Wednesday, 15 January 2014

सर्ग:१२ – राजगृह


अनुपिया के सघन, श्यामल आम्रकुंजों में,
प्रभु ने, सात दिवस किया विहार.
वन्य फल फूल भिक्षाटन पर,
चल रहा था, जीवन व्यापार.
निर्जन नीरव शान्त वन,
उस प्रखर आलोक दीप से, प्रकाशित थे.
मौन खड़े, अश्वत्थ शिशिम्पा अर्जुन खिदिर-वन सघन.
पाकड़ नवल पत्र अधखुले सर्वत्र अंगार से थे रहे जले.
और पलाश, लेते थे उच्छ्वास, तन-मन में भर अरुणिम-राग-लास.
इन सबके अन्तराल में, स्मृतियों के किंजल्क जाल में,
जो, चला जा रहा था मौन.
क्या है उसके मन में, यह 
जान सका भला वहाँ कौन ?
वहाँ उस एकान्त में, नीर-निम्मजित-नयन-तट पर.
स्मृतियाँ अतीत की, रही विकल भटक.
उन, स्नेहाद्र नयन में,पड़ती छाया,
बिछुड़ा स्नेह, सजल सजीव, छाया-नट सा आया.
दीपक में, दीपंकर जलते हैं.
सर्वस्व न्योछावर कर, परम तृप्ति शीतलता,
उस अभंग तन्मयता में, अनुभव करते हैं.
यहाँ. प्रकाश की छाया में,
जल रहे थे, स्मृतियों के शलभ.
भंग करना था जिन बंधन को,
जाना था , जितना सुलभ.
वह था, कितना, जटिल दुर्लभ.
सोच रहे थे, सिद्धार्थ.
मैंने तो जाना था.
मैं सब ममता, मोह, विछोह त्याग चला.
निवृति निसंग हूँ मैं, पुष्प सरिस हल्का.
अब ! एषणायें ! मेरा क्या कर सकेंगी भला.
किन्तु. अभी भी स्वजन-विछोह.
त्यागता नहीं रंचक मोह.
और, सबसे अधिक सालता,
गोपा का, निश्च्छल सरल स्नेह.
चरणों में अटूट श्रृंखला डालता.
चरण. गतिशील अग्रसर यंत्रवत् अवश.
ह्रदय. अब भी प्रतीक्षाकुल सा है.
वे शयित नयन, अब भी निद्रालस हैं,
या हैं जागृत, आकुल से हैं.
जन्म. शैशव, यौवन.
रहे जो जीवन स्पंदन
हर स्वांसों में जिनकी स्मृतियाँ,
अनुभूति-कातर-धड़कन.
सहज नहीं उनसे विमुक्ति पाना.
क्या ? समस्त सौख्य,
राज-वैभव-विलास त्याग कर, भी मैं,
अब भी, गोपा-स्मृति-कस्तूरी-मृग सा,
ममता-शल्य, बिंधा, विकल, विवश,
तड़पता रहूँगा यों ही, दिग्भ्रमित-व्यथित,
मोह-विजड़ित, निसंग, उद्देश्यहीन,
दीन अरण्य-अरण्य , भटकता.
कभी दिखी गोपा,
रुक्ष अजानु खुले केश.
उद्द्यानों से पुष्करणी तट जाती,
कभी दिखी वह, आम्र लदे
पुष्प पल्लवित सुरभित कानन में,
निरुद्देश्य दीन विकल भटकती.
कभी, हंसों या मृगों के संग,
कभी, अर्ध उन्मुक्त कपाटों से,
अश्रु आप्लावित नयनों से निरख निसंग.
कभी राहुल्के संग व्याकुल निरुपाय.
मार !
अनेक रूपों में आया.
समस्त बंधन उसके तोड़,
गोपा-सम्मोहन, से सके न निज मन को मोड़,
कांपा ह्रदय.
भास् हुआ.
नशा प्रव्रज्या का.
अब उतरा.अब उतरा.
रिश्ता दर्द.
पीड़ित वियोग का,
प्रबल प्रभंजन सा, तन मन मड़ोड़ता,
टुकड़ों में तोड़ रहा.
किन्तु.
मन की भीतर सत् तमस का संग्राम सदा रहता है.
हाँ, ना, के द्वंद्व युद्ध में,
दृढ़ संकल्पि ही सतत सर्वदा विजयी होता है.
कहा, अन्तर आत्मा ने, स्पष्ट अटल स्वरों में,
सिद्धार्थ ! हो सचेत !
न त्याग निज निश्चित टेक.
मत मुड़कर बीता अतीत देख.
कायर. पलायनवादी ही,
अतीत की स्मृतियों में खोते हैं.
गौरवान्वित स्वर्णिम इतिहास स्मरण कर,
उनके निमित्त रोते है.
ये प्रकृति है, असमर्थों की.
अन्य पर सदा अवलम्ब अपेक्षित.
वे, बने बनाए पथ पर चलते हैं,
जो पूर्व में हुए अन्यों से निर्मित.
तू !
वर्तमान, भविष्य, दोनों तेरे कर में.
अतीत कुचला गया, मर्दित,पडा निष्क्रिय तेरे चरणों में.
मृत, जीवित नहीं होता.
जिसमें जीवन है.
वह अमर हो सकता है.
क्योंकि, निज संकेतों पर कंदुक सरिस,
उछाल रहा,
वह,
वर्तमान, भविष्य दोनों को.
दृढ़ प्रतिज्ञ.
एकनिष्ठ, एकाग्र, निज तन्मयता में निष्काम,
कर्म करता है.
