काशी अथवा वाराणसी से लगभग 10 कि.मी. दूर
स्थित सारनाथ प्रसिद्ध बौद्ध तीर्थ है। पहले यहाँ घना वन था और मृग-विहार किया
करते थे। उस समय इसका नाम 'ऋषिपत्तन मृगदाय' था। ज्ञान प्राप्त करने के बाद गौतम बुद्ध ने अपना प्रथम
उपदेश यहीं पर दिया था। सम्राट अशोक के समय में यहाँ बहुत से निर्माण-कार्य हुए।
शेरों की मूर्ति वाला भारत का राजचिह्न सारनाथ के अशोक के स्तंभ के शीर्ष से ही
लिया गया है। यहाँ का 'धमेक स्तूप' सारनाथ की
प्राचीनता का आज भी बोध कराता है। विदेशी आक्रमणों और परस्पर की धार्मिक खींचातानी
के कारण आगे चलकर सारनाथ का महत्व कम हो गया था। मृगदाय में सारंगनाथ महादेव की
मूर्ति की स्थापना हुई और स्थान का नाम सारनाथ पड़ गया।
वाराणसी.
या काशी.
वरुण-अस्सी मध्य
बसी.
दोनों नदी.
इड़ा सुषुम्ना नाड़ी.
काशी, आज्ञाचक्र
मध्य बिंदु.
ज्ञान-सिन्धु.
आध्यात्म-चिंतन-शोधन,
संस्कृति, वैभव,
धर्म की अभूतपूर्व गरिमा.
यहाँ पतित पावनी
गंगा.
जो निज
प्रवाह-मार्ग,
न कर सकी संवरण,
विपरीत दिशा मुड़कर,
चन्द्रमौलि-चरणों
में आई झुक,
बार-बार कर अहि,
पावन पुनीत चरण
प्रक्षालन.
ग्रहण किया, जिसने
सादर शीश पर,
उत्फुल्ल निसृत
शत-शत धारों में,
बनकर वरद-पियूष पावन
निर्झर ।
कर रही साग्रह नत
प्रणत नमन,
कृतज्ञयता ज्ञापन,
यह पतित पावनी
जाह्नवी ।
जिससे शस्य, श्यामल,
सुरभित, पुष्पित,
उर्वी ।
आज । उसी काशी की
ओर,
गया से, आ रहे,
प्रभु चारिका करते ।
यद्यपि चले जहां से,
था, अंतर अट्ठारह
योजन का.
हो पथ जितना विरल.
कब यशस्वी, धीर वीर
हुआ विमुख.
प्रभु पश्चिम मुख को
उन्मुख.
देखा पथ में,
गहन धूपिका में,
हरित दूर्वा
रश्मि-रचित
नीहारिकाओं से सज्जित.
सघन वन.
पावस ऋतू, शीतल हरित
वन उपवन.
सावन की सजल श्यामल
जम्बू फल सी,
झूम रही, कृष्ण काली
कादम्बिनी माला.
अर्जुन, अर्ण,
अश्वत्थ, अशोक,
शिरीष, वकुल,
मुचकुंद, कुंद, पाकड़,
तमाल, न्यग्रोध,
कदम्ब,
सब नव पल्लव परिधान
प्रच्छायित,
झूम रहे, फल फूल भार
नमित.
पादप रसाल कहीं नाटे,
कहीं विशाल.
पड़े श्रावणी दोले
डाल-डाल.
कहीं नर्तित मयूर
समूह.
कहीं मृग दल, रहे
घूम.
जलाप्लावित-शफरी,
क्रीड़ा पीड़ित.
श्रृंखलाबद्ध जलाशय
अतिशय.
दीर्घाओं में चित्र
विचित्र कंवल खिले.
लघु कुल्यायें,
पर्वतीय प्रपातों की
जलधारा,
उन्मुक्त उन्मत्त
मस्त प्रवाहित,
शत-शत, धारों में
दिग्भ्रमित चकित.
नाना परिधानों में
ग्राम-वधुएँ.
चल रही वीथी में पग
अटपटे.
