Thursday, 12 December 2013

सर्ग : १५ - सुजाता


ज्ञान-प्राप्ति निमित्त वेद विहित,
पायस-आहुति,
प्रज्वलित पूजन यज्ञों में.
सर्वथा स्तुत्य. क्षीर उदधि, परम शांति.
विष्णु, शून्य निर्विकार.
सत चित आनन्द.
दुग्ध-
उज्ज्वलता, प्रज्ञा, सात्विकता, अनित्यता.
साक्षात्, आत्मा. निष्कल प्रकाश.
तंदुल, जीवन बुद-बुद,
सृष्टि, सृजन, संसृति, सौष्ठव, रमणीयता.
खीर- एक प्रतीक मात्र.
असीम-ससीम, मिलन पर्याय.
सत्यार्थी.
अति अधीर नीर-क्षीर-विवेकी.
एकनिष्ठ एकाग्र कूटस्थ योगी.
ज्ञान-यज्ञ में करता, समस्त सम्मोहन विसर्जन.
श्रद्धा-स्रूवा, अनिलता का तर्पण.
अतः
सुजाता का सुगन्धित केशर मेवा मिश्रित,
निर्जल दुग्ध-तंदुल-खीर.
निगूढ़ गुह्य इसमें परम सत्य.
क्योंकि,
गौ, ज्ञान-द्दुती, कर रही अयन.
कर्षण केंद्र.
जो, सबका सूत्रधार.
धेनु में सर्व देवता प्रतिष्ठित.
यह कामधेनु.
सम्पूर्ण सत् आंकाक्षा होती पूर्ण.
आज यह पुन्य खीर. देगा समस्त अन्धकार चीर.
सुजाता.
गया के सेनानी ग्राम की अपूर्व सुंदरी नवांगना.
स्वर्ण-वर्ण दीपित अंग-अंग.
काले भ्रमरों से घुंघराले व्यालोलित सघन रेशम से कुंतल दाम.
नख से शिख तक लावण्य-प्रभा उद्भासित ललाम.
निश्च्छल मुक्ताभ, आकर्णमूल पद्मपलाक्ष.
सुजाता सुजात नंद्वला सम्बोधिता.
शनैः-शनैः यह बाला से,
तरुणी तनवंगी हो आई.
मन के अलसित सद्दः विकसित नन्दन वन में,
कौतुहल जिज्ञासा अभिलाशायों की,
शत-शत किरणें अंगडाई लेती मुस्काई.
लम्बी कजरारी लाज नमित आँखें.
मदिर स्वपनों की सुरभित उच्छवासें.
नयन नील क्षितिज पर भावों के कजरारे सरस रसीले बादल.
नवयौवन रस से हो उठे सरस आँखों के काजल.
तन में बल खाती तरुणाई लहराई.
जीवन-जलजात पात-पात, अरुणाभ हो आया.
उन आँखों में, मादक मदिर स्वपनों का,
सप्तरंगी सुधनु उदित हो आया.
उस प्रकाश की छाया में शत-शत रंग विकीर्णित,
आभा में.
अभिलाषाओं का उपवन लहराया.
कमनीय कान्ति श्री की, मृदुल ज्योत्स्ना में.
मन.
आकंठ स्नात मुदित मुस्काया.
एक दिवस.
निरंजना नदी के तट पर खड़े,
विशाल पल्लव प्रच्छायित श्यामल
सघन वट के चरण तल में,
लहराते दुर्वादलों के मध्य, समीप जलाया उसने,
पूजन के दीप,
हरिद्रा चन्दन केशर अक्षत से पूजित शुभ स्वस्तिमय,
वट-देवता के चरणों में नत.
दोनों करबद्ध, मन ही मन, उसने की प्रार्थना.
हे ! वट देवता !
यदि विवाहोपरांत प्रथम पुत्र होगा प्राप्त.
निश्चय ही प्रति वर्ष खीर चढ़ाऊँगी.
तव चरणों में पूजन करने आऊंगी.
