Tuesday, 29 October 2013

सर्ग : १७ – बोधिवृक्ष



दा ही हुए प्रज्वलित, ज्ञानदीप।
गिरि, गह्वर, एकांत कान्तर वन
गहन सघन कानन, अरण्यों में,
पर्ण कुटीरों में।
हुई प्राप्त प्रेरणा,
तृप्त एषणा आत्म चिंतन अनुशीलन की।
स्वच्छ शांत, प्रवाहिनी सरिता का एकाकी तट। 
अथवा पाषाण शिला-मूल निकट।
ये। तरु पादप रसाल
केवल साधन मात्र नहीं,
आतप ताप हरण के,
अथवा
फल फूल पल्लव पात्र निमित्त के.
अविच्छिन्न चेतना धारा।
जल-थल-पवन-गगन-पावक सबमें,
सतत प्रवाहित।
जलचर खगचर मानव
एक परम चैतन्य तंतु से संवेदित सन्नद्ध,
इन्ही शाल, वट विशाल,
पादप रसाल की छाया में।
मन्त्र दृष्टाओं, मुनियों ने,
स्पष्ट ग्रहण किया,
उत्तर, अनुत्तरित पीड़ित प्रश्नों का
अन्तस-चक्षु सम्मुख, लिपिबद्ध लिखित
विद्युत् भास्वर अक्षर में।
अनुरणित, शब्द ब्रह्म।
खुले, गुम्फित स्वर-शतदल पटल।
जो रहे अदृश्य अगोचर।
हो उठे।
तपः-तेज से ज्योतित, दीप्ति मुखर।
प्रकृति का आँचल, लाया,
भर सत्वर, प्रश्न,
उत्तरित, विकच विहंसित।
होती वह भी सहयोगिनी।
आत्मशोधन विधा बनी।
अन्यथा। क्यों
कान्तर निसंग वन ही, बनते,
आत्म दोहन साधन सही।
थे।
तपः निरत शांत, विटप,
स्वस्तिमय, वरदान, अक्षर।
आत्म प्रकाश, सन्देश वाहक।
आश्रयदाता। ज्ञान-प्रदाता, उद्धारक।
अनादि काल से,
सृष्टि, संहार, सृजन, अवगत।
कभी।  शाल वन। खिदिर वन। अर्जुन की छाया।
पाकड़, तमाल रसाल वरुण विटप ,
वट भी सन्देश भरा, साधन-संवर्धित, आया।
यह। अश्वत्थ। महिम अकथ अथक।
बना समस्त अरिष्टियों का संरक्षक।
अश्वत्थ की छाया में,
उसे, प्रदक्षिणा, नमन, आचमन कर,
प्रभु, पूर्वान्मुख उन्मुख हुए अवस्थित।
अपराजित मुद्रा ।
शांत शमित समस्त संवेदना।
उदय हो रहा, वैशाख पूर्ण चन्द्र।
प्रभा अमंद।
तरु शिखाओं पर बिखरी प्रभा।
प्रतीची में ले रहा था दिनमणि विदा।
उत्थान-पतन, की चल रही कथा।
आरोहनण ।
अवरोहण में एक ही वेदना व्यथा।
सबमें, अनुस्यूत
एक ही संस्पर्शित सूक्ष्म, चेतना।
था, शांत सुरमय नैसर्गिक वन्य प्रदेश।
फिर भी मूक प्रबिहिनी
उसमें अन्तः-सलिला वेदना अशेष।
सृष्टि चक्र में समग्र कार्य, कारणों में वह,
उत्थान पतन की खींच रही थी रेखा। 
प्रभु ने देखा।
दिनमणि को जीवन-मरण,
दोनों ही में, उसकी,
अंतर व्यथा की गहन तड़प को।
उठी मन में पीड़ा।
जन्म भी दुःख।
मृत्यु भी दुःख।
उसके मध्यावधि अंतराल भी,
करते रहे विषण्ण विक्षुब्ध।
इसी चिंतन में शनैः-शनैः
वे।
पल्लव प्रच्छायित सघन शीतल,
अश्वत्थ वृक्ष की छाया में थे निमग्न। 
ब्रह्मवेत्ताओं, अध्येताओं, का यह पुनीत स्थल। हुए।
निर्णीत समस्त गहन चिंतन विवेचन।
आज।
यह अश्वत्थ वृक्ष,
कहा जाता है।
कल्पतरु ।
विष्णुद्रुम।
यह, हयग्रीव-अवतार-शीर्ष
प्रस्फुटित उत्थित।
अतः अश्वत्थ संबोधित।
पूजित अनुपम, अपरिमेय, अप्रतीम,
महामहिम, चलदल।
करता प्रदान।
सौख्य समृद्धि सौभाग्य अचल।
धन्वन्तरी।
औषधि देवता ने भी
मुक्त-कंठ से की प्रशंसा इसकी।
कहते पुराण
यह भेषज आगर,
मूल, स्कंध, शाखा, प्रशाखा, पात-पात,
सबमें है। विष्णु निवास।
ये विष्णु के पवन गात।
सहस्र पापों का हन्ता।
गर्वित सुशोभिता इसमें अनन्ता।
पावन वैशाख मास।
जो इनमें करता नित्य जल दान।
उसके निमित्त यह, पुण्य-फल, पावन-वरदान। 
जब योगेश्वर गीता अनुप्रणेता।
प्रभु कृष्ण ने, ‍‍द्वापर युग को त्यागा।
परम-धाम-गमन पूर्व,
इसी वृक्ष की छाया में ध्यानावस्थित
समाधिस्थ रहे अवस्थित।
सत्य।
सत्य में, मिली ज्योति, परम विराट,
आत्मानंद अनुभूति।
आज। वैशाख पूर्णिमा।
सर्वत्र अकलंक निष्कल निर्मल ज्योत्स्ना।
सन्देश भरा मौन खड़ा विष्णु द्रुम।
विष्णु, शून्य पद, अव्यय अविकल शान्ताकार. 
