माना.
इस तपते जग में
है केवल पीड़ा ही
पीड़ा.
जीवन का प्रतिपल
प्रतिक्षण,
हो जाता,
परम प्रफुल्लित
सौख्य मुदित सुरभित
जब. उसे हृयंगम करता
मिल जाता,
संवेदित परस्पर
प्रत्युत्तरित करता,
उसी भांति कोई
भावप्रवण
अन्तःकरण मनः-दर्पण.
युगों से प्रवाहित,
अन्तः सलिला फल्गु
या सरस्वती.
मौन ही रही, भीतर
भीतर गलती,
सतत निरंतर बहती.
कभी न हटा.
अंतरवर्हि, तन-मन, पर से,
लिपटा शुष्क तप्त
सैकत आच्छादन.
कभी न उठ, बाहर आई
मनः-लहर लहर.
कभी न छलका आँखों का
उद्वेलित आंसू झर. पोछे कोई उसको सत्वर,
क्योंकि, प्राप्त
हुआ न उन्हें,
प्यार भरा बिसरा भूला,
कोई भी आश्वासंमय
स्नेहिल कांक्षित क्षण. अजेय, अज्ञेय, अगेय.
विश्व-व्यथा.
यह अनुनमेय, अनुक्त,
अथक, अकथ, कथा.
कहीं यथार्थ, अटल-मंथन करता
कहीं यथार्थ, अटल-मंथन करता
निरंतर घूर्णित
रहता,
केवल प्रतिक्रियाओं
का,
विश्व रंगमंच छाया
पटल पर,
मूक प्रदर्शन का
छाया नाटक होता रहता.
बोल से. अबोल कहीं
गहरे हैं.
ये अति भावप्रवण
मुखर, कहीं तीखे हैं.
इनके प्रबल वेग से
ध्वस्त शब्द कलेवर.
यह सशक्त अदम्य
जल-प्लावन.
आर्द्र बनता टकराता
लहराता,
करता अवगाहन सबकी
हृद-धड़कन.
जड़ हो या चेतन.
सबमें निहित एक
जीवनी शक्ति प्रवाहित.
पल-पल का
प्रत्यावर्तन गहन सूक्ष्म निरीक्षण.
प्रकृति के आकुल ह्रदय की पर्येषणा.
सतत गवेषणा.
सोच रहा जिज्ञासु
मन.
जड़ चेतन में भी
कुतूहल.
अन्तः-प्रेक्षण.
क्यों किसके प्रति,
यह समस्त संसृति
विहित.
क्यों विकासोन्मुख
आरोहित
इसकी संवेदित धड़कन.
अणु-अणु में वर्तुल
नर्त्तन,
ध्यान निरत तन्मय.
किस परम गुह्य सत्य
का अन्वेषण.
चकित विब्रमित जीवन.
मर्मान्तक प्रश्न
शल्य विधा प्राणों में.
भाग रहा गहन कान्तर
वन, उपवन.
कस्तूरी-मृग बन.
गंध अंध-आकुल.
खोज रहा.
जो सर्वथा, अपने में
ही अन्तर्निहित.
वह सुरभि कहाँ हो
प्राप्त भला,
अन्यत्र बाहर.
खोज रहा जिसे सतत
वह,
निरख रहा स्वंय से
विलग.
गिरि, गह्वर, सागर,
सरित-तट.
कभी, नगर, कभी
विटप-वन.
मिला न आभास.
कहाँ, ज्ञानान्धकार
निवारक प्रकश.
कहाँ, स्थित उसका
गोप्य आवास.
जीवन, मरण.
आवागमन चक्र.
किसका मरण.
करता कौन पुनः जीवन
ग्रहण.
ये शाश्वत प्रश्न.
कौन इसके कारण.
किसका निष्क्रमण,
किसका संग्रह.
क्यों बार-बार,
आवागमन आग्रह.
राजगृह के उपतिष्य
कोलित ग्राम के,
दो ब्रह्मचारी युवा
ब्राह्मण घूम रहे थे,
इसी गवेषणा में
करते-करते, चिंतन.
शारिपुत्र उपतिष्य,
मोद्गल्यायन कोलित,
राजगृह ग्राम के
निवासी थे.
राजगृह पर्वत शिखर
मेले का उत्साह,
जनाकीर्ण प्रवाह,
मेले का राग रंग निरख.
बोले परस्पर.
अहो ! ये क्षणिक
आवेश आवेग.
ये उत्सव
आनंदातिरेक.
छूते नहीं मन को,
ऊपर ही ऊपर बह जाते
हैं.
घिरते अवसाद,
गहन होते, उनके तीखे
कांटे,
अति गहरे चुभते ही
जाते हैं.
संसार.
अंगार सरिस लाल.
अंखड़ियों में कसा.
मनोरम सम्मोहन,
शाल्मलि पुष्प.
खुलती पंखुड़ियां,
उड़ता, उज्व्वल तूल
पवन में.
यह जीवन ऐसा ही
निस्सार.
होता उद्घोष.
गुंजित मनः-गगन में.
घिरते हैं घनघोर
जल्द नभ में,
टूट-टूट, बरस जाते,
सूखे सूने आँगन में.
मेघ वर्षा में आमूल
भींगा
दोनों पंख फड़फड़ता ,
शितिकंठ. रहा चीखता
स्वाति, स्वाति.
अपने निसंग पीड़ित
सूनेपन में.
ऐसा ही प्यासा रीता
जीवन.
प्राप्त न, अबतक
उचित मार्ग-दर्शन.
संशय, तर्क-वितर्क,
तीव्र प्रभंजन.
वात्याचक्रों में
बंदी मन.
निराधार व्यर्थ में
आत्म-शोधन विवेचना.
जीवन.
स्थिर जड़ जैसा का
तैसा.
शांत न हुई किसी
प्रकार ज्ञान-तृष्णा.
संजय की गवेषणा.
वह रीता चना बज रहा
घना.
कोरी उसकी विद्वता.
तर्करहित वह.
आँख मूँद कर है
चलता.
सहसा विचरण करते-करते,
इधर-उधर सर्वत्र
निरखते.
शारिपुत्र की पड़ी
दृष्टि.
जा रही थी एक विमल
मूर्ति.
बिजली सी दौड़ी उसके
तन में स्फूर्ति.
देखा.
जाते एक तेजपूर्ण
शांत चित प्रव्रजित.
किया मौन उसका
अनुगमन.
अवसर पाकर बोला अति
विनम्र.
भंते !
भटक रहा.
जिसे खोजता मेरा व्याकुल
मन.
वह समस्त प्रश्न,
उत्तरित,
निरख, तव भव्य
व्यक्तित्व सुदर्शन.
निश्चय ही,
वह चिरकांक्षित
अमृत.
सुगत आपको है
प्राप्त.
यह संयम.
यह अनुशासन.
आत्म तेज उद्भासित
दीप्त आनन्.
आयुष्मान. कहें. कौन
हैं आप शास्ता.
क्या है श्रीमान का
शुभ नाम.
बोले अश्वजीत.
मैं.
ऋषि पत्तन के
पंचवर्गीय भिक्षुओं में से एक.
अश्वजीत कहा जाता हूँ.
अश्वजीत कहा जाता हूँ.
मेरे शास्ता. मेरे
कर्म विधाता.
हैं.
शाक्य-कुलोत्पन्न
कपिलवस्तु के राजकुमार.
