिका,
एक जल कण.
गर्वित निज स्व की रक्षा करता,
सत्व सरंक्षण की वंचना में,
सदा धूल में मिल जाता है.
नहीं वाणी ने चुना उसे.
नहीं धरा ने रखा उसे.
स्वार्थ-केंद्रित दम्भी अहमपूर्ती की,
यही परिणिति होती है.
अतः गोपा.
अपने अश्रु नहीं.
जग निसृत निस्सहाय विकल अविरल,
अश्रु निरख.
निज पीड़ा से औरों की व्यथा परख.
सब तर्क वितर्क करती,
चिंतन करती गुनती,
अन्तरद्वंदों में अनवरत डोलती.
कहीं संतुलन न कर पाती.
आर्त विकल वेदना में कराह,
अन्तर-दह की पीड़ा में गिर जाती.
बोलती.
करुणा-विगलित,
अश्रु-सिक्त, अस्फुट स्वर में,
आह देव ! ज्ञान रखा रह जाता है.
सब अश्रु प्रवाह में बह जता है.
गड़ी न फांस जिसे,
वे ही, उससे बचने या पीड़ित होने की व्याख्या करते हैं.
चुभा वह जिन हाथों.
वह तो उठता है कराह.
ये सब.
कोरी बातें.
लगी न चोट जिसे वह क्या जाने.
व्यथा-संवेदित-आघातें.
ये.
आधार रहित.
नींव रहित.
गगन विचुम्बित आदर्श.
पड़े न जिसके चरण.
कटंकित तप्त धरा पर
वे ही अपनाते हैं सहर्ष,
उन्हें ही, ये मणि मुकुट सज्जते हैं.
जो. राग-विराग-रहित , आप्तकाम हैं.
या निर्विकार सन्यस्त श्रोतापन्न हैं.
अरुपचार में करते विहार.
पञ्चतत्व से असंस्पर्शित दिव्य विभूति.
अलौकिक अदभ्र दीप्ति.
जग उनका.
शान्ताकार. प्रभु !
वे नहीं रहे जग के.
समस्त राग, क्षार हुए कभी के.
किन्तु ह्रदय जिसका.
अहर्निशी अजस्र अनवरत प्रतिपल जलता,
विदग्ध ज्वाल फेंकता, यज्ञाग्नि है.
उसमें. ये सिद्धांत, आदर्श, उपदेश, राग-विराग.
नितांत, अटूट प्रवाहित धृत-धार है.
जो.
एक बूँद जल को प्यासा.
अधर, तृषाकुल चटख-चटख जाता,
उस उस पावन घन से, क्या नाता.  
जो कहीं उमड़ा, बरसा या जलप्लावन लाता.
नैराश्य, ध्वांत अशांत अपार,
इस कातर मन में उसे,
नहीं कहीं पता, क्या यहाँ या उस पार.
सर्वत्र अदभ्र अथाह पारावार.
प्राची के शुभ्र ललाट पर,
राजित, वर्तुल बालारुण.
क्षत-विक्षत, रक्त-रंजित, लोहित,
दम तोडता रगड़ता,
शनैः-शनैः क्षितिज से ऊपर आया.
तप्त गगन.
विषण्ण मन.
वह भी.
आशाओं की भरी चंगेरी फेंक. जला-जला.
अनवरत जला.
गया नियति से छला.
रश्मि तीक्ष्ण शरों से आमूल आरपार.
विधि.
अंत में,
पीड़ा की मध्याह्न-सूली पर चढ़ा.
गिरा, लोहित मुमूर्ष अवसन्न.
पड़ा रहा,क्षितिज पर,
पहन उज्जवल मरण वसन.
निष्प्रभ. निष्प्राण.
सांझ ने रो-रोकर उसे निज अंक में भरा.
निरख विसुध आक्रांत.
दुःख से निकला, सुख को भटका,
जीवन पथ, विरल विषम, कांतर, दुर्गम.
निरूपाय निरीह धक्के खाता,
गिरता पड़ता, अटका, डूबा,
पुनः,
वेदना के अविछिन्न चिरंतन धारा में.
केवल दुःख !
दुःख ही शाश्वत चिरंतन है.
यह प्रलय महार्णव है.
नैराश्य कृष्ण नीलांचल को फहराता,
वाडवाग्नि विकल हाहाकार मचाता
दिशाविहीन अंतरिक्ष विलीन.
निज विस्फार्रित मुख गह्वर में आत्मसात कर
सूर्य, चन्द्र, नखत, खगोल, भूगोल,
करता दिग्घोषित गर्जन.
दिखा.
सर्वत्र एक एक का आमूल विसर्जन.
इस दुःख के अपार अथाह वारापार तरंगायित,
लहरों पर,
केवल, था एक.
वट-पत्र-शायी.
अंगुष्ठ चूसता,
कल कोमल कँवल नवल आरक्त,
चरण फेंकता जाने क्या सोचता.
संहार. फिर सृजन.
होकर एक से अनेक.
एकमेवाद्वितियम, बहुस्याम भावना से,
निर्मित करता अपने ही प्रतिबिंबित दर्पण.
मृत जड़ सृष्टि में,
पुनः नव जागरण सजते,
प्रत्यावर्तन के चित्र विचित्र बहुरंगी आभरण.
सुख का आवाहन.
दुःख का आमंत्रण,
सुख की आतुर प्रतीक्षाकुल प्यासी आँखों में,
पुनः घिरे,
दुःख के काले कजरारे नीर भरे सावन.
प्रकाश ! प्रकाश ! कहते कहते.
कज्जल काली रात घिरी.
सुख.
कहते हैं जिसे.
वह प्राणान्तक मृगछलना ही रही निरी.
जला.
प्रतिपल जीवन का कण-कण.
यह आत्म दहन.
शाश्वत और चिरंतन.
धरती.
जल जल कर पाषाणी हो गयी.
गहन गह्वर कंदराओं के मारक क्षत, विध्वंसक,
ज्वालामुखियों के विदग्ध
ज्वलित छालों से भर गयी.
नभ.
जलती अंगार सरिस ज्वालाओं से घिरा,
तड़पता, हाहाकार मचाता,क्षार उड़ाता,
अनवरत विकल जलता है.
कब हो पाया शान्त ?
मिला न तन मन को विश्राम.
मिथ्या.
आकांक्षा रही,
आनंद की.
वह वांछित मिला नहीं.
जला ह्रदय. शीतल हुआ नहीं.
स्वयं को.
स्वर्ग ! कहते कहते
नखतों के कंकालों से संकुलित हो उठा.
नित्य जलती है.
अग्निशलाका सी, आशाओं की उल्काएँ.
प्रेतात्माओं सी,
परस्पर लड़ती टकराती, प्यासी हाहाकार मचाती हैं.
थक कर व्यर्थ धूम फेंकती
आशा-अरण्य-वीथिका में भटक-भटक,
धरती पर गिर, जलती-मिटती, पत्थर हो जाती हैं.
केवल.
निज पीड़ा का प्रत्यक्ष प्रमाणित, इतिहास बनाती हैं.
और, आकाश.
अति निराश.
सर धुनता.
नखताश्म-अस्थि-पिंजर के कंकालों में,
विक्षिप्त शापित पिशाच सा भटकता.
भग्न आशाओं के, महाश्मशान में एकाकी बैठा रोता है.
आंसू से मुख धोता है.
दिवस !
दिनमणि की जलती भट्टी में,
उसे जलाता.
रात्रि पिशाचिनी.
चंद्र चषक में आसव, ढाल-ढाल,
मस्त कर पान.
व्यर्थ लुभा-लुभा कर,
उस तृषातुर की , केवल तृषा बढ़ाती.
निष्प्रभ, मलीन, कांतिहीन, अति दीन.
बाहर भीतर से जलता.
केवल काला दिखता है.
नैराश्य-कज्जल वर्षा-आक्रान्त
नखत उल्कापात उपल वज्र निपात,
अविराम मौन सहन करता है.
और.
उसका प्रत्युत्तरित प्रतिबिंबित दर्पण.
यह उद्दाम गरजता, महार्णव,
निज तृषित तप्त अन्तर में भर,
भीषण रव,
केवल,
चिर पिपासित सदृश इसने,
उगते चन्द्र.
डूबते दिनमणि को ही देखा.
मिला नहीं कभी इसे.
एक भी अमिट प्रकाश की रेखा.
नहीं छलकते अमिय चन्द्र-चषक को,
निज शुष्क अधर, लगते देखा.
अतृप्त अधीर, आतुर, आकुल अन्तर,
सप्त-रंग किरण, सतह पर रही लोटती निरंतर.
विलीन हो गए. सभी उल्लास-लास, मदिर रंग.
केवल अक्षुण्ण,
गहन सालती कालिमा की रेखा सतत अभंग
जिसने, धुंध भरा जलता उसका हृद्तल देखा.
अतः आनंद .
एक कल्पित मनः-कल्पना.
अंध मोह जनित मृग छलना.
मनः-अनुभूति प्रक्रिया.
वह.
इहा-सर्पणी.
वर्हि आवरण कृष्ण,
दुःख अभिव्यक्ति !
उज्जवल, ताल आवरण,
सुखः-कृत्रिम, अनुभूति,
किन्तु. नागिन तो नागिन.
विष ही अन्तर में
सुख या दुःख.
केवल स्वांस-निश्वास.
प्रकारांतर में.
अतः आनंद किसने देखा है.
यह.
प्रतीक सात्विकता, उज्ज्वलता, परम शांति, विराम का.
यह सुख भला किसे प्राप्त है ?
इस चर्चित परम अमर शाश्वत चिरंतन,
आनन्द के,
एकाधिकारी अधिकारी स्वामी !
क्यों ?
सुख के विकल्प में दुःख का ही चयन करते हैं.
विष्णु, राम, कृष्ण !
