Thursday, 5 December 2013

सर्ग : १६ -: मार



सुजाता का निर्मल निर्जल खीर ग्रहण कर
प्रभु ने परम तृप्त होकर,
निर्जन सघन श्यामल शीतल
शाल-विपिन, विजन-वन में किया प्रवेश.
पुष्पित पल्लवित हरित सुरभित
नवल पत्रों से सज्जित,
थे खड़े तरु विशाल.
कोई मौन सन्देश संचारित,
जल-थल-नभ, आकाम्पित पात-पात,
डाल-डाल, मंजरित, मधुक, पादप रसाल.
आज !
वैशाख पूर्णिमा !
स्वच्छ धुला नीला गगन,
प्रकृति प्रसन्न पहन हरित वसन.
समस्त दिवस व्यतीत कर
प्रभु आये सायं को अश्वत्थ सघन तरु की छाया में.
केवल हरित दूर्वा का पटल था सर्वत्र.
उसी मार्ग से वेद-वेदांग में पारंगत श्रोत्रिय ब्राह्मण का,
तृण भार वहन करने वाला,
जा रहा था निज गृह की ओर.
निरख मौन खड़े प्रभु को,
उनका मंतव्य ग्रहण कर,
आठ मुट्ठी तृण उसने वहीँ प्रदान किया.
प्रभु ने तृण लेकर निज कर में,
किया अश्वत्थ वृक्ष की प्रदक्षिणा.
पूर्व की ओर मौन खड़े होकर,
उन्होंने मौन आकाश क्षितिज को देखा.
पुनः पश्चिम की ओर घूमकर, झुककर धरा पर,
आसन निमित्त तृण को फैलाया.
तृणासन पर, अपराजित मुद्रा में वे आसीन हुए.
पृष्ट भाग वृक्ष से लगा हुआ था.
वे दृढ़ स्नाकल्पित, सम्यक सम्बोधि निमित्त
मौन समाधिस्थ, हुए.
यह मुद्रा साधारण नहीं थी.
मात्र निश्चय ही नहीं,
प्राण-होम संकल्प था.
आहुति स्वरूप पंचभूतों का,
तपः-अग्नि में समर्पण था.
जले शरीर.
जले त्वचा.
न रहे अस्थि पिंजर.
यह क्षण भंगुर वपु की सरंचना.
दृढ़ संकल्प प्रज्वलित दीप जला.
केवल स्वांसों का व्यंजन.
यह अंतिम ज्ञान यजन.
स्थूलता में त्वरित, विद्युत् स्फूर्ति नहीं,
मनः-वृत्तियाँ,
चपला से भी सूक्ष्म, कहीं.
यह वज्र निश्चय निरख.
सोचा ! मार ने !
शरीर मात्र प्रस्तर मृण का गढ़ है.
वह स्वतः ही ध्वस्त हो जाएगा.
यदि हठी मन परास्त हो जाएगा.
प्रथम, मनः-वृत्तियों से ही
क्यों न हो आत्मा पर आक्रमण.
वृत्तियों के प्रहार सबल गहन.
कबतक,
निसंग आत्मा निरुपाय करेगी उसे सहन.
स्वस्थ संपुष्ट शरीर.
बहु-सुस्वादु रसना अति अधीर,
क्यों न व्यंजन नाना प्रकार के प्रस्तुत हो.
लोभ, क्षुधा जगाएगी.
तन मन की तृप्ति,
क्यों विराग के प्रति उन्मुख हो पायेगी.
फिर लालसा, वासना, रूप-वैभव, की चोट.
लेगा कबतक ध्वस्त हो रहे संकल्पों की ओट.
निर्बल अलसित शिथिल तन-मन पर,
भय त्रास का अतिक्रमण.
निरीह जीव !
बरबस करेगा स्वतः समर्पण.
नाना प्रकार की चित्त-वृत्तियाँ,
नाना रूपों से आई.
प्रथम,
मार ने, युद्ध-भूमिका सजाई.
वैशाख मास जब तपता निदाध.
प्रकृति सजी अपूर्व, निर्विवाद.
हरित सुरभित आम्र जम्बुक मधूक, मंजरित,
पुष्पित, कैकी, कल कलरव, पुष्करिणी, तड़ाग, कुल्याएँ,
सरि, सरिताओं में
कंज, चित्र-विचित्र, खचित विकसित अभिनव.
सुरभि मरंद मार वहन करता,
श्लय मंद गति था गन्धवाही.
संकुलित आकुलित झुके रस पान कर रहे
मृग कीट चंचरीक.