सब शुभ कार्य यथावत हुए संपन्न,
प्रथम पुत्र रत्न प्राप्ति से,
शीतल उत्फुल्ल, तन मन गात हुए.
सुजाता
असाधारण नवान्गना थी.
शुची उदात्त अति कोमल थी.
उसे, स्मरण हो आया
क्या उसने प्रार्थना की थी.
एक सहस्र गौवों को,
यष्टि मधु चरने को उसने वन भेजा.
उन गौंवो का दुग्ध पाच सौ गौंवों को पान कराया.
इसी प्रकार दुग्ध पान क्रम जब
आठ गौंवों पर आकर थम पाया.
उनके दुग्ध में मेवा मिश्रित सुगन्धित खीर
उसने स्नान ध्यान का अति शुद्धता से, तैयार किया.
निज दासी पूर्णा को, निरंजना सरित की, उरुबेला में,
उस भव्य वृक्ष के समीप, किया प्रेषित.
पूर्णे ! जा !
सब प्रकार स्वच्छ कर,
पूजन-स्थल कर निर्मित.
जितने भी, शुष्क तृण पात्र हों,
उन्हें हटा देना.
वृक्ष मूल की जंगली घासों को
उन्मूलित उच्छेदित कर देना.
शीतल जल से प्रच्छालित कर,
वह स्थान सुघर, स्वच्छ शुद्ध बना देना.
मैं. स्वर्ण खचित सूक्ष्मावर और
स्वर्णालंकारों से सज्जित होकर
नैवेद्य सजाती हूँ.
शीघ्र ही तेरे संग पूजन को अग्रसर होऊंगी.
आज्ञानुसार, पूर्णा, वट वृक्ष के समीप गयी.
खड़ी अचंभित ज्योंकी त्यों वह,
जड़ प्रतिमा सी वहां रही,
उसकी वाणी हटात हरी गयी.
पूजन अर्चन आराधन, उसने भी देखा था.
देव प्रतिमाओं, वृक्षों, नक्षत्रों के निमित्त,
नैवेद्य निवेदन भी देखा था.
किन्तु, आजतक, प्रत्यक्ष साक्षात,
कोई देव नहीं देखा था.
वट वृक्ष की छाया में,
अवस्थित था,
वट-वृक्ष-देवता.
अपनी एन्द्रजालिक माया में. .
आंधी के पत्ते सरिस, कांपा, तन-मन.
समग्र वृक्ष प्रकाशित था.
पूर्ण चन्द्र प्रखर प्रभापूर्ण उद्भासित था.
रूप. अपूर्व.
न कोई देवता.
न कोई यक्ष किन्नर.
उसके सम्मुख गर्वित हो सकता था.
देवत्व असीम. सौदर्य असीम.
मनुष्य. कितना अकिंचन दीन.
आर-पार, लहराता लावण्य पारावार.
वह लहर दोलित क्षुभित,
पुलिन खोजता अति लघु असमर्थ मीन.
यह. गगन घर्षित उद्वेलित शांत निर्मल, रत्नाकर.
पूर्णा.
वह रही तृण सी लहर प्रताड़ित झोंके खाकर.
जड़ थी वह.
न हिले चरण.
न फूटे वचन.
चेतना. जब लौटी.
वह. आहत कुररी सी,
कातर, भूलुंठित तड़पी.
बोली मन ही मन,
मानव. केवल मानव का ही, कर सकता,
सम्मान, मान, स्वागत अभिनन्दन, स्तवन.
सीमा सीमा में ही रहती है.
यह कैसे असीम से प्रतिस्पर्धा कर सकती है
या अभिवादन वंदन कर सकती है.
यह अहोभाग्य.
मानव होकर मैंने.
आज, देवता, देखा साक्षात्.
निश्चय ही देवि सुजाता पुन्या परम पुनीता है.
उसके, उज्जवल कर्म उदित हुए.
वरदान. सशरीर जागृत प्रतिष्ठित यहाँ, हुए.
मैं शीघ्र जाकर अभी कहूँगी.
देवि ! असाधारण हैं आप शुभे.
