अविनश्वरता के भुर्ज पत्र पर
प्रकृति का मदिर संगीत है ।
नश्वरता मादक संगीत स्वरूप,
प्रकृति काव्य का आसव पीकर,
छंदों पर छंद तोड़ रही है ।
निर्झरणी के बहते जल में
कलश डाल शीश उठाकर
देखा सुदूर उत्तरा ने
झर पर पड़ी शिलाओं पर से
आ रहा था गैरिक वसनों में
एक श्रमण ।
ज्यों सप्त रंग, सहस्र रंग, विकीर्णित अंशुमाल ।
स्वर्ण कमल किजल्क जाल,
उत्थित दीप्तिमान दिनमान ।
कुसुमायुध कुसुमाकर सा,
व्याप्त सुरभि का मादक ह्रास
अमिय बिखेरता सुधाकर सा ।
सर्वत्र प्रकाश उजास,
ज्यों रजत राका स्नात, रत्नाकर सा ।
यह कौन आ रहा शरबरी बसंत सा ।
किसी अछूती चिर परिचित धरा पर वात सा ।
शाश्वत ह्रास सागर ज्वार सा ।
भान हुआ,
यही ह्रदय क्षितिज का निशि सुधाकर ।
व्यक्तित्व प्रभा ।
दिव्य ज्योति मंडलाकार ।
प्रकाश ही प्रकाश ।
नहीं अन्धकार ।
मन ही मन बोली उत्तरे-
कौन हो तुम । कौन हो तुम ।
ह्रदय कमल सद्द
नवल निर्मल कुसुमित विकसित ।
मलय शीतल सुखद
तव चरण-स्पर्श मुदित ।
आमूल अंतर्विहित विमूर्छित ।
आया नव ऋतुरंग अमंद सुरभित ।
अबूझ मदिर भावनाओं का आहत वन-वन ।
प्राण सिहरा उन्मन-उन्मन कण-कण ।
नव जल जलधर सरिस
नील क्षितिज से उतरे ।
आर्द धरा । मधुरस भरा ।
जीवन जन्म-जन्म का सिहरा ।
कौन हो तुम ? कौन हो तुम ?
मनः हृद में
एक ही सहस्र पात्र स्वर्ण कमल खिला ।
जीवन ।
अब अर्थों के नवरस से ।
मनः-सागर सदा एकरस रहा ।
आज क्यों सहसा ज्वार उठा ।
आज यह क्यों अयाचित अबूझा हो गया ।
मन क्यों अशांत हो गया ।
देखा निरंतर धरा पर ज्वलित समिधायें ।
आज क्यों मनःचैतन्य विसुध
उन्मन हो गया ।
क्यों अरुण का सप्तरंगी द्वादश अश्व
यहीं आकर थम गया ।
क्यों वाल्गा खींच वह
यहाँ अडिग खड़ा हो गया ।
यह रंग बिरंग गुलालों की बरसात ।
क्यों खिले सौरभ सुरभित
चित्र विचित्र जलजात ।
क्यों रसलोभी मधुकर अशांत ।
सब कुछ नया नया हो गया ।
कोरा आंगन अल्पनाओं से भर गया ।
कौन हो तुम देवता ।
किसका आगमन हो गया ।
सुप्त वीणा तार स्वतः झंकृत हो गए ।
मन किसके प्रति आमूल झुक नामित हो गए । क्यों धरा अम्बर मुग्ध धवल स्नात हो गए
। भींगा भींगा सब कुछ ।
उत्तरीय झार झार जल से भर गए ।
कहाँ रखूँ । कहाँ सम्भालूं ।
मन तो हार हार गए ।
क्षिप्र गति से जाते आनन्द को निरख,
शीश नमा सस्मित बोली-
शिरसा नमामि प्रभु !
कितना सुसंस्कृत था अभिवादन-
स्वस्ति भव सुमने !
क्या सेवा करूं श्रमण ।
क्या सेवा होगी- हंसा वैरागी ।
मन ही मन सोचा ।
कैसा यह प्रकृति का अनय ।
देखा आपाद उसे ।
शुभ्र भाल पर लहराता
कुंचित कराल अलक जाल ।
आपाद मदमस्त झूलते
चन्द्र अमिय लुब्ध
पिपासित व्योलोलित व्याल ।
रजत राका स्नात ।
नैसर्गिक प्रकृति का आभास ।
नवल आमुख ।
आकर्णमूल पद्मपलाक्ष ।
अलसित मदिरालस मुक्ताभ वारिज नयन ।
सृष्टि ठगी ।
विस्मृत उसके वयं ।
कैसा यह रूप ।
चांदनी सी नर्म धूप ।
शुक्ल वसना शातोदारी ।
अपूर्व सुंदरी ।
आपूर्यमाण स्वर्ण जल कलश
उसकी मादकता से हो रहे विवश ।
आँखों में खिंची कृष्ण रेख सी अंजन रेखा ।
नहीं पुष्प धन्वा ने भी कभी
यह वैभव होगा देखा ।
चरण कमलों की चम्पक
केशर सी कम्पित उंगलियाँ ।
ज्यों तरल मुक्ताओं की अवलियाँ ।
पुनः उसे आमूल परख
आपूर्यमाण स्वर्ण कलश निरख
श्रमण ने प्रश्न किया-
सप्तरंग सूर्य रश्मि रंजित वीचियाँ
लहरित दोलित आंदोलित क्यों हैं ?
उत्तरा ने क्षण अपलक
आयत लोचनों से देखा भिक्षु को ।
पद्मपलाक्ष सघन बरौनियों की पलकें
नत हो आई ।
मुक्ताभ सितोत्पल स्वेद लसित कपोलों पर अजस्र केशर गुलाल झर पड़े ।
आमूल चलदल सी सिहरी सुंदरी ।
सम्मोहित यह “क्यों” जल थल नभ
उत्तरा के अंतराल में तीक्ष्ण चक्र सा घूम गया । क्यों प्रज्वलित शलाका
ह्रदय के आर पार विद्ध हुआ ।
लम्बे पद्मपलाक्ष झुके
सघन बरौनियों की पलकों पर कम्पन आये । मुक्ताभ डह्डहे ओस सिक्त सितोत्पल पर
किसी ने लज्जा का केशर कुंकुम झार दिया । चलदल सी आमूल कम्पी उत्तरा ।
शरविद्ध सस्मित मंदर अधूर स्वर में बोली-
प्रभु !
यह तो परा अपरा की
परस्पर निज अस्मिता सचेष्ट चुनौतियां हैं ।
आँक रही कहाँ किसकी कितनी वर्चस्वता है ।
एक शक्ति का विपर्यय है ।
सबको । सबमें ।
अपने सौन्दर्य निर्णय की आग्रह्शीलता है । निश्चय ही जल तो जल ही है ।
एक ही प्रयोजन ।
पात्र, स्वर्णमय हो या मृणमय ।
यह तो केवल वैविध्य,
वैषम्य है परिधानों का ।
पात्रों का भेद है मात्र ।
एक ही जल सबमें छलकता है ।
मुस्कुराया आनन्द- सुमने !
कहीं ठगी गयी हो ।
हंसी उत्तरा ।
सस्मित सव्यंग चमत्कृत देखा श्रमण को ।
देखा फिर निज कटी पर रखा
जलपूरित कनक कलश ।
नत पलकों से बोली- प्रभु !
आलोड़ित तरंगित लहर सप्तरंग
किरण जाल आबद्ध जल ।
जानता नहीं छल । छल ।
दो जल पात्र,
एक भरा, एक रिक्त है ।
मात्र दृष्टि का भ्रम है ।
किसने भोगा, कौन भोग रहा,
कहना अति कठिन है ।
यह तृप्ति अतृप्ति का द्वन्द्व ।
आप्तकाम क्यों फिर प्रकृति से उलझा है ।
तांडव का घुँघरू
क्यों लास चपल झंकारों से ठगा है ।
रूप विपर्यय में दोनों ही शाश्वत हैं ।
प्रसन्न मुख, आत्म तुष्ट बोला आनन्द-
देवि !
हम वैरागी । वैभव विलास त्यागी ।
व्यष्टि नहीं समष्टि में रहते है ।
चाँद !
असंस्पर्शित दूरी की पीड़ित परिभाषा है ।
फिर भी उसके प्रति
आतुर आकुल उन्मुख सागर
चन्द्र मिलन की निरर्थक आशा में
विशाल ज्वार पंखों को फड़फड़ाता
पच्छाड़ खाता
सर टकराता रह जाता है ।
और चकोर !
अर्धनिमीलित अश्रुपूरित आँखों से उसे निरख, मन ही मन सुलगता रह जाता है ।
यह निष्फल निराश प्रेम की ध्वस्त आशा है । परिणाम ज्ञात ।
यह निष्ठा नहीं,
मोहान्ध छलावा है सुमने ।
कहा उत्तरा ने श्रमण से-
दीपक से दीपंकर आमूल जल जाता है ।
क्या यह एकाग्र निष्ठा
तन्मयता सम्पूर्ण समर्पण नहीं ।
क्षण उसे देखा श्रमण ने- देवि !
यह केवल ऊर्जस्वित दीन
अहं की मोहान्धाता है ।
यह आमूल समर्पण नहीं ।
आत्म केन्द्रित भावना की प्रतिष्ठा है ।
उन्मुक्त समर्पण ही यथार्थ समर्पण है ।
‘स्व’ या ‘अह्म’ का पराभव ।
कदापि समर्पण नहीं । देवि !
स्थिति अह्म की है ।
वह स्वंय को, न समझ, न भोग पाता है ।
बोली उत्तरा-
सोअह्म में भेद कहाँ रह जाता है ।
बड़ी फिसलन की डगर है श्रमण ।
मन, जानकर भी नहीं संभल पाता है ।
बोला श्रमण –
चरण स्थिर दृढ़ करने होते हैं देवि ।
इस चकाचौंध में स्थितप्रज्ञ ही थम पाता है ।
बोली उत्तरा – श्रमण !
अविनश्वरता का अलंकरण,
रूप बदलती प्रकृति है ।
कितने मोहक हैं इसके क्षण ।
मधुप ! एक क्षण के मधु रस का लोभी है ।
मात्र एक पल ही, क्यों छोड़े उसे ।
एक चषक कादम्ब का घूँट,
क्या मस्त नहीं बनाता ।
भंते !
प्रकृति क्यों इतनी आग्रहशील,
इतनी चंचल परिवर्तित ऊर्ज्वसित है ।
सविनय कहा आनन्द ने – सुमने !