अनंत अपरिमेय ज्ञान उदधि वारापार,
नाम रूप संज्ञा संवेदना स्वरूप.
त्याग निज आकृतियाँ,
विकृतियाँ प्रकृति लक्षण,
अभिज्ञान.
पंचतत्व ग्रंथित जटिल दुरूह ग्रंथियां,
होती, इस महाशून्य में अंतर-ध्यान.
वाह्य और आन्तर प्रकृति,
एकमात्र, शून्य ही निर्दिष्ट,
निष्कृति.
संभव यह उपलब्धि,
निर्विकार, निर्लिप्त हो,
अन्तस संवेदना.
खुले उन्मुक्त अमृत के कपाट.
हो साक्षात सम्मुख लहराता,
ज्ञान प्रकाश अपार.
जब.
जीव.
त्याग करे.
सम्मोहन विजड़ित संसार.
यह अश्वत्थ तरु. विष्णु द्रुम स्वरूप.
निर्वाण ज्ञान शाश्वत कल्याण अभूत.
प्रतीक, शून्यता का.
विमुक्ति का.
नीलांजना, निरंजना, निर्मल सलिल, प्रवाहिनी. 
निरंजन. निष्कल्मष माया रहित निर्विकार.
शांत, उरुवेला कछार. पावन पारदर्शी जल धारा. 
प्रकृति ने आत्म ज्योति का इसमें,
शुद्ध बुद्ध स्वरूप उतारा.
अश्वत्थ शून्य निरंजना.
वृत्त-विहीन निर्विकार.
निरख रहा, तपी.
विमुक्ति-विग्रह-अवतार.
शून्य-शून्य का आलिंगन.
माया, तृष्णा, अंध-मोह, उच्छेदन.
होगा.
समस्त आवरण.
निरावरण.
प्रदत्त करेगा, ज्ञान-प्रकाश.
अमृत-मंथन आत्म दोहन,
अचल निर्द्वंद्व विश्वास.
जड़ जंगम, कं, खं,
शांत निस्तब्ध धरा.
उदित.
पूर्ण चन्द्र.
उज्जवल मुक्ताभ ज्योत्स्ना.
अमृत कलश.
निसृत निष्कल दुग्ध धवल प्रकाश बिखरा, अवस्थित,
विशाल तरु की छाया में,
समाधिस्थ, दृढ़ संकल्पी, महान तपी.
ध्यान आया,
हल कर्ष्णोंत्सव पर्व,
जब थे बालक वह.
निसंग निर्जनता में
निज मनः-अनुभूत एकाकीपन में,
गहन शान्ति थी छाई मनः-गगन में,
अथाह तन्मयता का प्रगाढ़ प्रवाह.
चित्त वृत्तियों को मिली न राह.
शांत उपशमित मनः-वृत्ति
वीचियाँ मनः-सागर में.
आत्मानंद अतिरेक.
अमृत-पियूष-पुंज अभिषेक.
प्रभु ने किया मनन.
जिस समाधि से अनुप्राणित,
मृगः-मद विभोर हुआ था बचपन.
क्यों न हो उसी विधि से चिंतन.
शांत प्रकृति प्रवाह में, डाल दिया,
निश्चेष्ट तन-मन.
अवर्ण्य अनुक्त अनुनमेय प्रकाश-लहर,
दोलित संतरित, चेतना निष्कंप अव्यानृत,
वृति-वीची, रहित,
मानस-तड़ाग निर्मल मुकुर,
खुल रहे माया के
वाह्य आन्तर जटिल दुष्कर
रहस्यमय ग्रंथित चिकुर.
प्रथम वाह्य वृत्तियों का उच्छेदन.
रात्रि का प्रथम याम.
मन शांत निष्काम.
कर रही चित्त वृत्तियाँ विराम,
प्रश्न. जितने हो मौन.
उतने ही प्रबल मुखर बने.
सोचा प्रभु ने,
आत्मा ! अथवा जीवन सत्य.
रहे ज्यों के त्यों, अकथ्य.
क्या है वास्तविक तथ्य.
कौन कर रहा विश्व-रमण.
किसका अनबद्ध अनंत विचरण.
चित् में, सरस प्राणवंत रसवंत जीवन संतरण. 
किस प्रकाश से, सर्वत्र प्रकाश.
लेकर किसका विश्वास,
अवस्थित, उद्भासित, उच्छवासित, स्वंसित,
विश्व चेतना सोल्लास.