आजतक प्रत्यक्ष,
किसी को भी इस प्रकार
न अपने अर्जित पुण्य मिले.
महा सौभाग्यशालिनी हैं देवि.
पतित पावनी जाह्नवी.
साक्षात लक्ष्मी हैं. आर्ये आप.
स्वयम निज निरावृत आँखों से देखेंगी.
वट देवता को, भलीभांति प्रसन्न करेंगी.
जितना सरल, मानव-कृत देव-प्रतिमा-पूजन है.
उतना यह नहीं.
पार्थविकता ठोकर खा रही
और सूक्ष्मता, जड़ जंगम पारकर,
अपार हो रही.
समस्त फैला व्यापक विस्तीर्ण, आर-पार, प्रकाश,
किस प्रकार, अंजलि में बद्ध कर लेने का,
कर सकता मनुष्य प्रयास.
यह.
गहन अनुभूति.
आर्ये ! निश्चय ही कुछ अप्रत्याशित,
लाएगा,विश्वास.
आज ज्ञात होगा देवि को
सीमा किस प्रकार अक्षम है
और असीम कितना गहन सक्षम है.
देवता ! सर्वव्यापी .
नहीं उसकी शक्ति का आदि अंत है.
आज वही.
समाधिस्थ मौन शांत, सांत है.
देवि !
यह अपूर्व दृश्य कितना हृदयग्राही और असह्य है.
चलकर स्वयम ही देखे आर्ये.
अभी-अभी जाकर मैं यही कहूँगी.
किन्तु उसे वर्णन कर लेने का
किंचित भी शब्द संयोजन कर पाऊंगी.
कितने अकिंचन हैं शब्द कलेवर.
इतनी प्रभावपूर्ण गहन अनुभूतियों को,
कैसे कर पायेंगे सीमा बद्ध.
किन शब्दों में उन्हें कहूँगी.
भावों की सघन संकुलता में,
निज मन की व्याकुलता में, खो गए,
समस्त सँवारे शब्द.
सघन श्याम जल्द पटल पर,
विद्दयुत दौड़ दौड़ लिखती प्रकृति वैभव लेखा.
फिर भी इसने कभी पटल को, नहीं,
पूर्ण शब्द-आवृत्त-प्रच्छादित होते देखा.
वैसा ही है, यह रूप अमित.
मेरी क्षमता सीमित.
उसने जैसा जो कुछ देखा,
अक्षरशः जाकर किया निवेदन.
सब सुनकर
हो उठी सुजाता अति प्रसन्न मन.
पाककक्षा में खीर शीतल करती
अति अह्लादित बोली नंद्वला-
पूर्णे ! अति प्यारी पूर्णे !
तुझे मुक्त किया दासत्व से, आज
मेरा उत्फुल्ल मुदित मन, भर उठा.
तेरे प्रति घोर ममत्व से.
किसी स्वामिनी को निज दासी से आज तक कभी,
ऐसा स्वस्तिमय शुभ सन्देश न मिला होगा.
न किसी का पुण्य,
इस प्रकार साक्षात् साकार उदय हुआ होगा.
मैं हो रही प्रस्तुत पूजन को,
तुझे आज से मैंने निज पुत्री माना.
तू पहनेगी वैसे ही वस्त्र. जैसा मैंने पहना बाना.
उसे बहुमूल्य सूक्षाम्बर प्रदान कर
नीलवला ने स्वयम के निमित्त भी
सूक्ष्म नीलाम्बर स्वर्ण खचित निकाला.
आभूषण की मंजूषा खोल-खोल,
वह उल्लासभरी मृदु स्वर में रही बोल.
बेटी पूर्णे ! तुझे ज्ञात नहीं.
ये अरण्य !
हमारी संस्कृति गौरव-धरोहर है.
गृहस्थ भी मन वांछित फल पातें हैं..
वैरागी भी, यहीं अलख जगाते है.
ये साक्षात् कल्पतरु.
जिसको जो वांक्षित वैसा ही फल देते हैं.