किया जिन्होंने गृह त्याग.
किया जिन्होंने गृह त्याग.
उन्होंने प्राप्त
किया निरंजना नदी के तट पर,
अश्वत्थ वृक्ष के नीचे,
अश्वत्थ वृक्ष के नीचे,
वैशाख पूर्णिमा को,
सम्यक-सम्बुद्ध-ज्ञान.
अब वे, बुद्ध कहे
जाते हैं.
मैं. उनसे ही
प्रवार्जित हुआ हूँ.
प्रश्न किया
शारिपुत्र ने-
क्या है उनका वाद ?
“एषम्मा
हेतप्पभवा, हेतु तैस तथा आह ।
तेस
चयोर्निरोधो, एवं वादी हासमनो ।।“
दुःख है.
दुःख के
कारण हैं.
दुःख
निवारण के प्रतिपद हैं.
जितने भी
हैं धर्म या वाद.
निश्चय
सब, केवल दुःख के ही कारण,
पर्येषण
करते, निर्विवाद.
परम
शान्ति की गवेषणा.
शाश्वत
मुक्ति की एषणा.
हो,
असंस्कृत अथवा सुसंस्कृत.
सबके मन
में चल रहा,
एक ही
जीवन-प्रपंच.
मुक्ति
हेतु क्या है. कर्म, क्रिया, निष्कर्ष.
जिस
प्रकार. कुम्भकार,
चाक में,
उतारता,
क्रमशः
सुन्दर से सुन्दरतम आकार.
सृष्टि
चक्र में उसी प्रकार. हो रहा सतत,
जीव
विकास.
अंतर
वाह्य उन्नयन निमित्त,
वह
प्रयत्नशील,
सतत
अग्रसर गतिमान.
प्रभु भी.
मार्ग प्रशस्त करते
हैं.
उसका साधन बतलाते
हैं.
जिस अमृत की खोज में
युगांतर से,
उसे. ज्ञान-गुहा में
निहित बताते हैं.
केवल संयम, ब्रह्मचर्य,
साधना.
मन को करना, स्वच्छ
सब प्रकार, बांधना.
अत्यंत सुगम यह वीथी
है.
बात, बड़ी ही सीधी
है.
पार्थिवता का कोई
आडम्बर प्रपंच नहीं है.
केवल वृत्तियों को
निवृत करो.
नीवीरणों को प्रहीण
करो.
कहते जिसे, नित्य,
या अमृत.
वह है प्रत्यक्ष
सम्मुख.
बोल उठा उपतिष्य शारिपुत्र.
अहो ! यह धर्म
निश्चय ही अदभुत.
संजय के आश्रम में,
चक्कर खाता, धूल
फांकता,
रहा, यह जीवन यान.
रीता, छूंछा, व्यर्थ
भटकता.
यह परीक्षित
प्रमाणित शोधित ज्ञान.
इसमें ही है शान्ति.
परम कल्याण.
अश्वजीत को,
शारिपुत्र ने प्रथम
गुरू माना.
जिस दिशा में, जहां
रहे हों,
अश्वजीत.
उधर ही आमरण, शिरसा
नमन करना,
उसने निज परम धर्म
जाना.
शारिपुत्र निज मित्र
मोद्गल्यायन को लेकर
गया गृद्धकूट.
दे रहे थे जहां
प्रभु भिक्षु सन्ध को देशना.
दूर से ही देखा,
प्रभु ने,
दोनों को आते.
कहा भिक्षुओं से,
ये जो दोनों इधर आ
रहे,
ये अग्र श्रावक
युगल.
भद्र युगल होंगे.
शिरसा नमन कर दोनों
ने,
प्राप्त किया
उपसम्पदा और प्रवार्जित हुए.
कालान्तर में अति यशस्वी अर्हत,
प्रभु के, दक्षिण और
वाम पाश्र्व कहे गए.
एक दिवस प्रश्न किया
शारिपुत्र ने,
प्रभु ! सूना, यह
कहते आपको कितनी बार.
ज्ञान दुर्द्धष
अचिंत्य अपार.
उत्तर दिया तथागत
ने-
तुम !
ज्ञान किसे कहते हो.
क्या
स्वंय को पहचानते हो ?
यही
गवेषणा.
अनादि से
अबतक चल रही निरंतर.
अटूट इसका
क्रम.
यह है अजर
अमर.
क्योंकि
नित्य की गवेषणा,
नित्य
प्रेरणा से होती है.
होती है
जब चिरकांक्षी सद्वृत्तियाँ जागृत.
यह पर्येषणा,
होती है आमंत्रित.
ज्ञान-प्रभा.
प्रभा-क्षितिज
की दुग्ध धवल ऊजयाली.
यह
अध्यात्म-ललाट की स्वस्तिमय लाली.
चेतना के,
शीर्ष-शिखर का पीयूष प्रवाह.
यह ज्ञान.
स्वंय
बनाता अपनी राह.
यह स्वंय
भास्वर प्रखर प्रकाश.
शान्ताकार
निर्विकार मन.
इसका
आवास.
ज्ञान.
सूक्ष्म,
तर्कों से, परे अति कठिन है.
हैं,
जितने भी ब्रह्मवेत्ता, अध्येता,
उन्हें,
यह प्रकाश. निकट दिखता,
सतत दूर
होता जाता है.
कहते विकल
सब.
यह अभी था
यहाँ.
अब वह.
कहाँ है.
उसे प्राप्त करने के
निमित्त, मैंने,
“अहं पि
एवं सामुदाचरिष्ये
यथा
वदंतिविदु लोकनायक ।
अहं पि
संक्षोभि इमष्मि,
वारुणे
उत्पन्न सत्वान काषाय अध्ये ।।“
।। १२४ ।। (उपाय
कौशल्य परिवर्त्त)
धारण किया यह दुष्कर
काषाय वसन.
हुआ अवतरित इसी के
मध्य.
करने ज्ञान तृषा
शमन.
महापुरुष.
इस प्रकार का धर्म
प्रकाश करते हैं,
कभी कभी लेकर दिव्य
दृष्टि.
बहुत कम अवसरों,
स्थानों पर होता है
उनका जन्म.
“ कदाचि
कहिचि कथंचि
लोक
उत्पाद मभान्ति पुरुषर्षभाणाम ।
उत्पद्दचा
लोकि अनंत चक्षुष
कदाचिदेता
दृशुमर्देशयु: ।।“
।।१३५ ।।(उपाय
कौशल्य परिवर्त्त)
शारिपुत्र.
यह धर्म.
सत्य का ही है
पर्याय.
अदृश्य न रहा
सत्यप्रेक्षी की अनंतभेदी दृष्टि से.
जिसने भी किया इसका साक्षात्कार.
कहा,
स्पष्ट निर्द्वंद्व,
निर्भीक, शब्दों में.
यह अवस्थित, ह्रदय
गुफा में,
कहा किसी ने,
यह सहस्रार में.
कहता कोई यह अगुष्ठ
मात्र.
अनुभव किया किसी ने,
यह उज्व्वल अदम्य
अपार
शाश्वत महाशक्ति
प्रवाह.
मैं कहता.
यह निश्छल ब्रह्मचर्य
आचारों में,
शुद्ध विचारों में,
निज निश्चल प्रगाढ़
ममत्वपूर्ण, व्यवहारों में,
जग, के आंसू, आहों में,
जग, के आंसू, आहों में,
विश्व प्रेम,
अहिंसा, करुना, मैत्री के भावों में.