आम्र वृक्षों के अंतराल को,
पी-पी की करुणा विगलित
स्वाती हेतु पपीहे की, अनवरत चीख.
मार, प्रकृति से मांग रहा, आतुर भीख.
अवतरित हुई वहां नृत्य करती,
सर्वांग सुंदरी नृत्यांगनायें,
मधुर-मधुर स्वर-ताल-निबद्ध,
किंकिण नूपुर ध्वनी.
सुरभित बहुरंगी तुहिन खचित सद्दः-विकसित,
पुष्प शिंजिनी सज्जित,
नववय रमणीय कान्त कलेवर तन्वी.
लोच भरा मृदुल तन.
मादक मदमाता रसः-आप्लावित स्वप्न-शायित, उन्मन मन.
वंशी, रव, वीणा मांडर, मृदंग, पर त्वरित, थाप.
काँप रही वनस्थली, लहरित लतिकाएँ, पुष्करणी, तड़ाग.
झूमती, पवन-प्रताड़ित हरित वल्लरी.
उड़े स्नात तड़ाग से, पंख फड़फड़ाते मराल.
कम्पित चित्र-विचित्र किंजल्क जाल,
कृष्ण घटाओं से लिपटा अर्ध अनावृत,
पूर्ण चन्द्र
अमिय छलकाने को खोज रहा था,
रंध्र-रंध्र,
आया,
मार
लेकर अमोघ साज श्रृंगार.
कोई भी, शुभ अशुभ मनः-वृत्तियाँ,
भग्न न कर पायी, अडिग प्रतिज्ञा.
किन्तु, नील निर्वात कँवल सज्जित तड़ाग में,
उन सबके मध्य, उभरी एक साकार प्रतिमा.
सौन्दर्य, सौष्ठव, सुरम्यता की,
अदभ्र अपार गरिमा.
अश्रु-आप्लावित अनिमेष नयन,
रक्ताभ शुष्क बंद अधर,
अनुक्त आलोड़ित आंदोलित बयन.
आकर्णमूल पद्मपलाक्ष,
भींगे-भींगे, खोये-खोये,
रंगीन स्वप्न सभी, रंगविहीन रीते-रीते.
अश्रु-क्षितिज पर,
पीड़ा-तडित की पागल विक्षिप्त कौंधें,
विवर्ण क्लांत विधु मुख, खुले रुक्ष केश,
बिखरे-बिखरे, प्रश्न बने,
दो अश्रु-बिंदु पलक कोरों पर ठहरे.
यह अश्रु स्नात आकम्पित मृदुल फूल.
जाना था दुष्कर इसे सहज ही भूल.
मन ही मन किया गौतम ने चिन्तन.
हे ! आदि शक्ति !
सब प्रकार तेरा अभिनन्दन.
अति मसृण कोमल, प्रणय-ग्रंथि.
आज भी मांग रही अश्रुल-सहाद्र-मृदुल, संधि. महाभिनिष्क्रमण पथ,
था, गोपा-स्मृति-संकुलित-संगम-अगम.
एक पग भी, चल पाना था अति दुर्गम.
अब ! मार ! हार,
आया लेकर गोपा-स्मृति-सजीव-साकार.
किन्तु नहीं उसे भी ज्ञात.
यह खिला कंज अवदात.
हो गया कितना दूर तिरोहित.
फिर भी कहा उन्होंने
शांत गंभीर अचल स्वर में-
गोपे !
तू इन मर्मान्तक मारक मोहक स्वरूपों को,
न कर वरण.
ये संजीवक, रोमांचक, सुरम्य, समारोह,
कैशोर्य काल से ही निरखता आया हूँ.
ऐश्वर्य, सौख्य, विलास-लास के, मध्य,
जन्म हुआ, बड़ा हुआ.
हर प्रकार से इनसे ही रहा, सदा घिरा.
किन्तु कमल पत्र पर कम्पित पतित,
तुहिन कन सरिस फिसलता.
सब, सम्मोहन रहा.
कोई भी वाद्य, नाट्य, नृत्य, गायन.
केवल करते रहे मात्र, मेरा अयन.
उस जन-संकुलित भरी भीड़ में.
क्षणभंगुरता की चकाचौंध के,
निर्मित मोहक नीद में,
आबद्ध बंदी एकाकी. प्राण !
विवश नितांत निरंतर रहा तड़पता.
किन्तु.
यह निश्च्छल, निष्कल, निर्मल, निर्बाध, निस्सहाय, सौन्दर्य तेरा.
उस दिन भी, और आज भी.
किम्कर्त्तव्यविमूढ़, मंत्रमुग्ध-विजड़ित
आहत मन मेरा.
तू अचूक वार. मैं गया हार.