प्रकृति अति नश्वर है, अति चंचल है ।
जो वस्तु जितनी शीघ्र नष्ट होती,
वह उतनी आकर्षक मोहक है ।
पुष्प बिखर जाते हैं,
पवन में मात्र सुगंध रह जाती है ।
इस क्षणभंगुरता के प्रति आकर्षण क्यों ।
यह तो प्रकृति का विक्षोभ है ।
विनष्ट प्रकृति कितनी कुरूप ।
क्यों उसपर अंध मुग्ध मन मधुकर है ।
देव !
जब ऐसा है तो क्यों,
जब जब सती भस्म हुई
एक मुंड के संख्या की,
शिव सृका में वृद्धि हुई ।
क्यों देव ?
शुभे !
अमरनाथ क्षर, अक्षर मध्य, कितना तटस्थ,
यही बात सिद्ध हुई ।
सौन्दर्य निज असहिष्णुता में विकृत हुआ ।
वह असत्य है सत्य संविद नहीं ।
कहाँ गए वे चंद्रमुख,
कहाँ गए वे पद्मपलाक्ष,
कहाँ गए कादम्बनील हरित,
कहाँ गए वे रूप सन्निवेश ।
भस्म ! भस्म ! सब भस्म !
यही सार्थकता है ।
प्रभु !
भस्म भी अपारदर्शी, अभेद्द, अक्षय होते हैं ।
कहा बात काटते आनन्द ने –
उसके लिए जो जो
भस्म के मध्य रहे होते हैं ।
जो उनसे ऊपर उठते हैं,
उनके लिए क्या मूल्य रखते हैं ।
महाश्मशान,
ज्योतिषपथ के निर्मित होते हैं ।
इस ब्रह्माण्ड में कितने महाश्मशान,
आकाश, ज्योतिषपथ अविदित हैं ।
उत्तरे ने कहा- श्रमण ! आप !
वह हंसा- एक कम्पित क्षार ।
भस्म अपना ही उठा रहा भार ।
इससे अधिक नहीं ।
उत्तरे- सौन्दर्य क्या मात्र अवहेलना है ? आनन्द- सौन्दर्य केवल एक है मात्र
सत्य, चिरंतन सत्य, अन्यथा मात्र मृण ।
जीव खेल रहा इनके संग ।
निज करों से
अपना ही भस्म उड़ा रहा है मार ।
अवश्यमेव करना हे होगा
क्षणिक आवेशों का प्रतिहार ।
जीवन नश्वर तरंगों से नहीं,
सत्य से गनता है हर बार ।
जिसने इसे माना,
जो स्वयं निज प्रज्ज्वलित दीपक बना,
निर्वाण उन्मुक्त करता उसके हित द्वार ।
जीवन सत्य कर्मों का सोपान ।
करो ज्ञान योग का आह्वान ।
अरुण !
सप्त रंगों के अश्वों का रथ लेकर आता है । उज्जवल धवल विजय पताका
मध्यान्ह फहराता है ।
निष्काम तपी कर्मयोगी, निस्वार्थ सेवी,
केवल रखता सत्य का मान ।
उत्तरा- प्रणय !
निकष निचोड़ यौवन कुसुमित सुरभित वरदान । हर पल इसका पान करो श्रमण ।
यह साक्षात प्राणों का ऊर्ज्वसित अभिमान ।
देख मुझे !
मैं !
प्रकृति की अनुकृति, स्नेहल स्वीकृति हूँ ।
जो कह न सकी वह,
मैं उसकी वही अनकही अभिव्यक्ति हूँ ।
मेरा यह रूप अकाट्य निर्विवाद है ।
देखा आनन्द ने ।
आकर्णमूल आयत मदिर लोचनों में
यौवन की चढ़ती धूप नरम ।
प्रकृति का प्रफुल्ल कुसुमित सुरभित
उत्फुल्ल मलय स्पर्शित सौन्दर्य चरम ।
एक चुनौती थी ।
नभ से स्वर्गंगा उतरी थी ।
जटाशंकरी कहलाने को,
विकल खोज रही थी,
शिव का कपिल कृष्ण जटाजाल,
आतुर बनने को कंठमाल ।
उज्जवल धवल दुग्ध तरंग ।
सप्तरंग सह्स्ररंग नृत्यति किरण जाल ।
लहरित श्वेताभ वारि वसन ।
चतुर्दिक व्याप्त उज्जवल उजास ।
स्नात जल थल नील गगन ।
पावन मुखारविंद की उद्दीप्त दीप्ति ।
प्रकाश विकीर्णित वन प्रांगण ।
पवित्र कौमार्य का कस्तूरी कर्षण ।
भोले अल्हड़ कैशौर्य का नवयौवन में पदापर्ण । मृगःमद मह-मह मदिरालस तन मन ।
कुसुमित सुरभित कमल वन ।
लहरित अजानु कृष्ण कुंतल कादम्बिनी ।
अराल ग्रथित हरित मृणाल ।
डहडहे अधखिले अरुणाभ कुवलय ।
झूलते झुक झूमते मद पिए अर्हिफण ।
स्वर वीणा विनिन्दित प्रत्युष:
मलय पवन संस्पर्षित अलसित निः स्वन ।
जन्म जन्म की वीथियों में
स्वयं को खोजता चिंतनशील
पीड़ित जिज्ञासातुर सुदूर ठहरी चितवन ।
स्वयंप्रभ स्वयम प्रश्न उत्तर प्रत्युत्तर ।
नीर क्षीर निष्कर्ष निवेदित अन्वेषण ।
चमत्कृत कर रहा अध्यात्म
निःश्रेणियों पर सतत
मौन निसंग निरालम्ब आरोहण ।
अलभ्य अंतरवर्हि गहन सौन्दर्य निरूपण ।
“अप्पो दीपक भव” का
स्वयंसिद्ध साक्षात सार्थक उद्धहरण ।
पुनः देखा श्रमण ने ।
निष्कंप प्रज्ज्वलित दीपशिखा,
श्वेत वसना शुभ्र ज्योत्स्ना ।
आत्म सुरभिता, नव लावण्योर्दिता को ।
सहस्र रंग रश्मियों से खेलती
उस वार्शिला प्रतिमा को ।
आँखों में आँखें ठहरी ।
दिखी कज्जल की रेखा गहरी ।
मन ही मन हंसा श्रमण ।
कजरारी आँखों के बेमानी प्रहरी;
ये आँखें अन्यत्र कहीं हैं संवरी ।
नवयौवन के विकसित आरोही अन अंग ।
उत्पल निष्कल निश्छल निसंग अभंग ।
कोमल कल कंज पद,
कुसुमित पाटल चरण तल ।
उषः की केशर कुंकुम की छलकती रंग गागरी, यहीं कहीं गयी ढल ।
पतली चम्पक उंगलियाँ कुछ कम्पित,
अज्ञात अदृश्य से सिहरी ।
नख अरुण सित चन्द्रप्रभ ज्योतिर्मय ।
तरल बूँदें छहरी ।
रूप ! अदम्य!
नहीं कम ।
अप्रतिम मुखर ।
आँखों में कुशाग्रता का
अरुणोदित प्रकाश प्रहरी ।
खुले नयन ।
मधुर वयन ।
प्रकृति ही जैसे आन खड़ी ।
झूलती जाती पुष्प उज्जवल मौक्तिक लड़ी । आपाद खुले केश ।
रूप अशेष ।
जल धरा स्वर्ण कलश,
छलक जाने को विवश ।
जब भी आपूर्यमाण स्वर्ण कलश
निरख कंज कल चन्द्रप्रभ
सौन्दर्य छवि पड़ती,
विवशवद्ध विमुग्ध विभोर हो जाता मन ।
रहा केवल आकुल विकश तन ।
देखा सित नील मुक्ताभ
अपलक कुशाग्र आँखों का उजला
दुग्ध धवल विहान ।
ज्ञान निकष पर संतुलित,
निर्णय ले लेने को आत्मप्रभ ।
देखा आनन्द ने ।
खुले अपलक पलक लोचन ।
बोला-
आकर्णमूल आयत मदिर छलकते दृगों में, अनगनत बार मार, भस्म हुआ होगा ।
अनगनत बार, मार ! मरा इन आँखों में ।
नयन क्षितिज पर भस्म
कुसुमायुध की काली धूल उड़ी है ।
यह अंजन की रेख नहीं सुमने ।
ये खिंची कज्जल की काली रेख नहीं ।
नील मुक्ताभ नयन क्षितिज के
सुदूर महाश्मशान में,
भस्म अनंग की धूमायित कृष्ण धूल उड़ी है ।
विभ्रमित पराजित प्रकृति की
विभ्रमित पराजित प्रकृति की
विश्रुंखिलित भूली एक कड़ी है ।
इन उज्जवल रजत राका स्नात
गंभीर गहन आँखों के हिम सैकत वन में
कोई चिंता की घटा उमड़ी है ।
स्पृहा दशानन निषेध निमित्त
अलंघ्य लक्ष्मण रेख खिंची है ।
क्यों नयन कगारों पर किंचित आकुंचन ।
किन वैचारिक विषमताओं में क्रान्ति मची है ।
प्राप्य, अप्राप्य, तृष्टि, असंतुष्टि ।
प्राप्य, अप्राप्य, तृष्टि, असंतुष्टि ।
किनके प्रति अशांति हुई है ।
किंचित अधर दबा बोली
मंद स्वर में उत्तरा-
अपूर्णता, असंतुष्टि या अप्राप्ति,
अदम्य अहम् के क्रमबद्ध आरोहित चरण हैं ।
कोई कभी न संतुष्ट है, न आप्तकाम है ।
प्रभु ! अत्यंत पीड़ाजनक है अप्राप्ति ।
अहम् में स्वयं को स्थापित कर पाना ।
अहम् की प्रक्रिया,
औचित्य अनौचित्य दोनों में
विषम विचित्र है,
किसी का मूक सत्य,
दूसरे का व्याख्यायित मतिभ्रम है देव ।
आनन्द आँखों में मुस्कुराता बोला-
सुमने ! उत्तर प्रत्युत्तर दोनों में
सुमने ! उत्तर प्रत्युत्तर दोनों में
सशक्त सक्षम हो ।
शुक कंठस्थ सत्य बोलता है,
भोगा हुआ नहीं ।
क्यों होता है ?
इस क्यों में प्रवेश कर पाना कठिन है ।
परिक्रमा कर चक्रव्यूह के कपाट
खुले हैं या बंद हैं, देखना सरल है ।
भीतर प्रवेश कर देखना कठिन है ।
हम परिणाम प्रेक्षी !