इसी विशाल वैभवशाली वटवृक्ष ने आदिकाल में
सावित्री को अचल सुहाग दिया था.
अब भी उस तिथि को
वट सावित्री की पूजा होती है.
ये. वृक्ष. मनः-कामना पूर्ती करते हैं.
इनमें देवता अदृश्य रहते है.
अतः इसी में अश्वत्थ, कदली, श्रीफल वृक्ष,
रसाल, विल्व वृक्ष, मंगलमय वरदायक है.
और तुलसी, पूज्य स्वस्तिमय है.
इनमें भी संवेदना सहानुभूति प्रतिक्रियात्मक लक्षण हैं.
इनको जल दो.
पात-पात लहरा जाते हैं.
निज निश्चित समय में,
पल्लव संकेतों से पास बुलाते हैं.
यदि इन्हें तोड़ने जाओ.
इनको जाने से पूर्व ही आभास हो जाता है.
ये निष्प्रभ, म्लान होकर कुम्हला जाते हैं.
इनमें भी परस्पर संकेत सम्वेद्वाही संपर्क तंतु बिछे रहते हैं.
इनकी भी अपनी भाषा है.
परस्पर में ही नहीं, भूगोल, खगोल नक्षत्रों के संग,
संवेदनात्मक-सन्देश-सम्पर्क विद्दयुत-प्रवाही-कर्षण-तंतु सम्बद्ध रहते है.
इनमें से कुछ ब्रह्मांडीय लहरों से संचारित प्रत्युत्तरित संलापित रहते हैं.
यह अति पुरातन परम वैभवशाली गौरान्वित
अलभ्य अकेला देश
पचपन सहस्र वनस्पतियों, पांच सहस्र जड़ी-बूटियों का
साक्षात अमृत सन्निवेश.
ऐसा कहा जाता है.
अमावस्या की कृष्ण कज्जल काली निःशब्द अर्धरात्रि में
स्वस्तिमयी शुभ वरदायिनी लक्ष्मी
घर, प्रांगण में मौन हौले-हौले दबे चरण करती प्रवेश.
ये जड़ी बुटियां.
मानव भाषा से सम्भूषित, बतलाती, निज भैषज-गुणवत्ता विशेष.
इनके जड़ मूल पुष्प पत्रों में विशिष्ट, निर्दिष्ट देव आवास.
देवारान्धन मारण-तारन, उच्चाटन-उच्छेदन, सम्मोहन कर्षण-विकर्षण,अभिचार-विधान.
जो देते इनको आत्मीयता सामीप्य स्नेह सम्मान
उनके प्रति अभय-वरद, कल्पतरु कामधेनु समान.
यदि इनसे सानिध्य स्थापित कर लो तुम.
दुर्वा पर एक कदम भी न चल पावोगी.
सदा लगा रहेगा यही भय.
कहीं तुम कोई चोट तो नहीं पंहुचा दोगी.
मैंने तो इन अमरायिओं में, वन्य प्रदेशों में, इनके संग रहकर,
ऐसी ही, सदा अनुभूति ग्रहण किया.
अतः. मंगलमय वटवृक्ष देवता का, नमन कर,
निज अभिसिप्त मनःकामना, से उन्हें अवगत किया.
आज वे. साक्षात् उपस्थित.
यह कोई साधारण बात नहीं.
चल चल. शीघ्र चल.
वे अदृश्य न हो जाएँ कहीं.
भलिभांति सुआच्छादित सुअलन्कृत होकर नन्द वाला ने
स्वर्ण झारी में सुरभित स्वच्छ मधुर जल डाला.
एक नवीन हरिद्रा रंजित वस्त्र में, रखकर स्वर्ण पात्र,
उसमें भर कर खीर,
उसने निज शीश पर उसे रखा होकर
उद्वेलित अति अधीर. बोली- पूर्णे ! पूर्णे !
पूजन नैवेद्य-दीप, सब लेकर चल.
पंहुची जब वटवृक्ष समीप,
अपलक पद्मपलाक्षों में जले नील नीलम मणि में दो दीप.