उज्जवल वर्ण होकर भी कृष्ण रंग ग्रहण करते हैं.
हिरण्यगर्भ कब श्याम हुआ,
देदीप्यमान प्रचंड अर्क, मध्याह्न चढ़ा,
कब म्लान हुआ.
देवता. सात्विकता के प्रतीक.
क्यों नहीं, निज मूल प्रकृति में रहें अवस्थित.
शिव.
साक्षात भगवान.
कर्पूर सदृश देहयष्टि अभिराम.
मंगलमय, स्वस्ति संकाश, चिन्मय स्वरूप.
किया क्यों पान,कालकूट हलाहल.
हुआ, मुक्ताभ वर्ण नील नीलम अभूत,
शीश पर अमिय छलकता था.
त्याग कर इसे अपनाया,
गरल, जो मारक विष से जलता था.
क्यों ?
दुःख को किया वरण.
ये सब थे.
सत्-चित्-आनंद. अशरण शरण.
और वह.
माहेश्वर !
तेज से उदभासित,
जिससे समस्त भुवन शासित.
क्यों ?
उसका सहस्र फणों की शय्या पर,
निर्वाध शयन.
जो है.
अच्यूत अक्षीण अनन्त समस्त सिद्धि-अयन.
शीश पर, विषाक्त विकराल विषज्वाल फुन्कारित सहस्र फण,
प्रच्छायित, प्रतिपल, विष-सीकर-वर्षण से सिक्त अभिसिंचित.
उसके मन का प्रासाद-प्रांगण भी,
ज्वलित, तप्त निस्वांसों से,
अविरल जलता है, दहता है, फूंकता है.
जाने संधुक्षित, इस अन्तर-दह विदग्ध आँवे में,
कौन सा, सत्य !
हिरण्य सा जलता गलता, दीप्तपूर्ण निखरता है.
देखा मैंने.
माधवी का मौन सदन.
और अम्बुध का निस्सहाय करुण क्रंदन.
कुचलता बढ़ा जा रहा अप्रतिहत निर्बाध,
अविराम गतिमान, समय-सयंदन.
उसके घूर्णित चक्रों से दलित,
उभरी, पड़ी, धरा पर रेखा.
वह, शाश्वत रिसती पीड़ा की है.
उसकी मंथर गति से जो उड़ी धूल.
धुंध चढ़ी.
वह, नैराश्य, धवांत तिमिराछान्न है.
समय ने, कभी सौख्य का राग रंजित गुलाल नहीं उडाया.
मानस-क्षितिज पर, सघन घन सा, आवृत होकर,
जब भी लगी ठेस, निर्बाध बरसने आया.
शल्य बिंधा प्रातः.
आँहों भरी रात.
दोनों का सांध्य,
अश्रु-नखतों से डब-डब भर आया.
पीड़ा.
पीड़ा ही तो रही सदा.
जो हर परिवेशों से छलने आई.
अतः आनंद किसे कहते हैं.
शायद उसमें निर्विकार निस्पृह
श्रोतापन्न ही रहते हैं.
जिनमें नहीं सापेक्ष चेतना, नहीं भावना.
नहीं धडकती, उद्वेलित रागाभिव्यंजना.
ऐसा निष्चेतन निष्प्राण मुमूर्ष मृत,
आनंद लेकर क्या होगा.
जो प्रत्युतरित संवेदित नहीं.
उस वार्षिला-प्रतिमा को लेकर, क्या होगा.
यह ह्रदय !
इस सौरभ-सुरभित, मादकता, आप्लावित,
अंध-मुग्ध-आत्म-समर्पित,
परम तृष्टि को कैसे कर पायेगा अवगाहन.
प्रतिबिम्ब नहीं उभरा जिसमें,  
वह, अंधा दर्पण,
अपना ही तो व्यंग बना.
दुःख !
यही शाश्वत अक्षुण्ण आत्मसुख.
अनुभूति प्राण है यह,
हर धड़कन में पलता है.
कितना कोमल मसृण,
आँहों से घिर, अश्रु-संतरित,
फिर भी, सिहरा-सिहरा रहता है.
व्यथा-सम्पुट में,
हृदय-अग्नी-तपन में,
अश्रु-सीकर, अभिसिंचित अहर्निशी, परिपक्व,
शुद्ध भैषज.
वही निष्कल सत्य है.
वह.
विवेक धवल प्रज्वल क्षितिज पर
उदित शुभ्र शुक्ल नील मुक्ताभ नखत है.
इस प्रखर प्रकाश में,
जब उदात्त भावना,
एक सम पर आ जाये,
और.
वह अनंत चिरंतन प्रकाश,
उसे स्पर्श कर जाये.
तब पहचानो स्वयं को.
खींचो. अति कोमलता से
वेदना-विनिन्दित- वीणा की नीड़,
उस अनगूंज गूंज से,
हत अनाहत मिल जाये.
सहस्र पटल स्वप्न-शयित,
ज्ञान सुधा सरसित खुले
उनके एक एक पटल.
वहाँ जो.
निष्कम्प निष्कल अचल.
परम सत्य.
अनित्य.वही,
पीड़ित प्राणों की पहचान.
वेदना.
निर्द्वन्द्व, निरंतर, निशंक, अप्रतिम, वरदान.
किन्तु. विकल प्राण.
चाहता शाश्वत त्राण.
कब निज गृह से विदा हुए, प्राण.
यह समय सतत अनजान.
अंचल में, जो ग्रंथि बंधी.
अति जटिल दुरूह, वह खुली नहीं.
बिछुडते हुए.
मिला क्या, जाते जाते, सन्देश.
इसकी भी, सुधि रही नहीं.
आवागमन.
प्रत्यावर्तन.
भवसागर-अटूट-संतरण-तड़पन.
जन्म-जन्म के हरे प्राण पथिक को,
मात्र यही पाथेय मिला,
नहीं, मिली कभी,
सघन श्यामल तरुवर की शीतल छाया.
नहीं, कोई पड़ाव, पथ में आया.
अनन्त-यात्रा का यह,
पथ-श्रांत-भ्रांत थकित प्राणी,
अविराम.
ऐसा ही चलता आया.
जो मिले.
उन्होंने भी निज दुःख की ही गांठें खोली.
यद्दपि वे सब.
अति आकुल विकल अधीर,
स्वांसों में भर हताशा की पीर.
केवल ! सुख की ही बातें करते थे.
पर शुष्क तृषित अधर. चरण छलनी.
आँखें थी प्रतिपल गीली.
अप्राप्त सुख की उप्लब्धि में, सारा जीवन.
छूंछा.
पीड़ित अभाव रिसता, रीता बीता.
दुःख की निःश्रेनी चढ़ते-चढ़ते,
समस्त प्राण-रस छिंजा.
जिस सुख का माध्यम दुःख है.
वह.
अपंग सुख.
वस्तुतः क्या है ?
जिसे, दुःख की ही बैसाखी सतत अपेक्षित.
जहाँ चरण दृढ़ता से हुए स्थापित,
वह भी, दुःख की ही विशाल धरा है.
पीड़ा ही, शाश्वत शुद्ध ॠत है.
आनंद.
मृग मरीचिका अनित्य अनृत है.
टीसों के आकुंचित क्षिप्र,
विद्युत-प्रवाह में,
आत्मानंद विमुग्ध प्रगाढ़ तन्मयता का,
अविराम अजस्र सृजन,
यह मौन, आत्म-यज्ञ-यजन.
प्रतिबिंबित,
जड़ जंगम कण-कण.
एक जीवंत, प्राणवंत, संजीवन, स्पंदन.
निर्मल स्वच्छ मानस-दर्पण,
जिसने निज पीड़ा में, किया,
विश्व-वेदना का अवतरण अवगाहन.
वह जग का, जग उसका है.
कैसे वह.
किसी एक को, अपना कह सकता है.
विरल कटंकित पथ के रोड़े चुनते,
आने वालों के निमित उसे, सुगम बनाते,
वे.
सतत बढे चले, पथ पर पुष्प बिखराते.
बहुजन हिताय - बहुजन सुखाय.
जिन्होंने जिस तन-मन को,
किया पीड़ा को सहर्ष समर्पण.
जब-जब धरा हुई मर्दित वेदना-विजड़ित,
किसी न किसी रूप में,
महापुरुष हुए अवतरित.
महत् कार्य निरूपण में हुई उनकी अग्नि-परीक्षा.
जितनी बार जनक सुता ने, दी अग्नि परीक्षा,
वह, राम के ही उद्दत संस्कारों, आदर्शों की,
रही, अचल तुला.
सीता की ही नहीं, राम की भी,
वह कठिन परीक्षा थी.
पुरुषोत्तम ने भी,
मौन वह मर्मांत ज्वाला झेली थी.
उनका हृदय.
आदर्शों की प्रज्ज्वलित अग्नि-वेदिका.
निसंग निष्कल वहाँ अवस्थित थी सीता.
वह, नारायण श्री राम.
कहाँ रहा सुखी.
मिला न किंचित मनः-विश्राम.
चौदह वर्षों का बनवास.
अवधि पूर्ती का निहित विश्वास.
किन्तु, स्वतः का दिया गया स्वयं को बनवास.
हो गए समाहित उसमें, सप्ताह, माह, वर्ष, बिना प्रयास.
यह. अवधि-रहित, मनः-एकांत वास.
यह दण्ड.
अखंड, था झेलना निसंग.
विरह-पारावार, अपार.
तप्त आहों का सैकत वन.
स्मृति-शूल-संकुलित-मनः-अजस्र पीड़ित.
तप्त निरभ्र गगन.
विदग्ध निर्वसन धरा.
इनमें से होता,कंटक-वन झंखाड़ों से घिरा,
दूर कहीं, एकाकी चला जा रहा था,
एक अश्रुस्नात कंज अवदात
क्लान्त गात, कातर निष्प्रभ,
विधु मुख.