अंतरगमन दोहन के पक्षधर हैं ।
किसे कहते हैं लावण्य ।
कटु कलिश कठोर सत्य ।
कंकालों पर पंचतत्व की
चित्र विचित्र पच्चीकारी है ।
रूप कहाँ है देवि ।
मात्र छलावा है ।
ज्वालामुखी का दहकता उद्गारित लावा है ।
अंत । विनाश ही विनाश ।
किस पर हो विश्वास ।
यह चन्दन का मह-मह सुरभित वन ।
विष प्रमत्त झूलते अर्हि फण का आमन्त्रण ।
सुमने !
सुमने !
तव मीन सरस उद्दीप्त चक्षुओं में
क्यों श्मशान की उजली चीर उड़ी है ।
दूर दूर तक टीसों की चकाचौंध कौन्धों में
भग्न मूर्तियों की अश्रु सिक्त मौन भीड़ लगी है ।
मन की यह अविराम प्रज्ज्वलित तपःवेदना ।
विरक्ति की ओर अग्रसर है ।
मन की यह अविराम प्रज्ज्वलित तपःवेदना ।
विरक्ति की ओर अग्रसर है ।
तू किस संशय में अबतक मौन खड़ी है ।
अग्नि में पिघलता कंचन
एक ओर ढलक जाता है ।
नहीं । श्रमण नहीं ।
यहीं तो मन धोखा खा जाता है ।
कंचन का ध्येय प्रेय श्रेय लक्ष्य
पिघलना क्यों है ।
वह तो चित्र विचित्र बहुआयामी
रूप गहन करता है ।
मैं भी यही सोचती हूँ ।
केवल मूढ़ ही मौन बना रहता है ।
प्रज्ञा प्रतिभा उधेड़बुन करती है ।
तर्क निकष पर रगड़ खरा माल तौलती है ।
मैं भी वही करती हूँ ।
तथागत के शब्दों में
“ अपना दीपक स्वयं बन”
अक्षरशः पालन करती हूँ ।
प्रज्ञा की प्रज्ज्वलित उज्जवल दीप शिखा ।
क्यों न तुम, चारिका में संग हो लो ।
चटक चमक बोली उत्तरा- देव !
क्यों न बहते जल में खेलें,
यहीं आत्ममंथन करते रहें ।
चारिका ! किसे कहते हैं चारिका ।
चलता तो मन है ।
चलता ऊर्ध्वगामी ज्ञान है ।
मूढ़ता ही स्थिर रहती है ।
चलना शरीर का नहीं ज्ञान का होता है ।
प्रभु ने सटीक सार्थक कहा है-
“एहि पस्सहि ।
अप्पो दीपक भव ।”
इस गूढ़ता में पैठ ।
कहाँ आना जाना है ।
वही श्रमण जीवन की धूप-छाँव ।
ज़रा हम । क्यों न ।
यह आसव तव संग पी लें ।
अंत तो, सदैव सब क्षार ही होता है ।
जो क्षण मिले । उन्हें क्यों न जी लें ।
श्रमण !
चिंतन, मनन, आत्मदोहन,
अध्यात्म जगत के उपकरण हैं ।
क्रमशः तन्मयता के ये आरोहित चरण हैं ।
फिर वाह्य जगत में चक्रमण क्यों ।
देवि !
चक्रमण वस्तुतः सत्य दर्शन है ।
सृष्टि केंद्र बिंदु या निगूढ़ सत्य संकेत स्थल है ।
चारिका सत्य अनुसंधानिका
चारिका सत्य अनुसंधानिका
अटूट गमनशील अभिसारिका है ।
उसे परम तत्व या निवृत्ति पाना है ।
समस्त वृत्तियों का क्षय कर,
चिर निर्वाण अपनाना है ।
कलि- घोरतम मोह निशा
शयति अचेतन है ।
द्वापर- मैं और वह संज्ञा संनिद्ध
चैतन्य जागता है ।
त्रेता- हम, तुम, अन्य कोई भावना से
उठ रहा होता है ।
सत्य निरंतर गमनशील
संधाननिरत चलता रहता है ।
चलना या चारिका,
मन और शरीर दोनों का है ।
दोनों सामाजिक, मानसिक, भौगोलिक
रूप विपर्यय में
सत्य के नाना रूप के प्रेक्षक हैं ।
आकाश ही नहीं, ज्योतिष पथ ही नहीं,
धरा की धडकनों के भी हम मर्मज्ञ होते हैं ।
हम सत्य के परस्पर साक्षी होते हैं ।
बोली उत्तरा-
यह तो मात्र कलि है देव !
हम घोर तमस में स्वप्न चयन कर रहें हैं ।
न सुमने ! हंस कर बोला आनन्द-
हम सब नहीं,
जिस मोहनिशा में
संसारिकता निद्रामग्न रहती है,
तपी जागता है ।
साधुवाद ! हंसी उत्तरा ।
पुनः कहूँगा
उन्मुक्त पवन में सत्य परख सुमने !
प्रभु !
मेरा सत्य आहत है ।
घायल कदम असमर्थ हैं चारिका में ।
फिर यह सृष्टि !
किसी की नयनाभिराम आत्म अभिव्यंजना है ।
इसकी उपेक्षा क्यों ?
इसकी उपेक्षा क्यों ?
यह वितृष्णा क्यों ?
देवि ! सुनहली धूल ।
अदभुत रंगों के ज्योति रिंगणों से खेलती रहेगी ।
अतः घोर तमिस्रा झेलती रहेगी ।
अतः घोर तमिस्रा झेलती रहेगी ।
क्यों स्पृहाओं का मर्मान्तक विष दंश सहें ।
जब एक शाश्वत सुख शान्ति का,
हमें आमन्त्रण मिले ।
चित्र-विचित्र नाना रंगी पुष्पों में भी,
एक ही सौरभ पवन में उड़ता है ।
ये मौक्तिक अलंकरण,
ये वैभव, उत्स !
उद्रेक एक होता है ।
बोली उत्तरा- प्रभु क्या मानेगें !
प्राण दीप का एक ही अस्तित्व होता है ।
यह तो प्राणों का वैषम्य है ।
भिक्षु मर्मान्तक हंसा ।
यह मन की आँखों के
मादक जादू का प्रेक्षागृह है ।
श्रमण !
इस मोहक नश्वरता की एक घूँट ही सही,
सारा जीवन तुल जाता है ।
नीलकंठ ने केवल पान किया हलाहल ।
अमिय हलाहल दोनों के समिश्रण से
अबूझ, अवर्ण्य, परिभाष्यरहित खींचा रस,
रस मर्मज्ञ पारखी ही हृदयंगम करता है ।
अपने उन्मीलित फलक क्षितिज पर
समस्त रंग ले लेता है ।
प्रकृति की मोहकता ।
क्षणभंगुरता की चंचलता ।
उसे छोड़ कौन समझता है ।
चकोर ह्रदय में तीखे चुभते अगन शूल लिए विकल,
हर साँसों में, विरह-ताप जहर पिए ।
स्मृति, धूमायित दिन रात
हर साँसों में, विरह-ताप जहर पिए ।
स्मृति, धूमायित दिन रात
जल रहे नयन नीर दिए ।
नितांत, निसंग, नैराश्य अंध गह्वर में,
कोई, कबतक, क्यों किस तरह जिए ।
तिक्त काषाय, कटु जीवन अनुभव लिए ।
फिर भी जी रही हूँ मैं
नीर क्षीर-मंथन-निष्कर्ष लिए ।
पत्थर की निरावृत चट्टानों पर,
बिना थमे, चलते-चलते,
कहीं तो छाया चाहिए ।
शुष्क हो गए समस्त झरित उत्स,
कभी तो एक घूँट जल चाहिए ।
दरकते, सूखते, अधरों को ।
चातक, चकोर, चेतना के प्रति,
यह अवहेलना, पर्यालोचना तर्कसंगत नहीं ।
किंचित, सस्मित मुखरित आनन्द-
सुमने ! मोहान्धता, आकर्षण, सानिध्य,
किंचित, सस्मित मुखरित आनन्द-
सुमने ! मोहान्धता, आकर्षण, सानिध्य,
कब सत्य प्रेम ने स्वीकारा,
इनका आतिथ्य । आकर्षण । सानिध्य ।
इनका आतिथ्य । आकर्षण । सानिध्य ।
भौतिक विकृतियाँ हैं ।
प्रेम ।
सत्य भासित मात्र आत्म उन्नयन है ।
समस्त नाते रिश्ते,
संकीर्ण विभाजन विलीन हो जाते हैं ।
जब प्रेम का प्राबल्य, असीम जल प्लावन,
इन्हें समेट ले जाते हैं ।
शारीरिक चेष्टाएँ, निश्चेष्ट हो आती हैं ।
विछोह-मिलन की संज्ञाएँ खो जाती हैं ।
यह तो आत्मा की ऊर्ध्वगमन की यात्रा है ।
गहन अनुभूतियाँ, इसकी सोपानें ।
यह अपना-पराया क्या जाने ।
एक ही पीयूष स्रोत समग्र रूप में प्रवाहित है ।
नहीं कम वेश की मात्रा है ।
नहीं कम वेश की मात्रा है ।
अतः देवि !
समष्टि से व्यष्टि में क्यों सिमटें ।
हम सबके हैं सबके ही रहें ।
पार्वती ने निज शरीर अनुलेपन से
गणेश को बनाया ।
वह । ग्यारह गण का ईश कहलाया ।
हम भी संकीर्ण प्रकृति का अनुलेपन त्याग
आगे बढ़ें ।
क्यों न सत्य चिंतन प्रकाश में रहें ।
तर्क उद्दांत विचारों का मंगलमय निकष निवेश
किन्हीं विचारपथ से आता है ।
किन्हीं विचारपथ से आता है ।
सत्य प्रकाश उचित मार्ग दर्शन कराता है ।
धर्म कोई वस्तु नहीं
नहीं किसी का अधिकृत क्षेत्र ।
धर्म वही जिसे देखे अपारदर्शित निस्पृह नेत्र ।
क्षण उत्तरे ने आपाद देखा आनन्द को ।
क्षण उत्तरे ने आपाद देखा आनन्द को ।
पिघले स्वर्ण सा उद्दीप्त दमकता
वह अग्निदेव ।
बोली सहसा- श्रमण !
यह प्रखर आत्मा का प्रज्ज्वलित ज्वाल
कहाँ लेकर जाओगे ।
अंततः इस प्रखर प्रचंड तेज राशि को
रोहिणी में भी नहीं समा पावोगे ।
जल जायेगी वह भी । भंते !
