बढे, उरूबेला की ओर,
लघु शैल शिखर
मालाएं,
हरित पुष्पित,
उपत्यकाएं,
सघन विशाल तरुओं की
श्यामल शीतल छाया में,
मौन स्वप्न शयित
मनोरम रमणीक विरल घाटियाँ.
हरित कोमल दूर्वाओं
से प्रच्छायित,
वक्र सुरभित वीथिया.
छोटे-छोटे जल
प्रपात, तड़ागों में विकसित रण-बिरंग जलजात.
वन पक्षी करते स्नान
दोनों पंख पसार.
सुदूर विस्तृत विशाल
बालू का तट.
शांत निःशब्द स्थल,
अछूती आहत.
अन्तः सलिला फलगु सैकत
आच्छादन आवेष्ठित
मौन बही जाती थी.
ऊपर से निश्चेष्ट
मौन बनी.
रंचक स्पर्श से
ढल-ढल झर जाती थी.
मन ही मन सस्मित
प्रभु,
निरख, नारी का यह भी
रूप.
अन्तर से अति आद्र
बनी,
आ रही से कुम्हलाई
कोमल धूप.
यहाँ. पर्वत
श्रेणियाँ थीं मूक,
और सरिताएं अति
उदासीन,
अपने में ही गुनती
जाती थी.
ज्यों बीती चाँदनी
छवि क्षीण दिखती है कांतिहीन.
सब देख सर्वत्र.
प्रभु ने सोचा.
वे न जायेंगे अब
अन्यत्र.
यह सुरम्य रमणीक वन
प्रांत परम.
यही शमित एषणायें
लेंगी विश्राम.
तप.
किसे कहते हैं, तप.
मैं उस तपः-भूमि में
निशंक निसंग मौन,
अंतर यात्रा रत
अनवरत रहूँगा.
जिस प्रकार, रेशम का
कीड़ा,
रेशमी धागों से
आवेष्ठित रहता.
उसी प्रकार इन मनः
कामनाओं के जाल को मैं.
तपः अग्नि में भस्म
करूँगा.
भलीभांति ज्ञात है.
यह पथ सदा का सर्वथा
अज्ञात है.
न, अथ-इति, न आदि
अंत.
मन रहा सदा विषण्ण.
मुझे तो यों भी कब
रही कभी भी, किसी की भी पहचान.
नियति से गया छला.
छोटे-छोटे भी जो
सत्य रहे, सर्वदा, असत्य से ढंके,
कुतूहल से मुझे ही,
निरखते मिले.
आर्य सत्य.
जिनका सर्व साधारण
अति नगण्य, को भी ज्ञान रहा.
वे भी, अकृत्रिमता
के परिधानों में,
ऐन्द्रजालिक जालों
में, मुझे मिले.
मैं.
सुख स्वप्नों का,
कल्पनाओं का वह, अति मसृण कलश.
यथार्थता का हल्का
झोंका, जिसे चूर-चूर कर ले बीता.
यदि कभी कही, रंचक
भी चोट मिली होती.
मनः-गगन ! इतना
ध्वांत अशांत कुन्हासों से,
व्याप्त न रहा होता.
मैं भी, सब लोगों की
भांति यही कहता.
रह्ने दो. होने दो,
वह सब, जो सदा से होता आया है.
किन्तु, भग्न हुए,
आधार रहित, कृत्रिम कल्पनाओं के सेतु.
आतंकित करता आया,
यथार्थता का कुटिल धूमकेतु.
विस्तीर्ण व्यापक
नैराश्य अन्धकार आरपार.
हा धिक्क ! यही जीवन
! यही संसार !
किस हेतु . क्यों ?
मैं.
संकल्पबद्ध सन्नद्ध.
कदापि न विचिलित होऊंगा.
यदि दो काष्ठ अरणि-संघात
परस्पर,
अग्नि उत्पन्न कर
सकते हैं.
जंगल के जंगल, पल में
जल सकते हैं.
मेरा भी निश्चय, अटल
अचल अडिग इसी प्रकार.
जीवन, विजय है.