त्याग, विषम भावना,
त्याग, विषम भावना,
उन्मुक्त ह्रदय से
करे वह सबको प्यार.
उसके निमित्त
उन्मुक्त दोनों कपाट,
अमृत द्वार.
शारिपुत्र,
अनंत-ज्ञान-सागर,
सनातन धर्म.
अथाह अगम उसका मर्म.
उसमें समस्त बीते अनबीते
प्रत्यक्ष,
विचारों की धड़कन,
जीवनं-रहस्य,
सारतत्व अभूत.
यह मेरा धर्म. कुछ
नवीन नहीं.
अन्य नहीं.
जो है सनातन धर्म,
यह है.उसका
परिष्करण, पुनर्शोधन
नवीन विधा से
वैज्ञानिक विज्ञापन.
सरल सुगम कथन.
विश्लेष्णात्मक
बौद्धिक विवेचन.
मैंने स्पष्ट किया,
मिथ्या वाद-विवादों
यज्ञों,
आडम्बरों,
रूढ़िग्रस्त अंध अनुकरणों,
कर्मकांडों का खंडन.
सब धार्मिक दर्शनों
का निचोड़ है यह.
है खुला आमन्त्रण.
यह मेरा धर्म,
स्पष्ट स्वंय से
सीधा वार्तालाप है.
मैंने ब्राह्मणों के
दुरूह दुसाध्य
कष्टपूर्ण पीडाजन्य
कंटकाकीर्ण जटिल
जालों को काट,
सत्यार्थियों के
निमित्त,
कान्तर विरल बीहड़ पथ
स्वच्छ प्रशस्त किया
है.
अक्षम्य मूढ़ता.
ज्ञान धरातल पर
अनाधिकार प्रवेश चेष्टा.
छीना है.
धार्मिक मिथ्या
आतंक.
स्वर्गारोहण-उत्कोच
को रोका है.
ब्राह्मणों से
धर्माधिकार, एकाधिकार.
जाति वैषम्य धर्म
दुर्बोध अगम्य,
केवल इसमें इनकें
स्वार्थ निहित.
भग्न किया मैंने.
संकीर्णता का
प्रासाद.
अब विस्तृत विशाल यह
प्रांगण.
कर सकते सब
धर्माचरण, विवेचन,
विचारों का
आदान-प्रदान.
यहाँ. सबका स्वागत.
सबका आह्वान.
जिस प्रकार सजल जल
पूरित करता कण-कण.
देखता नहीं, विषम, समतल, सैकत, उर्वर.
सब पर निसृत, उसका
जलधार अखंडित.
उसी प्रकार मेरा यह
धर्म यान.
सबके निमित्त
उन्मुक्त एक सामान.
केवल
बुद्धि-वैशिष्ठ्य.
विचार ग्राहिता
क्षमता पर,
निर्मित शाखाएं तीन.
जिनमें जितनी
आध्यात्मिक श्रेष्ठता.
वह, वही स्थान, विशा
ग्रहण करता.
पात्र भले ही दिखते
तीन.
किन्तु सबमें
ज्ञानामृत निसृत एक.
यहाँ, बासठ
अप्रमाणिक तर्करहित, धर्म,
मात्र श्रुत बातों
पर ही हठ करते हैं अड़े.
नहीं करते विवेचना.
नहीं करते गवेषणा.
जो बात कही
गयी कभी.
वह लागू
होती रहेगी अबतक अभी.
क्या पडा
न उनपर भौगोलिक, ऐतहासिक, राजनैतिक, सामाजिक प्रभाव.
देखा नहीं
क्या जनमानस ने
समय का
उतार-चढ़ाव.
किन्तु वे
धर्म-ध्वजा लिए खड़े कि
अक्षुण-अमर,
उनका ही धर्म,
सबमें
श्रेष्ठ बना.
किन्तु,
मैं. यह नहीं कहता.
मैं कहता
हूँ.
आओ देखो.
प्रमाण
सहित परीक्षण करो.
अपना दीपक
स्वंय बनो.
मत रहो
अंधे.
मत अन्य
के दंड पकड़ चलो.
केवल अपार
करुणा.
विश्व-मैत्री
भावना.
सबको निज
स्नेह सलिल से, आप्लावित करना.
यही है.
सत्य-साक्ष्य
धर्म की आधार शिला.
मैं
अर्हत.
संसार
विमुक्त.
सम्यक
सम्बुद्ध तथागत.
जो. डूब
रहे. जो खड़े किनारे.
जो पार
उतरने वाले.
मेरे
हाथों में पतवार, अरित्र.
हो कोई
भी, जो मंझधार.
सबको मं
पार लगाने वाला.
लेकर,
धर्म की नाव.
मैं.
एक एक कर
उतार रहा,
बता रहा
सरल पथ,
कर रहा
उन्हें सर्वथा निवृत.
दिखला
रहा, उनका निर्दिष्ट गाँव.
यह,
निष्कल, ज्ञान.
विमुक्ति रस.
निवृति रस.
एक भूमिक.
शाश्वत एकरस.
शुद्ध सत्य धर्म वह.
जो देता सत्
वास्तविक आत्मज्ञान.
होती है जिसमें,
वस्तुतः
अपनी स्पष्ट पहचान.
अनादि
काल से होता रहा उद्घोष.
निनादित, जल-थल, आकाश-नील-निर्मोक.
सबमें
मंथित घूर्णित
अनंत-भुवन-बधित
केवल,
प्रथमाक्षर,
एक
स्वर.
“ॐ”
मन्त्र
दृष्टा, अध्येता, ब्रह्मवेत्ता,
अनंत-चक्षु-प्राप्त,
आप्तकाम.
कहते,
केवल, यह स्वर.
निहित,
सब प्रकार विहित इसमें,
संहार-सृजन,
प्रकृति,
वैश्व-जागृति-विज्ञान-अभिज्ञान.
यह
स्वर.
सत्य-पहचान,
साक्षात्कार, पुकार.
इस
आदि स्वर को,
संचालित,
कर्षण-केंद्र बनाकर.
सजे
सुसज्जित शब्दों के मनहर संसार.
केवल. स्वर पहचानो.
शारिपुत्र !
मन का स्वर.
ज्ञान का स्वर.
निवृत्त का स्वर.
वही.
एकमात्र सारभूत सरस
रस अविनश्वर.
मत करो.
कटु, काषाय, कर्कश,
विकृत, विशीर्णित.
यह शाश्वत अव्याकृत
अक्षुण स्वर.
त्याग,
अविद्या, संस्कार,
षड़ायतन,
निवारण के आच्छादन.
जीव.
होता ऊर्ध्वगामी.
सतत् आरोहण करता,
क्रमशः विचरण करता,
ध्यान भूमि.
वह प्रथम प्रवेश
करता,
निज विचार, विवेक,
प्रीति, सुख के आवासों में.
जब अग्रसर होकर होता गमनशील,
द्वितीय ध्यान भूमि
में,
क्षरित हो जाते तर्क
वितर्क.
रह जाता केवल
प्रीति, सुख शेष.
तृतीय चरण में जब
जाता,
वहां केवल, सुख और
विवेक को,
प्रतीक्षा करते
पाता.
चतुर्थ ध्यान भूमि.