परिणाम, जो भी हो.
तपः-साधना में वह विस्मृत हो जाता है.
फल मिले या न मिले.
यह अरमान भी कहाँ रह पाता है.
आत्म-शोधन की निसंगता,
दूर कहीं ले जाती है.
समस्त एश्णाएं निष्प्रभ हत् चेतन मुमूर्ष,
पड़ी रह जाती हैं.
कर्म !
यह भी एक जटिल साधना है.
देख ! तेरे मनः-प्रांगण में, देवासुर-संग्राम छिड़ा है.
यह चिति.
यही ब्रह्माण्ड.
प्रकृति आधान.
आत्मा, रही न् इससे अनजान.
यह उसका चिर परिचित नीड़.
वह,पक्ष फैलाकर उड़ती सूक्ष्म दृष्टि से निरखती सर्वत्र.
कर रही निरंतर, सत्य-संधान.
भंग कर नश्वरता के मसृण उलझे किंजल्क जाल.
बन सुपर्ण.
कर आहत.
फुंकारता स्पृहाओं का विषदंत-फण.
जिसे कहते, वैश्व-मोहकता.
वह.
चिरन्तन का, एक विस्मृत क्षण.
किन्तु आहत.
जो शरीर से कहीं अधिक, मन से.
वह.
कैसे भागे, भोगे हुए सुख से.
रह रह कर आता, प्रिया-स्मरण.
मन अति कातर विषण्ण.
सत्य ही, वर्तमान ! वर्तमान ! कह कर भी,
मन, क्या कभी अतीत भूल पाता है.
जो सुख.
जितना ही उन्मादक
वह उतनी ही पीड़ा दे जाता है मर्मान्तक.
विगत, मनः-क्षितिज पर आद्र स्मृतियों के,
टीस भरी विद्युत कौंधें,
दे रही अनवरत आघात.
केवल ताजे गहरे घाव ही नहीं करते,
मन को मर्माहात, चेतना अवसन्न.
दे जाती है गहरी चोट,
छोटी छोटी बीती बातें,
जो रही, कभी अत्यंत नगण्य.
सजल स्मृतियों के नवल नील नीरद मध्य,
चला जा रहा था, एकाकी, नितांत वैरागी,
शरत-शर्वरी-नाथ,
केवल, सत्-संकल्पों का,
शुचि निर्वात प्रज्ज्वलित निश्चल दीप.
दे रहा था, उसका साथ.
अनोमा के तट पर, अनुपिया के आम्र वनों में,
कुछ दिवस तक प्रभु ने किया विहार.
कर मन को एकाग्र संयमित,
सिद्धार्थ,
स्वयं ही निज मन से हुए प्रव्रजित.
मनः-प्रज्ज्वलित-यज्ञ में, उठ रहे थे,
तर्क-वितर्क, संकल्पों,मनन, चिंतन के, सुरभित धूम.
कहा प्रभु ने शान्त चित् से.
कपिलवस्तु के कमनीय कान्त कुमार ने देख लिया,
विषय वासनाओं, विलास लास को,
उनकी मोहता, अभंगता, दुरुहता, विषमताओं को,
इसे आमूल हृदयंगम कर,
इस अन्तर-यात्रा की सूक्ष्मतम संवेदनाओं में,
भलीभांति घूम,
इस शांत मनः-प्रांगण में, उड़ रही,
क्षणिक नश्वर वैराजिकता की स्वर्णिम धूल.
देख रहा.
विरागी मन.
सप्तरंग सुरधनु के छविहीन कंकालित काया में चुभे, 
अनगनत तीखे शूल. 
श्रेयस्कर है परम, 
इन इह भौतिक एषणाओं को त्याग. 
सत्य-ज्ञान निष्कल निर्मल अग्नि, 
जल रहे सब कल्मष हैं अति प्रचंड प्रज्ज्वलित आग. 
मैं.
मुक्ति-अन्वेषण, हेतु कटिबद्ध, सत्य गवेष्ण सन्नद्ध. 
मन केवल एकनिष्ठ, एकाग्र अडिग, 
उसी हेतु तत्पर व्यग्र प्रस्तुत.
कामेस्वादीनवम्  दिस्वी नेक्खम्भ दटठ खेमतो.
पधानाय गमिस्माभि एत्थ में रंजित मनोति (सुत निपात)
करते मन ही मनःचिंतन.
चला विरागी मन.
करता अन्तर मंथन.
पग बढे जा रहे राजगृह की ओर.
प्रशस्त भाल पर चिंता की रेखा घोर.
कहीं किसी तरु की छाया में,
किया तनिक विश्राम.
पुनः ध्यानमग्न किया प्रस्थान.
चलते चलते देखा पथ में,
तीन प्रकार के आश्रमवासी.
कोई उन्छ्वृति से अन्न चुनकर,
आत्म शुद्धि निमित्त, जीवन यापन करते थे.
कोई कंद मूल फूल फल पल्लव हरित शाकों पर निर्भर थे.
तीसरे सबसे अधिक हठी जटिल.
अन्न कंदमूल का भी त्याग कर, केवल वायुपान करते थे.
उन्हें इस प्रकार शारीरिक यातना निरत निरख,
उठी मन में जिज्ञासा.
आत्म-शोधन.
पंचभूत दोहन तो नहीं ?
जो.
अविकारी, अविनश्वर, शाश्वत है.
वह. क्षणभंगुरता में कभी रमता नहीं.
फिर, यह चिरंतन सत्य.
यह हठी विरल जड़ पथ.
वह, इसकी प्राप्ति का माध्यम नहीं.
भौतिक चेतनाएं.