तेरे पग हो रहे गतिमान ।
सोचा नहीं ।
यह मौन स्वीकृति रही कितनी मृदुल ।
किन्तु यह यौवन । यह अभेद सौन्दर्य ।
मात्र ऊर्ज्वसित प्रकृति का ही प्रतिशोध ।
पूर्ण रजतेंदु निरख सागर का आकुल क्षोभ ।
हंसा आनन्द ।
दिखी मौक्तिक सी दन्त पंक्तियाँ अधरों में । नारी थम !
देखा ।
ज्वार उपशय पश्चात,
सागर का अंग-अंग टूट जाना ।
कहते इसे विनष्ट या मान परिवर्तन हो जाना ।
मन अपार में होता एकाकार,
मन अपार में होता एकाकार,
ये ज्वार विच्छेद करने के हैं अकिंचन व्यापार ।
सत्य चाहता कुछ ।
सत्य चाहता कुछ ।
ह्रदय मांगता कुछ ।
चला आ रहा प्रकृति का तांडव नर्तन,
कहीं विनाश कहीं सृजन ।
अंततः सब हैं एक तत्व के ही परिवर्तन ।
मन वेगवान अंध अनूप
बिन चंचलता ये नितांत विवश
कहाँ करता धराशायी । इसे समझ ।
यह कान्चनेय कमनीय वपु,
क्या तेरा अपना है ।
पंचतत्वों का यह मोहक मेला है ।
इन सबके बीच भी नितांत अकेला है ।
वह सबसे कटा । कुछ खोजता रहता ।
संभवतः यही सोचता रहता,
को अहम् । यही आत्म गवेषणा ।
परा चेतना ।
उत्तरा – श्रमण !
फूल इस धरा पर खिलता है ।
जब पंखुरियां विकसित होती हैं,
सौरभ पवन में उड़ता है ।
अन्यथा उन्हें मानता कौन ।
कारण बिना कार्य नहीं होता ।
आत्मा आवासरहित नहीं रहता ।
श्रमण ! यह मेरा सौन्दर्य ।
छाया पड़ते निर्झरनी का जल सिहर जाता है ।
हंसा आनन्द- सौन्दर्य !
किसे कहते हैं सुमने !
वास्तविक शाश्वत सौन्दर्य
हंसा आनन्द- सौन्दर्य !
किसे कहते हैं सुमने !
वास्तविक शाश्वत सौन्दर्य
प्रज्ञा की उज्जवल धवल निर्धूम तुला पर
निष्कर्ष निवेदित,
निर्णीत होता है ।
वह मानस तप का चरम,
सौन्दर्य मर्म होता है ।
रूप ।
पर्थिवकता में नहीं,
आत्म सहस्रार मरन्द सुरभित
रसः-आप्लावित होता है ।
मैं तो उसे ही सौन्दर्य कहता हूँ ।
यह सौन्दर्य ।
क्षणभंगुरता का सौन्दर्य ।
अत्यंत मादक आसव,
सागर बुद-बुद, मलिन फेन है ।
मात्र उतरोत्तर,
आत्म उन्नयन के प्रयास हैं ।
अतः देवि !
जो जान गया वह
इस रूप ज्वाल इंद्रजाल में कहाँ ठहर पायेगा ।
हंसी उत्तरा-
हंसी उत्तरा-
क्षण भर के आसव में क्या मादकता नहीं है ।
यह मादकता नहीं सुमने ।
अवसाद आवरण आवेष्ठित
पीड़ित मोहान्ध मूढ़ता है देवि ।
मानस तप में इनका प्रवेश नहीं ।
कुम्भकार,
अनवरत प्रतिमाएं निर्मित करता है ।
अंततः मृण तो मृण ही है ।
निज आयत लोचनों में हंसती
सस्मित बोली उत्तरा-
और जो उनमें अप्रतिम
अलभ्य सौन्दर्य छलकता है ।
आनन्द किंचित मुस्कुराया ।
उसे निरख बोला-
उसमें प्रतिमा को कुछ लेना देना नहीं ।
वह तो कुम्भकार का
आत्म उन्नयन सतत ऊर्ध्वप्रयासी
आत्म सौन्दर्य झलकता है ।
मृण तो इस प्रयास में
माणिक, नीलम, हीरा बनता है ।
जैसा तप वैसा फल ।
पुनः कहूँगा :
मिटटी में सब मिटटी हो जाते हैं ।
मिटटी का मूल्यांकन क्या ।
यह सब मात्र प्रकृति रंगनि का विप्लव है ।
शाश्वत अमिय से इतर
शाश्वत अमिय से इतर
कोई आसव क्या श्रेयस्कर है सुमने ?
उतर ! उतर !
जीवन की रहस्यमय पहेलियों में ।
देख कितना मनोरम है ।
नवल अमल सरिस रस के सरोवर में
आत्मसात होने में ।
कहा आनन्द ने – चल सुमने चल ।
व्यर्थ मोह बेड़ियाँ डाली हैं ।
अति सुखद शीतल प्रभु देशना छाया ।
मोह रज्जू की रात्रियाँ अति काली हैं ।
वहां सभी अपने हैं ।
हम सदा साथ साथ चलते है ।
यह सानिध्य आजीवन का है ।
एक दूसरे के ही नहीं
सबके सुख दुःख में रहते हैं ।
उसे देख बोली उत्तरे- श्रमण !
बात कहीं और अटकी है ।
अभी अभी तो ऋतुरंग की
नव सद्द विकसित कलियाँ खिली हैं ।
प्रणय और सानिध्य ।
घोर अंतर है ।
एक में जीवन साथ चलकर
कदम मिलाकर भी
हम कभी नहीं मिलते हैं
एक दूसरे में ।
कहकर गहरी सांस लिया उसने ।
निष्काम, वासनारहित, आकर्षणरहित
जो शारीरिक सानिध्य अपेक्षित नहीं,
वह अनाम अबूझ अलौकिक
सत्य प्रेम कभी नहीं मिलता ।
बस । उसकी छाया में हम जीते हैं ।
जिसे किंचित भी आभास मिला इसका ।
वह तो कस्तूरी मृग बन वन-वन भटका ।
अतः दोनों ही,
इस सन्दर्भ में व्यर्थ है मेरे लिए ।
प्रेम और सानिध्य में,
अंतर होता ही तो है ।
एक सतही,
दूसरा अतल तल में लीन होता है ।
जहाँ अपार गगनचुम्बी सागर ।
कौन कुव्यथा में डुबकी लेता है ।
अन्य जिन्हें किंचित भी आभास हो चुका है ।
अज्ञात वेदना में विहित
अज्ञात वेदना में विहित
पीड़ित स्वांसें लेते हैं ।
कवि, चित्रकार, मूर्तिकार या
सन्यस्त हो जाते हैं ।
यह प्रेम ।
शांत नहीं रहने देता ।
आश्चर्य किसी साकार
सांसारिक के प्रति भी नहीं होता ।
जो इस जग में कहीं अनूप ।
वह उसमें ही जीता है ।
अछूता कौमार्य ही
निर्वाण का श्रृंगार है ।
यद्वपि जीवन की यात्रा सदा अधूरी है ।
परम ज्योति से माया की,
अति दूरी है ।
फिर भी हर जन्म एक यात्रा है ।
हर जन्म के पड़ाव में थम जाना,
अनुभूतियों की अपंगता कोरी है ।
वेद वेदान्त । कितने अशांत ।
इनमें भी गवेषणाओं की
अंतर यात्रा की कहानी है ।
जिसने जैसा देखा, पाया, समझा, जाना ।
ज्ञानयज्ञ, भक्तियोग, कर्मयोग,
ज्ञानयज्ञ, भक्तियोग, कर्मयोग,
सबके माध्यम से कह डाला ।
प्रभु के पास तो बस एक ही । । । ।
सर्वधर्म परितज्य मम एकम शरणम ब्रज ।
यही तो तथागत ने भी कहा ।
कहा आनन्द ने-
इतना जान,
फिर तेरे कदम चंचल क्यों हैं ।
श्रमण ! मेरा स्वतः अपना निर्णय है ।
यह जीवन अपने ही विचारों से बना है ।
नहीं कभी, कहीं किसी से बंधी हूँ ।
अतः इसीलिये मैं भरी भीड़ में
नितांत अकेली हूँ ।
मन ही मन अंतरतम तक झेली हूँ ।
मेरी अपनी नीर क्षीर दृष्टि ।
तुला, समय निकष देखती
कितना खरा सोना है ।
कहाँ समय कितना झुका या ऊना है ।
कहा आनन्द ने-
अतः सत्यनिष्ठ दृढ़संकल्प आत्मनिर्भर
प्रलोभनों में नहीं पड़ते ।
उसे निरख । चौंकी हतप्रभ उत्तरे ।
नहीं । नहीं । ऐसा भी नहीं ।
मननशीलता अंधी नहीं होती
और भावुकता प्रज्ञा से सिहरी रहती ।
इसीलिए श्रमण !
चरण अचानक नहीं बढ़ते ।
भावप्रणय ह्रदय,
यह भावुकता में नहीं बहते ।
शान्ति मन की एक चेतना है ।
उदान्त आत्मविचारों का
संकलन आंकलन है वह ।
मंदिर, मंदर, गह्वर, कन्दरा, उपत्यका,
चैत्यों में नहीं रहता ।
उसे खोजना भी नहीं होता ।
मात्र आत्मप्रयत्न है ।
सागर या पर्वत,
रत्नों के निमित्त कहीं नहीं जाते ।
वे तो उनमें ही पलते हैं ।
श्रमण !
जननी जन्मभूमि स्वर्गादपि गरीयसी ।
व्यर्थ नहीं कहा है ।
सबसे प्राचीन यहाँ के सांख्य दर्शन
।
कहाँ पनपे ऐसे अलभ्य फल ।
कुछ तेरे, कुछ मेरे,
कुछ विश्व भुवन के हाथों में,
ये अलभ्य अमर फल ।
जिसने जैसा रसास्वादन किया ।
मस्तिष्क तो उसी से आप्लावित
सरस पल्लवित रहित ।
जिस मंदिर देवालय में इसे रखो,
जो भी नाम इसे दे दो ।
वे ही प्राचीन आत्म दर्शन ।
एक पीड़ा की खोज ।
एक वैचारिक सोच ।
ये स्थिरता ।
यह ठहराव कहाँ है ।
इस पूर्णता का कोई पर्याय कहाँ है ।
व्यक्ति नहीं, परिवेश बदलते हैं ।
भौगोलिक उतार-चढ़ाव तो
आध्यात्मिक, शाब्दिक, विन्यास बदलते हैं ।
पर सबकी एक भाषा है ।
कहाँ दुराशा है । श्रमण !