यह मनः-आकाश.
अनन्तः किसका प्रतिबिंबित दर्पण.
हो रही, किसे,
सद् असद् वृत्तियाँ सम्पूर्ण समर्पण.
क्यों ?
किससे प्रेरित.
कदम्ब पीत पुष्प सरिस,
केशर-पुष्प-जाल-स्फुरित
स्वयं में गुम्फित संकुलित.
हो रही, अणु अणु में
चालित निर्देशित नर्तित.
अनंत गवेषणा.
अनादि से अबतक,
यह, अमृत-मंथन सतत चिंतन,
कर रहा कौन ?
नाना रूपों में पुद्गल ग्रहण.
किसका पंचभूत पंकिलता में बार-बार
बलात् अवरोहण.
यह किसकी अनन्तर अंतहीन अथक यात्रा,
बढती गयी प्रतिपल प्रतिक्षण,
पीड़ा पर पीड़ा की ही मर्मान्तक यात्रा.
हर बार कंपा जीवन.
हर बार थमे चरण.
तृष्णाओं का अप्रतिहत आक्रमण.
बलात् स्पृहा-जलावर्त्त में,
घूर्णित जीवन.
स्वांस-स्वांस में विमुक्ति प्राप्ति के निस्वांस. 
भग्न आकुल प्रतीक्षातुर विश्वास.
निरर्थक प्रयास.
ये.
शाश्वत अनुत्तरित नित्य प्रश्न.
अनगनत, संहार-सृजन,
हैं. किसके मनः-रंजन.
क्यों ?
शाश्वत विस्फारित कराल काल-मुख-गह्वर,
क्यों बने सब.
काल के अशन.
मन.
झार रहा.
दर्पण पर चढ़ी बढ़ी धूल.
जिज्ञासातुर विकल पल न कल.
कहाँ पर, कब, किससे, क्योंकर, हुई भूल.
वाह्य चेतना, आंतर चेतना,
संलग्न ग्रंथित, एक दूसरे से,
परस्पर संवेदित प्रत्त्युतरित.
आकाश ही नहीं, धरा ही नहीं.
ज्ञान-गगन, ज्ञान-क्षितिज भी,
पूर्ण ज्योत्स्ना आप्लावित.
सर्वत्र. प्रकाश पारावार.
उठ रहा शनैः-शनैः अमिय कलश.
हिरण्यगर्भ प्रकाश अथक.
अत्यूर्मियाँ अन्तूर्त अदभ्र,
ज्वार संकुलित, प्रकृति अनुरणित.
ज्ञान श्येन पंख पसार, उड़ा,
सतत ऊधर्वगामी.
ज्ञान क्षितिज.
विस्तीर्ण विशाल अपार अभिमानी.
मधुप गुंजन. प्रकृति निःस्वन.
नाद अनाहत.
आज.
टूट रहे. छंद पर छंद मर्माहत.
खिल रहा.पत्र पर पत्र.
सहस्रार सहस्र दल.
प्रखर भास्वर चेतन प्रकाश जडवत्.
आन्तर बर्हिजगत,
तन्मय निःश्वसित शून्य जडवत्.
प्रगाढ़ समाधि अवस्थित,
जटिल अभेद्य अहम ,
आच्छादन विषम,
चल रहा निरंतर.
प्रकाश भेदन क्रम.
पटल क्रमशः. हो रहा
क्षीण पारदर्शी झलमल.
चित्रित, वृत्ति, आकृतियाँ, विकृत्तियाँ,
जीवन स्पृहायें, एषणायें.
प्रकृति अपरा, अनुभूतियाँ.
हो रही ध्वस्त भस्म, विलीन.
भग्न कलेवर माया पटल विशीर्ण.
चैतन्य प्रकाश में लीन समाहित.
कहीं नहीं भौतिकता स्थूलता स्थित.
विदीर्ण.
जीर्ण मलिन पट.
उन्मुक्त उज्जवल निष्कल ज्ञान विराट.
विवृत कपाट.
अभूत अचित्य अवर्ण्य.
अनुभव अगम्य अवतरण.
युगाद्या तिथि अनुक्त अनुभूति.
प्रशांत प्रवाहित उज्जवल निष्कल,
अपार प्रकाश पारावार.
अहम वोहित.
सम्यक समाहित तिरोहित.
मूक.
स्वर, शब्द,स्पर्श, वेदना.
अक्षम ग्रहणशीलता\.
केवल, निष्कल आत्मानंद अभंग.
उज्जवल दुग्ध धवल भास्वर तरंग.
कर रहा रसः-आस्वादन.
ज्ञान-चंचरीक,
हो रहा व्यतीत,
प्रथम याम,
मन. ऊर्ध्वगामी आरोही.
गुम्फित विगत विस्मृत
व्यतीत, जीवन-शतदल.
मुकुलित, स्फुरित, संजीवित, विक्सित,
उसके एक एक दल. अंकित.
विगत जन्म.
टूटे सब भ्रम.
अनवरत निरंतर निर्दिष्ट विहित,
यह जीव क्रम.
बीते, जितने भी जीवन-मरण. परिचित,
बिछुड़े वे आवरण वसन.