कदापि नहीं हार.
न, अतीत. न, भविष्य.
केवल कांतिमय जलता
वर्तमान दैदीप्यमान.
अतीत भविष्य दोनों
का वह, स्वच्छ पारदर्शी दर्पण होगा.
एकनिष्ठ सत्य संधान
समर्पण.
पराशक्तियों का
आमंत्रण होगा.
जिस प्रकार यह कषाय
वसन,
तार तार होकर
कालान्तर में हो जाएगा, समय-अशन.
उसी प्रकार स्पृहायें
छवि हीन दीन छिन्न-भिन्न हो जायेगी.
निरावरण, सत्य की,
निर्मल प्रभा मुस्कायेगी.
हुआ, भंग ध्यान
प्रभु का.
देखा मार्ग में,एक
आश्रम.
थमे वहाँ,
वह आश्रम था, सांख्यशास्त्र
वेत्ता प्रकांड विद्वान,
अलार कालाम का.
कुछ दिवस वहाँ रहकर
समस्त गतिविधिया गूढ़
निरख कर
सांख्य दर्शन का
गंभीर मनन किया.
अलार कालाम से
रूपाचार की भूमि से उठकर
अरूपाचार की शिक्षा
भी ग्रहण किया.
किन्तु यह मनन ध्यान
चिंतन भी विमुक्ति हेतु,
असमर्थ आकिंचन थे.
रास न आये ये साधन.
मन ही मन प्रभु ने
किया चिंतन, यह भी नहीं.
न शान्ति है. न
तृप्ति है.
न उद्देश्य प्राप्ति
की कोई निश्चित विधि है.
यहाँ से भी गमन करना
श्रेयस्कर है.
वह आश्रम, त्याग
प्रभ आगे बढे.
यह अन्तः-मंथन.
केवल वाह्य संघर्षण.
यह जीव.
झेल रहा, अंध ममत्व
का बंधन.
श्रवण कर रहा केवल,
अमृत का अदम्य, अटूट क्रंदन.
हर बार मरा.
हर बार जन्मा.
रही, मात्र निरंतर
नश्वरता की प्रदक्षिणा.
निसंग अनन्त यात्री,
यह प्रत्यावर्तन का,
अब तक कुछ भी न जान
सका.
केवल चक्र में चक्कर
खाता पिसता आया.
जाते जाते पथ में,
पर्वतीय गुफाओं से आवेष्ठित
उद्दक राम पुत्र
वैशेषिक दार्शनिक का भी आश्रम मिला.
वहाँ थमकर निमग्न निरत
वैशेषिक-दर्शन का भी,
सांगोपान अध्ययन किया.
किन्तु मुक्ति हेतु
इसे भी, नितांत निष्क्रिय जाना.
रामपुत्र का
प्रस्ताव, वहीँ ठहर जाने का,
अति नम्रता से
अस्वीकार किया.
आश्रम त्याग हुए
अग्रसर, उरुबेला में,
राजश्री गय की नगरी,
गया में हुए अवस्थित.
यह स्थान अत्यंत
मनोरम था.
श्यामल पांडुर नील
पहाड़ियों से आवेष्ठित था.
समीप ही फलगु मौन
प्रवाहित थी.
निसंगता निशब्दता
एकान्तता ने किया उन्हें आमंत्रित.
तपस्या हेतु यह
स्थान भास् हुआ, अत्यंत उचित.
गौतम के आगमन के पूर्व
ही वह स्थान
कौण्डिन्य, बप्प,
भद्दीय, महानाम, अश्व्जीत,
इन पञ्चवर्गीय भिक्षुओं
से था सेवित.
उक्त स्थान में तीव्र
संधांरत
वे मुक्तिहेतु तपयोग
में थे एकाग्र एकचित्त.
शनैः-शनैः समय
व्यतीत होता जाता था.
सब थे मौन तपः-मग्न,
किन्तु,लक्ष्य
प्राप्ति संभावना का कहीं पता न था.
गौतम ने महाकठिन
तपः-साधना आरंभ किया.
अशन वसन भ्रमण
भिक्षाटन सब त्याग दिया.