इसी धरा पर सबके चरण पड़े हैं ।
नहीं कोई हवा में चले हैं ।
इसी धरती की धड़कन ने
जो कुछ कहा है ।
एक मननशील स्वर गान,
सभी ने अवगाहन किया है ।
कितने भी विचार आये,
आये और गए ।
वे पवन में उड़कर नहीं आये ।
आत्ममंथन में मंथित हो,
इन्ही दर्शनों की मथनी से घुटकर,
माखन से उतर आये हैं ।
कृष्ण के बाल सुलभ हाथों में,
कठिन कर्म-कंडों के दुर्गम जंजालों में,
जिसने जैसे इसे लिया ।
ये अति सरल, अति कठिन कहलाया है ।
अतः श्रमण !
यही तो ले आई हूँ ।
मेरे तथागत भी इसी पथ से चलते चलते
शीतल हो पाए हैं ।
प्रस्थान को व्यग्र न हो श्रमण ।
अभी बातों ने निज विश्राम नहीं लिया ।
भावाकुल हृदज्वारों ने विश्राम नहीं लिया ।
हम । एक पथ के पथिक ।
कितना चलें । कहाँ थमें । कहाँ बढ़ेंगे ।
इस पर भी विचार नहीं किया ।
सस्मित बोला श्रमण-
तर्क ! शाखा प्रशाखाओं में उलझता है ।
तर्क ! अपूर्णता का विप्लव है ।
इसमें पारदशिता नहीं ।
इसमें अंत नहीं होता ।
आस्था में सदा एकीकृत समर्पण है ।
अहाँ द्वन्द्व नहीं होता ।
इसमें कुछ शेष नहीं रहता ।
उस परम सत्य स्वयंप्रभ के आगे
टूटते हैं सभी तर्क-वितर्क के संकुलित
उलझते धागे ।
देवि !
मेरा मार्ग सरल,
तव गति विरल है ।
मैं ज्ञान दीप का तन्मय शलभ ।
तू दीपक के प्रति भी संशयशील है ।
मेरी गति अवरोधरहित ।
तू प्रतिपाग में तर्कमयी है ।
अतः सुमने ! प्रसन्नचित भव !
मुझे आज्ञा दे ।
आये हो तो यों न जाओ श्रमण ।
पल थमो ।
बसंत भी जब आता है,
समयावधि तक थमता है ।
मैंने ।
सौन्दर्य सुधाकर पूर्ण चन्द्र से
आँख मिचौली खेली ।
बार बार उठती गिरती लहरों को झेला ।
किस प्रकार सुधाकर स्नात मेरा मुख
बंद हुई मधुरस डूबी आँखों ने
विराट पुरुष को प्रत्यक्ष अवगाहन किया ।
वह ।
वह मैं नहीं थी ।
जो ज्वारों से खेल रही थी ।
वह विराट पुरुष और मैं !
निपट निसंग निर्द्वंद्व
परस्पर एक दूसर को निरख रहे थे ।
वह गौरव गरिमा का चरम ।
मैं पद रज थी आद्र नर्म ।
पर मैंने देखा ।
वहां भी सौन्दर्य ही माध्यम था ।
आपने कहा-
निष्प्राण प्रकृति सबसे बड़ा असत्य
शिव स्कंध पर था ।
वह भी नहीं सत्य, श्रमण !
मिथ्या स्वयं में पूर्ण सत्य है ।
नहीं तो अकाल के स्कंध पर यों नहीं रहता ।
केवल एक सुदर्शन चक्र
केवल एक सुदर्शन चक्र
जिसने टुकड़े टुकड़े किया ।
फिर भी उस असत्य को नष्ट नहीं किया ।
एक सौ आठ पावन तीर्थों का
मोक्ष निर्वाण स्थल बना दिया ।
वह ।
असत्य का ही स्मृति चिन्ह,
रूप विपर्यय नहीं था ?
एक ही तत्व ।
सत्य, असत्य का परिवेश बदल कर आता है ।
जिसकी जैसी प्रकृति, उसे उसी भांति पाता है ।
बोला आनन्द-
जिसकी जैसी प्रकृति, उसे उसी भांति पाता है ।
बोला आनन्द-
इतना सब गहन जान कहाँ थमी हो ।
क्यों नहीं बुद्ध विहार या चैत्य में चलती ।
तुम्हारे निमित्त कितना सरल है,
अकिंचन स्पृहाओं से विलग हो जाना ।
जिसे सत्याभास हो गया,
शेष क्या रहा उसे पाना ।
विषाद स्वर में बोली उत्तरे-
बहुत मोहक है पंचभूतों का रूप विपर्यय ।
श्रमण ! यह क्षण नहीं लौटने वाला ।
श्रमण ! यह क्षण नहीं लौटने वाला ।
चतुर्दिक मधुरस बरस रहा मदमस्त ।
बीता लौट कर नहीं आता ।
वर्तमान कहीं नहीं जाता ।
कहा आनन्द ने- सुमने !
मैं मोह भंग कर चुका ।
अभंग निसंग हो चुका ।
तू भी वही कर जो कहता हूँ ।
अन्यथा अब मैं चलता हूँ ।
चित थम श्रमण !
कि जाने को तो सब जाते हैं,
किन्तु पदचिन्ह गहरे पड़े रह जाते हैं ।
यही जीवन है ।
सत्य किसे कहते हैं ।
हर पल ज्वालमुखी की जलती ज्वाला में
मौन पड़े जलते हैं ।
कौन नहीं जाता ।
फिर ये पल क्यों बने ठहरने को ।
सांस लेने को ।
यदि विनाश ही जीवन है ।
महत्व ही क्या रहा इतना प्रपंच करवाने को ।
क्यों वंशीधर ने महारंग के महारास रचे ।
क्यों वंशीधर ने महारंग के महारास रचे ।
कारण क्या बार बार धरा पर
जीव को तड़पाने को,
छाया नाटक का उसे प्यासा मृग बनाने को ।
श्रमण ! सब मन का खेल है ।
श्रमण ! सब मन का खेल है ।
जब जैसा पाया है,
उसे वैसा ही मनः अनुकूल बना स्वीकार किया ।
चित भी उसका पट्ट भी उसका ।
चित भी उसका पट्ट भी उसका ।
क्योंकि निर्णय सदा अकाल के हाथों में ।
जहां शान्ति, संतोष और सुख ।
वही सत्य है ।
आसव और अमिय दोनों सत्य ।
जो उसे परितोष दे जाए ।
जीव तो बलि का अज
जीवन बलिवेदी तक कहाँ जाए ।
पड़े ग्रीवा पर खड्ग या पूजा के माल्य ।
वह तो दोनों में ही रह जाए ।
भणे ! पूछ रही में आपसे ।
किस सुख की तलाश है ।
मुंडित केश, भूलुंठित परिवेश,
शुष्क अधर, चरणों में छालें हैं ।
किस सुख को पाने में इतने पड़े कसाले हैं ।
देखो जीवन ! एक दिवस अंत आना है ।
क्यों न हंसकर, महोत्सव मनाकर,
हम हँसते हँसते चल दें ।
बात रही अग्नि वेदी और भभूति की ।
वह तो देवता का अहम् भर
केवल उच्छ्रिष्ट मात्र ही पाना है ।
वहां । न वरदान । न अभिशाप ।
वह तो परम शांत निस्पृह है ।
हर सुख की परिणिति दुःख ही क्यों है ।
जो शूल चुभ रहा चरणों में,
उसकी निष्कृति क्या है ।
धुंआ ही धुंआ तो है । सुमने !
बड़ी चमक है क्षणभंगुरता में ।
यह किसी जली फुलझड़ी की
राख ही राख तो है ।
क्षारों से नवनिर्माण नहीं होता ।
तत्क्षण रोका उसे उत्तरा ने- श्रमण !
ये समस्त प्राकृतिक उत्सव,
राख से ही अंकुरित, मुखरित, सस्मित हैं ।
सब अविनश्वरता- नश्वरता का,
मात्र रूप विपर्यय ही तो है ।
हम । तुम । समय के मुखरित स्वर हैं ।
देखो श्रमण !
राख से राख ।
राख से क्या पाना है ।
सुमने !
माया !
सौरभ की कुसुमित कोमल कंचन काया ।
जो मानकर भी नहीं समझता,
उसे समझा नहीं सकता ।
तू केवल प्रकृति है ।
यह विश्व दर्पण ।
तू स्वयं को निरखती है ।
अनादि काल से सजती रही सृष्टि ।
रूप विपर्यय पारंगता प्रकृति,
उसका माध्यम है ।
हर बार उड़े रंग ।
हर बार जीर्ण वसना अकिंचना हुई ।
शेष रहा मात्र एक कंकाल,
राख हुआ रूप ज्वाल ।
बार-बार वह ।
हारी ।
उसमें रंग मज्जा भरती रही ।
यह नदी, नद, पर्वत, सागर, ऋतुएं
उसके अंग प्रत्यंग ।
जिन्हें सजाती संवारती रही ।
हंसी उत्तरा ।
उज्जवल दन्त पंक्तियाँ कुंद अवदात भरे ।
श्रमण !
तांडव-लास तो धुप-छाँव ।
कुतूहल ।
जिज्ञासा का पड़ाव ।
मन तो इनमें रचा बसा है,
लालसारहित कहाँ है ।
विराग । क्षणिक श्मशान का वैराग्य है ।
श्रमण !
जन्म जन्म के फेरे यहीं लग जाते हैं ।
श्रमण !
जन्म जन्म के फेरे यहीं लग जाते हैं ।
अप्राप्ति के प्रति अटूट पीड़ित लगाव ।
क्यों मन ।
जानकर भी मिथ्या छलनाओं में है पलता ।
यह मन की दुर्बलता ।
वह उसमें ही रहता ।
देवि !
प्रकाश में अन्धकार नहीं रहता ।
किन्तु मन ।
पलकें बंद कर केवल सपने बुनता ।
यही तो एषणाओं का चक्रव्यूह है ।
मन उसका चक्रांग । दत्यूद्ध है ।
मंद हंसी उत्तरा ।
देव !
बंद पलकों के सपने बड़े मादक होते हैं ।
बंद पलकें । जग से विलग कर देती हैं ।
और सपने ।
कहीं दूर ले जाते हैं ।
कांटे । फूलों के सपने देखते हैं ।
दूर्वा पर चलने वाले मरूभूमि नहीं जानते ।
समाधिस्थ ।
समाधिस्थ ।
सन्यस्त क्या पलकें बंद कर
तुरीयावस्था में नहीं जाते ?