अति मानसिक जगत में क्यों करेगी भ्रमण.
निश्चय ही, जड़ चेतन में प्रवाहित, एक ही जीवनी शक्ति.
किन्तु, सूक्ष्म संवेदनाओं को,
स्थूलता, क्षणभंगुरता से, सदा ही रही आपत्ति.
ये भौतिक परुष उपकरण,
कर सकते परम सत्य का वरण.
कर गयी संकेत दूर कहीं से अन्तर से उठती,
ध्वनि, घर्षित कर तपः-साधना की, तप्त अरणि.
स्वतः प्रस्फुटित प्रज्ज्वलित होगा,
वह सत्य प्रकाश.
मात्र, नश्वरता ही देती उसका आभास.
इस क्षणभंगुरता के ताने-बाने में निहित
इसके सौष्ठव नवलता सम्मोह्कता में,
वह संजीवन जीवंत शाश्वत सत्य.
सुन. उसकी सतत् पुकार.
डूब ! डूब अन्तस्तल में डूब, अनवरत,
प्रत्येक विधाओं को खोज,
उसे निरंतर बारम्बार,
परीक्षण कर स्वयं प्रत्येक विधा.
केवल पूर्वाग्रह से कदापि न, कोई कार्य सधा.
जो भी उत्तर प्राप्त हुए, उन आश्रम वासिओं से,
संतुष्ट न हो सके कुमार.
विज्ञान रहित, तर्क रहित,विचारों से,
प्रभावित उनके वे ज्ञान, कंठस्थ सर्वथा थे.
वे आत्मज्ञान से बड़ी दूर कहीं थे.
वे, अंधविश्वासी अंध अनुकरण-रत.
चले जा रहे थे, अन्य के नियोजित निर्मित पथ.
न ज्ञान के प्रति थी उनमें जिज्ञासा अथवा रूचि.
न थी, कोई निहित प्रेरणा,
न जीवन में, निर्णय लेने की अभिरुचि.
वे. बुद्धि से अपंग.
अन्य की ज्ञान बैसाखी लेकर, बढे जा रहे थे, कर दोनों आँखें बंद.
सड़े गले निर्जीव विचार.
न उनमें नवीनता, न स्वच्छंदता, और न प्रांजलता.
न था, उनमें आत्मबल अथवा विवेक.
बोधि सत्व. नीर-क्षीर विवेकी राजमराल.
लेकर तर्क का तीक्ष्ण धार.
कर रहे थे छिन्न-भिन्न,
अंध विश्वासों के जटिल जाल.
देखा पथ में अंध विश्वासों का विस्तार.
कहीं, वृक्ष देवता का पूजन.
कहीं मध्य मार्ग में विघ्न निवारक कलश स्थापन.
मारण तारण उच्चाटन की विधा.
जीव. इस जुंवें में जुटा व्यर्थ भार वहन कर रहा.
कहीं पर निराहार नर-नारी.
गृह, नक्षत्र, किन्नर, गन्धर्व तथा देवताओं की,
कर रहे, वन्दना अर्चना.
कहीं हठी, तपी,
जलते अंगार,बरसते,निरभ्र नभ के नीचे
चारों ओर अग्नि जलाकर,
कर रहे मंत्रोचारण आँखे मीचे.
उठे, क्रांतिकारी विचार,
हो उठे विचलित कुमार.
क्यों ? क्यों ? यह सब क्यों ?
मनुष्य.
स्वनिर्मित उलझनों में स्वयं को रहा बाँध.
सीधा सराल सुगम पथ त्याग.
रहा वह. निज कांक्षित अभीष्ट से भाग.
ये यन्त्र मन्त्र वाह्य आडम्बर.
उज्जवल मनः-दर्पण पर
और धूल की पर्त पर्त चढ़ा रहे.
जो स्पष्ट प्रत्यक्ष साक्षात् हो सकता,
उसे, नितांत बना रहे दुष्कर.
ये कर्मकांड.
ये विधि विधान.
कभी भी इनसे हो पायेगा
शाश्वत सत्य ज्ञान.
मात्र, मानव की यह विवश विडंबना.
निज अक्षमता को सक्षम कह
केवल स्वयं को है, छलना.
निज मन में यह सब गुनते,
चले जा रहे थे, तर्क वितर्क चिंतन करते.
सहसा, अमराइयों के अंतराल से दूरागत,
जल की कल-कल ध्वनि, आ रही थी,
वरुण वक्षों की संधि पार से.
चौंके प्रभु !
यह, कोई सरिता तट.
आ गया कहाँ मैं ध्यानरत यहाँ भटक.
देखा सम्मुख, निर्मल नील पीयूष राशि
उच्छलित शान्त प्रवाहित,
पावन पयस्विनी गरिमामयी, जाह्नवी.  
बहुरंगी सुरभित फूल सदा बहार हरित पल्लवित
नमित फल भार खचित डालें.
मधुकर की गुंजार.
सुरभित सजल समीर लघु लोल वीचियाँ.
हरित दूर्वा विरल वीथियाँ.
सर्वत्र हरितिमा, निस्तब्धता, नीरवता का निसंग साम्राज्य.
शान्त वन उपवन, गिरी, शिखर, आवेष्ठित,
दुग्ध धवल वसन विभूषित
कल-कल प्रवाहिनी-मंदाकिनी, एकाकिनी.
पल. विमुग्ध विभोर.
देखा वह अप्रतिम सौंदर्य लहरित, ओर-छोर.
अब भी, उसमें थी, बसी सुरभि.