विकीर्नित प्रभा. ज्यों नील गगन स्वच्छ धुला.
पूर्ण चन्द्र की दुग्ध धवल निष्कलंक निर्मल ज्योत्स्ना.
थी शांत मौन जड़ सरला प्रसन्नमना, निश्च्छला, नीलवला.
शीश झुका कर, स्वर्ण खीर पात्र को मस्तक से टेका.
फिर समाधिस्थ प्रभु को देखा.
सत्य ही, सघन श्यामल वृक्ष की छाया में,
वृक्ष देवता, अवस्थित थे.
हृदयावेश, में कम्पित सुजाता,
उसके मनः-शतदल के पात-पात विकच, विहंसित, लहरित थे.  
विभ्रमित विमुग्ध विभोर चकित,
देखा उसने प्रभु को,
हरित प्रक्षालित दुर्वा पर स्वर्ण थाल रख धूप दीप जलाया.
दोनों कर से आँचल फैलाकर,
धरा पर शीश नवाकर सादर निवेदन किया.
स्वर्ण झारी लेकर वह प्रभु के समीप गयी.
प्रभु ने देखा.
श्रद्धा की अनुपम अपूर्व एक विधा नयी.
निश्च्छलता की साकार प्रतिमा.
अतीव सुंदरी ओजमयी गरिमा.
प्रभु के दोनों कर प्रक्षालित करवा कर,
अत्यंत विनय से चरणों में शीश झुकाकर,
बोली- हे वृक्ष देवता !
तुममें है कितनी ममता.
मेरी मनोकामना. तव अनुकम्पा से, पूर्ण हुई.
आज खीर लकर प्रभु. मैं श्री चरणों में यहाँ उपस्थित हुई.
कहते हैं. वृक्ष नहीं सुनते,
मन्दिर के देवता भी कुछ नहीं कहते हैं.
उनसे कुछ भी कहना अरण्य रोदन है. केवल हृद-मंथन, आत्म दोहन है.
किन्तु प्रभु !
अरण्य ही नहीं, अरण्य के कारण, भी,
सुनते हैं जिनसे बनते हैं जंगल.
वे.
आतप तपित पिपासित धरा पर वर्षा करते हैं.
आप ! साक्षात प्रत्यक्ष प्रमाण.
कैसे रहूँ इससे अनजान.
प्रभु !
इस अकिंचन की खीर ग्रहण करें.
इस निरीह को कृतार्थ करें.
जो जैसा बन पडा,
तव सेवा में लायी हूँ.
प्रभु ! यह सुदामा का चावल.
वन-वासिनी द्रुपद सुता का शेष बचा एक अकिंचन तंदुल.
अतः इसी साहस से आई हूँ.
देव ! कृपा निधान !
निश्चय ही रखेंगे मान.
सुना था. मूर्तियों में होता है प्राणवंत जीवन संचार.
विश्वास हुआ.
देवतायों में भक्तों के प्रति कितना प्यार.
इसीसे प्रभु. सशरीर प्रगट हुए.
इस दीन अकिंचन के भाग्य उदित हुए हैं.
कौन देवता. सुनता इस प्रकार पुकार.
यह प्रभु का शुची मृदुल प्यार.
देखा.
सुजाता की निश्च्छलता और सरलता.
सहज स्नेह से,
प्रभु का दीप्तपूर्ण मुख हो उठा, प्रसन्न मदमाता.
आडम्बररहित प्रगाढ़ श्रद्धा.
तर्क वितर्क का किंचित भी स्थान न रहा.
किन्तु, प्रभु ! कैसे रखते उसे अन्धकार में.
कैसे एक असत्य. निश्च्छलता में पलने देते.
बोले सस्मित- देवि ! हो न चकित.
मैं वह नहीं. जो तुमने जाना.
मैं, वृक्ष देवता नहीं.
मैं भी हूँ, तुम सा ही मानव.
संधान निरत खोज रहा,
विमुक्ति-मार्ग सरल अभिनव.