अचिन्त्य. अदभुत.
अश्रुत. मूक.
वाह्य और आन्तर चेतना.
शून्य-भावना,
वृत्तियाँ
समस्त भस्मासात्
महाश्मशान.
व्यापक अदभ्र प्रखर
अवर्ण्य आलोक.
इसी से प्रतिबिंबित
प्रकाशित समस्त लोक. कोटि-कोटि, सूर्य, चन्द्र,
चमकते, अनगनत नखत
विहंसते,
आह तथागत.
कहते कहते.
शारिपुत्र.
यह वह परम सत्य.
जिससे.
सब उद्भासित. परम
प्रकाशित.
बोला शारिपुत्र.
प्रभु !
कितने आश्रमों से
चक्कर खाता आया मैं,
तव श्री चरणों में.
सुना कितनी बार.
आवागमन चक्र.
आत्मा का निष्क्रमण.
जीव का अनन्त भ्रमण.
प्रभु ! स्पष्ट
कहें.
यह सब क्या है ?
आई प्रभु के मुख पर
स्मित की रेखा.
प्रश्न किया त्वरित
उन्होंने-
आत्मा या जीव को
कहो.
कभी किसी ने देखा.
जो कहते हैं इसकी
बात,
क्या उनका आवास
उन्हें है ज्ञात.
इतना मैं जानता हूँ.
पुद्गल के ताने-बाने
पर,
रेखांकित तृष्णा की
आकृत्तियाँ.
तृष्णा.
अतृप्त जीवात्मा का
क्षद्मवेशी है रूप.
जीवात्मा.
वासना-प्रताड़ित,
डूब रहा बार-बार
आवागमन के अंध कूप में.
तृप्ति-निवारण हित,
अनन्त अतृप्ति में
रहा गोते खाता.
अतः शारिपुत्र.
अनित्यता नहीं,
अमरता चयन कर.
मत. आत्मा, जीव का
कर विश्लेषण.
बढ़ते इनसे हैं केवल
उलझन.
परे हट.
न बन कदापि
स्पृहा-ज्वालः पतित-दीपंकर.
मैं.
तथस्ट. मात्र,
दृष्टा.
तू भोक्ता है.
मैं निवृत,
तू वृत्ति बंधा है.
सरल पथ त्याग,
क्यों चक्रव्यूह में
फंसा है.
निरख. जो दृष्टिगत
है.
रही आत्मा की,
इस पर मैं. कुछ नहीं
कहता.
आत्मबोध अनुभव कर,
मानव.
इसमें ही केन्द्रित
और गुंथा रहता है.
निज परिष्कार से
दूर.
वृत्तियों एषणाओं से
भरपूर.
रहता, अहं दंभ से
चूर.
फिर कहाँ वह, सत्य
शोधन है करता.
कहता है कठोपनिषद.
ह्रदय-गुहा में
छिपा,
यह अगुष्ठ मात्र.
कभी इस कथन पर भी,
किया गौर या दिया
ध्यान.
या मान लिया इसे
अकाट्य, दिग, ब्रह्म
वाक्य.
जब.
ध्यान भूमि से
ऊर्ध्वमुखी ऊपर,
मानव का होता
उत्थान.
वह,
उस धरातल के स्मैक्य
पर आ जाता है.
जहां मात्र प्रकाश
लहराता है.
यह अगुष्ठ मात्र
स्थान.
स्वंय स्वतः प्रकाश
से भर जाता है.
यह है केवल.
सत्य-सद्-प्रकाश.
उस अमृत पद की
शाश्वत निर्भीक पुकार.
श्रोतापन्न आस्रव रहित ही सुनते हैं.
श्रोतापन्न आस्रव रहित ही सुनते हैं.
कहते जिसे, आत्मा.
वह. विज्ञानों का
प्रवाह है.
मनः-आकाश का अवतरण.
सत्यासत्य विवेचन.
जन्म जन्मान्तरों का
सत्य प्रेक्षण का,
है वह. सारभूत
संग्रह.
देता सदैव, स्पष्ट
निष्पक्ष उत्तर.
यह ध्यान भूमि का है
सप्त लोक.
जहां केवल है.
अपार आलोक ,
निस्तब्ध मौन.
शारिपुत्र.
हटा. वृत्तियों का
घन अन्धकार.
स्वतः फूट पडेगा,
वह.
सब प्रश्नों का
उत्तर देता.
निष्कल्मष, निरावरण
करता.
स्वंय में प्रखर
जलता,
वह निर्मल, निर्भीक,
रूप, अरूप आत्मसात
करता,
सत्य-संध, शाश्वत
आलोकित आलोड़ित अजर
अमर प्रकाश.
सत्यार्थ-अचल आवास.
यह केवल.
एक अश्रुत अभूत
अवर्ण्य अनुभव.
जड़. स्थूल चेतना.
रसना. मूक यहाँ.
शब्दों का उत्सव.
प्राप्त उसे मात्र
पराभव.
यह केवल.
एक अचिन्त्य निर्विकार
अनुभव.
पाते हैं हलकी सी,
एक झलक,
जिनमें होती,
सत्य-शोध-ललक.
करते जो निरंतर,
निज, अंतर-प्रेक्षण.
होता है. कभी-कभी
प्राप्त, उन्हें,
यह अलभ्य क्षण.
अन्यथा थे.
भौतिक उपचार.
यज्ञ, आडम्बर, बलि
इत्यादि. केवल.
जन्मांध का
चिल्लाना. पूछना.
होता है कैसा ?
रंग. रूप. प्रकाश.
अंजलि भरकर, ये
याज्ञिक गण.
केवल मृगजल से तृषा
बुझाते हैं.
ह्रदय-ज्ञान-यज्ञ-प्रज्वलित-ज्वाला
में,
ये, तृष्णा-कलश
ढलकाते हैं.
ज्ञान. कुछ,
कर्म, कुछ.
मानव केवल संशय
अन्धकार से,
रहा उलझ, जूझ.
कुंठित उसकी है
सूझ-बूझ.
शारिपुत्र !
केवल मन.
केवल मन.
कर उसका सूक्ष्म
विवेचन.
अमृत मंथन में,
प्राप्त, सागर में
ही,
अमृत, गरल दोनों ही.
क्यों नहीं एक ही
प्राप्त हुआ.
इसे गुनो और समझो.
मानव-जीवन-सागर.
वृत्ति-निवृत्ति का
अगर.
यदि सुमेरू शिखर सा
हो मन,
दृढ़ संकल्पी.
मंथन कर वह, दोनों,
प्रत्यक्ष लाएगा.
जो है, स्वस्ति
कल्याणप्रद शाश्वत,
उस, अमृत पद को
अपनाएगा.
अतः वृत्तियों का
शमन कर.
जो नहीं चक्षु-गत,
उसके भ्रम में मत पड़.
यह वृक्ष जो सम्मुख
है.
जितने पात्र, हस्तगत
हैं.
उनकी है मुझको
पहचान.
जो स्पर्श से
दुर्लभ.
उनसे मैं सतत अनजान.
जो है तेरे समीप.
उन्हें देख.
जग है अति पीड़ित.
अंध-मोह-विजड़ित.
तृष्णाओं से तृषित.
रागाग्नि ज्वालाओं
से ज्वलित.
स्नेह दया करुणा से,
करना है इन्हें शमित. किन्तु, कठिन है.