जीव ने, उन्हें, कब कैसे किये ग्रहण.
कितने रूपों में, आवेगों,
आवेशों में नव जीवन-उन्मेशों में,
जन्म, जीव ने, किये वरण.
किसलिए.
क्यों ?
किसके निमित्त, वह.
निरंतर धावित अथक व्यथित,
क्यों शल्य बधित.
वह पीड़ित उद्भ्रमित.
कब कहाँ बदले, ठहरे, उसके पड़ाव.
कब बलात् अथवा स्वेच्छा से,
त्यागे उसने कौन गाँव.
कितने परिजन और स्वजन.
कितने थे अपने प्रिय भाजन.
अब भी किनकी अबूझ पीड़ा अभ्यंतर.
खोज रहा.
कौन औषधि निदान. निरन्तर.
विगत जन्मों के विश्राम-स्थल.
छोड़ चला सब
जब प्राप्त हुआ.
काल का निर्मम आमन्त्रण.
नहीं ! पल एक थमा.
नहीं चाह कर भी, क्षणेक रुका.
नहीं अपने, या स्वजनों के,
चिर-विदा-वेदना-विरह-अश्रु-अजस्र, पोछ सका.
जो बढ़ा. न किंचित मुड़कर देख सका.
लगी, किसे कितनी ठेस.
बीते, कैसे, उनके  जीवन शेष.
आज.
वे ही सब.
जो बीत चुके.
सम्मुख, स्पष्ट, अंकित,
पात्र पर पात्र पड़े बिखरे.
निरख.
इन्हें निरख,
मुनि.
हुए व्यतीत हों जितने भी, जन्म-मरण.
अब भी तेरे जमे, वहीँ चरण.
ये . आवागमन-प्रत्यावर्तन.
कर न सके किंचित भी, उन्नयन.
जीव जहां से चला.
वहीँ चक्कर खाता रह जाए.
काल उसे, ठोकरों में,
समय-प्रवाह में बहाता जाये.
क्या ?
इतना ही बस जीवन है.
मात्र, इसके ही निमित्त,
सदा प्रस्तुत, जीवन-मरण उपक्रम है.
सब पर क्रमशः अंकित एक ही जीवन कथा.
वह.
जब भी, जैसा, जो भी, रहा.
केवल, मरण सेज ही, सवारंता रहा.
क्या ?
इससे इतर. जीवन नहीं ?
जीव ?
बस, काल-कवल, मात्र ही.
ध्यान-मग्न प्रभु की आँखें बंद.
खुले, और भी जटिल ग्रंथित जीवन-छंद.
हुआ ज्ञात.
विशीर्ण यह जीवन-जलजात.
पात-पात इसके विदीर्ण विगलित.
हो रहे,
महाशून्य भास्कर प्रखर पारावार प्रवाहित.
खडा.
निसंग तट पर देखा उसने.
होकर, विस्मित, विमुग्ध, तन्मय.
ये.
जन्म-जन्म के मेरे तन-अवयव.
काल-मंजूषा में संचय.
मैं.
केवल मृणमय.
प्रकृति,
कर रही काल से.
इसका विनिमय.
रंग, रूप, स्पर्श, गंध, संवेदना.
उसने दिए.
काल ने, निज कर में,
समय अवधि-रशना, लिए.
दोनों ने, एक खेल रचाया.
कभी छाया-नट, नाटक. 
कभी सूत्रधार बनकर, चाहता जहां, वहां पटकता,
जा रहा बेधड़क निष्कंटक.
देखा मैंने.
कितने भी अपने रूप.
समय-सागर में तिरोहित विलुप्त,
गए, सर्वथा टूट.
ज्ञात हुआ.
कि, जन्म-जन्म का बारम्बार आवागमन.
केवल चित् प्रांगण में,
तृष्णे ! तेरा नर्तन.
मैं.
तव मोह रज्जू में बंधकर, भटका,
जन्म-जन्मान्तर.
जिन तृणों से तूने किया,
निज नीड़ निर्मित.
उन्हें जान गया मैं.
त्याग दिया चित्त ने,
उन कारण कारक कार्यों को,
होता जिनसे, तेरा मंदिर सज्जित.
नष्ट किया तेरा,
काम्य कामनायों का सुरम्य मनोहरण, उपवन.
 मैं स्थित अब, अर्हत पद में.
भटका.
जिस गहन अन्धकार में.
वृत्ति-संकुलित, किंजल्क-जाल में,
छिन्न-भिन्न किया मैंने.
मैं.
चक्षु नहीं.
मैं. श्रोत नहीं.
मैं. प्राण नहीं.
मैं. स्पर्श नहीं.
संवेदना नहीं.
मैं. काल नियमबद्ध नहीं.
मैं. निष्कल निर्बंध स्वच्छंद
अदम्य अप्रतिहत.
कोई.
अप्रतीम, अनुपमेय, अभूत शक्ति-प्रवाह.
आकारों सीमाओं में बांध, खोज रहा,
निज वांछित राह.
मैंने.
अपने मन-चक्षु से,
समस्त विगत, निर्मित, मनः-मंदिर,
ध्वस्त विनष्ट होते देखा.
मैं.
हूँ.
इन सबसे परे.