आज.
जब मार हो गया निरस्त्र.
न उठा तू अपने निर्मम अस्त्र.
मत !
स्मृति-सजल-श्याम-जल्द-घन-अंतर-विदीर्ण, कर. तू विद्युत् सी, निर्भय निशंक
निर्द्वंद्व, अमंद शोभा श्री लेकर,
आगे, चरण रखती आ.
यह अमोघ सम्मोहन. कर जाएगा,
अंतर-दोहन.
तू ! निज सौन्दर्य सम्मोहन संभार समेट.
रहने दे. मेरी टेक.
तू ! अब, जीवन संगिनी नहीं.
प्रेयसी प्रियतमा भी नहीं.
दे मेरा साथ, न कर मुझे अनाथ,
संकल्प-अश्व-आरोहित, ऊधर्वगामी यह आरोही. क्या भूलुंठित हो जाएगा.
यह अपार रूप.
समाहित कर ले.
अन्यथा मैं.
इन गगन घर्षित अदभ्र निरभ्र
ज्वार तरंगित अत्यूर्मियों में,
निरीह, निराधार तृण सा बह जाऊंगा.
अब तू.
केवल, राहुल-जननी, ही नहीं.
तू ! विश्व-भुवन की माता.
मैं सादर सनत साग्रह तुझे शीश नवाता.
तू ही कारण, अकारण, सर्जक, संहारक.
तेरी मोहिनी कशा में जीव बंधा
विवश खींचा आता.
निर्वाण, कल्याण, मारण, तारण, वारण,
सब, तुझसे संचालित.
नारीत्व-चरम-मातृत्व.
तू !
परा-अपरा-संसृति-संजीवन उत्सव.
आदि शक्ति.
भुवन-संचालित-कर्षित मर्दित उत्थित.
तव मौक्तिक शिंजिनी से टूट,
बिखरे नखत-गण तारक-गण.
तू ज्ञानदा, त्रिपथगा, जाह्नवी,
वीणा पाणि, सरस्वती.
तू संवेदन-आकुलित-नील-गहन कालिंदी.
परम पतित पावनी मंदाकिनी.
सर्व शक्ति संभूता अपरिमेय.
तेरा लावण्य, सौष्ठव, सम्मोहन अजेय.
सद्, असद्, परा, अपरा, मसृण, परुष, सभी समस्त, चित्त वृत्तियाँ.
तुझमें ही जागृत, मृत, उद्भूत, समाहित.
नारीत्व का अंततः महाविश्राम.
जगदम्बा !
निरख !
यह निष्कल्मष, निर्मल, प्रचंड
अखंड, तपः-ज्वाल-अग्नि.
यह.
अवदात कमल, कल कोमल, कमनीय,
कान्ता का, रमणीय स्वरूप.
हो रहा अब, भस्मीभूत.
वह अदभ्र अपूर्व सौदर्य अभूत.
जल रहा, वपु. जल रहा, विधु मुख.
अश्रुः-आप्लावित कातर विकल उत्सुक.
जल रहे श्यामल अजानु अलक जाल.
लहराते कादम्बनी से कृष्ण केश.
जल रहा, सम्पूर्ण सर्वांग सम्मोहक सन्निवेश. नहीं शेष !
वह वियोगी रूप अशेष.
उड़े. सघन घनसार बन,
वह रूप संभार ज्वार,
केवल निसंग अछूती यह तपः-भूमि.
उड़ रही भूमा की सुनहली धूल.
धुन रहा शीश, मार,
निरख अपनी गहरी भूल.
था.
शांत गंभीर गहन निर्वात निर्मल मनः-गगन.
प्रभु का था क्रमशः उधर्वगमन.
निःस्तब्ध मौन प्रकृति नमित अंजलिबद्ध,
कर रही शत-शत वंदन.
दैवी शक्तियां.
परा अपरा विभूतियाँ.
कर रही अनवरत प्रदक्षिणा अयन.
स्तवन .
जाना जिसे जग ने, तपी मुनि, महामानव ! उसका यह रूप !
अलभ्य अलौकिक अप्रतीम अभिनव.
हिली, जकड़ी अनादि की बंद अर्गलायें
सप्त्लोक बंद कपाट की.
खिंची सांस संसृति की.
आज !
निज चिरकांक्षित अभीष्ट-सिद्धि की ओर,
हो रहे थे सतत् अग्रसर.
उनके, शुभ स्वस्तिमय
अभय-वरद शुचि मंगलमय चरण.
शत-शत नमन !
नख-निर्गता अध्वगा पावन चरण !
अंतिम शरण !



No comments:

Post a Comment