पांच स्कंध, पांच
उपादानों, षड़ायानों से,
अहं त्याग, ऊपर आना.
यह है निरंतर
संघर्ष,
उन्हें सहायता देने
को,
मैं कृतसंकल्प
प्रस्तुत सदैव सहर्ष.
तथागत.
सब प्रकार से हैं
सर्वज्ञ.
करुणा, मैत्री, दया.
करना बड़ा ही दुष्कर.
यही.
तथागत की आत्मा का
स्वर.
“मैत्रीबल
चलयनं क्षान्ति, सौरत्य, चीवरम ।
शून्यता चासन, मह्य मंत्र स्थित्वाहि देशयत ।।
।।24।।(धर्ममाण
परिवर्त्त)
मैत्री भाव ही मेरा
सत्य-निवास.
यह कषाय वसन.
यह आच्छादन.
कहते हैं जिसको.
चीवर.
यह तो,
महाशान्ति अपार पेम
का,
तना विशाल वितान
महान.
इसकी छाया में
उद्भासित अवस्थित, अनगनत, सूर्य, चन्द्र, नखत, नील गगन.
यही है.
शाश्वत करुणा और
प्रेम पूरित,
अचिन्त्य अवर्ण्य
ह्रदय.
यह चीवर.
केवल मात्र नहीं
वसन.
इसमें लिपटे आर्त,
विकल, पीड़ित, कातर मन.
करता रहता जिनके कल्याणार्थ.
सदा.
यह अर्हत.
एकाग्र, एकनिष्ठ,
चिंतन.
समस्त नीव रण
प्रहीण.
विरज भूमि. विराट
उदासीनता,
निःसंग, अभंग
शून्यता.
यह है.
धर्मराज तथागत का,
धर्मासन.
शारिपुत्र,
योग अथवा सन्यस्त
भावना,
प्राप्त होती केवल,
जब होती है, माध्यम मार्ग
की अवतारणा.
दोनों अतियों का
निराकरण.
अल्प भोजन. अल्प
शयन.
रागाग्नि शमन. कायक्लेश, विज्ञान निवारण.
रागाग्नि शमन. कायक्लेश, विज्ञान निवारण.
मेरा यह धर्म.
कहते इसे
“ एहि पस्सिक.”
इसमें.
नहीं निर्मूल,
निरर्थक, विवाद.
मैं.
अपुष्पित उदुम्बर
तरु के, अदृश्य फूलों से,
निज चीवर नहीं भरता.
तथागत. प्रत्यक्ष
दृष्टिगत की बातें करता है.
व्यवहारिक सप्रमाणिक सारतत्व सार्थक,
उनको सुबोध सुगम्य
बनाता है.
में अन्धकार में
नहीं टटोलता.
जो अनुभव-गम्य, उसे
मैं दृढ़ता से कहता. शारिपुत्र,
मनुष्य सदा, धर्म को
लेकर रहा उलझा.
उसके निमित्त कठिन
है, सरल पथ अपनाना.
अति दुष्कर है, सबके प्रति प्रेम दया अपनाना.
वह. बड़ी सरलता से
ठोकर दे सकता है.
पर जो गिरा, हुआ आहत,
उसे उठाकर,
उसकी लगी चोट, सहला
नहीं सकता.
बिजली सी चलती है.
त्वरित वेग से जिह्वा.
जब वह किसी को, जली
कटी सुनाता.
पर. केवल मधुर बोल.
जो दे अमृत,
पीड़ित शोषित के,
जीवन में घोल.
उसकी जिह्वा पर वह,
अति बोझ बना, पडा रह
जाता.
इसके निमित्त, अह्म
तोडना होता है.
सत्य हिंसा दया से,
मनः-भाव जोड़ना होता
है.
ये हैं.
साधना की, क्रमागत
निःश्रेनी.
कटी है इससे निगडित
बेड़ी.
यह सब कहकर प्रभु ने
की सभा भंग.
प्रभु की प्रदक्षिणा
कर, शिरसा नमन कर.
किया शारिपुत्र ने,
बर्हिगमन.
खडा रहा बाहर निसंग.
सहसा दृष्टि गयी, एक
वृक्ष के नीचे.
वहां एक भिक्षु बैठा
था अति विषण्ण आँखें भींचे.
पूछा जाकर उससे.
क्या आ रहे नगर से.
उसने स्वीकृति का
शीश हिलाया,
उसकी आँखों में जल
भर आया.
ली, उसने एक गहन
ठंडी स्वांस.
प्रश्न किया,
शारिपुत्र ने-
क्या निश्चय ही तूने
त्यागा, जीवन-विश्वास. क्यों ले बैठा.
यह पीड़ित करता,
अंतर-दह तक दहता,
रागाग्नि ज्वाल
धधकता, बिना प्रयास.
तू भिक्षा के मिस
स्वंय,
उस अनिय सुंदरी
सीरिया के, दर्शन को गया.
बोला वह आहत स्वर में-
करू क्या ? यह
प्राणान्तक अनल-ज्वाल.
मैंने तो नहीं
माँगा. हाथ पैर बाँध,
बलात निरुपाय, मैं.
रागाग्नि-शिखाओं
में, फेंका गया, गया डाला.
नहीं शमित चेतना, किसी देशना में.
ले गया बहाकर, समस्त
ज्ञान-विज्ञान.
यह.
अंध मोह का अप्रतिहत
जलप्लावन.
कैसा यह जटिल बंधन.
जितना भी चाहता,
होना निवृत.
होता जा रहा यह,
जटिल से जटिलतर अति
गहन.
इस घूर्णित तीव्र
वात्याचक्र प्रभंजन में,
उड़ा जा रहा
दिग्भ्रमित,
ज्यों डोर से कटी
पतंग.
किसी उल्कापात में
घिर जल रहे मेरे अंग-अंग.
कहा शारिपुत्र ने-
उसे क्या, इसके
पूर्व भी देखा था.
बोला वह-
केवल उसकी ख्याति
सुनी थी.
बोला शारिपुत्र-
तो आज यह. प्रथम
दर्शन.
हो उठा तू.
इस प्रकार विवश
मोहाच्छन्न.
भंते ! यह प्रथम
दृष्टि निपात.
यदि कभी भी, पूर्वाभास
हुआ रहता.
मैं सतर्क सचेष्ट
हुआ रहता.
अकस्मात् गिरा,
ज्वलित वहि्ल में.
ज्यों दीपंकर दीपक
में.
कहा शारिपुत्र ने-
भिक्षु ! किया, मलिन
तूने
चीवर. काषाय वसन.
क्या ज्ञात नहीं
तुझको.
ये पांच उपादान,
रूप, वेदना, संज्ञा,
संस्कार, विज्ञान.
इनके निग्रह से,
जलते हैं.
चक्षु, श्रोत, स्पर्श,
वाक्, रसना, प्राण.
ये पंचतत्व पच्चीस
तन्मात्राएँ.
सब पंचभूत उद्भूत,
होते हैं अनित्य.
यह तन. अति सुन्दर
चित्र-विचित्र.
किन्तु है. केवल मृण
से ही निर्मित.
उससे यथार्थ,
उद्भासित, सौन्दर्य, नित्य.
किन्तु कारण, हेतु,
सर्वथा अनित्य.
बोला भिक्षु.
नित्य से नित्य.
अनित्य से अनित्य.
यही मैंने जाना.