केवल यह पंचभूत, मात्र उपादान.
जिन पर ये भटके चरण पड़े.
पूर्ववर्ती, तपी, याज्ञिक मन्त्र दृष्टाओं ने,
जिस अप्राप्ति की,
की, चिरकांक्षित कामना.
निरंतर थी आन्तर-आकुल-याचना.
“असतो मा सद्गमय,
तमसो मा ज्योतिर्गमय,
मृत्योमा अमृतं गमय.”
संभव है.
यह रही हो. मात्र अलभ्य संभावना.
ध्यान के, उत्तरोत्तर ऊध्र्वगामी आरोहण में, मैंने.
चाहा नहीं,
स्वतः प्राप्त किया.
ज्ञात हुआ,
लहराता अपार ज्ञान-प्रकाश पारावार.
नहीं वहां. आकाश.
नहीं वांछित कोई विश्वास.
ज्ञान-ज्योति, अदम्य अप्रतिहत असीम.
सर्वत्र उज्जवल प्रखर अक्षर प्रकाश.
अमृत आभास.
प्रकाश पुंज अपार.
खुले, अमृत द्वार.
“अविज्जा विहता, विज्जा उपन्ना.
तमो विहतो, आलोक उपन्नो,
अपारुता अमतस्स द्वारा.”
यह प्रभु का अभिसंबोधित प्रथम उद्गार. 
आप्लावित आलोकित आनन्दातिरेक विमूर्च्छित. 
अभूत अनुभूति संवेदित अरण्य संसार.
प्रभु ने, मन ही मन किया विचार.
तृष्णा ही है सबका मूल.
श्रेयष्कर करना इसका उच्छेदन समूल.
यह, समस्त दुःखों का कारण.
दुःख ही जग में व्याप्त आमरण.
तृष्णा के रहने से ही,
मन. मुद्गल करता चयन.
होता उसमें,
रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान,
अविधा का अवतरण.
यदि दुःख है.
तो, उसका कारण, निदान,
निरोध भी निश्चित है.
क्योंकि कारण कर्म ही जीवन है.
पूर्व जन्म की पूँजी लेकर,
अविद्या और संस्कार बांधकर,
भाव-तृष्णा आती है.
पांच स्कंधों में, जन्म से पूर्व ही,
वह, नाम रूप की रचना करती है.
षड्तत्वों का संघात.
धरा पर जन्म लेता नवजात.
प्रथम रुदन जो वह करता है.
तृष्णा की बांहों में फंसा,
वह, पूर्व जन्म, वर्तमान, आगत, को रोता है.
ज्ञात उसे भी,
वह,
सुषुप्ति महाशून्य से
पंचभूत पंकिलता में फेंका गया.
वृत्तियों के जटिल जाल में फंसा.
तृष्णा की लुव्ध दृष्टि से देखा गया.
निस्तार नहीं.
निदान नहीं.
स्पृहाओं का निर्वाण नहीं.
अटूट जाल विद्ध.
कहीं नहीं निवृत्ति उपलब्ध.
पुनः प्रभु ने किया चिंतन.
सुगम निग्रंथित सभी जटिल बंधन.
अति करुणा से आर्द्र प्रभु मन.
अंतर उत्पीड़न.
निरख.
पीड़ित जन जीवन.
शांत मनः-गगन में उदित, शुभ्र ज्ञान नक्षत्र.
आह ! दुःख ही दुःख व्याप्त सर्वत्र.
जीवन दुःखों से परिपूर्ण.
क्षत-विक्षत, आहत चूर्ण-चूर्ण.
जितनी भी वस्तु जगत में
कारण हेतु सभी में एक दूसरे से सापेक्षित. 
निदान कहीं अवश्य सुरक्षित.
वेदनाओं का यदि जन्म,
तो अवसान भी निश्चित.
इनके, निरोध, निदान कहीं, निर्दिष्ट विहित.
कोई वस्तु अकारण नहीं.
यदि. कारण है. तो क्षारण भी है कहीं.
ये चार आर्य सत्य. जीवन तथ्य.
इनके भी उपचार, निदान. 
मानव व्यहृत करे, द्वादश विधान.
भूत, वर्तमान भविष्य के इसमें,
निहित सहज आचार.
न करे. भव की कामना.
ग्रसित करे न तृष्णा.
स्वयम ही त्यागेगी उसे,
पञ्च भौतिकता तन्मात्र्नायें.
मार्ग प्रशस्त
उज्जवल सरल करेगी,अष्टांगिक विधायें. 
आवश्यक नहीं कि इन्हें प्रव्रजित ही अपनाएँ. 
गृहस्थाश्रमी भी इससे वांछित,
सुखद शान्ति पा जाये.
प्रभु की, ज्ञान पूर्णिमा का,
प्रथम याम व्यतीत हुआ
करते प्रतीत्य-समुत्पाद-उत्थान.
निरख.
निरर्थक असार संसार,
प्रस्फुटित हो रहे थे उद्गार.
उत्साही पुरुषों में,
जब होता है धर्म का जागरण.
वह सतर्क निरखता है, उसका कारण.
और कारणों का निरोध कर,
प्राप्त करता है प्रशांत मनः-गगन.