युग-युग के पूजन अर्चन स्तवन की,
अगरु धूम धनसार यज्ञ-हवन की.
अनादि काल की संस्कृतियों की वह.
सुधामयी पयस्विनी.
शाश्वत सत्य ज्ञान पियूष-पुंज उच्छलित,
कल-कल निनादिनी अमृत तरंगिणी,
जल-पटल आँचल-आवेष्ठित,
हिरण्य-गर्भ, ज्योति ज्योतित ममतामयी मंदाकिनी.
हो जिसमें अंतर्भेदी दृष्टि,
देखे.
गौरवान्वित भारतीय दर्शन अमिय-कलश सज्जित,
यह अप्रतिम अपूर्व विश्वमोहिनी.
दोनों कर से उन्मुक्त कर ज्ञान द्वार.
कह रही आह्लादित स्वर में बार-बार, 
हे अतिथि ! अहो भाग्य ! आओ देखो !
निज ज्ञान गौरव का उन्मुक्त खुला संसार.
चुनो ज्ञान मुक्ता.
हे ! मानस के राजमराल !
यह संसार निर्द्वन्द्व, निर्वात, तुम्हारा है.
इस जल का केवल कर आचमन.
या पुष्पमयी भाषा में कर स्तवन.
अथवा इन हिल्लोरित लहरों से लिपट,
या इसमें आकंठ डूब.
कदापि मुक्ति नहीं मिलती है.
यह, मात्र कपोल कल्पना मृग छलना है.
इच्छाओं का शमन,
अंतर-यात्रा-पथ संकुलित-जटिल मसृण, बंधन-उच्छेदन.
अंतस् तल में गहन पैठ,
एकाग्र एकनिष्ठ चिंतन मनन.
मनः-गंगा में उन्मुक्त संतरण.
ज्ञान मणियों का चयन. है
निश्चित निर्दिष्ट, मुक्ति का प्रथम चरण.
आओ योगी.
करो. निज पथ-श्रम हरण.
यही निष्कल विशुद्ध तपः-यजन.
करो परीक्षण उन सबका,
मनः-निकष पर जो है,
पूर्व कथित निर्देशित.
देखो प्रत्यक्ष, स्पष्ट सत्य अनावृत.
जो निर्मल अमल प्रखर भास्वर उदभासित.
देखा, बोधिसत्व ने गंगा का यह रूप अपार.
क्षण कड़े रहे विमुग्ध,
हुआ न, यह अलौकिक सौंदर्य-सम्भार-संवरण.
दे रहा था आमंत्रण.
वात्सल्यमयी माता का सात्विक शुचि दुलार.
शनैः-शनैः चैतन्य हुए प्रभु.
जल में उतरा वह कंचन विभु.
उदभासित परम प्रकाशित,
मंदाकिनी अन्तर आह्लादित.
खिला.
स्वर्ण सहस्र पत्र राजकमल शतदल निर्मल,
अनगनत लोल लहरिया उन्मत्त मुदित,
प्रतिबिंबित उनमें अपूर्व रूप अमिट.
प्रभु छवि.
वीचियाँ दर्पण ज्यों,
सहस्र सहस्र अपांज्योति का, क्षुद्र घंटिका नर्तन.
विभ्रमित सौदामिनी.
लहरों पर लहर त्वरित अनुरणित शिंजिनी.
देखा, स्वांस खींचकर जड़ जंगम सबने.
जल मध्य अवस्थित,
यह दिव्य देव ! अथवा वरुण देव !
कोई अलौकिक अवश्यमेव.
सरिता तट पर था मगध राज्य.
यह थी मगध की राजधानी,
राजगृह.
पर्वतमालाओं से घिरा वनप्रांत,
था अति ही रमणीय शान्त.
इसे, गिरिवज्र भी कहते थे.
वह था आवेष्ठित, पांच पर्वतों से.
इन्हें ऋषिगिल , वेपुल्ल, वैभार, पांडव और गृद्धकूट कहते थे.
पंचतत्वों के समूह में ज्यों कामना विचरण करती है.
उसी प्रकार इनके अंतराल में तपोदा सरिता भी बहती थी.
इस सुरम्य पल्लवित हरित वनस्थली में.
इनकी छाया के नीचे अथवा गिरी-कन्दराओं में,
रहते थे तपः-मग्न वैरागी सन्यासी अवधूत.
तपः-ओद्का,
सप्त उष्ण जल धाराओं में प्रवाहित थी.
समीप ही साघ्नी सरिता भी बहती थी.
इनके तट संकुलित थे सघन वृक्षों से,
अश्वत्थ, शिशिम्पा, वट, रसाल, तमाल, पाकड़, अर्जुन
तथा अन्य अलभ्य जड़ी-बूटियाँ.
सबसे संपन्न श्री शोभा संभूत
था यह एकांत गिरी प्रांत अपूर्व.
वन निज वैभव से गर्वित,
नगर, निज शोभा श्री गरिमा से भूषित.
अति मनोरम पर्णशाला, धर्मशाला, पुष्करणी
नैसर्गिक स्वच्छ जलपूरित कुल्यायें.
ऊंचे ऊंचे विशाल सौध,
सुरम्य सज्जित हाट-बाट, चौरस्ते, वीथियाँ.
नगर समृद्ध, निज मादकता विलास वैभव से था,
जगमग-जगमग दीपक प्रकाश प्रभा से कौंधता,
देखा, प्रभु ने,
वन और नगर दोनों ही निज वैभव से पूरित.
एकांत मनन, चिंतन, अथवा भिक्षाटन,
दोनों ही सादर दे रहे आमंत्रण.
कुमार ने नगर में किया प्रवेश.