क्यों होगा नित्य का
अनित्य में प्रवेश.
जब, नित्य, सदा करता
निषेध.
मोहान्ध भिक्षु.
हो स्मृतिवान.
मानव जीवन.
केवल अमृत-आह्वान.
शोकार्त वह. बोला
विकल.
नहीं जानता मैं.
नित्य-अनित्य.
देखा मैंने केवल.
सर्वांग जलता, पीड़ित सत्य.
नित्य, सदैव रहा एक निराधार कल्पना.
अनित्य, स्वर्ण-मृग,
मारक, मृगछलना.
यह, कालकूट हलाहल
प्राणान्तक है.
दुर्बल दीन ह्रदय,
निस्सहाय, आर्त,
अति कातर विकल वह.
विवश बलात, इसका
धारक है.
उस,
अलकत-रंजित-शिंजिनी-मंजीरित-चल-चपल-चंचल,
कंज-कँवल-चरणों के तले.
अब यही चाहता हूँ.
यह चीवड़ फाड़, पावड़े बिछा दूं.
जहाँ पड़े उसके मसृण
चरण.
उस पद-रज-कण,
का चन्दन अनुलेपन
सहज बना लूं.
वह.
सद्दः-विकसित कमल
किंजल्क वन सुरभित.
मनः-चंचरीक विस्मत विमुग्ध विस्मृत.
भूल गया वह.
क्या था जीवन.
भूल गया वह.
चैत्य, विहार,
अरण्य.
हर धड़कन.
विकच सहस्र दल
उन्मन.
उनपर,
नूपुर-धुन-गुंजित, अनुरणित,
वे चारू चरण.
निज घुटनों में मुंह
छिपाकर,
सिसक उठा वह भिक्षु
तरुण.
थी अश्रु-सिक्त
आँखें, विकल करुण.
बोल उठा, भरे गले,
अस्फुट स्वर में,
छूकर अपने काषाय
वसन.
धधक रही हर धागों
में,
बढती ज्वाला की
प्यासी लपटें,
काषाय वसन के भीतर.
बरस रहे निरंतर अग्नि
अंगार.
इस लिपटे चीवर में
उल्कापातों से झर-झर.
आह ! आमूल घूर्णित,
दिग्भ्रमित मैं.
आजन्म पतित.
विस्फारित, विदग्ध, प्रज्वलित,
ज्वालामुखी-मुख गह्वर उद्गारों में.
असह्य तपन.
अंतर-बर्हि, तन-मन
में.
कितने बोझल दुर्वह
हैं.
टूटती स्वांसों के,
व्यर्थ हुए, ये आते जाते क्षण.
अब तो तीव्र से तीव्रतर हो रही, अविराम,
गैरिक वसन की
तीक्ष्ण चुभन.
जहां अवस्थित है वह.
वहां मैं.
अहर्निशी जागृत धूनी
अखंड जगा दूं.
शीतलता पा लूं.
निरख उसकी मूढ़
विक्षिप्तता.
बोला शारिपुत्र- अहो
!
अपूर्व विमुग्धता.
यह अंध मोह.
क्षणिक आन्तर-क्षोभ.
प्रवाहित निरंतर
सागर.
गंभीर धीर अचंचल
अनुद्वेलित.
हो जाते उसमें विलीन
जितने भी भीषण पाषाण, हों अनवरत पतित.
समस्त अतूर्त ज्वार.
गगन घर्षित, दिग्घोषित, जो करते, गहन सब.
सबको समाहित,
अंतर्लीन कर, बहता है वह. अविचलित नीरव.
कमल पत्रों पर
मुक्ताफल सरिस
तुषार-कण, खचित,
मदमस्त रूपगर्वित
सप्तरंग तरंग विकीर्णित रश्मि-सृका
सहस्र भंगिमा विहसित नर्तित, लसित.
सज्जित, पत्रों पर
पात्र,
निहार नवल तरल हार.
प्रकृति अनुपम
उपहार.
पल न ठहर सका. वह.
विश्व-दर्पण में,
निज सौन्दर्य अप्रतीम.
रंचक न निरख सका.
आह ! कितना लघु
त्वरित क्षणिक.
स्पृहा-जाल-विजड़ित-जीवन
मधु क्षण.
वह. समय-चक्र तौलता
पतित, पारद कण.
देख रहा नित्य ही
तू.
अनित्यता का पल,
प्रतिपल, क्षय.
फिर क्यों ?
अमूल्य का निर्मूल
से विनिमय.
क्यों अनर्थक बना
रहा जीवन पीड़ामय.
इतना ही भर, बस कह.
मृण-कलश.
चित्र-विचित्र कलामय
अति सुन्दर निर्मित.
हटात कर से छूट गिरे
धरा पर,
हो जाए शत-शत,
टुकड़ों में विचूर्णित.
हर बिखरे टुकड़े, तड़प-तड़प,
अपनी क्षणभंगुरता कह
जाए.
लाख करे कोई, कितना
भी यत्न,
वह पुनः न उस भांति
बन पाए.
उन्हें एकत्रित कर
बाहर फेंक
वह स्थान स्वच्छ
नहीं करेगा ?
बोला भिक्षु पीड़ित
स्वर में- आयुष्मान !
प्राची और प्रतीची
दोनों के प्रांगण में है फ़ैली,
रक्तस्नात दिनमणि की लाली.
वह व्यथा-भार झुका
दोनों बाहों में
आहत ह्रदय दबाता,
पुनः पूर्व में आता
है.
कब उसने मानी हार.
निरंतर नित्य कर रहा
गिरी गह्वर सागर
पार.
घोर निराशा. अक्षुण होती
है.
वह पीड़ित स्मृतियों
को सदा संजोती है.
एक पक्षीय मौन
प्रेम.
तीव्र गहन निरंतर
अंतर-बेधित
दहित पीड़ित करता
होता है.
वह.
विष:-फण अवगुंठित
कुण्डलिनी सा,
गोप्य अहर्निशि
अग्नि उगलता,
विक्षिप्त विकल
बनाता,
हृद-दाह-तल में अचल
अडिग पलता है.
मैं.
भग्न-कलश, के
न्यूनतम टुकड़ों को चुन लूँगा.
लघुतम कण भी सहज समेटूंगा.
किसी मंजूषा में कर
बंद.
अहर्निशि आर्त,
आतुर, आकुल,
एक-एक कण को, अजस्र
प्रवाहित अश्रुओं से,
धो-धोकर, पीड़ा की तड़प निखारूंगा.
इस चिर-पिपासित,
अतृप्त पिण्डपात्र में,
मोहान्ध विमुग्ध मैं
सत्वर
उस रूप-चाँदनी को भर
लूँगा.
उसमें, प्रतिबिंबित,
गहन
नैराश्य-आप्लावित-आकुल,
इन आँखों की, पीड़ित
भाषा, पढ़ लूँगा.
लेकर गहरी स्वांस
हताश.
देखा शारिपुत्र ने
आकाश.
बोला मन ही मन.
जिनकी छाया मन है
आश्रित,
यह मर्माहत जीव अतीव
व्यथित.
वे ही इसे पीड़ा
विमुक्त करेंगे.
सहज ही, यह अंतर-दाह
शमित करेंगे.
आह !
अपार अदभ्र परम परम
ममतामयी,
विस्तीर्ण व्याप्त,
जिनकी करुणा.