शरीर क्षीण अति
मलीन.
केश रुक्ष. त्वचा
मांस गए सूख.
कोमल लंबी मृदुल
उंगलिया.
हो उठी अस्थि ग्रंथि
अवलियाँ.
मांस त्वचा में ढंकी
पसलिया.
फूली शिराएं, रशना
की मालाएं.
वह सौंदर्य स्वरूप.
हो उठा अति कुरूप.
तन, केवल आती जाती
स्वांसों की धौकनी.
जो बत्तीस सुलक्षणों
से कान्त,कलेवर सुशोभित था.
उसका चिन्ह शेष रहा
कहीं नहीं.
अंत में जब यह भी,
लक्ष्य प्राप्ति का
माध्यम बन सका नहीं.
मन में, उग्र तप का
संकल्प ठना.
निराहार तो थे,
अब, स्वांसों का भी परित्याग
किया.
पद्मासन में आसीन,
घोर समाधिस्थ ध्यानलीन.
किन्तु पञ्चतत्वों
ने भी प्रतिशोध लिया.
शरीर को अति दुर्बल,
चेतना को,चेतनाहीन किया.
रह रह कर प्रभु. संज्ञाशून्य
धरा पर गिर जाते थे.
एक पग भी चलना
दुर्वह,
शारीरिक शिथिलता
असह्य,
यह भी, मुक्ति
प्राप्ति की संभावना नहीं बनी.
तन मन की
विक्षिप्तता,
करेगी कैसे ग्रहण पारलौकिक
प्रभुता.
शारीरिक यंत्रणा,
कष्ट साध्य, असाध्य विधा.
इससे कोई कार्य न सधा.
प्रभु ने किया
निश्चय,
इस पथ को भी त्यागना
श्रेयस्कर है.
ये आडम्बर. मात्र
विडम्बना.
उन्होंने ग्रामों
में जाकर भिक्षचार किया.
जो भी हुआ प्राप्त,
उसे शांतिपूर्ण ग्रहण किया.
धीरे धीरे कृशता दूर
हुई.
शक्ति संचरित शरीर में
लावण्यता-प्रभा भर पूर हुई.
पुनः कानन में,
स्वर्ण सरसिज, उत्फुल्ल मुस्काया.
वन में नवल प्रभात
संजीवन लहराया.
किन्तु पंचवर्गीय
भिक्षु हुए अति क्षुब्ध.
छः वर्षों का कठिन
तप, हुआ इस प्रकार भ्रष्ट,
जो निराहार रहकर
प्राप्त न हो सका वह,
आहार ग्रहण कर क्यों
होगा प्राप्त.
आरम्भ जहां से, इति
भी वहीँ थमी.
केवल एक कष्ट साध्य
निरर्थक,
घोर वर्तुल वृत्ति
ही घूम गयी.
इस. राज-तनय ने किया
घोर अनय.
अब इसके संग समय
व्यतीत करना,
केवल हैं निज आत्म
शक्ति का क्षय.
यह सब प्रकार
पराभूत.
असफल जीवन लक्ष्य
से.
यहां विलम्ब करना.
लक्ष्य प्राप्ति की सोचना.
मात्र ओस चाटना है.
यह अब केवल
भिक्षाचार करेगा.
तपी बनेगा. पेट
भरेगा.
ऐहिक जीवन में भी
प्रवेश करेगा.
यह तप साधना कष्टकर
है.
राजपुत्र सौख्य पला,
सभी प्रकार से निष्फल है.
व्यर्थ ही अपना समय
हमलोगों ने नष्ट किया.
इसे यहीं त्यागना
श्रेयस्कर है.
अति क्रोधित, अति
क्षुभित, व्यथित,
गौतम के प्रति अति
विरक्त.
उन्होंने सरोष उठाया
निज चीवर और भिक्षापात्र.
तीव्र गति से किया
सदा के लिए उरुबेला से प्रस्थान.
उरुबेला से अट्ठारह
योजन दूर,
वाराणसी,के
ऋषि पत्तन में लिया
विश्राम.
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