सत्य-अजर-प्रखर-प्रकाश में,
मार-वृत्तियाँ, कम्पित होती है.
शुद्ध प्रबुद्ध सात्विकता की तेजस्विता से,
जलती, वे, समूल नष्ट होती है.
किया, इसी प्रकार,
एक सप्ताह तक प्रभु ने,
अश्वत्थ-बोधि-वृक्ष की छाया में चिंतन.
निरंजना निर्मला सलिला,
मौन बही जाती थी.
लहर मृणाल बाहों को रखकर वक्षस्थल पर क्योंकि
सद्दः उसे अभी प्राप्त हुआ था,
जड़ चेतन में स्वतः चालित अलभ्य चिंतन. 
चिंतन का द्वितीय सप्ताह.
प्रभु ने देखा.
अजपाल, वट-वृक्ष विशाल.
यहीं.
साध्वी सुशीला निश्च्छला सुजाता ने,
स्वर्ण पात्र में पायस किया था प्रदान.
शुद्ध निर्जल खीर सुस्वादु
वह, वृक्ष देवता को अर्पित करने आई थी. 
निश्चय ही, यह वट वृक्ष.
उस, महाप्रलय का है चिन्ह प्रतीक.
जहां.
सर्वनियन्ता.
अगुष्ठ चूसता.
वट-पत्र था शयित.
संहार सृजन के उपरान्त.
जाने किस चिंतन में था नितांत.
आज.
वह.
शयित नहीं.
जागृत है.
वह.
संहारक नहीं.
धारक है वेदना पीड़ा दुःख निर्वाण का.
परम तत्वज्ञ. चिन्तक. विश्व कल्याण का.
एक ही आसन में वे,
रहे एक सप्ताह अवस्थित.
यह मुद्रा भी थी अति शांत अपराजित.
उस कानन में निसंग
निविड़ निभृत कान्तर वन में,
आया कहीं से चलता, एक संयत ब्रह्मण.
प्रभु से, वहां अवस्थित होने का पूछा कारण. 
प्रश्न किया, क्यों ध्यान निरत.
क्या तपः-साधना हुई सफल.
उसे बैठने का कर संकेत,
बोले प्रभु –
सकाम तपः साधना.
क्या वस्तुतः होती है साधना ?
तप. मैं उसे कहता हूँ.
जहां. चित-स्थल .
महाश्मशान. भस्म समस्त वृत्तियाँ.
कांक्षित भी, नहीं, निर्वाण.
केवल. परसेवा ही ध्यान.
सकामी कभी तपी नहीं होता.
वह ! अरूपाचार, शून्य में, विचरण नहीं करता.
ब्राह्मण ने करबद्ध शिरसा किया नमन.
अपूर्व यह तपः-साधना.
प्रभु श्री चरणों में, एक विनम्र प्रार्थना.
प्रभु ने कहा सस्मित-
करें मुझे समादृत विप्र.
कहा ब्राह्मण ने- गौतम !
किसे ब्रह्मण कहते हैं.
कौन धर्म निर्वहण उसे,
ब्राह्मण निर्मित करता है.
कहा प्रभु ने –
अहम-रहित, अभिमान-रहित, संयत ज्ञानी, ब्रह्मचारी.
वही ब्रह्मवादी.
ब्राह्मण कहलाने का अधिकारी.
एक सप्ताह विमुक्त आनन्द में व्यतीत कर.
प्रभु मुच्लिंद तरु की छाया में आये.
वहां.
घिरी घनघोर काली घटा.
अनवरत सघन मेघ रहा बरसता.
हिम-खचित-शल्य सरिस प्रवाहित.
प्रचंड प्रभंजन.
टूट रहे वृक्ष.
क्रुद्ध तड़ित.
प्रकृति जैसे ले रही प्रतिशोध.
डाले किसने.
उसके प्राकृतिक क्रम में गतिरोध.
लगातार मूसलाधार अटूट वर्षा तारतम्य.
प्रकृति, गर्जन-तर्जन, भंजन,
में कर रही प्रगट,
निज दर्पित अहम अगम्य.
वह आज नहीं थमेगी.
निज सजे अभेद्द हर्म्य में,
भेद नहीं होने देगी.
धराशायी ध्वस्त नहीं होगा.
सम्मोहन का सुरम्य सौंध.
जो.
भेदी आया.
उसे घुसने नहीं देगी.
यह संसार.
उसका कौतक क्रीडा संभार.
नहीं मानेगी वह हार.
उसका राज्य.
अनादि अखंड.
प्राकृतिक उत्पातों.
वज्र निपातों.
विद्युत् कशाघातों,
भूचालों से,
वह. निश्चय देगी दंड.
किन्तु.
कहाँ. धरा.
कहाँ. आकाश.
तपी. तोड़ चुका सबका विशवास.
निसृत था जलधार,
सघन पल्लवों को भी कर रहा पार.
प्रभु.
ध्यानावस्थित.
नहीं वाह्य उत्पात ज्ञात,
नहीं किंचित भी चिंतित.
किन्तु. एक ही आत्मा अथवा संवेदन शक्ति.
जड़ चेतन सबमें समान प्रवाहित.
हो उठा.