शीश पर, कटि में,
भरे कलश छलक रहे.
शनैः-शनैः आई संध्या.
व्यतीत हुआ रात्रि
का प्रथम याम.
गहन कदली वन.
वेणु वन.
तृणराज का, समूह.
रही नील प्रकाश
बिखेरती नीलमालिका.
ज्यों जल रही सुदूर
तृणोंल्का.
रात्रि गहन. भरी
थकन.
अंतर-आँखों के
सम्मुख अभी भी
था लहराता
प्रकाशोज्ज्वल
शांत ज्ञान पारावार.
अनिमेष दृगों के
सम्मुख,
विमुक्ति का निसंग,
निरुपम निशब्द
संसार.
बोले मन ही मन.
निर्वाण द्वार से
लौटकर आया हूँ.
लौटूंगा.
मैं.
अगणित बार,
होगा, न जबतक समस्त
विश्व कल्याण.
शमित ज्वलित भस्म
सर्व वृत्तियाँ.
मानस जगत, महाश्मशान
बना.
तृष्णाबढ, बलात,
विवश.
जीव,
करता सहस्र जन्म
ग्रहण.
विगत बीते शत-शत
जन्म मरण.
थी, लहलहाती जीवंत
रसवंत दिखती,
स्पृहायें .
कितनी निरर्थक.
व्यर्थ, निस्सार.
निर्वाणित हो किस
प्रकर,
अभिलाषाओं का जलता
तप्त विदग्ध दीपक.
झेला, जीव ने, अकथ व्यथा अथक,
रहेगा पीड़ित विकल वह
कब तक.
मैं.
निसंग अकेला.
विमुक्त .
बीतशोक.
बिखरे क्षार बन.
स्पृहा विषाक्त फण
निर्मोक.
केवल मैं एकाकी.
यह विमुक्ति आनन्द
झेलूं.
त्यागा जिनके कारण
स्वजन परिजन.
उस प्राप्त उपलब्धि
को,
क्यों न सबमें वितरण
कर लूं.
अंतर-चेतना कर रही
निर्देश,
यह ज्ञान सुरभि अजर
अमर अशेष.
विकच पुष्प, मधु रस
सुरभि,
बिखेरता है.
उसे, नहीं,
पंखुड़ियों की गुम्फन में
समेटता है.
जग.
अति पीड़ा कातर.
वह निज एषणाओं,
विकृतियों से जर्जर.
भटक रहा, घन अन्धकार
में,
दिखला ज्ञान ज्योति
भास्वर.
तृष्णाओं का किंजल्क
जाल.
विष फुंकारित कराल
व्याल.
कुछ, अमृत सीकर
निसृत होने दे.
विदग्ध फफोलों को
शीतल होने दे.
संभलता नहीं, अति
सुख.
सालता दुःख.
दोनॉ अतियों से जग
पीड़ित.
स्वतः स्वनिर्मित
बेड़ियों से निगडित.
नहीं जानता, समन्वय
संतुलन.
नहीं चाहता, निज
सौख्य-वितरण.
कृपण सा करता सब
संचय.
पीड़ित करता है,
अपचय.
समस्त मधु.
स्वयं करता पान.
अति मिठास भी, काषाय
कटु,
हो जाती गरल समान.
क्यों कर भला
प्रक्वणित हो कैसे ?
मधु सरिस सस्वरित
हो,
लय गति, ताल निबद्ध,
वीणा के तार.
वे. या तो. अति
ढीले, या गहन कसे.
देखा था मार्ग में.
मौन प्रवाहित थी
सरिताएं.
वह भी निज जल से,
स्वंय नहीं करती
स्नान.
उद्वेलित विकल पाषाण
ह्रदय विदीर्ण कर,
करती हैं जब
वर्हिनिष्क्रमण.
पाषाणों, शिलाओं,
झीलों, गह्वरों को,
भरती,
पुलिन तटों के शुष्क
अधर आद्र करती,
वनस्पतियों तरुओं से, फल फूल से,
पृथ्वी का, रीता
फैला अंचल भरती है.