एक अलौकिक अवर्ण्य आनन्द ।
आत्मा का स्वप्न नहीं है ?
सत्य शोध का ज्ञान क्या स्वप्न नहीं है ।
प्रभु !
लौकिक और अलौकिक स्वप्न साथ चलते हैं ।
सत्य असत्य दोनों
सत्य असत्य दोनों
हाथों में हाथ दिए बढ़ते हैं ।
दुराव कहाँ है ।
सत्य असत्य परस्पर दर्पण हैं ।
एक दूसरे को आंकते स्वयं को तौलते हैं ।
दोनों एक दूसरे के परस्पर विरोधी उत्तर हैं ।
सुमने ! सत्य से भागता मन ।
सुमने ! सत्य से भागता मन ।
इसी प्रकार स्वयं को समझाता है ।
परिणाम प्रतिफल जानते हुए भी
अनजान बना रहता है ।
कंचन मृग का लोभ भी
सत्य-शर-विद्ध
निष्प्राण प्रतीक मृग नहीं देखता ।
हृद-मंदिर की सात्विक आस्था का हरण होता है ।
जीवन ।
जीवन ।
आहत पीड़ित, निसंग क्षरण होता है ।
साक्ष्य प्रत्यक्ष है ।
जब होता है सत्य-संध
नित्य त्याग अनित्य का वरण ।
ये अनित्य मोहक कनक घट सागर ।
जो शाश्वत है, नित्य है ।
निरख ।
यह निरंतर, आन्वें सी सुलगती,
अज्ञात वेदना, प्राणों की आकुलता ।
अज्ञात वेदना, प्राणों की आकुलता ।
निषेध । चेतावनी । संकेत है ।
वर्जना है ।
सुसुप्त अचेतन अवर्ण्य आत्मा की ।
परे हट । परे हट । मन मधुकर ।
किन विषःरस पूरित स्पृहा प्रसूनों में है गिरता ।
अमिय तो कहीं अन्यत्र है झरता ।
अमिय तो कहीं अन्यत्र है झरता ।
इसी रस के निमित्त ।
एकनिष्ठ एकाग्र ।
योगी सत्यार्थी ।
उसे मादक आँखों से तौलती ।
आँखों ही आँखों में हंसती ।
सस्मित बोली कान्चनेय-
प्राची से उदित होते भैरव वाल्वरुण ।
न बता नश्वरता को इतना दारूण करुण ।
अबतक तो अविनश्वरता को
एकमात्र चुनौती सुदृढ़ टक्कर लेती रही है ।
बोला श्रमण-
निश्चय ही । हर बार । हर बार ।
कंकाल होते हैं ।
वह तो चिरंतन शाश्वत,
सदा नवीन अम्लान है ।
घुँघरू । सदा लास के टूटे छिटके हैं ।
तांडव का रूद्राक्ष
सदा अडिग अटल अचल रहे हैं ।
प्रकृति विनाश के अंक पर सजी है ।
चिरंतन को सुहाग रात का
सन्नित पर्यक अछूता रहा है ।
कौन जाएगा ।
निष्कंप, निसंग, निरावृत ।
सब माया के पंख लपेटे खड़े हैं ।
कोई भद्रा कपिलायनी । महाकश्यप या,
आप्तकाम तथागत नहीं ।
सत्य से अवगत नहीं ।
जाज्वलमान, ज्वलंत, सवयमप्रभ,
सत्यपरक, अप्रतिम, अनुपम, अप्रछन्न
प्रभु देशना ।
परम सुगम आत्मशोध गवेषणा ।
जो उन्होंने कहा वही मैं
अनुभूतिगम्य सुगम,
परीक्षित, पारिक्षित कह्ता हूँ ।
यहाँ न जातिगत, वर्णगत, धर्मगत
कोई विभेद है ।
यह एकछत्र व्यापक विकीर्ण
सर्वधर्म विचार निवेदित आमंत्रित
वसुधैव कुटुम्बकम है ।
मैं । प्रभु का भ्राता । राजवंश का ।
मेरे जैसे ने नापित की चरण धोये हैं ।
यहाँ कोई उंच-नीच का भेद नहीं ।
कर्तव्य, कर्म निष्ठा के प्रति खेद नहीं ।
देवि ।
यह समस्त मानव सृष्टि,
किसी एक अणु के सहस्रांश का सृजन है ।
समस्त भेद तो
कृत्रिमता स्वार्थपरता के निवेश है ।
अधरों पर स्व्यंग सस्मित रेखा कौंधी, विद्युतप्रभ चंद्रलेखा ।
अपने ही गिरते रक्तबूंदों से निर्मित होता ।
संभवतः यही रक्तबीज दानव की
मूलन प्रक्रिया है ।
देवत्व, असुरत्व का मूल एक है ।
दो विभिन्न शाखाओं में उनकी अस्मिता है ।
कहकर श्रमण ने उत्तरा की ओर देखा ।
कहकर श्रमण ने उत्तरा की ओर देखा ।
हंसी उत्तरा- यही तो ! यही तो !
जन्म जन्म की अनाहत रेखा ।
श्रमण ! जीवन मरण । अटल सत्य ।
किसने मृत्यु पटल उठाकर देखा ।
मारा गया अभिमन्यु चक्रव्यूह के बंद द्वार पर ।
पर मन ।
पर मन ।
कितना जीवट जिद्दी है ।
वह अहर्निशी बंद द्वारों पर है शीश पटकता ।
कैसा अबूझ आकर्षण । कैसी मोहान्धता है ।
कैसा अबूझ आकर्षण । कैसी मोहान्धता है ।
श्रमण ! हर बार जले जीर्ण वसन ।
फिर भी जीव । करता रहा,
जन्म-मरण प्रसूनों के रस आस्वादन ।
खुल रहे ज्वाल सहस्र पात्र
पात पर पात पात ।
रस लोभी षट्पद ।
आमरण कैदी बंद पटल में ।
यह क्षणप्रभ तुरंग अनंग का उत्सव ।
रंग खेलती ईषणाओं का विपत्व ।
कितनी मोहकता है ।
गिरा है मन जलती लपटों में,
ज्ञात है उसे अंत ।
फिर भी कैसी मोहान्धता है ।
प्रतारक घातक के सम्मुख ।
नत शीत झुका लेने की विवशता है ।
गंभीर गाढ़े स्वर में बोली उत्तरा- भणे !
आपने सत्य का दर्शन कर लिया ?
उसके आभास में चल रहा हूँ ।
जबतक परितृप्ति नहीं होगी,
चक्रमण निरंतर और शाश्वत रहेगा ।
उत्तरा ने कहा- अवश्य !
सत्य शाश्वत चरेवेति चरेवेति ।
यही है नेति नेति ।
प्रभु- आपने अहम् को विजित कर लिया है ।
आनन्द- नहीं तो !
आनन्द- नहीं तो !
उत्तरा – वैश्विक चेतना ही
किसी के अहम् की छाया है ।
ॐ का गुंजायमान ही
अहम् का बीजारोपण है ।
कि मैं हूँ, रहूँगा, रहता आया हूँ ।
हम इसी की छाया में पले,
इनसे परे तो नहीं हो सकते श्रमण ।
भले ही यह आत्म व्यंजना,
आत्म निवेदन ही हो ।
यही लास के क्वणित घुँघरू हैं ।
महाश्मशान और उमा का खेल शाश्वत है ।
कहा आनन्द ने-
जब जब नष्ट हुई प्रकृति,
मुंडमाल अमरनाथ कम्बुकंठ आया ।
हंसी उत्तरा- तो विजित कौन ?
क्यों भस्म प्रभु को भाया ?
कहा भिक्षु ने किंचित विहंस कर-
“ भस्म अपारदर्शी अभेद्द, अछेद,
अक्षय कवच है देवि ।
विराग का द्दयोतक भी ।
क्षण उसे निरख बोला आनन्द-
यह । सौन्दर्य हठीला ।
ज्ञान दिशाविहीन ।
अरुणोदय का उदित अजस्र
मणि बिखेरता स्वर्ण कलश
हो जाय न यों ही रिक्त दीन ।
यह सृष्टि । यह प्रकृति ।
नश्वरता का सबल हस्ताक्षर है ।
वह कितनी क्षणभंगुर,
इसी में स्पष्ट मुखर भास्वर है । देवि !
मुट्ठी भर धूल से मोह क्यों ?
आँखों के प्रज्ञा के प्रज्ज्वलित लव ।
पल पल नवल विचारों का उद्भव ।
डह्डहे भावों का उत्सव ।
सुसंस्कृत सुनियोजित तर्क विप्लव ।
सद्प्रयोग करो सुमने ।
उत्तरा-
अमिय हलाहल सहोदर हैं ।
किन्तु निष्पक्ष, स्पष्ट उचित निर्णय हो देव ।
आनन्द – हीरा ! मणि श्रेष्ठ, मुकुट की शोभा है ।
पैरों में बांध हीरक शिन्जनी ही रह जाता है ।
प्रकाश ।
आनन्द – हीरा ! मणि श्रेष्ठ, मुकुट की शोभा है ।
पैरों में बांध हीरक शिन्जनी ही रह जाता है ।
प्रकाश ।
अपना प्रकाश स्वयं नहीं पीता, देवि ।
ओ वैशिष्ठ ज्ञान सुरभि ।
चल । विपशा सरि तट चल ।
इन जकड़े पाशों से निकल ।
निरख ज्योतिर्मय
शुभ्र ज्ञान गगन निरभ्र निष्कल ।
यह ज्ञान सहस्रदल अक्षुण्ण रख ।
मत एक ही धुन रख ।
गुन ।
अपने अन्तःनिहित विराट रूप को गुन ।
चिर अम्लान सुमन ही चुन ।
प्रकृति नहीं, पुरुष सत्य है ।
इसे सोचना कभी ।
मत निज ज्ञान गंगा को
बह जाने दे अन्यत्र कहीं ।
सोपानों के शीर्ष अवस्थित दिव्य प्रभा ।
“अप्पो दीपक भव”
तेरे में पूर्णतः है उत्तरा ।
अग्रसर रहो आत्म अन्वेषण उन्नयन में ।
जाते जाते यह मेरा आशीर्वचन रहा ।
श्रमण के जाने का उपक्रम निरख,
उत्तरे ने अंग से लिपटा सुन्दर सुरभित
उपसंग चरणों पर फेंका ।
प्रभु ! इसे पावड़े बनाएं ।
करें न अनदेखा ।
चौंक हटा परे आनन्द ।
क्षण उत्तरे को देख, बोला- शुभे !