वह भव्य सौंदर्य सौष्ठव लावण्य-प्रभा, अशेष,
किसी तीव्र प्रकाश से ज्यों
हो उठे सभी चमत्कृत.
घिर उठे, ज्योतिर्मय मंडलाकार वृत
हो उठा वहाँ, एक अलौकिक प्रकाश.
रहा न जिसका किंचित आभास.
नगर कक्ष गवाक्ष अलिंद द्वार, राजमार्ग,
जो रहा, जहां, उसी प्रकार्र चित्रलिखित,
खिंची स्वांसें, मन्त्र-मुग्ध विजड़ित,
नहीं किसी ने कभी कहीं,
भूलकर भी ऐसा स्वरूप देखा था.
न, यह मूर्ति. न, वह दीप्ति.
न, ऐसी नवनीत मृदुल मसृण अपूर्व तरुणाई.
चांदनी की मदिली आँखों में, ज्यों यौवन की अरुणाई.
पिघले अरुणाभ उष्ण कंचन कमनीय स्वर्ण जलजात गात पर
अभिनव विकसित केशर की चढती लाली.
माणिक मदिरा से आप्लावित, सोने की प्याली.
आकर्णमूल गंभीर गहन नील अर्ध निमीलित वारिज नयन.
नील नयन सागर अंतरिक्ष पर, प्रज्ञा का प्रात.
शुभ्र शुचि नवल उन्मेष.
ज्ञान उदधि में अवतरित
चेतना का उज्जवल मराल एकाग्र तन्मय अविचलित.
तन मन नियंत्रित समाधिस्थ.
संयमित एकनिष्ठ गंभीर पद चालित, संतुलित.
स्थिर शान्त निश्चल नमित नेत्र.
विकार रहित निर्मंयु कहीं न किंचित उद्वेग.
निरभ्र निर्वात मनः-आकाश.
दीपित नयन पटल पर, अचल दृढ़ विश्वास.
समस्त, शोभनीय कान्त अस्तित्व,
विकीर्णित अति शीतल कोमल धूप,
रूप अवर्न्य अनूप,
वह अवतरित दिव्य विभूति.
प्रभा-पुंज-राशि.
उड़ता ज्योतिर्मय उज्जवल धनसार
आत्म प्रकाश विकीर्णित उदभासित, मंडलाकार.
परम ज्ञान का सात्विक स्वरूप साकार.
निरख प्रभु के काषाय वासन चीवर,
कर में भिक्षापात्र नवल सुधर.
जो भी थे वहाँ खड़े पहन बहुमूल्य वसन आभूषण,
उनके तन में हो उठी असह्य तीव्र चुभन.
कठिन हो गया तन का भी भार वहाँ.
साष्टांग किसी ने किया प्रणाम.
हो रहे थे खंड-खंड जमे प्रस्तर से अभिमान.
दौड़े, हुए अति आवेश भरे,
गए नृप के समीप, कई राज पुरुष.
बोले सविनय करबद्ध,
प्रभु ! 
नगर में भ्रमण कर रहा,
एक अलौकिक अपूर्व अर्हत,
मौन ही भिक्षा का कर रहा निवेदन.
नहीं देखता, नहीं पूछता, नहीं करता, संभाषण.
है वह, अप्रतिम अपूर्व सौदर्य निकेतन.
नहीं पता कहाँ से आया.
है वह, कोई देव, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर.
वह, आरोहित प्रातः नभ में ज्यों,
पूर्वांचल का स्वर्णाभ दिनमणि.
कोटि-कोटि कलाधर, कन्दर्प-दर्प, सर्व हनन, खर्व,
वह.
देदीप्यमान तेज पुंज ज्योतिर्मय, कंचनाभ जाज्वलमान प्रचंड अर्क.
दिव्य उज्जवल वसन.
आप्लावित मदमाता सौदर्य-सुधा-वारापार,
आँखों में, वह अनुक्त, अवर्न्य रूप.
किंचित नहीं समाता.
अति गरिमामय दिव्य स्वरूप,
उज्जवल पारद झरित त्वरित विभ्रमित मनः-पटल पर,
फिसल फिसल जाता.
ग्रहण करे क्योंकर, मन.
किंकर्त्तव्यविमूढ़, समझ न पाता.
रूप.
कहते जिसे असीम.
उसे, सीमा पाते देखा.
वह.
निज चरण धरा पर नहीं
नगरवासियों के ह्रदय-कमल, कम्पित पत्र-पत्र पर, रख-रख कर,
निश्चिन्तता से है निज, पथ को जाता.
किंचित भी, वे कल कोमल कँवल चरण,
व्यथा न पाए, जाता ह्रदय सिहर-सिहर.
वह, ध्वांत अशांत मनः-गगन का
उदित प्रकाशित, उज्जवल महिर.
है, समय, नक्षत्र,क्षण, मुहूर्त, याम पर, लगा,
अभेद्य अचल महाविराम.
विस्मित विमुग्ध, चर अचर. स्पर्शित कर उसे,
प्रवाहित सब में संजीवन सात्विक धारा, निष्काम.
लौकिक, पारलौकिक संतुलन तुला की वह,
निश्चल अकम्पित कीली.
निरख सर्वांग लालित्य सौष्ठव अभिनव,
हो जाती है, आँखें गीली.
सब सुनकर एकाग्रचित, बोला, मगध-राज लोमशभ्रू
होकर प्रकृतिस्थ, संयमित,
हो न इस प्रकार चंचल अस्थिर.
देखूं मैं भी उसे ज़रा नयन भर.