विषाक्त मुच्लिंद नाग व्यथित.
जो. विश्व-प्राण.
क्यों हो वह अकारण पीड़ित.
प्रभु को घेर, वर्तुलाकार कुंडलाकार.
उसने. निज तन का, घेरे पर घेरा डाला,
प्रभु को पूर्ण छिपाकर,
शीश पर निज, फण का, छत्र संवारा.
जो. सर्प-छत्र छाया से,
अवनि का होता, चक्रवर्ती नरेश.
वह. बना. शेष-क्रोड़, में,
सुरभित अशेष.

वर्षा थमी.
प्रभु ने देखा.
एक निश्च्छल स्नेहिल बालक.
करबद्ध, श्री चरणों में रहा निहार.
कहा उससे प्रभु ने,
श्रुत धर्मा सदा रहता संतुष्ट.
संयमी, निर्द्वंद्व, कामना-रहित,
निसंग, सतत सुखी.
यही. तप.
यही साधना.
निवृत समस्त एषणा.
इसी प्रकार क्रमशः.
इन वृक्षों की छाया में, व्यतीत हुए.
सप्त, सप्ताह,
प्रभु ने राजयतन वृक्ष की छाया में,
पुनः अवस्थित होकर, ध्यान किया.
मन ही मन नाना प्रकार का,
तर्क वितर्क उठा.
आह ! मेरा यह धर्म दिनमान.
क्यों ? होगा व्यर्थ इसका अवसान.
कामना-रत.
तृष्णा-तप्त.
है संसार.
उनकी काम मोहित दृष्टि.
अति क्षीण. दीन.
नहीं देखती, घातक अनिष्ट.
यह.
अध्यात्मिक समुत्पाद उपलब्धि.
होगा क्या व्यर्थ.
जन-मानस असमर्थ.
यह वेदना अतीव.
क्या ?
सदा अन्धकार में श्रृंखला निगडित, रहेगा.
जीव.
मोहान्ध विमुग्ध विदग्ध विजड़ित.
घिरा अवसाद.
नैराश्य आच्छन्न, मनः-प्रासाद.
प्रभु.
उत्साह विरत.
निज आत्म चिंतन रत.
आया कोई. ज्ञानी.
बोला विनम्र कबद्ध,
कर शिरसा नमन.
है ! पीयूष श्रोत, के दानी.
मुर्मूष पड़े प्राणी.
कांक्षित तव पुनीत पावन अमृत वाणी.
रुग्ण. उपचार अपेक्षित.
कब हुआ वह औषधि का ज्ञानी.
प्रभु !
प्रासाद-शिखर पर चढ़ कर देखें.
जग. किस प्रकार पीड़ित.
वेदना-व्यथा-विजड़ित है.
कहाँ, इनमें. चेतना शेष.
कहाँ. तर्क-वितर्क-निकष, सन्निवेश.
ये मरणासन्न पड़े अवश.
निसृत करे, इन पर
धर्म-ज्ञान सुधा, अमृतकलश.
प्रभु ने आन्तर-दृष्टि से देखा.
जग.
विषण्ण पीड़ित.
कहीं न किंचित.
क्लांत श्रांत जीवन में, आशा के रेखा.
वहीँ पर उसने समीप.
ज्वलित कुछ ज्ञान दीप.
कुछ जन, कुशाग्र, विचक्षण.
कुछ नम्र सुशील श्लक्ष्ण.
सभी. पिपासित.
रीते, प्यासे,
उनके जीवन-क्षण.
देखा अनिमेष दृगों से प्रभु ने.
किया उन्होंने उदान.
आह ! ये.
निज आतंरिक विद्युत्-प्रविहिनी,
ज्ञान-शक्ति से अनजान निश्चय ही,
यह धर्म-ज्ञान.
इस अन्धकार पूरित निस्पंद
जीवन में लाएगा.
स्वर्ण विहान.
हे ! श्रवण कांक्षी श्रोत.
सुनो ! अमृत द्वार हुआ उन्मुक्त.
हे ! वृति-बंदी, मानव.
विश्रंखलित करो, चरण बंधी श्रृखला.
निःश्रेणी प्रस्तुत.
आरोहण को हो उन्मुख.
हे ! कुशाग्र. निपुर्ण. ज्ञान-प्रवण.
मैंने.
तुम सबके निमित्त.
किया, ज्ञान सुधा का वर्षण.
हे ! ज्ञान कृषक, हो प्रस्तुत.
उठो. करो ज्ञान-भूमि का कर्षण.
प्रभु.
ज्ञान सम्बोधि प्रबुद्ध,
चिन्मय-चित्-विलास-अम्बुद्ध.
समस्त वृत्त्यान निर्मल भस्म लुप्त.
सात सप्ताह निराहार हुए व्यतीत.
बीतराग.
रागातीत.
ज्यों, लहराता प्रशांत सागर वृति वीचि विहीन. 
ज्यों, तीव्र प्रखर प्रकाशित दीपक में,
जल जाते, दीपंकर दीन.
या अंशुमाली अंशुजाल में बाहें फैलाकर करता, 
घोर तिमिर विलीन.
गगन घर्षित अदभ्र अतूर्त ज्वार-माल,
विस्फारित फणिधर जिह्वा कराल,
सब, जड़ चेतन.