नहीं अहम.
निज सम पर,
सागर में निर्गत
विलीन हो जाती है.
सागर भी.
कब पुलिनों की सीमा
में बंधता है.
आतप-ताप गरजता,
पवन में वाष्प जाल
रचता है.
गगन-धरा, दोनों का
ही, वारिद के मिस,
बरस बरस शीतल करता
है.
जब.
जड़ जंगम. मूक अमुक.
कुछ कर लेने की
सबमें हुक.
तब. मानव.
प्रकृति का सर्वोच्च
सौन्दर्य.
क्यों भूला वह
औदार्य.
वह.
केवल पंचभूतों की ही
सर्वश्रेष्ठ,
यथेष्ठ, कला नहीं.
आन्तर-चैत्य जगत
में,
सदा सतत ही अवस्थित,
कूटस्थ अचल कहीं.
निज सुख-दुःख
अनुभूति विरत.
क्यों न, परमार्थ
साधना में हो रत.
यदि.
अश्रु आप्लावित
आँखें हंस जाए,
विषाद विषण्ण शुष्क
अधर,
स्मित से भर जाए.
यही. वांछित अर्हत
जीवन.
जो स्नेह ह्रदय में
लहरें लेता,
हो उठे उससे आद्र
सिक्त रसवंत.
शांत.
जग-जन-जीवन-कन-कन,
बीते कितने दिन.
कितनी रातें.
वर्षों का एकांत
मनन.
आज.
जनाकीर्ण जन-पथ-गमन.
देखा.
अविद्या मोहन्धता का
संसार.
देखा. हर मानव को
हताश.
झुका, अति पीड़ा भार.
सोचा.
जग में केवल,
ज्ञान ही नहीं
अपेक्षित.
वैरागी सदा रहा जग
में निरा उपेक्षित.
किन्तु यदि मैं.
काशी जाकर
ऋषिपत्तन, मृगदाव
पहुँच पाऊँ.
जो पंचवर्गीय
भिक्षु,
मुझसे होकर
विक्षुब्ध,
निरंजना उरुवेला में
एकाकी त्याग मुझे,
अति क्रुद्ध यहाँ
आये.
यदि उनको, यह
प्राप्त ज्ञान.
मैं समझा पाता.
जो चाह रहा उनसे
कहना,
उसे भलिभांति कह
पाता.
यदि वे.
होंगे मेरे विचारों
से प्रभावित,
तब मैं जानूंगा.
निश्चय ही इस देशना
से,
होंगे अन्य भी
लाभान्वित.
होते यदि. अलार
कलाम, या,
उद्रक राम पुत्र,
मेरी इस गवेषणा को
हृदयंगम कर,
होते परम मुदित.
किन्तु ज्ञान रहा,
प्यासा,
चिर तृषित सदा का.
मिली न जबतक थाह,
किसी को कहाँ पता
कहाँ तल,
इस अगम गहन अंतर घट
का.
जिसे कहते हैं
पूर्ण.
वह भी तो है नितांत
शून्य.
गहन चिंतन में जाने
कब प्रभु.
प्रवेश कर गए ऋषि
पत्तन में.
बहुत दूर से ही,
पंचवर्गीय भिक्षुओं
ने देखा,
आ रहा कोई
प्रव्रजित.
पहचान कर गौतम को
बोले परस्पर.
कदापि न होंगे इसके
प्रति नमस्कृत.
यह, साधना-भ्रष्ट
तपः-नष्ट,
बाहुलिक है.
उचित नहीं आसन देना
या करना सम्मान.
किन्तु, प्रभु की विमल तेजस्वी मूर्ती निरख.
हुआ पूर्वाग्रह
विचलित.
हो उठी, हठ-वादिता,
कम्पित.
जैसे, शांत प्रदेश
में.
आ जाये अप्रत्याशित
जल-प्लावन.
जैसे,
चक्रवात-पूरित-घूर्णित,
हो जाये तीव्र
प्रभंजन.
उन सबका मन.
अस्त-व्यस्त हो आया.