आरोहित हुआ सोपानों से चढ़कर नृप, महल अट्टालिका पर,
देखा, एक परम पवित्र आत्म-प्रकाश,
प्रकाशित, अति संयमित उद्वेग रहित , महामानव.
हुआ राजा अति विस्मित.
कभी न देखा था उसने ऐसा अपूर्व अतिथि.
स्वयं न लोमशभ्रू यह कर पाया निर्णय.
कौन यह रागातीत.
ऐसा देव पुरुष.
क्या है यह मानव अथवा पारलौकिक कोई विभूति.
सब विचलित, वह, संयमित,
नहीं किसी के प्रति आकर्षित.
कहाँ से आया. कैसी आया. क्यों आया.
क्या है, कुछ भी ज्ञात न हो, पाया.
राजा ने साथ खड़े राज पुरुषों से कहा –
यदि अमर पुत्र है यह श्रेष्ठ प्रवर.
नहीं पड़ेंगे धरा पर इसके चरण
और न होगा इन पद्मपलाक्षों का उन्मीलन.
यदि, यक्ष देव किन्नर है, अदृश्य हो जायेगा सत्वर.
होगा कोई नाग, धरा पर छिप जाएगा भाग.
करो अनुगमन.
यदि वह.
न देव है.
न यक्ष है और न, नाग ही है.
तो भी करो निरीक्षण.
कुछ विलम्ब पश्चात भृत्यों ने दी सूचना,
राजन ! यह है कोई महामानव,
क्षुधा, तृषा, श्रम, क्लान्तता, देती है
उसे भी शारीरिक वेदना यातना,
किन्तु असाधारण पुरुष है
और अति ही सभ्रांत उच्च कुल का है.
अति सुख में है उसका लालन पालन.
सदैव सुस्वादु भोज्य पदार्थों से है हुआ उसका संपोषण.
क्योंकि पांडव पर्वत की छाया में,
जो भी भिक्षा पायी,
उसने, भिक्षाटन में,
उन्हें धरा पर रख,
जल प्रपात में किया उसने आचमन.
जैसे ही ग्रहण किया प्रथम ग्रास,
आया नहीं, वह, उसे रास.
प्रशांत मुख पर पीड़ा की आकुंचित रेखा.
उसने क्षण भर भिक्षा पात्र को देखा.
आंतें उसकी ऐंठी, उसने उदर को कसकर पकड़ा.
समस्त वेदना कर आत्मसात
किया उसने स्वल्पाहार.
प्रव्रज्या में अन्य विकल्प नहीं,
स्वयं किया, उसने निज मन का उपचार.
राजा, बाहर भीतर से अति विचिलित,
कर न पाया निज मन को संयमित.
प्रासाद से बाहर वह,
वन प्रांत पार कर पांडव पर्वत पर आया,
उस एकाकी महापुरुष को उसने
पांडव पर्वत के तल पर बैठा पाया.
दीर्घ सुदृढ़ संपुष्ट तन, प्रशस्त स्कंध.
कम्बु-कंठ लंबी ग्रीवा.
उन्नत उज्जवल भव्य भाल.
प्राची में उदित ज्यों अंशुमाल.
नृप, अन्जलिबद्ध प्रणत साद्र्र सम्मुख आया.
कर शिरसा नमन बोला अति नम्र मृदुल वचन.
श्रीमन् की, अति ही कोमल कल काया.
श्रम क्लान्त बदन हो आया.
संभव है, निज स्वजनों के मध्य से
प्रथम बार यह विदेश गमन हो.
विछोह से तन मन कातर हो.
प्रभु.
संभव है यह प्रथम अनुभव आपको,
जग की यथार्थता का प्राप्त हुआ हो.
संसार.
विषम, विकत, विरल, विसंगतियों से है, भरपूर.
मधुर अछूते सपनों को करता है चकनाचूर.
आप कान्तिवान, कान्त वपुमान.
सर्वथा संसारिकता से अनजान.
अति कोमल नवनीत सरिस.
क्या,
इसकी निर्ममता, निष्ठुरता, कठोरता का,
श्रीमन् को आभास मिला है.
क्या कुलिश परुष पाषाणों से टकरा कर,
कोमल निश्च्छल विश्वास हिला है.
प्रभु.
कमल अति कोमल होता है.
जल भी जमकर पत्थर होता है.
जिस दर्पण पर यह कोमलता प्रतिबिंबित होती है.
वह. अति कठिन होता है.
वह, कोमलता नहीं, कदापि ग्रहण करता है.
अतः आप.
इस कठोर धरा पर अवतरित,
प्रतिबिंबित, निश्चय ही हो सकते हो.
किन्तु, इसे बदल नहीं सकते.
कितने आये, गए,
समय, ज्यों का त्यों, वैसा ही रहा.
समस्त उपनिषद, वेद, सांख्य, पुराण, पृष्ठ बदलते रहे,
वह, अनुपम अनकहा वैसा ही, सर्वदा गतिमान रहा.
समय पर, चित्र विचित्र, चित्र, रंग भरे, उभरते,मिटते रहे.
पटल, अटल अविकारी ही रहा.
अतः प्रभु. आप जो भी हों.
निज परिचय दें.
प्रव्रज्या का विचार यहीं त्याग दें.
यह कोमल तन.
कँवल पत्रों में भी रूक्षता है,
नवनीत कहीं कभी कठिन हो जाता है.
किन्तु यह द्द्युतिमान लावण्य-प्रभ वपु.
कोटि-कोटि, विधु भी लज्जित विसुध.
यह संसारिकता.
अति भीषण जलती आमूल कंपाती, अंधी आंधी है.