विवर्ण, कुश,
क्षीण, नितांत दीन निराभरण.
जिसे अपनी अश्रुल-स्मृति-वीथी में,
निहार रहा था वह अपलक, मौन रात्रियों में जग.
वह तन्व्वी कोमल तरुणी.
मनः-आकाश अमृत- तरंगिणी.
वेदना की साकार सजीव प्रतिमा.
अनुक्त अवर्ण्य-व्यथा-कथा गारिमा.
थी.
वह. एकाकिनी वनवासिनी.
निराधार.
अन्तर-दाह असह्य वेदना संभार.
यह शाश्वत दुःख अचेतन मन विक्षुब्ध,
वह.
अग्नि-वेदी प्रज्ज्वलित परिणय की,
अब.
अतूर्त अत्युर्मियों में, ह्रदय-वहिन में जलती थी.
सप्तपदी परिक्रमा, ग्रंथि बंधन की,
हर प्रदक्षिणा में एक प्रतिज्ञा,
आमरण भार वहन करने की.
सात जन्मों की प्रबल पीड़ा बनकर,
सहस्र फणों सी डसती
थी.
कि राम.
कहाँ सौख्य निर्वहन वचन.
कहाँ रहा वैदेही संरक्षण.
केवल, तुम.
उसके कर्ता हर्ता भाग्य विधाता थे.
आज वह.
निसंग अकेली भटक रही अरण्यों में,
किन्तु.
निभृत निविड़ निसंग ह्रदय साम्राज्य.
जहाँ अवस्थित, जनक सुता.
अनवरत मूक अश्रुओं से
अजस्र अभिसिक्त होती थी.
कर्त्तव्य कर्मयोग तपः-यज्ञ में,
प्रज्ज्वलित आहूति अग्नि बनी,
निज अश्रु दीपों से,
कंटकित संकुलित विजन वन वीथि पर,
नितांत निःसंग निशब्द रही चलती.
कितना प्रबल,
समय-प्रवाह
दुर्गम विशाल अवरोध पाषाण विचूर्णित कर
निशंक बनाता, अपनी राह.
युग सृष्टा.
युग सर्जक.
श्री राम.
चिरसंगिनी वैदेही ललाम.
दोनों को, दो विपरीत दिशाओं में उत्क्षिप्त करता,
बहा जा रहा.
समय निर्भय अविराम.
दो उपकूल समानांतर.
जो कभी मिले नहीं.
केवल अम्बुध में खोकर ही,
वे सदा रहे.
उसी प्रकार अविराम, कर्त्तव्य-चन्द्र को अपलक निरखते,
दोनों चकवा चकवी दो समानान्तर कूलों में, थे रहते.
यह शाश्वत विछोह. आमरण प्राण, रहे विकल तड़पते.
इनका त्याग.
आत्म क्लेश.
पीड़ा अशेष.
कैसे जग कर पायेगा विस्मरण.
परमार्थ निमित्त निस्वार्थ
जिन्होंने, स्वेच्छा से किया शर-शय्या वरण.
आह भर, लेकर गहरी निस्वांस.
कहा गोपा ने.
विचलित विभ्रमित जीवन,
भग्न सभी विश्वास.
मनः-आश्वासन व्यर्थ.
हुआ न दुःख वारिधों का भंजन.
मन के सागर में,
जितने भी तर्क वितर्क उठते हैं.
वे बुद-बुद से, उसमें ही बनते,
मिटते विलीन, हो जाते हैं.
यह असह्य पीर.
रखती न रंचक धीर.
स्मृतियों की करक-संकुलित,पीड़ित कौंधों में,
वह छवि, पूर्ण चन्द्र सी आ जाती है,
नील-नयन-नीलराजि अश्रुल क्षितिज में,
घिर जाते हैं, श्यामल घन उमड़े उमड़े.
बरस-बरस कर भी नहीं सँभलते,
प्यासे चिर तृषित ह्रदय प्रांगण,
उनसे आकुल कहते रहते,
बरसो. बरसो.
सजल कज्जल नीरद घन.
कण कण में असह्य ताप है.
जीवन.
सूने पतझारों का विलाप है.
पता नहीं चलता.
कब दिन ढलता है.
कब संध्या तड़पाने आती है.
रात्रि !
कौन सा मारक विष,
चन्द्र-चषक में भर,
रग रग में प्रवाहित कर जाती है.
असह्य अवर्ण्य अधीर पीर भर जाती है.
प्रकृति का सम्मोहन भी,
कम नहीं बनाता विषण्ण.
देखा है कितनी बार.
उसका बहुरंगी मनुहार.
वारिद-विद्युत मिस हृदयोद्गार,
नीलान्जसा, कल कमनीय कांचनेय मसृण मृणाल,
बाहुलता आबद्ध,
श्याम सजल सरस जलद घन
बरस बरस गया.
तृषा, तृप्ति-निवारक संजीवन-स्वस्ति-सीकर-कण.
फिर भी, अपलक अनिमेष आकुल अतृप्त दृगों से,
रहा झांकता, विद्युत का, प्यासा चातक मन.
आज भी, प्रकृति ले रही है अंगड़ाई.
क्या बात उसके मन में आई.
सहमा-सहमा,
ज्योतित नखत खचित कृष्ण अशांत नभ,
तिक्त घूमायित कुंठा से घिर,
चुप-चुप उतप्त निःस्वासें भरता है.
मौन नत वह.
औरों की सुनता कुछ नहीं अपनी कहता है.
तीक्ष्ण नखत, डब-डब, अश्रु छलकता है.
और यह, विभावरी.
निज में मस्त अलसित बावरी,
खिली, उत्फुल्ल विहँसती लावण्य सुषमा अशेष.
शरत-शर्वरी- शातोदारी.
सद्दः-स्नात सम्मोहन सन्निवेश,
पदः-स्पर्शित व्यालोलित
अराल आकुंचित चूर्ण कृष्ण, कुंतल दाम.
निसृत मुक्ताफल ललाम.
ज्यों, सुधा-रस तृषित आकुल लहरित विषः-प्रमत्त,
कज्जल कराल मणिधर व्याकुल अविराम.
आकंठ निम्मजित.
स्वर्गंगा संतरित.
उज्जवल विद्द्युताभ कान्ति प्रभा विकीर्णित.
अभिनव विकसित तुहिन माल सज्जित.
नव नील कँवल कल कोमल कमनीय उत्पल बात.
मलय विचुम्बित डहडहे पवन दोलित,
रसः-मरन्द मीलित सुरभित इन्दीवर जलजात.
कृष्ण केश जलह-सिक्त,
मुक्ताफल ढल ढल तुषार बिंदु निसृत.
कर रहे, पान.
पिपासित प्राण.
पादप, पल्लव, पाटल, प्रसून,
टेसू, किंशुक के रस-मर्मज्ञ,
शुष्क तृषा-विकल-कम्पित अधर.
यह रूप अपार.
अतूर्त लावण्य पारावार.
विभावरी.
रात.
मादक मदिर मदीली आप्लावित सौष्ठव सम्भार,
घूम आई.
पिछ्ले प्रहरों में मलयज, उशीर, अमृणाल,
केतकी, सुरभित, शीतल, उन्मद, वन, उपवन.
बंध-अंध-आकुल, कोमल सुतनुश्री,
तन्वी अपाद बलखाती लह्वी.
इन्द्रनीलमणि तरुणी रमणी, सुरभित निःश्वास.
स्वच्छ नील आकाश.
खुल रहे, रमणीयता कमनीयता के
एक एक अवगुंठित बंद छंद.
विचार रही सज्जित कुसुमायुध सरिस,
निःशंक, स्वच्छंद.पहन, जगमग-जगमग,
रत्नजटित प्रभा-प्रकाशित, नखतों की,
नीलाम्बर मृग-छाला.
क्षीण कटी. सुविन्यस्त देहयष्टि,
मदः-दृष्टि, अमिय वृष्टि,
पुष्प गुच्छ हार मणि मेखला.
पद घुंघरू नर्तित, झंकृत मंजीरित शिंजिनी,
बीन बजाती, झुक,
झूम-झूम, जाती, बनी वह.
श्यामा, मदः-मस्त, अल्हड़,
कस्तूरी-मृग वनचरी, किरातन बाला.
बीन धुन गुंजन.
पवन गगन अवनि प्रकृति उन्मन.
कर रही वह, वशीकरण मन्त्र आहूत,
मदिर यामिनी.
अघोर कामिनी.
सम्मोहन संभूत.
बैठा, सम्मुख.
प्रेम-प्रसंग-आमुख, शशि,
विमुग्ध भाव-विभोर.
शीश उठाकर, अनिमेष अपलक रहा निहार,
बना कुंडलाकार तक्षक नाग,
चन्द्र विभ्रम. अर्ध वर्तुलाकार !
विषाक्त ज्वाल फुन्कारित, उगल रहा प्रचंड आग.
विष-दंश पीड़ित, विदग्ध, विक्षिप्त, त्रसित.
नील निरभ्र नभ, अति विचलित.
उन्नत गर्वित विशाल वक्ष,
भर उठे, दारूण नखत क्षत,
निज फुन्कारों से, ज्वालों से,
उसे, चन्द्र-मणिधर ने,
जला-जला काला कर डाला.
बीन.
मधुर धुन,
क्षुद्र घंटिका रुनझुन,
मन्त्र-मुग्ध-विजड़ित, विधु !
खिंची पुष्प-प्रत्यंचा.
सन्धानित साधा पुष्प-शर.
आकर्णमूल अरुण श्याम पद्मपलाक्ष, आप्लावित,
आँखों की मारक मदिरा पारावार.
डूबे, पंचशर, कर रहे वार.
शशि को आहत अवश कर डाला,
वह. मौक्तिक नीलाभ सुषमा.
लावण्य-प्रभ, गति, मदः-मस्त, अप्रतिहत.