वे ही हैं एकमात्र
अचूक निदान.
करेंगे सत्वर इसका
कल्याण.
यह मर्मान्तक
यंत्रणा.
पीड़ित अतृप्त
मृगतृष्णा.
वे
वात्सल्य-पारावार.
होगा उसमें ही आमूल विलीन,
यह भीषण आवेगपूर्ण
व्यथा संभार.
निदान रहित
मोहान्धता.
प्राप्त कर चुकी
निश्चेष्ट जड़ता.
उन्हें छोड़, किसमें
यह क्षमता.
करे उद्धार गजेन्द्र
का
जो गहन पंकिल में
धंसा.
किन्तु. समय का मौन
पात्र.
सका न अबतक कोई पढ़.
उसके संकेत. उसके
निर्देश.
कहते हैं, उसे ही
भवितव्यता.
उसकी आज्ञा बिना, एक
तृण भी नहीं हिलता.
एक समय, एक काल में,
भिक्षुक की, दीन
करुण विकलता,
अस्वस्थ्य सरिया की
तत्काल असामायिक
मृत्यु सूचना.
दोनों ही हुई
प्राप्त प्रभु को.
दिया आदेश.
सीरिया का शव
सुरक्षित रखा जाय श्मशान में.
यह. अनित्यता का दीन पराभव.
देंखे,
वे.
जिनके अन्तर में है,
मचा दुर्द्धष घोर,
सद्-असद् का विप्लव.
वह. अनिद्द सुंदरी
नारी.
आज. अनित्यता को भी
भारी.
भाग रहे थे दूर,
धूम मचाते मधुकर.
दृष्टि बचाते, थे
वे.
जो सहस्र स्वर्ण
कर्षापण से,
एक रात्री का करते
थे विनिमय.
कहा, तथागत ने राजा
से.
दे आदेश.
इस निसंग पड़ी धरा
पर,
मृत अतीव सुंदरी को
जो चाहे सहस्र
स्वर्ण कर्षापण देकर
श्मशान से, उठाकर,
ले जाये.
प्रभु के कथनानुसार.
घोषणा करवायी नृप
ने.
तथागत साथ ले गए थे
उस भिक्षु को भी,
देखा. अब भी था उसका
मुख अश्रुस्नात.
निरख सीरिया को, हो
उठा वह.
प्रभंजन प्रताड़ित
जलजात.
वेदना विदग्ध आँखें
भी आरक्त
मोटी पलकें थी नत.
काँप रहे थे अधर,
नवल, कोमल,
कद्लिपत्र सा,
वह था कम्पित थर-थर.
अब भी अश्रुसिक्त
आकुंचित
कज्जल कृष्ण
पक्ष्मों में,
थी लिपटी, आहत पीड़ा
विकल मुखर.
वाणी जड़.
वह था,
नियति-निव्दित-निश्चेष्ट
प्रारब्ध आबद्ध
अवाक काष्ठवत्.
श्मशान दर्शक विहीन.
शव उपेक्षित पडा अति
दीन.
मौन धरा. स्तब्ध
निरखता आकाश.
विलुप्त ध्वस्त
अनित्यता का विश्वास.
शून्य से बोली.
प्रतिघोषित,
प्रतिध्वनित, उतरती चली गयी.
एक कर्शापण पर भी
बोली ठहर न सकी.
उतर रहा था अपराह्न.
सांझ हो रही थी
गहरी.
यह. समय का, संयोग-वियोग.
सका न जिसे कोई रोक.
घूम कर देखा प्रभु
ने भिक्षु की और.
एक निष्क क्या ?
एक कौड़ी भी हो न सका
जिसका मोल.
यह वही रूपजीवा है.
शरीर नहीं.
केवल. नित्य, सत्य.
यह पंचतत्व.
केवल व्यवधान.
देख लिया.
अनित्यता का घृणित
अवसान.
कर, सत्य-संध-पहचान.
आज यह यहाँ पड़ी हुई
क्यों नहीं कोई,
इसके समीप जाता.
जानते सब.
जो था इसमें परम
चैतन्य.
वह नहीं.
इस पार्थिवकता से,
क्या नाता.
यह तन यहाँ पड़ा-पडा,
विकरण को होता
प्राप्त.
तन ही नहीं, अस्थि
भी, हो जायेगी क्षार.
मरण धर्मा.
काल-अवधि-संकेत बंधा,
उसके ही इंगित पर
रहा चलता.
यह समय प्रवाह का
उठता, गिरता, बनता,
मिटता, बुद-बुद.
कोई, अति सुन्दर.
कोई अति क्षुद्र.
पर सबके निमित. सजी
चिता.
कोई नहीं यहाँ बचा.
यह. मुट्ठी भर धूल.
बोल.
इसकी क्या क्षमता.
जो सत्य.
कर, उससे ममता.
ये. पीड़ाजनक पड़ाव.
रख, सदा इनसे दुराव.
यह प्रलयंकारी,
जाज्वलमान रूप.
कुम्हलाई, इसकी कोमल
धूप.
रहा न कोई इसको पूछ.
विचरण कर. उस अनंत
सौन्दर्य.
शाश्वत प्रकाश में,
जिससे विभोर,
विमुग्ध, उद्भासित, प्रकाशित,प्रतिबिम्बित,
सत्य-निवेदित-समस्त
भुवन.
भूल.
यह असह्य तपन.
सम्मोहक अनित्यता की
यह
आत्मविभोर करती मादक
छुवन.
निरख-साररहित,
निस्सार अनित्यता.
जल गयी आमूल
रमणीयता.
विद्रूप करता
अस्थि-पिंजर वीभत्स बचा.
शाप ग्रस्त.
अनित्यता.
क्षणिक स्थायित्व
वरदान मिला.
अवधि समाप्त होते ही
मौन उठी,
समय-विष-विदग्धता,
चढ़ी गहन श्यामलता.
एन्द्रजालिक सम्मोहकता,
ध्वस्त बिखरी पड़ी
कमनीयता.
कैसी, इसके प्रति
प्रतिबद्धता
मृगजल से क्या बुझी
तृषा.
आई,
शांत खड़े सद्दःविरही
के पीड़ित मुख पर
दृढ़
सत्य-संकल्प-तेज-प्रभा.
प्रभु देशना ने,
समस्त मनः-ताप हरा.
हुए उसके अश्रु
शुष्क.
स्रोतापन्न हो गया
भिक्षुक.
वहां से जब लौटे
गौतम.
देखा, पांच माह से
मौन यहाँ
निवास करता कालउदायी.
उपत्यकाओं पाषाणों
पादों में कर रहा विचरण, विषण्ण मन.
किंचित सस्मित बोले
प्रभु.
अभी आ रहा मैं.
तुझे क्या हुआ.
क्यों हुआ तू इस
प्रकार चिंतामग्न.
उद्विग्न.
बोला कालउदायी.
यही पांच माहों से
सोच रहा निरंतर.
मौन रहूँ. या कुछ
कहूं.
अथवा यों ही लौट
चलूँ.
जो यहाँ देख रहा
कार्यक्रम.
संभव नहीं हो सके
उसमें व्यतिक्रम.
यह इसी प्रकार
रहेगा.
पडेगा न कोई अंतर.
नौ दूत यहाँ
कपिलवस्तु से आकर,
प्रव्रजित हो गए.