अंतर-आक्रोश. सहसा
थर्राया.
यंत्र चलित
मंत्रमुग्ध विभोर विस्मित.
हो उठे सहसा,
उद्वेलित अभिभूत.
निरख, निश्च्छल
निष्कल सौजन्यता,
अति स्नेहिल आद्र
रूप.
किसी ने, पात्र,
चीवर, थाम लिया.
किसी ने, आसन,
किसी ने ,
आचमन पद-प्रक्षालन
निमित्त जल,
जलपात्र दिया.
प्रश्न किया
भिक्षुओं ने,
क्या कारण.
उरुवेला से इतनी दूर
आने का.
बोले प्रभु अति मृदु
स्वर में-
बप्प,कौडिन्य,महानाम, भद्धिय, अश्व्जीत.
हो यहाँ कुशल से,
सब प्रकार प्रसन्न
मुदित.
कुछ दबी उपेक्षा
वितृष्णा से बोला
उनमें से एक.
जैसे हैं. अच्छे
हैं.
दिवस सब हो रहे
व्यतीत एक सरिस.
नहीं उद्वीन्ता,
नहीं वितृष्णा.
नहीं उल्लास, न कोई
प्रयास.
नहीं उत्सुकता, नहीं
विकलता.
नहीं प्रतीक्षा,
नहीं उपेक्षा.
जीवन में केवल
प्रच्छायित
निस्तब्ध नीरव
एकरसता.
है सब उसी प्रकार.
जैसे निर्जन निभृत
अरण्य में,
पड़ा कोई पाषाण.
आतप-ताप, पावस,
शीत-प्रहार
निर्मम,
नियति-निर्दयता,
मौन, सब अरिष्टियों
को सहता.
जीवन.
उदासीन उपेक्षित
अनादृत मधुकरी.
जो.
मलिन पांशुल में
वासी बंधी पड़ी.
किन्तु गौतम,
तुममें कैसी यह
स्वयम-प्रभ तेजस्विता.
आदीप्त मुख प्रभा.
शांत निस्पृह तव
चेष्टा.
सम्पूर्ण वपु
कान्तिमान .
ब्रह्मचर्य-प्रकाश,
आत्म-आलोक, बिखर रहा.
क्या ?
जो वांछित, वह
प्राप्त हुआ ?
या तव जीवन भी
संसृति में व्याघात बना.
कहा गौतम ने- भणे !
हो न, इस प्रकार
क्षुभित.
न करो, तिरस्कार से
संबोधित.
मुझे मित्र या आवुस
भी, न कहो.
मैं अब वह रहा नहीं,
अहो !
मैं.
सम्यक सम्बुद्ध
अर्हत हूँ.
बीतराग, तथागत हूँ.
बप्प,कौडिन्य,महानाम,
भद्धिय, अश्व्जीत,
यह सुनकर, हो उठे
चमत्कृत.
बोले सव्यंग.
तुम ! और अर्हत !
संयमी प्रवर्जित
सन्यस्त !
रहा न जो तप-संयत.
भौतिक पीडाओं से
व्यथित संतप्त.
स्थूल भोज्य प्रति
लोलुप क्षुदित.
हो वह.
दिव्य चक्षु से
ज्योतित.
कहा तथागत ने-
भिक्शुगण !
हों न यों विक्षुब्ध
अप्रसन्न.
क्या ?
थी, मेरे स्वर में
दृढ़ता.
अथवा, कह पाने की
क्षमता विश्वनीयता.
किन्तु कथन पर
अविश्वास प्रगट कर
कहा एक भिक्षु ने-
गौतम !
स्थूल भोज्य ग्रहण
कर,
क्या कोई सूक्ष्म
भूमि पर,
कर सकता है विचरण.
जैसा होता है आचार,
विचार, अशन.
उसके अनुरूप ही,
होता है निर्मित,
तन-मन-चेतन.
कैसे हो विश्वास.
प्राप्त तुमको
आत्म-प्रकाश.
कहा बुद्ध ने-
भिक्षुओं !