नख-शिख, तक आपाद छलकती लहराती,
मानिक मदिर मदमाती मारक हाला.
अमृत ने, विष को पागल कर डाला,
प्रथम बार, गरल ने, अमिय के सम्मुख आनत झुक,
अस्त्र डाला.
बंदी विधु.
रही न सुध.
मोहक अभैद्द अटूट नागपाश.
होकर निराश, वह ! हारा ! हारा !  
अलघ्य अडिग अटल कारा.
बीन बजाती,
अंजलि से नखत लाजा सर्वत्र छिटकाती.
बढ़ी जा रही, यामिनी.गजगामिनी, किरातन बाला.
कर रहा, वह अनुसरण.
नहीं अन्य वरण.
बलात् बाधित, यंत्र-चालित विजड़ित मन्त्र.
विवश चन्द्र.
मोहक-कर्षण-कशा-आबद्ध,
निज भुज-बंधों में बाँध,
ले गयी उसे अपने साथ.
प्रकृति ने भी मोह नहीं त्यागा.
मानी नहीं कोई बाधा,
निज अभीष्ट सिद्धि में,
तन-मन पूर्णतः शतशः साधा.
रहा मेरा ही विरही मन, नितांत अभागा.
कहीं चन्द्र.
कहीं चकोरी.
आह. अभागिनी मैं.
स्वयं से ही हारी.
अब यह.
निराधार अवश अरण्य क्रंदन.
करता है केवल हृद आलोड़न मंथन.
नहीं बन पाते ये.
विदग्ध तप्त गात पर.
शीतल चन्दन अनुलेपन.
जो चोट लगी.
उनके सांघातिक गहन क्षत
नहीं भरने वाले अति गहरे हैं.
शल्य-बिंधी मृगी,
भटक रही विगत स्मृतियों के
श्यामल उशीर वन में,
वहाँ भी सर्वत्र ही बह रहा तप्त पवन है.
जल रहा मलयज वन.
जल रहे श्याम सजल घन.
जाएँ कहाँ.
दिखाएँ किसे.
अपना संधुछित प्रज्ज्वलित अन्तर-दहन.
तड़प-तड़प निसंग निरुपाय रह जाती है.
आह ! सुना था,
मेरा यह रूप.
अचूक अमोघ अभूत अनूप.
किस प्रकार यह दर्प हुआ टूक-टूक.
कितना गहन अहम भरा था इसने.
आई नियति अचानक डसने.
उस दिन जाना.
यह रूप.
कर रहा किस प्रकार निठुर विद्रूप.
सत्य ही कहा.
होता है जिसमें जितना ही ऊर्ज्वासित अहम.
प्राप्त, उसे मर्मान्तक पीड़ा उतनी ही निर्मम.
अन्यथा, यह अति विश्वसनीय.
अटल स्पर्शी अनिद्द सौंदर्य सम्मोहन.
हुआ किस प्रकार ध्वस्त, चूर्ण-चूर्ण, विश्वखंडित.
दे गया अंतरतम तक व्यथा अथक अमिट.
यह आत्म मंथन, अन्तर दोहन.
कितना सोचूँ मैं.
अवश विवश यह जीवन.
अनवरत सालता यह शाश्वत क्रंदन.
कोई भी बात सांत्वना की, अब लगती है.
सब बातें नितांत भुलावे की है.
जले पर लोन छिड़क जाती है.
सुप्त क्षतों को निर्मम ठोकर दे जाती है.
ह्रदय- मणिहीन सर्प सा,
सर्वत्र मणि खोजता भटकता विकल.
अति दीन बना.
जल रहित तड़पता मुर्मुश मीन बना.
यह प्यासे पपीहे की चिर अतृप्त तृषा.
अब कहाँ स्वाती कण है.
अनन्त विरह-महानिशा, चकवी की,
नहीं, प्रभात-मिलन-किरण है.
अंगारे चुन रही चकोरी.
नितांत, चन्द्र का भ्रम है.
नहीं चकोरी का चन्द्र.
जल गया स्वाती घन.
अब आहों के संकुलित किंजल्क-जाल में,
पीड़ित प्राणों की भटकन है.
घना अन्धकार.
अथक वेदना सम्भार.
जीवन सैकत वन कंटकाकीर्ण विरल अराल,
वीरान बना.
जल रहे हर पल.
अब कहाँ.
धीरज का बल है.
विक्षुब्ध ज्वार संकुलित उदधि का,
शशि छू लेने को
यह अति कातर हताश निष्फल रोदन है.
साकेतपुरी की तन्वी तरुणी राजवधू,
भरत-पत्नी मांडवी.
निश्चय ही रही विरह विधुरा.
किन्तु अवधि पूर्ति उपरान्त
भरत ने उसे सहर्ष अपनाया.
सौमित्र भी लौट कर उर्मिला के सूने घर आया.
एक रही, सीता.
पवन पुण्य पुनीता.
जिसे, निदय नियति ने जीता.
मिली न स्वामी की छाया.
विरह वहिन ज्वाल लपट शतदल में,
रही जलती स्वर्ण मंजरी मंजुल मोहक काया.
लगता है जनक सुता सरिस,
दुष्ट ग्रहों की पड़ी मुझ पर भी वक्र कुदृष्टि,
हो रही, अजस्र विरह अग्नि वृष्टि,
जो विरही पथ,
ले गए प्रभु को,
वह पुनः लौट कर बने न संयोगी.
जिस वीथि से गए स्वामी त्याग कर मुझे.
उन पद-तल चरणों की धूल, सुरक्षित है,
इस रत्नजटित स्वर्ण मञ्जूषा में.
जब,
ह्रदय निराधार किसी प्रकार, नहीं संभल पाता,
वे चरण-रजकण.
इस मस्तक के बनते समादृत चर्चित चन्दन.
या वेदना-विदग्ध वक्ष पर शीतल अनुलेपन.
इसके एक-एक कण में,
वन-गमन की जीवंत प्राणवंत धड़कन.
ये व्यथा, अरण्य गमन की कहते हैं.
जाने किन किन गिर गह्वर कांतर वन,
कंटकित विजन उपवन में,
चुभते होंगे, कोमल कँवल कल पद में तीखे शूल.
सिसक सिसक उठती है, यहाँ भी,
स्मृति-स्वरूप, वेदना-अभिभूत, अकिंचन, धूल.
वे रंचक भी पथ श्रांत क्लान्त चरण,
उनके श्रम करती थी हरण,
ये आश्वासित प्राप्त आह्लादित,
पूर्ण समर्पित, हृद-धड़कन.
उन स्नेहिल स्निग्ध शरत-ह्रास-प्रच्छायित,
नत पद्मपलाक्षों की शीतल छाया में,
स्पंदित नर्तित कुसुमित परम प्रफुल्लित था,
नव नव आशाओं से सुरभित,
मनः-मुग्ध स्वप्न शयित मानस मधुवन.
सौख्य पूर्ण निशंक निर्द्वन्द्व निश्चिंतता का,
था मादक मधुर अभिनन्दन,
वह.
तन-मन-जीवन.
श्री चरण निवेदित पुष्प सरिस,
आमूल अंध सम्पूर्ण समर्पण.
हुई कहाँ चूक.
क्यों ?
मनः-मोह-शिंजिनी, गयी टूट.
उन मदिरालास तन्द्रा में, मिली न किंचित,
प्रभु की गतिविधियों की आहट.
जब भी मन रंचक होता त्रस्त,
सस्मित हलकी थपकी देकर
प्रभु सदैव करते आश्वस्त.
किन्तु, अर्ध निशीथ में कभी निद्रा भंग होते
देखा प्रभु को,
शय्या पर मौन अवस्थित ध्यान निरत.
अर्ध निमीलित नील नयन क्षितिज नीलराजिओं में,
उमड़े घुमड़े रहते,
धुंध भरे श्यामल विषाद घना.
आँखें, दूर कहीं शून्य में अटकी होती थीं.
किसी अन्धकार में, दो नयन दीप जले होते थे.
जाने कैसे किसकी खोज,
कैसा था मनः-शोक.
किसी गवेषणा से पीड़ित उद्वेलित वक्ष पर,
रहते थे बंधे हाथ.
पीड़ा-दंशित व्यथित दुर्वह गहरी बोझल सांस.
चौकती मैं.
देखती मुड़कर प्रभु की ओर.  
ज्यों निरखता चन्द्र को तुषित चकोर.
झुकी, इन आँखों को अवलोकती,
आँखों से ही करती प्रश्न,
पूछती, प्रभु !
किस चिंतन में रहते हैं.
क्यों यह अन्तर-मंथन, निसंग सहते हैं.
बोलते प्रगाढ़ गंभीर स्वर में-
तुम. शांत शयन करो गोपा.
मत.
मेरे मन के धुंध भरे वात्याचाक्रों में आओ.
जैसी हो.
उसी प्रकार रहो सदा.
मत. अन्तर आलोड़न की मृग मरीचिका में,
निज को उलझाओ.
यह चिंतन. आज का नहीं.
हुए जितने भी प्रकृति-प्रलय-प्रत्यावर्तन,
आवागामन-चक्र-आवर्त्तन.
प्राण.
निसंग एकाकी.
करता रहा सबमें से गमन चक्रमण.
वह.
किसी हेतु कहीं थमा नहीं.
समय-स्यंदन भी अवरोध बन सका नहीं.
पर, क्यों वह धावित.
किसके प्रति प्रेरित.
क्यों स्पृहाओं से अभिमंत्रित विजड़ित.
इस एक अकेले क्यों का उत्तर पाना है.
क्यों यह पीड़ा, अशांति, दुःख,प्रकृति, विकृति.
क्यों ?
प्राण इन सबमें दमित शासित.
वांछित जब तक न प्राप्त हो.
कुछ भी व्यक्त नहीं कर सकता.
मन.