मैं हूँ नृप
महासम्म्त का, दसवां दूत.
विश्वास देकर आया
हूँ.
शासन लेकर आया हूँ.
क्या मैं भी,
लौटूंगा निःसंग.
या प्रभु जायेंगे
मेरे संग.
सोचें.
उस पिता कि दशा.
रात्रि-दिवस, किस
प्रकार बीत रहा.
वैशाख पूर्णिमा के
पश्चात,
ऋषि पत्तन, कर
वर्षावास व्यतीत.
आप आये, आश्विन
पूर्णिमा में उरुबेला में,
गृद्ध कूट पर हुई
व्यतीत पौष-पूर्णिमा.
आज फाल्गुन
पूर्णिमा.
किन्तु ह्रदय में
गहन से गहनतम होती
जाएगी,
यह झरती कज्जल काली,
नैराश्य-कालिमा.
क्या मैं इसी प्रकार
रहूँगा.
पूज्य पिता से जाकर
अंततः मैं क्या कहूँगा. लगभग सात वर्ष हुए व्यतीत,
जब, तपः साधना में,
आप थे समाधिस्थ. क्जंगल के घोर खिदिर वन में,
सलिल्वती नदी के तट
पर
महाप्रजापति गौतमी
किसी प्रकार आपको
लौटा लाने वहां गयी थी. उसके भी हो गए पांच वर्ष व्यतीत.
केवल.
घोर नैराश्य.
कपिलवस्तु का जीवन
रहा सतत,
उदासीनता में बीत.
पिता का स्नेह.
पुत्र पर चाहता
अधिकार.
प्रभु.
कपिलवस्तु का आमंत्रण करें स्वीकार.
काल भी सुखद है. आकाश निरभ्र स्वच्छ है.
कपिलवस्तु का आमंत्रण करें स्वीकार.
काल भी सुखद है. आकाश निरभ्र स्वच्छ है.
वृक्ष सघन नवल पत्र
पल्लवों से.
भरे तडाग सरोवर
चित्र-विचित्र कंज
कुमुदनियों से.
जलती धरा हो गयी
शीतल.
हो गयी सुसज्जित नवल
प्ररोहित
हरित श्राद्धलों से.
उनपर तीखी सींगों,
भोली विस्मत आँखों को, लेकर,
विचरण कर रहे मृग भरे मुदित.
विचरण कर रहे मृग भरे मुदित.
तुहिनों से भर सिहर
रही,
तरुओं से लिपटी जाती,
जूही, मधुमालती,
लताएँ.
तरु तडागों, गिर,
गह्वरों, शिलाओं, प्रपातों,
शांत प्रवाहित सरिताओं
पर.
करती निसंग नृत्य
अरण्य चंद्रिका.
आह ! मिला न कोई,
जो,
इस सौदर्य प्रभा का
प्रत्युत्तरित दर्पण बनता.
रही न किसी में यह
भाव प्रवणता.
देखे यह नैसर्गिक
रमणीयता सुन्दरता.
रसाल अंतराल में
छिपी कैकी,
नदी तट पर बैठा
विरही चक्रांग,
करते उसका अनुमोदन.
सत्य कहा ! सत्य कहा
!
निष्कल सौन्दर्य.
सदा निर्मल निसंग
रहा.
कौन छू पाता,
चंद्रमौली अवस्थित
शशी को.
कौन, स्पर्श कर
पाता,
सागर की अतल गहराई
को.
कौन,
हिमालय-शिखर-चूणामणि-हिमकिरीट,
छूता है. सत्य ही, दिव्य सौन्दर्य. सदा अछूता है.
छूता है. सत्य ही, दिव्य सौन्दर्य. सदा अछूता है.
केवल.
अतल छूती, आँखों की
गहराई,
भाव प्रवीण ह्रदय की
ऊचाई.
वही, रस-मर्मंज्ञ.
वह क्या है, यह
जानते.
प्रकृति-सौन्दर्य कि
अक्षुण्ण तरुणायी.
प्रत्यूष आती,
कपिलवस्तु के
क्षितिज पर गुलाल बिखेरती
दिनमणि स्वर्ण कलश लेकर खोजती.
कहाँ वे राजीव लोचन.
शोक विमोचन.
जो थे. मेरे अंतर
मानस के दर्पण.
करूं किसे समर्पण यह
सौन्दर्य.
कहाँ वे.
कल-कोमल-कमल-युगल-चरण.
प्रभु !
सूना है. वन उपवन.
सूना है
न्याग्रोधराम.
सूना प्रासाद, हर्म्य,
अलिंद, वीथी, नगर, उपवन.
सबकी प्रतीक्षाकुल आँखें रीति ह्रदय शोकाच्छन्न.
एक
प्रश्न. एक चाह.
रहेंगे कबतक सूने ये
पथ.
रहेंगी कबतक आकुल ये
रांहें.
बीते सप्ताह पर सप्ताह,
माह पर माह, वर्ष पर
वर्ष.
अब तो, यह शून्य.
अवधि भी उठी कराह.
सबमें बस एक चाह.
मन के तपते आँगन
में,
कब, श्याम जल्द घन
बरसेंगे.
कब निलान्जसा शतहृदा
चपला.
नील नीरद रंगमंच पर
नर्तित,
विद्युत् के पायल
तोड़ेगी.
खिलेंगे कब ? आशाओं
के जलजात.
आसुंओं के नैराश्य
तडागों में.
कब पक्ष दबाकर,
आँखें बंद कर,
शयित कोकिल.
मंजरित-आम्र-पुष्प-सुगंध
से,
पागल होकर बोलेगी.
प्रभु ! सब ही तो
प्रतीक्षाकुल हैं.
कातर आँखें. अश्रुल
हैं.
एक बार चले देखें.
सब कितने स्नेहाकुल
विह्वल हैं.
यह बसंत ऋतु.
प्रकृति-धरा, दोनों
ही हैं अनकूल.
शीतोष्ण काल.
जल नहीं रहा निदाध.
नील गगन.
स्वच्छ कान्तर वन,
पुष्पित हरित
पल्लवित, सुरभित.
यह काल.
चारिका निमित्त
उत्तम है.
कहा प्रभु ने-
निर्मल नील नीलाम्बर
निरख.
उदायी ! अभिप्राय
कह.
प्रभु ! जो जन्म
देते हैं.
क्या उनका अनायास
स्नेह रोका जा सकता है.
नदी.
पाषाण वक्ष फाड़ प्रबल वेग जब बहती है.
क्या वह किंचित थमती है.
क्या वह किंचित थमती है.
प्रभु ! नैसर्गिक
प्रेम.
होता है प्रभूत
अदभुत्.
यह. नभचर, थलचर,
जलचर. सबमें एक बराबर.
संतान-स्नेह.
पिता की वात्सल्यता.
अब. खो बैठी धीरता.
सात वर्षों का काल.
कम नहीं प्रभु.
कहा प्रबु ने-
मैं कपिलवस्तु
जाऊंगा.
भिक्षुसंध से कहो
प्रस्थान को हो प्रस्तुत.
मैं अपने जाति वालों
का भी संग्रह करूंगा.
आज से दो माह
पश्चात.
चारिका करते
राजगृह से कपिलवस्तु
आऊँगा.
मेरे प्रिय शिष्य यारिपुत्र,
उपतिष्य और मोद्गल्यायन
कोलित
दोनों ही होंगे साथ.
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