अवश प्रवाहित समाहित.
उसी प्रकार.
उद्भासित ज्ञान मार्तण्ड परम प्रचंड भास्वर.
भस्म हुए. सब क्षर नश्वर.
वासना वृत्तियों के तरुण सरपत खर.
निर्भय स्थितप्रज्ञ दान्त तथागत.
स्पृहा सैन्य पराजित ध्वस्त.
विमुक्ति आनन्द अभंग.
ज्ञान-उदधि उज्जवल
नील मुक्ताभ तरंग.
सन्यस्त विरत योगी.
निर्वात निष्कंप,
चित्.
रहा न, विरही या संयोगी.
अवर्ण्य शून्य.
प्रज्ञा.
केवल मूक प्रेक्षी.
निर्वाण यही.
मुक्ति यही.
इससे इतर अन्य कोई,
मानस-भूमि नहीं.
यह.
शून्य.
विष्णु-लोक.
महाश्मशान बीतशोक. विराज भूमि.
इह-चेतना भस्म क्षीण.
शून्य में सब विलीन.
कबतक यह निर्बंध निरंजन आनंद.
न रहा ज्ञात.
न हुई यह अनुभूति अमंद.
गया.
गया ऋषि का यह देश.
अध्यात्म समृद्धि अशेष.
सनातन यह पितृ लोक.
फल्गु निरंजना में तर्पण प्राप्त कर,
प्राप्त करती, मृत आत्माएं मोक्ष.
पुरातन का यह विमुक्ति स्थल.
करता,
अतृप्त मृतात्माओं को संतुष्ट शीतल.
होते वे भी.
सतत् स्वच्छंद.
टूटते स्पृहाओं के जटिल छंद.
यह.
परोक्ष में पंचतत्वों की विमुक्ति.
आज. वह पावन क्षेत्र.
देख रहा.
महामानव का अध्यात्मिक, त्रिभुवन-अभिषेक. 
अमृत कलश उपसेचन.
प्रभु.
ध्यानावस्थित.
क्षुधा, तृषा, व्यथा, निवृत.
सुना.
उरुवेला से जाते-जाते दो उत्कल वणिकों ने,
कोई ज्ञानी. समाधिस्थ यहाँ.
निराहार सप्त सप्ताहों से.
मार्ग में रोका निज वाहन.
किया जाकर प्रभु चरणों में
करबद्ध विनीत शिरसा नमन.
सहम सहम कर अति विनम्र
किया निवदन.
प्रभु.
श्रीचरणों में नमित
तपस्सु, मल्लिक दो ये नगण्य दास.
निरख इस अरण्य में प्रखर प्रज्ञा प्रकाश.
आये प्रभु अभिवादन को,
कुछ ज्ञान प्राप्त करने को.
प्रभु महिमा गरिमा अपार.
तृण सा अस्तित्वहीन यह.
जीवन.
उड़ा जा रहा निराधार.
नहीं.
दृढ़ रह पाने की शक्ति.
विमुग्ध विजड़ित तन्मय सुधि.
दधि-पायस-पेय और तुच्छ मधु मोदक.
असमर्थ अन्य कुछ भी,
निवेदन करने में
अर्पित करते भी होता क्षोभ.
किन्तु.
महामानव.
वस्तु नहीं, ह्रदय देखते हैं.
शब्द नहीं, भाव पढ़ते हैं.
भावनाओं की लघु छुवन.
अकिंचन उसके सम्मुख समस्त भुवन.
प्रभु.
करें न विलम्ब.
ग्रहण करें विदुर के साग अकिंचन.
आज, जगे, जन्म-जन्म के सोये भाग्य.
नत प्रणत कर रहे श्री चरणों का वंदन.
सस्मित, प्रभु ने आँख उठाया.
देखा नहीं,
धूल धूसरित पथ-श्रांत, श्रमित, मलिन काया. देखा नहीं.
पंचभूत की भौतिक माया.
आँखों में, सहज आत्विक विश्व प्रेम लहराया. 
ग्रहण करने को, उन्होंने निज एक कर बढाया. 
दधि पेय निमित्त देखा,
समीप, पाषाण पात्र पड़ा.
सात, सप्ताहों के पश्चात,
प्रथम आहार ग्रहण किया प्रभु ने.
तप्तसु और मल्लिक ने कहा-
प्रभु लें, हम दोनों को,
निज पावन पुनीत धर्म की शीतल छाया में. उठा,
प्रभु का दक्षिण हाथ वरद-मुद्रा में,
तथागत के जगत में,
तप्तसु और मल्लिक
दो प्रथम शिष्य हुए विहित.
दोनों ने
दो अनमोल मणियों का उद्घोष किया.
वैदिक दर्शन की विश्व निनादित
विचित्र वीणा पर,
ज्ञानसुधार्जित संशोधित परिमार्जित
शुद्ध सात्विक बुद्धि
विवेक सत्संग यजन का
मोक्षदायक भैरवी राग अलापा.
ज्ञानांधकार दिग्भ्रमित पीड़ित
जग जागा.
“बुद्धं शरणम गच्छामि.
धर्मम शरणम् गच्छामि..”

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