अन्तर द्वंदों से संकुलित,
उलझन पर उलझन की ग्रंथियां जटिल ग्रथित.
एक प्रश्न का उत्तर.
हजार प्रश्न लेकर आते हैं.
यही सोचता हूँ.
क्या जीवन.
केवल प्रश्नों का जमघट है.
यहाँ प्रश्न ही प्रश्न पड़े बिखरे,
कहीं नहीं उत्तर,
सरल सुगम स्पष्ट निष्कपट निखरे हैं.
हंसी मैं.
प्रश्न.
सरल ह्रदय ! केवल मनः-वृन्दावन.
वहाँ मन्द्र-मन्द्र मधुर वेणु-धुन-गुंजन.
कांटे.
तर्कों के. प्रश्नों के,
नीरस सैकत वन में रहते हैं.
अर्ध निशीथ. शीश पर शशि.
पवन थपेड़े से प्रक्वणित वीणा निस्वन.
स्वप्नावस्थित तन्द्रालस
रगिणियों की शिंजिनी की धुन.
चल रहा अलसित मलय पवन
छू कलियों को विसुध,
समीप शीतल मधु सुस्वादु पेय.
यही जीवन का ध्येय, प्रेय, श्रेय.
कहाँ मन को उलझाते हैं.
निरर्थक पीड़ा पाते हैं.
क्यों ?
जन्म-मरण, आधि-व्याधि-व्यथा, में उलझे हम.
जैसे सब हैं मौन शांत.
वैसे ही क्यों न रहे हम.
मधु, कषाय, कटु,
जीवन-रस-सरस-फल.
क्या ?
इन सुखों के पार कहीं कोई सुख है.
जहाँ उलझ गयी यह स्नेहिल आँखों की कोमल धूप.
कौन सा वह.
अमिय संजीवन रस अनूप.
क्या कहीं अन्यत्र हो रहा निसृत.
आप्लावित छलकता पीयूष-कलश अप्रतिम अपरूप.
क्यों ?
तृषातुर सी आँखें.
दग्ध मनः-गगन में विषण्ण भटक रही हैं.
कौन सा वह अलभ्य पेय.
जिसके निमित्त शुष्क अधर सम्पुट कम्पित है.
क्यों चेतना, यों विक्षिप्त भ्रमित है.
लेकर गहरी निह्श्वांस,
बोले प्रभु-
इस जीवन का क्या विश्वास.
इस पर नित्य नियति नटी का लास.
गोपे !
क्या अंध ममत्व सम्प्रोषित वह जीवन,
बस इतना ही है.
जिसके हित आजन्म संघर्षण.
वह.
काल का निमिष मात्र का मनः-रंजन है.
जब, इसके हर पल इतने अविश्वासी हैं.
क्यों मानव इसे समझता,
जीवन ही सम्पूर्ण उपलब्धि अथवा इतिश्री है.
हंसी मैं.
प्रभु !
नित्य या अनित्य.
किस पर है विश्वास.
किसके प्रति हो रहे इतने उदास.
मैंने तो बस इतना जाना है.
यहाँ. अनित्य नहीं कुछ.
अकाल. कर रहा नृत्य चिरंतन.
उसके चरण द्वय, लास-प्रलय-चपल.
अविनश्वर और नश्वर.
दो अनन्त काल के मंजीरित नुपूर.
एक चरण बंधी.
केवल अनुभूति, लहर-लहर-दोलित-नर्तित.
दूसरा, चरण.
अलक्तक जावक सज्जित. कंकण,क्वणित,
रणित,क्षुद्रघंटिका, सस्वर गुंजित.
पल-पल, भाव-भंगिमा, परिवर्तित.
शब्द, स्वर, ताल, निबद्ध, झंकृत.
एक अचल अपरिवर्तित.
एक, साक्षात् स्वर्गंगा.
दूसरा , मादकता पूरित अमृता.
रसोत्थित बहु चर्चिता.
कौन एकरसता में रहेगा.
प्रभु ?
जब काल स्वयं नव-रस-कलश भर,
अनगनत भाव उर्मियों से, कर रहा,
स्नात तन-मन-कोमल गात.
भर रही, अनवरत अजस्र 
सरस शैशव, यौवन, जरा, मरण प्यालियाँ,
एक के बाद एक,
ग्रहण करने की नियमावलियां.
प्रभु !
बड़ी सरल जीवन की परिभाषा.
समय !
आन्तर वाह्य वृत्तियों के ताने बाने में.
अंकित कर रहा प्रकृति की बहुरंगी आकृतियाँ.
कहकर हो गयी मौन.
प्रभु ने गौर से मुझे देखा.
गोपे ! संभव है.
बड़ी सुगमता से तुम समस्त स्पृहाओं से हो जाओ परे.
जिनके इतने निखरे विचार.
क्यों वे भला दुर्बलताओं से घिरे रहे.
चौकी मैं. घबड़ा कर कहा.
नहीं.प्रभु. नहीं. नहीं.
यह तो चिंतन की एक विधा है.
वह तो, आह करेगा ही, जिसे कांटा एक भी, कहीं चुभा है.
मुझे यों अधीर निरख.
प्रभु की आँखे सहज स्नेह तरल हो आई.
लेकर गहरी सांस कहा-
कहीं चोट खा गयी गहन, जीवन की अन्यतम सुघराई.
क्यों नहीं शाश्व्य चिरंतन रह सकी,
उसकी, सुरभित सरसित लावण्य-प्रभ तरुणाई.
यह प्रत्यावर्तन परिवर्तन क्यों.
क्यों स्पृहाओं का निष्कंटक नर्तन.
काल अहेरी के मोहक जालों में बंदी.
इन प्राण पाखी का, कब विर्भित हो.
कर रहा, कातर क्रंदन.
पीड़ा ही पीड़ा.
सर्वत्र प्रत्यक्ष.
इन परिणितियों की निष्कृति सतत अपेक्षित.
मुझे वृत्तियों का नहीं,
निवृत्तियों का अन्तर-हृद, अपनाना है.
जिसे कहते.
अमर, अक्षुण्ण, शाश्वत, चिरंतन.
अथवा, अमृत-पद,
उसे निश्चय ही पाना है.
मेरा आदीप्त ह्रदय, दृढ़ संकल्पित.
करना है मुझे,
आत्म-मंथन, निर्णय, निष्कर्ष, संशोधन.
नित्य, नविन ज्ञानोन्मेष.
सत्य उद्बोधन.
शब्द नहीं, अध्ययन नहीं,
केवल अनुभूति परीक्षण, एकाग्र चिंतन.
करेंगे मार्ग निदर्शन.
आकुल गमनशील मेरे चरण,
रोक न पायेंगे कोई बंधन.
निर्वाण.
जन कल्याण को,
किया मैंने वरण.
स्तब्ध अपलक अवाक देखती रही, मैं
सभी, निरर्थक है यहाँ कोई विनय.
जाने कब से.
खिंच उठी थी जलती लक्ष्मण-रेखा,
जिसे न मैंने देखा-जाना था.
निश्चय ही वे जाते.
एक बार.
केवल एक बार.
मुझसे कुछ तो कह कर जाते.
अंतिम विदा समय,
ये अश्रु.
चरण प्रक्षालित करते-करते,
कुछ तो कहते, उनसे, लिपटे रह जाते.
या, सम्मोहन कर्षण, अंध मोह-प्रभंजन से,
थे वे घबड़ाते.
इन अधीर उबलते अप्रतिहत अश्रु-प्रवाह में,
डूबे, उनके विवश चरण.
एक कदम भी आगे नहीं, बढ़ पाते.
अथवा मादक मदिर अतीत के अवगुंठित शतदल के,
खुलते एक एक पत्र,
अंकित उनपर मधु-रात्रियाँ सहस्र.
गंध-अंध-आकुल-विगत-स्मृति-सौरभ विमुग्ध विवश मन-मधुकर.
भटक-भटक जाता.
अजस्र तुहिनाश्रु निपातों में बंदी, वह.
निज अभीष्ट लक्ष्य समीप न जा पाता.
किन्तु नहीं.
मुझे विदित है.
मैं कभी नहीं जाने देती.
जो था मेरा प्राप्य.
उसे अंचल में बाँध, ह्रदय समीप सतर्क रख लेती.
जाने वाले चरणों की चंचलता,
आबद्ध कर लेती मेरी बाहुलता.
और ह्रदय धड़कन की मुहर लगा,
मैं. अपना जीवन-धन, सहेज, निज गृह ले आती.
अतः, परिणाम जान कर ही उन्होंने
मुझे रंचक भान नहीं होने दिया.
किया वही, जो मन में ठान लिया.
महान त्याग.
बलिदान लेता है.
महत् प्रकाश पुंज समीप,
लघु दीपक निष्प्रभ होता है.
निश्चय ही, विदा के अंतिम बोल.
मुझे जड़ कर् जाते.
उसका उत्तर नहीं था मेरे पास.
एक शून्य संज्ञाहीनता, और टूटा विश्वास.
निराशा की भी विगलित मुमुर्ष होती सांस.
यह ह्रदय.
जो था आघातों से भी पार.
नियति के अनकहे अनचाहे निर्मम वार.
धरा पर ध्वस्त दम तोड़ता, अपना प्यार.
निश्चय ही निरुत्तर और अनुत्तर प्रश्नों के साथ,
उनको, ऐसे भी जाना था.
अतः यह मौन त्याग ही श्रेयस्कर था.
हत् चेतना.
स्तब्ध वेदना.
ह्रदय कातर अति दीन.
पत्थर बने अधर, न हो पाते मुखर.
सारे बीते क्षण.
उन चरणों पर जाते बिखर-बिखर.
पथ-भ्रमित, चकित व्यथित वे.
निज राह पूछते रह जाते.
क्या बीते अतीत के किसी एक क्षण का भी,
वे निधडक, निशंक, निर्द्वन्द्व,
स्पष्ट उत्तर दे पाते.