उसका कोई ज्वलित तप्त विदग्ध निर्मम झोंका,
निश्चय ही, श्रीमन् तक पंहुचा है.
क्षत-विक्षत, टूटा सब मोहक इंद्रजाल.
कर उठा, आर-पार बेधता, निठुर अट्टहास,
यथार्थता का भयावह वीभत्स कंकाल.
अतः मर्माहत तन-मन अति विषण्ण,
प्रभु ने गृह त्यागा निसंग.
मैं, श्री चरणों में नमित परिचय को आकुल हूँ.
स्वयं देखकर बिना कहे सब जानकर
श्रीमुख से सुनने को उत्सुक हूँ.
यद्वपि, दिनकर का परिचय क्या,
और सुधाकर का स्वयंसिद्ध गुण किसका याचक.
जो स्वयं गुणों से उदभासित
उन्हें इतर प्रकाशित करना क्या.  
प्रभु अति विनम्र स्नेहिल सस्मित हो आये.
क्षण देखा,मगध राज को,
बोले – राजन् !
सूर्यवंशी शाक्य जाति, हिमवंत की छाया में,
कपिलवस्तु के महासम्मत, राजा, शुद्धोधन का ज्येष्ठ आत्मज,
गृह त्याग, सत्य संधान निरत है, आया इन वन प्रान्तों में.
ज़रा, मृत्यु, आधि, व्याधि निवारण-संकल्प,
अनुष्ठान लेकर निकला हूँ.
जबतक विजय न कर लूं हस्तगत,
रंचक विश्राम न लूँगा.
अनुनय किया नृप ने – महामानव !
 वय नहीं, विरागी होने का.
अभी आँखों के श्याम क्षितिज पर,
अरुणाई है यौवन के मध्याह्न-मार्तंड का.
यह रस पूरित कंचन काया.
सौष्ठव, सुधा सलिल सा लहराया.
क्यों दे रहे, तन-मन को पीड़ा.
है.
शाश्वत परिवर्तनशील विधान, अटल, प्रकृति का.
देखें.
उसकी क्षण-क्षण रूप बदलती क्रीड़ा.
युग बीते.
हुए, जितने भी ग्यानी, ध्यानी,
खाली डफली ही बजती, रहे रीते के रीते.
यह परम रहस्य.
सब विस्मय.
मिली न किसी को कभी विजय.
जिज्ञासा, मानस क्षितिज पर लेती रही मनमानी, ऊंची उड़ान.
पर न प्राप्त अभी तक, किसी को भी सत्य ज्ञान.
क्यों ? यह परम रहस्य.
नश्वरता क्षणभंगुरता ही है आधारशिला,
उस, चिरंतन शाश्वत का.
यह रूप बदलती प्रकृति,
मात्र, रूप-विपर्यय की मोहक स्वीकृति.
शाश्वत स्वंसित पंचतत्व-संचारित.
न, नष्ट हुई, न मिटी, कभी भी,
वही है. संजीवन-धारा-अमृत, ब्रह्माण्ड निखिल की.
यह. नश्वरता.
मनोरम आमंत्रण है.
सात्विक उदात्त ज्ञान यजन का.
जितना जल जो भर पाया, अंजलि में,
कहता है. बस.
इतना ही भर, ओर-छोर, सागर का.
सुनकर सब अति तन्मयता से,
सस्मित बोले प्रभु, नृप से -
निश्चय ही, परम आत्म-ज्ञान अपार.
विराट विशाल व्यापक है.
कोई भी परा विधा, सर्वथा अक्षम,
न बन पाया अबतक उसका मापक है.
ये. समस्त, जाने अनजाने सागर,
उस महत् ज्ञान के, अणु मात्र भी नहीं.
शारीरिक यंत्रणा. भौतिक गवेषणा.
उस सूक्ष्म असंस्पर्शित सत्य की, शोध विधा पहचान नहीं.
बोले नृप _
कुमार !
आपको अवलोक, होती है मन में अति पीड़ा.
किस प्रकार प्रव्रज्या के कंटकाकीर्ण पथ पर, आप चलेंगे.
क्यों कर, तिक्त, रुक्ष, कटु काषाय, कंद-मूल ग्रहण करेंगे.
अथवा पथ श्रमित, क्लान्त पिपासित, क्षुदित रहेंगे.
निसंग निरंतर एकांत वास.
वन्य पशुओं हिंसक जीवों का क्या विश्वास.
आधा राज्य मेरा करें स्वीकार ,
ना, कह कर करें न मुझे निराश.
हँसे प्रभु –
मैं कपिलवस्तु का युवराज.
संकेतों पर था समस्त सौख्य साज.
यदि होता यही अभिलषित.
क्यों करता गृह त्याग और करता स्वजनों को व्यथित.
मैं.
सन्यासी.
सब पर विश्वासी.
आज यहाँ, कल पता नहीं कहाँ.
समस्त विश्व ही, मेरा निवास बना.
मैं, नहीं किसी का, पर हूँ सबका.
इसी निमित्त गृह त्याग चला.
कहा, राजा ने करबद्ध –
हे अर्हत ! हे आप्तकाम !
जाते जाते दे जाएँ इतना उपदेश.
है राजा का कितना अधिकार.
क्या है कार्य विशेष.
बोले कुमार-  
लोमशभ्रू नृप उदार.
किसी व्यक्ति की आवश्यकता.
केवल दो वस्त्र, दो सांध्य भोजन, मात्र शयन आवास.
बस.इतना ही है उसका अधिकार.
जो उससे अधिक ग्रहण करता है.