यह तव सौन्दर्य सौष्ठव चरम,
परस्पर प्रतिभाषित दर्पण,
जानता, अतल आलोड़ित
सिहरित प्राणोंद्रेक मर्म ।
कुचल नहीं पाऊंगा । शुभे !
पुष्प देवशीर्ष शोभा,
पदतल पड़ नहीं सकता ।
क्या पुष्प । क्या अग्नि ।
तप में तपना ही तपना है ।
वह विकल्प प्रेक्षी नहीं ।
अग्नि ऊर्ध्वमुखी है ।
उसमें अधोगति नहीं ।
हंसी उत्तरे-
प्रवाल किंशुक अधर द्वय से मोती झर पड़े ।
बोली- ती सूर्य !
बोली- ती सूर्य !
सस्मित बोला श्रमण-
जाज्वल्यमान सूर्य अडिग है ।
उदय अस्त की पीड़ा तो स्थान विशेष झेलता है ।
चक्रमण और परिक्रमा में
चक्रमण और परिक्रमा में
स्थान विशेष प्रभावित होता है ।
सत्य परम जाज्वल्यमान ।
सृष्टि-शलभ ही जलता है ।
अब कब मिलेंगे प्रभु ।
अब नहीं ।
मिलन मात्र सत्य का होता है देवि ।
धरा गगन कभी नही मिलते ।
केवल भ्रम पलता है ।
क्षितिज का खुला प्यासा अधर,
वह भी सत्य सीकर अमिय को तरसता है ।
विछोह भयभीत घबड़ाकर
विछोह भयभीत घबड़ाकर
त्रस्त उत्तरा ने की आँखें बंद ।
जब आँखे खुली
टूट चुके थे सभी मोहक छंद ।
सोचा उपसंग उठा
श्रमण के चरण धूलि लेकर सर आँखों पर
शीतल मलयज अनुलेपन कर लू ।
किन्तु यह क्या ! कहीं चरण चिन्ह नहीं ।
पीड़ित अश्रु विगलित बोली उत्तरा-
आह ! प्रभु ! चरण चिन्ह भी नहीं छोड़ा ।
कितनी सहजता से आपने निज अहम् है तोड़ा ।
कहाँ यह बौना सौन्दर्य,
कहाँ यह बौना सौन्दर्य,
कहाँ वह शशांक गगन का ।
कैसा हास्यास्पद भ्रम था यह मन का ।
धरा धूलि भी छू न सकी जिसके चरण ।
मूढ़ मन कर रहा था उसे ही वरण ।
उपसंग उठा मौन खड़ी रही उत्तरा ।
आयत अपलक लोचनों से मौक्तिक अश्रु ढला ।
तेरे तप धूल धूसरित पथ अश्रु सिंचित हों ।
तेरे तप धूल धूसरित पथ अश्रु सिंचित हों ।
आह !
ज्ञान और ह्रदय का कब मेल रहा ।
वह नीरस रूक्ष विराग ।
यह कुसुमित अनुराग ज्वार ।
मेरे उत्तर प्रत्युत्तर को कर
रहा था निरस्त्र उसका सस्मित रक्षा कवच ।
कह रहा था बार बार सुमने
बच , अब भी बच ।
मत जीवन के ताने बाने,
बच , अब भी बच ।
मत जीवन के ताने बाने,
कल्पना, कुवलय, केशर रंजित रच ।
मैं भाव विह्वल विभोर देवयानी ।
वह दृढ़ संकल्पी अव्यय अचल कच ।
निर्धूम अकूत अवर्ण्य अंतर मंदर अगन
निदारूण निर्वहन यह निर्मम कटु सच ।
निर्मोही नियति नटी रचित रई नृत्य पर
बरबस बलात गयी नच ।
यह हृद भावतिरेक विप्लव कैसा गया मच ।
धूमायित उत्तरायण रहित शरशय्या से
धूमायित उत्तरायण रहित शरशय्या से
कैसे पाऊंगी बच ।
प्रबल प्रभंजन प्रताड़ित पतझार का
घूर्णित कृशांग पीत पात्र ।
अर्धरात्रि में कृष्ण गगन से टूट गिरता नक्षत्र ।
गंतव्य नहीं ।
गंतव्य नहीं ।
ह्रदय । तेरा भवितव्य नहीं ।
उसने ली गहरी सांस ।
धड़कते ह्रदय पर रखा हाथ ।
मन ही मन बोली-
कब कहाँ कैसे क्यों
रसराज निवेदित रसःचषक में
रसान्ध मनःभ्रमर निराधार आमूल डूब गया ।
समस्त मंत्रणा, संत्वना, तर्क कुंठित हो गए ।
समस्त मंत्रणा, संत्वना, तर्क कुंठित हो गए ।
वह, रसःसिक्त कम्पित तन
अपनी धुन में ना ना करता,
सर धुनता रह गया ।
इन जाने पहचाने चिर परिचित पल से
छू जाते हैं अनजाने पल ।
ये विमुग्ध पल पकड़ में नहीं आते ।
मन तो विभोर कस्तूरी मृग सा
मह-मह हो जाता है ।
पर जलते अभिशापों तक
मलयज वरदान नहीं आते ।
निःसंग मनःगगन में
रीते खुले पड़े स्पृहा नखत चषक ।
ढले अमिय या गरल ।
किसमें कितनी प्रतिस्पर्धित तीक्ष्ण मादकता है
कह पाना नहीं सरल ।
कह पाना नहीं सरल ।
अमिय हलाहल आबद्ध प्रगाढ़ परिरम्भण ।
इस समाधिस्थ तन्मयता की
चरम मादकता का कोई तोड़ नहीं ।
अनाहत नाद ।
सत्यम शिवम् सुन्दरम ।
सस्रार गुंजन ।
इस पूर्ण इदम् की संज्ञा के आगे
कोई मोड़ नहीं ।
क्यों प्यासा प्राण पपीहा
बर्हि स्वाती को आकुल
जब अन्तः-मनःगगन प्रच्छायित
ज्ञान स्वाती घन अजस्र झरित का
कोई जोड़ नहीं ।
कब दुग्ध धवल चांदनी में
आकंठ स्नात प्राण चकोर हुआ विभोर नहीं ।
इस उत्ताल तरंगित प्रकाश वारापार का
आदि अंत छोर नहीं ।
स्वतः निनादित ब्रह्माण्ड वेधू धुन
इसमें कोई राधा नन्द किशोर नहीं ।
रसः आप्लावित समस्त सृष्टि
शेष बचा कोई कोर नहीं ।
यह आलोड़ित वैचारिक अमृत मंथन
अंततः सलिला निरंजना का मौन
हृद उद्वेलन
कम्पित जलते अश्रु दीपों को
छू गयी भींगे मन की छुअन ।
तडपे शतपरणी दिन रात चुभी काँटों की चुभन ।
कोई स्पष्ट आकृति नहीं उभरी
कोई स्पष्ट आकृति नहीं उभरी
चूर्ण हुआ मन का दर्पण ।
फिर भी हे अदृश्य !
तुझे कोटि कोटि नमन ।
निरावृत अपलक अश्रु स्नात आँखों ने किया
तव अमित अमूर्त आलोक का दर्शन ।
परम जाज्वल्यमान हिरण्यगर्भ दीपित
शाश्वत निहित गुह्य गह्वर अन्तर में
मनःमत्त पतंग घूर्णित चारों ओर ।
यह मौन हृद वेदना,
इस अनन्त विरह रात्रि की भोर नहीं ।
यह मेरी अनुभूत संविद चिंतन शैली,
मुझे किसी से होड़ नहीं ।
उत्फुल्ल सदाबहार चिर नवल प्रकृति
समाहित इसमें सभी प्रश्न उत्तर ।
समाहित इसमें सभी प्रश्न उत्तर ।
इससे बढ़कर कोई वात्सल्यमय क्रोड़ नहीं ।
भींगें पावस के पवन झोंकों सा
स्मृतियों में कौंधता रहा
वह शरत चन्द्र राज तनय श्रमण ।
आकुल टीसों में दंशित कर रहे
पीड़ा के सहस्र फण ।
बौद्धिकता, सौन्दर्य, नारीत्व स्वाभिमान सबका,
कर गया था वह दर्प हनन ।
कर गया था वह दर्प हनन ।
परिहास कर रहे अपने ही अश्रु दर्पण ।
ली उसने ह्रदय सालती गहरी सांस ।
ध्वस्त हुए समस्त जमे विश्वास ।
सत्य प्रेम कभी सफल नहीं होता ।
इसमें कदापि मिलन नहीं होता ।
इस ऊर्ध्वमुखी अंतरयात्रा में पतन नहीं होता ।
प्रेमास्पद, ज्ञानयज्ञ का माध्यम होता भले ही हो,
वह जीवन का श्रेय, प्रेय, सर्वस्व नहीं होता ।
आहत अनुभूतियाँ ही अनंत साक्षी होती है ।
प्रेमास्पद, ज्ञानयज्ञ का माध्यम होता भले ही हो,
वह जीवन का श्रेय, प्रेय, सर्वस्व नहीं होता ।
आहत अनुभूतियाँ ही अनंत साक्षी होती है ।
इस नितांत निःसंग यात्रा में
कोई संग नहीं होता ।
फिर वह हंसी-
तो यह सुलगती मौन पीड़ा क्यों ?
अप्राप्य, अप्राप्य ही रहेगा ।
यह जानते हुए भी,
यह मदांध शलभीय अंतरदहन क्यों ?
क्यों ?
कोऽहम के शीर्ष अचल गहन ठुका ?
कौन है ? क्यों हैं हम ?