प्रभु .
हो गए रागातीत बीतराग.
मैं.
मोहान्ध. शोक संतप्त.
जल रही स्पृहाओं की आग.
मुझमें.
मेरा अविराम गुंजित संचित अलभ्य गूढ़ धन.
मेरा भरा पूरा प्राण-संजीवन पूरित,
वेदना-विनिन्दित कम्पित अतीत.
उन्हें ज्ञात ही कहाँ रहा.
यह जीवन.
उनकी ही स्वांसों को जी रहा.
वे मेरे प्राणोपम जीवन धन.
ह्रदय उनकी भावनाओं का,
प्रतिच्छायित प्रतिबिंबित दर्पण.
तन-मन जीवन सम्पूर्ण समर्पण.
यही, आमरण आजन्म श्रीचरण निवेदन.
यह विछोह.
कितना मर्मान्तक उत्पीडक.
एक एक पल. तड़प रहे विकल.
वे.
ज्वार संकुलित गगन दर्पित अत्युर्मियों से भी
कहीं कठिन दुर्वह मारक.
स्वामी ने.
निज अनुगामिनी को नहीं जाना.
रंचक भी मुझे नहीं पहचाना.
अनुभूतियाँ.
सबको एक सरस नहीं हृदयंगम करती.
कहीं पर वे संवेदना-सतह-संतरित रहती है.
कहीं, वज्र-निपात सी अन्तर-दह तक विदीर्ण करती,
जलती उल्का सी गिरती है.
अचेतन मनः-सागर ताल में,
हिम शिला सी जमकर अनवरत अविराम,
रिसती रग रग में टीस भरी दंशित करती रहती है.
दुःख के सम्पुट में पल,
शुद्ध, प्रबुद्ध प्रखर भास्वर, सत्य दीप बन, जलती है.
तपः-पूत ह्रदय. स्वर्ण प्रभः-प्रकाशित,
समस्त विश्व, स्वच्छ, पारदर्शी
मुकुर में प्रतिबिंबित होता है.
केवल.दुःख ही,विश्व-चेतना-संवेदना-संपर्क-अर्क,
स्थापित करता है.
एक प्रानोन्मेष, समस्त विश्व उन्मेष,
एक स्नेह की छाया में, सम्पूर्ण विश्व आया.
महत् प्रकाश.
बना विश्व आवास.
ऐसी ही किसी पीड़ा को प्रभु ने जाना.
व्यष्टि नहीं समष्टि को अपना माना.
किन्तु मैं !  
जिसका अस्तित्व. अंध ममत्व, श्री चरणों में था.
वह क्या जाने.
उदार ह्रदय महामानव का महिमावंत महत्व.
सुना था कंठस्थ ज्ञान से अन्तस्थ ज्ञान
होता है सापेक्ष सप्रमाण.
मेरा यह अनुभूत ज्ञान.
क्यों नहीं कर रहा, अवसाद का अवसान.
ठीक ही कहा था, नारद ने सनतकुमारों से.
मैं. सम्पूर्ण ज्ञान का अध्येता.
सर्वत्र गामी, ब्रह्मवेत्ता.
क्यों ? हो न् पाया मुक्त, विषाद से.
तात्पर्य यही न.
कालजयी विषाद.
समाहित इसमें.
सब शब्द, रूप, स्वर, अभिज्ञान, अभिमान, नाद.
निर्विवाद.
महाकाल अन्तर-हृद से उदय,
सब रूप रंग, वर्ण लेकर, उसमें ही विलय.
शेष रह जाता है व्यापक विशाल प्रच्छायित,
कं खं  समाहित सर्वत्र व्याप्त,
नील गरल-आलोड़ित-विषाद.
उसी प्रकार.
मेरी यह नितांत निसंग अंतहीन अन्तर-यात्रा.
केवल प्राप्त, अवनी अनुक्त अनुभूतियों की अतुल मात्रा.
यदि अब.
कहीं भूल कर पुनः प्रभु लौट कर भी,
गृह आ जाएँ.
तो. यह शाश्वत चोट. यह क्षत.
कदापि नहीं भरने वाले.
जिस जल प्लावन में बह चली मैं.
उसके अदम्य वेग, न थमने वाले.
आहत प्राण.
विस्मृत मुस्कान.
जीवन, अभिशापित वरदान.
करेगा कैसे.
उनका स्तवन, आह्वान.
मैं. एक भग्न प्रतिमा.
निष्प्रभ गरिमा.
अंग-अंग प्रक्षुण्णित, पीड़ित.
केवल. एक ही जीवन आधार,
राहुल प्राणोपम.शुचि दुलार.
मेरा,प्रियतम.
उसने मुझे.
महामाया और महाप्रजापति बनाया.
वह राहुल के परोक्ष नाना रूप बदल कर आया.
फिर भी, यह घायल मन.
किसी प्रकार न बंध पाया.
कोई भी रूप.
मर्मान्तक पीड़ा को नही भुला पाया.
मैं क्या करूँ यह विक्षिप्त मन लेकर.
यह प्राणहीन यंत्रचलित विवश, जीवन लेकर.
यह, चिर वियोगिनी. विरह-संयोगिनी.
अपलक आँखों में ही जगी,
कज्जल कलि रातों की धूनी.
मेरा विलाप.
उस विरहिणी रति से क्या कम है.
वियोग-अनुस्यूत-संयोग-निवेदन-वरदान,
मनः-तड़ाग में, लहराया स्वर्ण कमल सरिस.
अभिशाप-कलश थर्राया.
यहाँ.
न ! न ! की नकारात्मक गगन घर्षित,
अनुरणित कर्ण कर्कश ध्वनि,
नैराश्य उदधि प्रताडित.
कम्पित नभ और अवनि.
यही.
मेरा प्राप्य. मेरा भाग्य. नियति अट्टहास.
भग्न चूर्ण-चूर्ण विश्वास है.
नयनाश्रु निराधार रहे ढल-ढल.
अजस्र अश्रु सिक्त वक्ष-पट्ट मनः-दर्पण.
शत-शत टुकड़ों में गया चटक.
यही, निसंग अनन्त प्राण-पथिक का,
निःशेषित चूर्णित स्मृति चिन्ह.
शाश्वत अभंग ज्वलित वह्नि.
नहीं कहीं अमिय झरित अहि्न.
अन्तर में मंथन. द्वंदों का तीव्र प्रभंजन.
मौन सीमा भंजित हलचल.
ध्वस्त आशाओं के ज्वलित धुंध भरे, श्मशान में,
अपना विकलांग कृष् व्यक्तिक्त्व,
प्रेतात्मा सा भटक रहा.
ह्रदय रक्त आप्लावित खप्पर लेकर,
नियति पिशाचिनी का, विद्रूप विहंसता लास रचा.
निरीह विवशता.
क्यों जीवित प्राण.
किस अंध मोह में बंध,
वह, बोझल टूटी थकी साँसें, खींच रहा.
इस नागफणी कंटकित सैकत वन में
क्यों कर अबतक ममता का
स्नेहिल स्निग्ध सुमन खिला रहा.
नारी मन.
जितना कोमल.उतना ही जटिल.
नैराश्य-खार-अशांत, मनः-सागर.
आँसू से अविरल उसे प्रक्षालित कर,
फिर भी, खारेपन. तीखेपन से पाता नहीं उबर.
जिस प्रकार वारिध, लवण शिलाओं से भाराकांत,
खो बैठा, क्षार-पूरित निज सुधि, विक्षिप्त.
पागल. ज्वारों में हाहाकार मचाता.
अत्यूर्मियों की अनगनत आकुल बाँहें फैला कर,
रसः-कलश छलकते सुधाकर को,
अपने समीप बुलाता.
किन्तु. कहाँ ? अमिय हलाहल का मेल.
रहा सदा वह, कटुता ही झेल.
उसी प्रकार मैं भी.
पीड़ित निज अन्तर-दह से.
निरख इन्दुदह को.
समझती हूँ निज मन को.
पीड़ा से कौन अछूता जग में.
सब झेल रहे उसे एकाकी,
अपने मन के निःसंग सूनेपन में.
किससे पूछूं.
कहूँ किससे.
जब. नारी को विधाता ने गढ़ा.
उसका भाग्य.
उस क्षण.
किस वीराने में पड़ा रहा.
अथवा.
कहते जिसे अदृष्ट, प्रारंध, समय.
शेष ही नहीं रहा.
होता जिससे नारी का विनिमय.
क्या है ? नारी.
नैराश्य तिमिर में, मोम सरिस जली.
कंटक वीथी में मौन उपल सी गली
मनः-दग्ध संधिक्षित आन्वें में अनवरत,
तप्त स्वर्ण सी पिघली.
जली, वह, अविराम जली.
फिर भी, मुख पर कुंद-ह्रास प्रभा, रही खिली.
यह अरण्य-चन्द्रिका.
तुहिनाश्रुओं में रही सिसकती.
जाना किसने.
इन पीड़ित स्वांसों पर, क्या-क्या बीता.
यह अबोल अश्रु प्रतिमा.
आदर्शों की गरिमा.
नियति.
भाग्य से.
अकारण सदा, गयी छली.
जहां छुवो.
पोर-पोर में संवेदित पीर.
रग रग में टीस भरी कसक.
यह व्यथा अथक.
हर बीते अनबीते जन्मों की,
यह देवप्रदत्त अक्षुण्ण थाति, भेंट मिली है.
नहीं आदि. नहीं अंत.
यही प्राण यात्रा की इतिश्री है.
पीड़ा की ललकार भरी चुनौती से भरे छलकते,
अमिय कलश, टकरा कर चूर चूर हुए.
उनके, अभिमंत्रित जागरूक मन्त्र.
निष्प्रभ मुर्मूष कहीं रहे बिखरे .
यह, अजेय साम्राज्य पीड़ा का,
दुःख का महार्णव कहलाता है.