शारीरिक यंत्रणाओं
से
कदापि प्राप्त नहीं
होता, संधान.
ज्ञान .
किसी एक जन्म की
उपलब्धि नहीं.
होता है प्रत्येक
जन्म में
ज्ञान अनुभूतियों का
क्रमशः संवर्धन.
ध्यान-भूमियों में
मन, एकाग्र, एकनिष्ट,
करता है शनैः शनैः
आरोहण.
किसी एक क्षण.
किसी एक पल का.
आवेशों आवेगों के घातों
प्रतिघातों का
नहीं है, क्षणिक
उद्वेलन.
सीपी के सम्पुट में
बंद जल.
जब पच्छाड़े खा-खाकर
जड़ हो जाता है.
तब वह मुक्ताफल
कहलाता है.
निश्चेष्ट वृति
वीचि-रहित
मनः-पारावार.
स्वतः खुल जाते परम
चैत्य-द्वार.
अवर्ण्य अनुक्त वह
संसार.
यही प्राप्त करने
आया हूँ.
तपः-भूमि में
निरंतर.
छः वर्षों तक जो
झेला, निशि-वासर.
उन कष्टों के
साक्षी. केवल तुम सब हो.
मैं यह सब अलार कलम
से भी कहता.
वैशेषिक दर्शन के
विद्वान,
उद्दक राम पुत्र को
भी जतलाता.
किन्तु दुःख !
दोनों प्रकांड
पंडित,
अध्यात्म-अध्येता.
नहीं रहे जगत में.
ध्यान-भूमि, समाधि,
की उनसे ही शिक्षा,
थी मुझे मिली.
तुमलोगों से इस
निमित्त कहना है कि,
तुमने विरोध किया
मेरा.
प्रथम तुम सबको
विशवास दिलाना है.
जो प्राप्त हुआ अमृत
मुझको,
उसका भागी सतत बनाना
है.
यह निर्वाण .
निसंग न मैं झेल
सकूंगा.
मैं विमुक्त रहूँ.
जग पीड़ा कातर.
यह मैं, कदापि न सहन
करूंगा.
वह ज्ञान क्या ?
वह उपलब्धि क्या.
हुआ न, कोई उसका
सहयोगी.
सत्य कहा था,
अर्जुन ने
व्यर्थ त्रैलोक्य
राज्य श्री.
जब अपने स्वजन सुहृद
नहीं,
क्या इसको झेलूँगा
एकाकी.
अतः
बप्प,कौडिन्य,महानाम,
भद्धिय, अश्व्जीत,
यदि तुम सबको, अथवा
पीड़ित जग को,
मैं सुखी न कर सका.
मेरा यह उद्देश्य.
यह लक्ष्य-प्राप्ति.
यह सत् कार्य,
सदा रहेगा सतत
अधूरा.
मैंने गृह त्याग
किया.
छोड़े अपने रोते हुए
स्वजन परिजन.
इस निमित्त नहीं कि,
जो प्रकाश प्राप्त.
उसमें केवल हो मेरा
अंतर अन्धकार भंजन.
यह सब सुनकर, बोले
पंचवर्गीय भिक्षु.
नहीं ! भंते ! नहीं
!
कहो ! हुआ किस
प्रकार प्राप्त दिव्य-चक्षु.
कहा गौतम ने सुनो
शान्ति से.
यह मेरा
धर्म-चक्र-प्रवर्तन है.
जो धर्म सनातन आर्य
विहित,
उन्हें, कुछ नवीन
विधा से
कह लेने का आग्रह
है.
वेदान्तिक
रसः-सिक्त-रसा पर,
ज्ञान-सुधाकर-स्नात,
पुष्पित पल्लवित
सुरभित यह सोमलता.
यह अजर अमर महौषधि,
ज़रा, व्याधि, मरण,
उपशमन निमित्त.
ध्यान भूमि पर
क्रमशः आरोहण.
प्राप्त,
दुःख-निरोध-निवारण-कारण.
चार ध्यान भूमि.
विहार.
प्राप्त,
आकिंचायतन-विदेह-अनुभूति-विज्ञान.