इन जलते प्रश्न निनादित घोषों प्रतिघोशों से
विद्ध उदिग्न आहत थका गगन झुका ।
विद्ध उदिग्न आहत थका गगन झुका ।
रीते छूंछे प्यासे उड़ते बादलों सदृश
प्रश्न अशांत विभ्रांत आत्म तत्व खोजता
कालचक्र के नीचे पिसता रहा ।
कालचक्र के नीचे पिसता रहा ।
गतिमान समय सयंदन नहीं रुका ।
जिज्ञासा शरविद्ध मनःकस्तूरी मृग
अपनी ही सुरभि से गया लुटा ।
शतसहस्र तीर छूटे
एक संग प्रश्न निसंग से हृद दर्पण
चूर चूर खिरचों में टूटा ।
जीवन पानी का नाचता बुद-बुद
पहन रश्मि रंगीनी के बहुरंगी
मणि विकीर्णित स्वर्णाभरण
मस्त झूमा
अब फूटा तब फूटा ।
क्यों,
की अतल वितल गहराईयों, ऊचाइयों,
सीमाओं, परिधियों, व्यासों को नापता तौलता
अनवरत मन रहा जूझा ।
अनवरत मन रहा जूझा ।
उपनिषदों में विहित विधियों प्रक्रियायों को भी
स्पष्ट समाधान निदान नहीं सूझा ।
स्पष्ट समाधान निदान नहीं सूझा ।
अजस्र प्रश्न वर्षण ।
मनःगगन आच्छादन खींच रहा
बलात किस अदृश्य का कर्षण ।
कठिन सत्य दर्शन ।
ज्ञान यज्ञ में आहूत प्रज्ज्वलित
प्रश्न ज्वाल अधूरा अनुत्तरित असंतुष्ट
रहा रूठा ।
सत्य ।
अव्यक्त अभिव्यक्ति ।
अलभ्य अलौकिक अचिन्त्य
अछूता असंस्पर्शित अपरिभाषित अबोल
अनुभूति-परक अवाक् अप्रतिम अनूठा ।
‘क्यों’ चक्रव्यूह के समस्त द्वार बंद हैं ।
इसी कारा में बंदी मानव कितना निर्द्व्दन्द है ।
हर सांस खिची किसी डोर से
हर सांस खिची किसी डोर से
रंचक नहीं स्वच्छंद है ।
पल से पल का विनिमय करता
कितना निर्बंध है ।
समय मछेरा कब जाल खींच लेगा,
मृत्यु तटबंध है ।
हर जन्म-मरण मध्य अज्ञात यात्रा
मात्र परछाईयों का अज्ञेय अश्रुछंद है ।
अहर्निशी स्वयं से संघर्षरत्
ह्रदय कितना निसंग है ।
एकरसता की घोर तमिस्रा में चढ़ा
न कोई रंग है ।
पल भर का आँखों के मन का कौतुक ह्रदयमंथित पीड़ा दे गया ।
तर्क वितर्क, हांसों-परिहांसों के
उज्जवल उजास पर वज्रनिपाति
सावन भादों बरस गया ।
लगी तिथि अमावस्या की,
नवोदित प्रणयारम्भ के पूर्व ही
गतिमान जीवन धुरी की गति मंद हुई ।
पीड़ा के क्षण बढ़ गए
अनुराग राग रंजित चरणों के बढ़ने के पूर्व ही
नैराश्य मसि-कलश शीश पर ढल गए ।
नैराश्य मसि-कलश शीश पर ढल गए ।
यह सोचती गुनती
पुनः निर्झरणी की ओर लौटी ।
ज्ञान और प्रेम ।
प्रकृति वैषम्य है ।
एक उत्थित दूसरा निर्गति रहा ।
मन तो दोनों को झेल रहा ।
क्षण वहीं थम जाते श्रमण को देखा ।
मन ही मन सोचा ।
पूर्व का उठता बालारुण
अनगनत रंग गुलाल उड़ाता,
वह मध्यान्ह चढ़ा,
अपनी वर्चस्वता रखता,
ढलता पथ श्रम थकित व्यथित धूल धूसरित,
केवल अवसाद गहन कृष्ण रेखाएं खीचता,
विलीन हो जाता ।
केवल अवसाद गहन कृष्ण रेखाएं खीचता,
विलीन हो जाता ।
विछोह मिलन में कितना पीड़ित नाता ।
ली उसने गहरी सांस ।
क्यों विवेक, ह्रदय से,
समझौता नहीं कर पाता ।
ह्रदय ।
जल रहे थे जब धरा गगन ।
मैं मधुक की मादक छुवन,
हर तरु के तृषित अधर तडपे ।
शांत करने मेरी तपन ।
वह पुरुष । मैं प्रकृति ।
जीवन तो मधुमय आमन्त्रण ।
क्यों चला गया वह ।
त्वरित वह भी है मृणमाय स्पंदन ।
मेरे प्रणय । अछूते प्रणय ।
व्यथा के आमुख ही बनकर रहे ।
अश्रु बादलों में स्वप्न सुर धनु स्पंदन
विगलित विदीर्ण टूट टूट बहे ।
प्रणय ज्वार का निस्पृह निर्मोही
देशना देता चला गया ।
चिर पिपासित उत्तरीय आँचल
रीता फैला फैला रह गया ।
यह है पुरुष !
संहार ही जिसके लास के आकुल,
हर पल टूटते विश्वास हैं ।
क्या पता किसे ।
ह्रदय में किस तरह कितने अश्रु झर प्रवाह
उद्वेलित उमड़ता रह गया ।
उद्वेलित उमड़ता रह गया ।
कह न पाऊँ ।
पल भर में क्या से क्या हो गया ।
आँगन अल्पनाओं से भर धुंवा धुंवा हो गया ।
किस धुंध में बढ़ते कदम लडखडाये ।
किस धुंध में बढ़ते कदम लडखडाये ।
शब्द टूट अधरों में बुद बुद हो गए ।
चांदनी में समस्त खिले मधुमास,
सुधा अमिय स्नात, सहसा पत्थर हो गए ।
आँखें स्वप्न सरि में डूबी ।
पर क्यों उजाले कफन से उड़ गए ।
एक पल । केवल एक पल ।
जाने कितने जन्म उसमें समो गए ।
तर्क भरा जीवन में पल भर को शांत होता नहीं ।
अहम् का अर्हि फण सदा फुंकारता,
अहम् का अर्हि फण सदा फुंकारता,
क्यों वह सोता नहीं ।
श्रमण नहीं कोई भी,
वह प्रश्न नहीं ।
प्रश्न तो मेरा मन ही रहा ।
कभी न जो हो सका ।
ज्ञान पियूष चहक कर पान करता रहा ।
कभी न झुक सका ।
क्यों अपने से उन्नत कोई नहीं दिखा ।
जो दिखा ।
वह कल्पना पुरुष या अज्ञात सत्ता ।
अलभ्य सदा रहा ।
मैं हूँ ।
सरस अम्र मंजरी ।
नवल सजल कादम्बनी ।
तपते पाषाणों से मैं लिपटी शीतल निर्झरी,
किन अंध गुफाओं से चलती आ रही,
मैं अभिसारिका ।
वंशी गूँज सुनी ।
पर मिला न अबतक प्राणों का देवता ।
प्रश्न- यह ! रूप ही क्यों ?
जब हो न सका कोई भी भोक्ता ।
ह्रदय आसुंओं में गए पिरोये,
किन आशाओं के जले दीप ।
किन प्रतीक्षा में गए संजोये ।
प्रकृति भी तो प्रणय निवेदिता ।
कंकडों के घेरे में,
क्यों तांडव-चरण थरथराये ।
मानव क्या देवता को, अतिक्रमण कर गया ।
क्यों मंदिर में सजे दीप ।
करुण क्रंदन कर आसुओं में रोये ।
एक धराशायी स्तम्भ सा जीवन,
किनारे भी अपरिचित हो आये ।
फिर भी नमित मैं तव चरणों पर ।
तू जहां भी रहे चिर विजयी हो, सदा मुस्कुराए ।
मैं तो ।
मैं तो ।
ज्ञान यज्ञ की आद्र सुलगती समिधा ।
सहसा वह विचार मग्न हुई ।
नारी रूप एक स्वीकृति है ।
सुन्दर से सुंदरतम,
दोनों को ऊर्ध्वगमन करने को,
उर्मियों में अनिवार्य है,
लघु वीचियों का सदा शमन ।
रूप ! यदि यही है रूप !
मैंने सत्य ।
यथथि परिभाषित देखा है ।
नश्वरता की निष्ठुरता देखी है ।
सत्य सदा मौन विनम्र देखा है ।
समय की अडिग तुला पर देखा है,
सैकत से दिनमान तुलते ।
किन्तु उसका मापदंड,
सत्य असत्य के संतुलन से,
विषय जीवन की परिभाषा है ।
निर्णायक दृष्टि जिसकी हो चयन कर लो ।
रूप क्या अभीष्ट है ।
शाश्वत सत्य से कब उसका प्रतिरोध है ।
रूप !
प्रकृति की निठुरता ।
प्रतिशोध है ।
सघन तरु की छाया में,
वह निर्झर तट पर आ बैठी ।
दोनों चरण कमल जल में डाल,
पानी उछालती,
अपने में कुछ सोचती गुनती ।
भूलूँ मैं । संभव नहीं ।
स्मरण रखूँ । वह भी नहीं ।
ये तो मन के क्षण प्रभ उत्सव ।
दे जाती हैं झटके । कुछ गहरी चोटें ।
फिर तो पुनः मन विस्मृत कर
हो जाता सुचित ।
यह ह्रदय का महा प्रलय है ।
घनघोर घनघनाता महाउर्मियों में
मनःसागर उद्वेलन है ।
और फिर वेदना ।
ओमा की कराह ।
क्यों घुमड़ता ओंकार का स्वर,
झंकार नहीं है ।
वेदना । कराह । चोट ।
घात प्रत्याघात ।
एक नविन सृष्टि का, आमंत्रण ही तो है ।
सृष्टि भी तो अपने में समाधिस्थ ही तो है ।
एक नवीन मौलिक जागरूक वैचारिक सृजन को,
ज्ञान-यज्ञ यजन को ।
ज्ञान-यज्ञ यजन को ।
फिर मैं !
क्यों आघातों को मानूं पराजय ।
यह तो है आत्म गवेषणा ।
क्यों विवेक इतना निर्मम ।
ह्रदय रह जाता सिहर विनम्र सहम ।
उत्तरा !
जो अपनी कुटी में प्राप्त किया तूने ।
तू कहाँ अवस्थित ।
देखा भी किसने ।
केवल श्रमण ।
आभास हो पाया उसे ।
अतः वह आशीर्वचन कह,
एक पल भी थम न पाया ।
निज उपसंग उठाती,
मन ही मन सोचा उसने,
इसमें सामीप्य का आभास तो है ।
एक नवल विचारों का विकास तो है ।
सरस्वती सुरसरि अंशुजा,
संगम पावन तीर्थ ।
क्यों न हो,
प्रज्ञा, ज्ञान, राग, सम्मिलन ।
अभूत, अपूर्व, अश्रुत,
प्रज्ञा, ज्ञान, राग, सम्मिलन ।
अभूत, अपूर्व, अश्रुत,
पावन ज्ञानयज्ञ
विजयोल्लसित
कीर्ति !
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