इसमें, संतरित, सौख्य, शुक्ति-सम्पुट-कैद.
रह रहकर,
अकिंचन मौक्तिक क्षण-प्रभ-प्रकाश, दिखलाता है.
उसका. मूल्य ही क्या ?
एक लहर के झोंके से,
उसकी क्षीण जीवन लड़ी बंधी है.
मत ! अमिय! अमिय की आर्त पुकार करो.
मत. तृषित पर तीखा निर्मम वार करो.
चिर पिपासित,
कंठ शुष्क कंटकित, अधर चटखते,
अब बस कर.
अब बस कर.कहते रहते.
बड़ी कड़ी प्रतीक्षा की यह अवश अधीर घड़ी है.
नैराश्य उदधि.
संघर्षित लहर-ज्वार.
करती अमृत दोहन.
जो अमृत जग वांछित.
वह छलना वंचना.
मृग मरीचिका का निठुर आमंत्रण है.
मात्र निरंतर जलना है.
सुख, कब किसको मिलता है.
वह. दुखाग्नि में अविराम सिकता,
उसकी ही निःस्वांसों में पलता है.
सुख ! सुख !
कहकर वह अतृप्त अधीर,
आँखों में भर आकुल नीर.
जलोर्मियों पर रजत चांदनी को,
प्यासी बाहों में भरता है.
इसकी कांक्षा, ह्रदय संजोकर
जीवन की बीहड़ विरल सीढ़ियों में चढ़ता है.
गिरता है, पड़ता है.
क्षत-विक्षत, कराहता.
अप्राप्ति की असह्य व्यथा की आंहें भरता है.
केवल. निर्मम नियति निठुरता ही मिली यहाँ.
कितना पागल है जग.
दुःख-वारिधि व्यालोलित चंचल लहरों पर उसके पग.
चाहता वह.
शशी-अमिय-आप्लावित-चषक पीना छक,
मैंने तो देखा.
केवल, इस अहिर्निशी जली अन्तर ज्वाला को,
अति दीन अकिंचन आतुर सा अविराम,
अंजलि भर-भर, आप्लावित आँसू ही पीते.
ज्वाला, इन अश्रु-वारि-सीकर से प्रक्षालित.
और अधिक लहकी,
नहीं पाया, कम होते, किंचित भी.
व्यथा.विकल, कहीं हो न् मुखर,
मन को देखा, मौन विषण्ण,
दशन दबे अधरों को,
आहों से सीते.
समय की तीक्ष्ण दृष्टि से देखा.
अरमानों की वल्लरियों क्षत-विक्षत
आहत कट-कट कर भूलुंठित,गिरते.
आह कराह से भर उठा नंदन वन,
ताजे आरक्त तप्त लोहित से भर कर.
झंझा झकोर सी झंकृत करती.
उठी मड़ोड़ती अन्तर पीड़ा.
मनः-वीणा के हर तारों को भग्न विश्रंखलित कर,
तड़प उठा, पीड़ा का लहराता
नील गहन वारिधि वडवाग्नि ज्वाल से घिरकर.
प्यास भरी लहरों में,
सागर जल, आत्मसात कर कर के भी,
रहे, भंवर पत्र, रीते के रीते.
दौड़ पड़ी लहरों पर लहरें,
भरने,
फिर भी, अपनी हठ में रहे,
शीश हिलाते, कलांकुर, कम्पित पात-पात.
शुष्क अधर चटखाते.
युग बीते, तृषा की अथक कथा कहते.
प्यासे जलनिधि को भी, देखा, चिरपिपासित सरिस,
शशि-पियूष चषक पी कर,
नभ के नीले प्रांगण में लुढ़काते.
फिर भी,
हा तृषा ! हा तृषा कहकर,
गगन घर्षित हाहाकार मचाते.
थी कौन घड़ी, जब.
दुःख का आमंत्रण आया.
जनम जनम के इस वंचक बंजारे ने,
मन के सूने आँगन में,
अपना अडिग कदम जमाया.
मन की मञ्जूषा में इसने,
पीड़ा का विष-ज्वाल-विदग्ध,
अनवरत फुन्कारित, मणिधर पाला.
वह विष प्रमत्त, मुखः-गह्वर-विस्फारित लहराया.
नियति-कारा कैदी अवश जीवन.
स्मृतियों घिरी मनः-क्षितिज पर,
श्याम जलद सघन बन.
आलोड़ित, उद्वेलित, ह्रदय-सिंधु,
नैराश्य निर्वात निष्कम्प अपार वारापार.
बहा जा रहा,
ह्रदय, काष्ठवत् निराधार.
अनगनत नखत छिद्रों का लेकर नील वसन.
निरख रहा, विषण्ण व्यथित झुका गगन.
करे किस प्रकार आच्छादित, यह.
विदग्ध आहत मन.
असमर्थ.
बन न सके, वे भी.
मरण-वसन-आच्छादन.
और धरा ! जिसका तन-मन.
उल्का वन में आमूल जला.
सहस्र शूल बिंधा, उसका अंतर.
वह भी.
यह असह्य भार न् सह सका.
मुझे. दोनों ने फेंका.
कहाँ अवस्थित मैं.
न मिला गगन ! न मिली धरा !
मिलन-संधि-क्षितिज पर,
अरमानों का मधुवन धू-धू जला.
कहते हैं लोग.
कैसी भी गहरी हो चोट.
समय, निज स्नेहिल हाथों से, सहला-सहला कर,
गहन क्षत शनैः-शनैः भर देता है.
अचूक औषधि है वह,
सब पीड़ा हर लेता है.
किन्तु यह, मर्मान्तक अन्तरबेधी आघात,
सुनता नहीं कोई बात.
यह, प्रतिच्छाया-चित्रित-शिला-फलक, सरिस,
घर्षण से, होता जाता अति स्पष्ट मुखर.
ह्रदय हार हताश साँसें भरता है.
जो बीत रहा,मौन बलात् सहता है.
भाग्य भी, निर्मम है मेरे साथ.
उसने भी मुझसे खींचे हाथ.
अब. यह दुःख, समय-शाण चढ़ा, पल प्रतिपल,
दुर्द्धुष अमर्दित, और तीक्ष्ण होता जाता है.
वज्र निपात सा वह, अन्तरदह तक धंसता जाता है.
कितना मूक एकाकी सूना जीवन.
करते, पतझार-पीत-पात, सरिस क्रंदन.
अब.इस निसंग ह्रदय को.
देती है सांत्वना स्नेह,
केवल उसकी ही अपनी छाया.
उसे छोड़, कोई अन्य कभी नहीं,
इन पीड़ित, सूनी घड़ियों में आया.
हो अर्धरात्रि.
पुष्करणी वीथी अनुराथ्या,
मिली सदा वह, सोच्छ्वासित संवेदित.
वही एक अनवरत मौन सुनती है
यह, विरह कथा.
अन्यथा.
ये असह्य वेदना की स्तब्ध काली रातें.
मनः-गमन-प्रच्छायित घनीभूत
अवसादों की बर्फ जमी परतों पर परतें.
जल गए आँसू. बिखर गयी आंहें.
पत्थर बनी मूक आँखें.
सूझती नहीं, राहें.
शरीर भी यह.
अब अपना नहीं लगता है.
केवल स्वांस रज्जुओं में बंधा बलात्
किसी जन्म का पावना धो रहा है.
स्मृति-समाधियों के ध्वस्त सूने वीराने में,
निर्द्वन्द्व घूमता प्राण-पवन.
अनगनत शूलों सा, विद्ध कर रहा तन मन.
ह्रदय, सपाट, आर-पार फैला विस्तीर्ण सैकत-वन.
किस धैर्य. किस सौख्य. किस आगत का,करे अब.
यह जीवन स्वागत.
जब, प्रतीक्षाकुल विकल खुल रहे
एक एक तृषित, सहस्र पत्र पर,
रहे निहारते, निसृत, अमिय-कण, ढल-ढल,
और मध्य में ही मिला, उनपर,
अजस्र अविराम ढलकता कालकूट हलाहल कलश गरल.
हो गए उनमें, बुद-बुद से विलीन.
आप्लावित सर्वत्र, रहा,
सीमाओं को पृथुल अधर चबाता,
उन्मत्त सागर मर्यादाविहीन.
यह हुआ क्या ?
न रहा अमृत. न रहा विष.
दोनों का सामंजस्य मिश्रण.
गहन, वेदना. चिरंतन.
भेद रही आर-पार.
यह भी, त्रिभुवन की एक अबूझ संरचना.
कैसा. मारक यह शल्य मिला.
ह्रदय.चेतना.संवेदना.
ज्ञान, रूप, रंग, अभिज्ञान.
इसके सम्मुक सब, शिशु अचेतन नादान.
पल, एक न, निज ध्यान.
घोर विस्मृति. विलीन हो गयी.
गोपा.
केवल.
अतूर्त अगम अदम्य अवण्यॅ अनुक्त,
वेदना अम्बुध ही, रहा आर-पार लहराता.
हैं. करुणा के स्वामी.
विश्व प्रेम के दानी.
सबकी व्यथा तुमको सत्वर अवगत.
एक यही व्यथा रही, नितांत अनजानी.
जब, तुम.
पारदर्शी-प्रत्यक्ष-प्रेक्षी.
दिव्य दृष्टि संभूत.
क्यों हुई यहीं पर एक चूक.
सब पर एक सरिस प्रच्छायित,
तव दया ज्योत्सना.
क्यों यह नत शीश,
यों ही, निरावरन सतत अनावृत अलग रहा.
अटूट अंध निसृत ममता.
यहाँ.
मौन निसंग निर्ममता.
किसके प्रति ?
जो.
आमरण श्री चरणों समर्पित, खो गयी.
गोपा.
उन पावन रज-कण में.
वही उसका शाश्वत आश्रय बना.