निरुत्तर सुजाता मौन रही.
जो देवोपम परम ज्योतिर्मय तेज पुंज थे.
उनसे, कुछ कह न सकी.
क्षण मौन रह, निज ह्रदय आवेगों को रोका,
अति संयम स्वर में नम्र होकर,
कर जोड़, विनीत होकर, थम-थम कर बोली-
देव ! ज्ञात ई.. देवता स्वयं को प्रगट नहीं करते,
अप्रत्यक्ष ही रहते हैं,
या उपस्थिति नहीं स्वीकृत करते.
करेंगे भी, तो किससे ?
मनुष्य ! अत्यंत दीन हीन अकिंचन है.
प्रभु कृपा पर निर्भर है.
मैं भी उनमें से एक.
प्रभु स्वयम, श्री चरणों में मुझे, रहे, देख.
भला क्यों देवत्व. मानवता के दीन पराभव को देखे.
जिससे, वह, निः श्रेणी से आरोहित, ऊर्धव्गामी हो चुका अवस्थति,
वह. क्यों मुड़कर नीचे देखे.
वह ! निस्पृह स्वच्छंद विचरता.
मनुष्य स्पृहा-किंजल्क-जाल, में आबद्ध फंसा,
विवश विकल तडपता.
महान अंतर है देव.
मुझे.
यह स्पर्धा भी नहीं,
मैं यह भी जानू.
आप क्या हैं.
यह प्रत्यक्ष साक्षात उपस्थिति,
यही, सम्पूर्ण तृप्ति.
आप, जो भी हों. मेरे निमित्त वही जो मैंने जाना.
यह गहन विश्वास ह्रदय शतदल का
नव-नवविकसित उत्फुल्ल, मुदित उल्लास.
यह निष्ठा.
अडिग प्रतिष्ठा.
आप ! देवता नहीं. तो उससे भी आगे, कुछ हैं.
जो देवों को भी दुर्लभ.
आप अपूर्व अद्भुत हैं.
यह.
अंध विशवास नहीं मन का,
यह विशुद्ध वात्सल्यमयी श्रद्धा है.
विवेक, तर्क, ज्ञान-विज्ञान खेल रहे
इसके स्नेहिल शीतल अंचल की छाया में.
मैं ! क्यों करूं खोज या तर्क.
जब दीपित सम्मुख तेजोमय उद्दीप्त अर्क.
आप यक्ष किन्नर गन्धर्व से इतर कोई दिव्य विभूति हैं.
मैं पुनः चरणों में कर रही सदर निवेदन.
इस अकिंचन की खीर प्रभु करें ग्रहण.
उठे, बोधिसत्व निज आसन से,
बोले- कल्याणी !
सत्य-गवेषणा-सहायक तव खीर.
निश्चय ही मानस मराल. करेगा नीर क्षीर.
सुजाता एक ओर विनम्र खड़ी रही.
प्रभु पूर्ण करेंगे मनः कामना.
यही मनः चिंतन में पड़ी रही.
प्रभु ने वटवृक्ष की प्रदक्षिणा की.
खीर-पात्र को कर में लेकर गए,
निरंजना नदी के तट पर.
सैकत तट पर खीर रख
सरिता में कर स्नान पूर्वमुख आसन कर ग्रहण,
प्रभु ने उनचास ग्रास लिया.
मुख प्रक्षालित कर पर्ण-पात्र सा,
उस स्वर्ण थाल को जल में फेंक दिया.
उनचास दिवस के निमित्त,
प्रयाप्त थी यह खीर.
किन्तु, सुजाता. आन्दातिरेक से उल्लासित,
भरकर आँखों में नीर.
अब भी चली यही सोचती.
प्रभु ने खीर ग्रहण किया.
उसको निज आश्रय में शरण दिया.
वह ! धन्य धन्य ! कृत कृत हुई.
उसने मन ही मन अगणित बार.
प्रभु को शिरसा नमन किया.
किन्तु न समझा पाई मन को.
वह ! कोई अन्य !
वृक्ष देवता नहीं ! 

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