वह अनाधिकार चेष्टा करता, अन्य का भाग हनन करता है.
जीव सब एक हैं. न कोई छोटा, न बड़ा.
केवल, सामाजिक और आर्थिक विषमता,
कुचल रही दुर्बल को,
हो रही समर्थवानों की, अनावृत पशुता.
जो शोषण करता है. वह नृप नहीं, पालक नहीं, विनाशक है.
राजा को वांछित, सबको दे समान अधिकार.  
सबका जन्म एक प्रकार है. सब ही एक समान हैं.
कोई भी आघात, एक समान ही, ऊंच नीच को पीड़ा दे जाती है.
गौर वर्ण, अथवा कृष्ण वर्ण, मात्र वर्हि आवरण.
मुट्ठी भर मांस-ग्रंथि, ह्रदय जिसे कहते हैं.
वह, एक समान ही, पिंजर-मंजूषा में, सज्जित.
संवेदित कम्पित, उसमें रक्त प्रवाहित.
कहकर प्रस्थान हेतु किया प्रभु ने उपक्रम.
हो आया, नृप अति नम्र.
आकुल स्वर करुना-विगलित बोला अधीर अति व्यथित.
प्रभु ! पुनः मेरा अति नम्र निवेदन.
यहीं करें प्रभु भिक्षाटन.
उसका भी सुव्यवस्थित प्रबंध करता हूँ.
शिरसा नमन कर, यह दीन याचना,
यह सुरम्य रमणीक, निसंग, निशब्द, वनस्थली.
यहाँ तपी, मुनियों को सदैव मनः-शांति मिली.
श्रीमन भी इस अकिंचन स्थान का करें सेवन.
न करें प्रभु कदापि, गिरी, गह्वर, कांतर, वन-उपवन का एकाकी विचरण.
कहीं, नगर अशांतिमय मिलेंगे.
कहीं वनचर, अत्याचारी.
इस दिव्य भव्य व्यक्तित्व. अभूतपूर्व कृतत्व का,
न होगा, कोई उपकारी.
प्रथम. जड़ चेतन, शल्य, बासी, निश्चेष्ट,
न समझेगी यह विचार श्रेष्ठ.
वे रूढ़िग्रस्त अंधविश्वासी.
नवीन अवधारणाएं करेंगी विचलित त्रस्त.
ज्ञान धरातल पर उदित ज्योतिर्मय कान्ति.
अंधकारमय वनः-क्षितिज पर लाएगी, नितांत अशांति.
प्रभु.
यह पथ. जो किया चयन आपने.
कितनी विषमताओं, विघ्नों, बाधाओं से, शूलों से संकुलित,
नहीं जाना आपने.
ये. कर्मकांडी, जटिल, सन्यासी, तांत्रिक, आभिचारिक.
ब्राह्मण, महंत, मठाधीश.
कब, अपनी जड़ें जमाई नींव हिलने देंगे.
जो भी विचार आपके,
कब, वे, निशंक स्वतन्त्र कहने देंगे.
कब अपनी अभेद्य सीमा के भीतर,
सब वर्गों को प्रवेश करने देंगे.
अतः प्रभु.
ज्वलित विद्रोह विरोध.
बनेंगे सर्वथा मार्ग अवरोध.
आप शान्त होकर करें यहीं विश्राम.
मैं,मेरे भृत्य, हम्यॅ.
सब प्रभु श्री चरणों में.
सब प्रकार मैं समर्पित प्रस्तुत हूँ.
प्रभु की सेवा को तन मन से उत्सुक हूँ.
हँसे, प्रभु –
राजन ! सेवा  करने निकला हूँ.
सेवा लेने नहीं.
आत्मा को निज गुरु मानकर,
स्वयं से ही प्रव्रजित हुआ हूँ.
मैं.वैरागी.
समस्त ऐष्णा-त्यागी.
मेरा घर.
हर उन्मुक्त द्वार.
मेरी पीड़ा.
सब सीमा, तोड़ चली है.
यह.
अब मेरा नहीं,
समस्त जगत की इसमें पीड़ित, अनुभूति पली है.
मैं.
सीमा असीम को तोड़ चला.
हाँ, ना, से मुख मोड़ चला.
नदी.
बंधती नहीं,पहाड़ों से.
सागर, नहीं कगारों से.
यह, लोक कल्याणार्थ जो, दीप जला,
समस्त कल्मष भस्म कर, बढ़ा चला.
कैसे, कोई भी अवरोध, अर्गला.
इसे,प्रतिबन्ध लगायेगी, गत्यारोध बनाएगी.
एक समय ऐसा भी आता है.
मैं भ्रमण कर रहा,
वह मातृभूमि.
यह निश्चित है.
मेरा स्वयं ज्ञान-प्रकाश,
मेरा पथ-निर्देशक होगा.
अन्य की ज्ञान बैसाखी लेकर मेरा,
कदापि, न बढ़ा, एक कदम होगा.
मैं अपने दीप स्वयं जलाऊंगा.
उस प्रकाश में, अनुभूति परीक्षण से,
निज निष्कर्ष बनाऊंगा.
किसी ग्रहकक्षा में, अन्य प्रकाश अथवा कर्षण से,
चालित मैं.
नक्षत्र नहीं.
अन्धकार के क्षितिज पर एक अकेला ही जलता,
दिनमणि ही सही.
एक अछूता पथ.
नवीन कथ्य.
सत्य-परीक्षित-जीवन-लक्ष्य.
यही सदैव मेरा लक्ष्य.
निर्वाण प्राप्त कर ही लौटूंगा.    

No comments:

Post a Comment