चरणों की लिपटी धूल भी, कर जाती भूल.
अति स्नेहिल होकर वह,
चिपक कर, बन जाति शूल.
कांटे सी चुभ जाती है.
इस चुभन को देखने.
बरबस आँखें, झुक जाती है.
कैसा कण चुभा.
क्यों न यह धरा पर रहा.
क्या मैं.
वह,पद-रज-रेणु भी बनी नहीं.
गोपा.
कभी भी तव, सुध में रही नहीं.
हा ! हत् भाग्य !
बादल भी गरज कर थक जाते हैं.
हुंकृत सागर भे चुप हो जाते हैं.
किन्तु. यह ह्रदय, हुई न नियति सदय.
इस आँगन में. कभी न, पावस ऋतू आई.
कभी न आतप ज्वाला शान्त हुई.
कभी न, नील निरभ्र आकाश मिला.
व्याकुल ह्रदय. चिरंतन निरत.
क्या यही अब अंतहीन जीवन.
अमृत-मंथन-निसृत,
समस्त हलाहल एकत्रित कर,
विधाता ने किया निर्मित नारी मन.
नारी दुःख की परिभाषा.
अमिट दुराशा.
पागल मन. जिसे खोज रहा.
क्या पता.उसे, कहाँ गयी.
वे, सुरभित-मरन्द-मीलित-मादक-मदिरालास, संध्याएं.
वे बीते एक-एक पल.
अगम्य पहाड़ बन कर आये.
और.
यह अजेय काली रात.
अवगुंठित जिसके गुम्फित अदृष्ट पात.
कभी न इसका अब.
शीश-मुकुट-रश्मि-राजित-दिनमणि, मुस्काएगा.
कभी न खुलेंगे एक भी पत्र.
कभी न उनमें रंग भर पायेगा.
इस घन अन्धकार सैकत वन में.
निःशेष हुई, मृग मरीचिका की भी छलना.
अश्रुपूरित अनिमेष की कलना.
कालरात्रि भी, भयभीत डरी दीख रही,
इस नैराश्य निर्वात निसंग अगम उदधि को.
इसमें अब, प्रकृति-प्रलय-स्तंभित, अग्नि उठी है.
महाविलय का निदय, कौन सी यह घड़ी है.
टूट रहे प्रतिपल ! प्रति क्षण !
किसके जीवन के उद्वेलित, संवेदित, कण-कण.
बिखरे.
किसके आंसू.
अबाध सागर बन.
किसके कातर विकल ह्रदय का.
भग्न आशाओं के उजड़े मधुवन का.
यह, अयाचित अबूझ मुहूर्त हुआ है.
चले.
अदुर्ददमनीय अदम्य प्रलय प्रभंजन.
टूट गिर रहे अजस्र गृह नक्षत्र नखत-वन.
हो रहा, नभ गंगा में भी, आलोडन, मंथन.
भयावह.
महाश्मशान !
कैसी यह धूल उड़ी है.
क्यों ?
गिरते पड़ते खगोल-वासिन्.
हो रहे पतित.
किसने. किस यज्ञ में.
इनको आमंत्रित,आहूत किया है.
रात्रि.
तू भी नारी है.
निज मन की कोमलता से,
जग की तटस्थ निर्ममता से,
अति पीड़ित नितांत हारी है.
कभी संयोगिनी. कभी वियोगिनी.
तेरे अंतर में भी पीड़ा की वंशी बजती.
स्मृतियों के श्यामल नीप-निकुंज तरु छाया में,
मनः-कालिंदी, चुप-चुप बहती.
तेरा भी लहराता आँचल.
आँसू से भींग गया है.
मौन अन्तर-पीड़न.
एक चिरंतन धन है.
इसको मैंने, तेरे आँचल में बाँध दिया है.
निज भींगी आँखों से, कम्पित सिहरी धड़कन से, पूछ.
यही क्या ? नारी जीवन है.
व्यथा प्रबल मुखर.
आँखें !
अजस्र निर्झर,
स्वांस-स्वांस में चुभन भरी है.
कण-कण में तड़पन है.
मत कभी भूल कर भी, लेना नाम.
अकिंचन सुख का.
वह.
अवधि-काल-समर्पित-सीमा-निर्वंधित.
देव-प्रदत्त-वरदान, सरिस है.
यह रखा गया, एक,
दीन हीन विवश अपंग बंधक है.
सीमा-अंतराल-स्वन्सित, इस थाति को,
जीवन मूलधन भी, विमुक्त नहीं कर पाता.
यह अलभ्य आकाश कुसुम है.
निरख. दूर दूर तक. ऊपर नीचे अपरम्पार,
दुःख का नील उदधि लहराता वारापार.
लिए, अभाव, अप्राप्ति, अतृप्त, वेदना-सम्भार.
सब हुए इसमें, एक एक कर विलीन.
भूलुंठित, सुख के शीश मुकुट, दर्पित सज्जित,
निष्प्रभ हुए, इसे समर्पित.
यह दुःख का अनुक्त कतूर्त गगन घर्षित अम्बुध है.
किसे यहाँ. अपनी सुध है.
गोपे.
तू भी.
समस्त चेतनाओं स्पृहाओं ऐषणाओं को, समेट.
बन, स्वयं हविष्य.
हो इसको भेंट.
यह निष्काम, तपः-यज्ञ-हवन है.
स्मरण रख.
तप. प्रगाढ़ तन्मयता, एकाग्र, एकनिष्ठ,
निष्ठा. फल रहित कर्म है.
कामना.
अवनति पतन है.
उपलब्धियां.
समस्त विरमित कर्म.
महाविराम.
पूर्णता.
मृत जीवन है.
पुनः आवागमन प्रत्यावर्तन है.
अपूर्णता.अटूट अभंग कर्म सक्रियता.
नयनाभिराम रमणीयता.
पल पल रूपांतरित, नवलता. जीवंत,
प्राणवंत संजीवन, सरसता, मोहकता है.
यह स्फूर्ण. अंकुरण, चेतना का.
यही.रूपायित, दुःख है.
कालकूट हलाहल अधर लगा.
ससीम-असीम की धुनी जगा.
यह तन्मयता विवेक प्रखर प्रान्जलता.
चिन्तन,मनन ही, अमृत है. आत्म दोहन है.
सब. मिथ्या अनृत.
मात्र यही.
शुद्ध सात्विक शाश्वत तपः-पूत, आनन्द, ऋतु है.
कज्जल-कृष्ण-दुःख-हलाहल-नील उदधि भास्वर प्रकाश दीप.
सतत तपन. मिलन घड़ी है.
अच्युत. अनन्त. अक्षीण.
महत् प्रकाश, ज्योति धनी है.
हिरण्य-गर्भ-प्रकाश. चिदानंद-आवास.
यही, व्यथा-सन्निवेश. आनंद अशेष है.
नाना रूपों में इस निष्कल्मष,निष्कल, निर्मल,
आत्म-ज्योति की, बहुरंगी, सघन-विधा बनी है.
पथ अनेक.
सत्य.एक.
दुःख-विदग्ध आत्म प्रकाश में,
उसे,प्रत्यक्ष निर्निमेष देख.
वह अशेष. तू शेष.
तेरी ही सहस्र-फण-स्पृहाओं की शय्या पर,
वह स्थित. अमर, अजर, शाश्वत,
सत्-चित्-आनंद.
सुख.
इन्द्रायण मोहक मारक फल.
वह सदा दूर होता मृगजल.
सुख ! सुख की आर्त पुकार पर,
भला कब किसी की तृषा बुझी है.
एष्णायें अधूरी. क्यों हो पूरी.
छलना की मिथ्या धरा पर इस,
पुष्पित लता की, जड़ें जमी हैं.
घन अन्धकार पूरित रात.
अश्रु-दीप जले नहीं.
कांतर-कंटकित विरल वीहड़ वीथियाँ.
पग, उनपर पड़े नहीं.
दुर्द्धुर्ष,उदासीन, असम्वेदित जीवन घाटियाँ.
तप्त शिलाओं पर तड़प रही,
अभिलाषाओं की, हरित पल्लवित पुष्पित वल्लरियाँ.
स्तंभित, सहमा मन.
बढ़ते पग थमें वहीँ.
आशाओं के आप्लावित छलकते कलश.
गिर कर हुए विचूर्ण.
विखंडित,बिखरे टुकड़े. पुनः जुड़े नहीं.
इन वेदना-विदग्ध-हिलकोरों से धुंध भरी,
अश्रु-सिक्त-अनुभूति-कासृती.
जो, उसपर, बढ़ गया निरंतर.
प्राप्त उसे.ह्रदय-गुहा में
शयित शीतल उशीर वन में, दुःख निर्वेद निमग्न.
टूटे जिसके सब स्वपन.
एकनिष्ठ तपः-अनुभूति,
चिरंतन धन.
पार किया उसने.
अवण्यॅ असह्य दुःख अन्तर-दोहन के, बीहड़ पड़ाव.
दिखा प्रत्यक्ष सम्मुख,
प्रसन्न प्रसाद सोमनस मनः-गगन की, शीतल छाँव.
वही.
मान सरोवर.मनः-तपी का.
खिला वहीँ, सहस्रार, आत्म ज्योति का.
होता गुंजित अनाहत नाद.
विगत सभी अवसाद.
एक सरल सुगम निर्विवाद.
यह पथ.
ज्ञान, भक्ति कर्मकांड.
सब व्यर्थ.
यही, अभीप्सित अभीष्ट. परम श्रेयस्कर.
केवल, वेदना-तपः-अनुभूति.
भस्मसात समस्त कल्मष.
भास्वर प्रखर अविनश्वर.
सत्य ज्योति.
मनः-वारिधि ऊर्ध्वमुखी वीचियाँ निःश्रेणियाँ.
शनैः- शनैः आत्मशोधन,
उत्थापन. सत्य-ज्ञापन.    

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