यह भी, मात्र रहा,
विमोक्ष-सोपान.
अमृत पद प्राप्ति
निमित्त,
त्यागे मैंने,
कामधातु, रूपधातु, अरूपधातु.
शेष रही केवल.
उदासीनता. वितृष्णा.
शून्य की ही भावना.
निर्वाण विमुक्ति
ध्यान भी न रहा.
निस्पृह. निष्काम.
निर्वाण.
महाविराम.
बिना स्पृहाओंके शमन
के,
पूर्ण न होती
अध्यात्म-साधना.
भला, किसी ने देखा
है.
कभी सरिता में डूबी,
भीगी समिधा का,
अग्नि प्रज्वलन कर
जलना.
काम, राग, पूरित मन.
हो सकता कैसे स्वच्छंद.
पूर्ण शुद्धि की
पर्येषना.
प्रथम भस्म हो रजत
तमस एषणा.
विदेह की अवर्ण्य
शून्यता.
अनुभूति.
यही,
निर्वाण.
शाश्वत विमुक्ति.
प्राप्त, परीक्षण
शोधन से,
यह अभूतपूर्व ज्ञान
आत्मोत्थान.
सम्बाभिमू सत्व विदूह्भस्मी
सव्वेसु धसम्मेसु अनपलितो ।
सव्व जहो तव्हखये विमुक्ते
सय अभिंजाय कमुद्विसेम्य ।।
(धम्मपद)
समस्त ग्यानाभूतियों
का किया है,
मैंने पूर्णतः
अनुभव.
परिचित अलीत
हृदयंगमित पारंगत हूँ.
गहन गहराई तक सब
धर्मों से.
किन्तु, मात्र एक
तृष्णा को ही,
समस्त कारणों का
जाना मूल.
प्राप्ति विमुक्ति.
जब यह होती निर्मूल.
कोई नहीं मार्गदर्शक
अथवा बना गुरू मेरा.
निज तपः साधना से
ही, मैंने इसको जाना. मिलता नहीं मोक्ष.
गिरि, गह्वर,
कन्दरा, वन, उपवन, अरण्यों में, नहीं प्राप्त दुष्कर कायिक यंत्रणाओं में,
नहीं होता
प्राप्त, गृह त्याग कर,
जाते हैं जब
मनः-उदास देवालय या चैत्यों में.
प्राप्त यह निज शमित चित्त वृत्तियों में.
जब. हो जाता है.
निस्तब्ध, मौन, मानस.
निष्कंप, निश्छल,
निर्विकार.
समस्त चेष्टाएँ. निश्चेष्ट. वीचि-वृत्तियाँ, समाहित,
शांत मनः-जलधि में.
मन.
न विषण्ण. न सोमनस.
अस्त, चेतना. नाम,
रूप, संज्ञा,
विचिकित्ण, काम्राग,
व्यापाद,
मान, औद्वित्य,
अविध, स्पर्श,
विज्ञान, वेदना,
पूर्ण विलुप्त.
भग्न विध्वंस समस्त
वृत्ति अधिष्ठान.
टूटते, ससीम-असीम,
व्यवधान.
अहम तिरोहित,
वैदेह-भाव-उत्थित.
वृत्ति-रहित. बीतशोक. सम्यक संबोधित-ज्ञान.
है यही.
सत्य सार्थक,
विमुक्ति विहार
शुद्ध पूर्ण निर्वाण.
कहा भिक्षुओं से
प्रभु ने,
अन्यत्र कहीं न करो
पर्येषण.
कहाँ प्राप्त होगा
अमृत ?
संयम, सत्य, अहिंसा,
अहम त्याग,
प्रक्षीण होते जब
तृष्णा के जाल.
ज्यों-ज्यों. मनः-अन्धकार
हटता जाता है.
आलोक व्याप्त होता
जाता है.
आकस्मिक विरक्ति
नहीं होती है.
इसके निमित्त,
संयम ज्ञान की
निश्रेनी चढ़नी होती है.
प्रथम, विश्लेष्णात्मक
दृष्टि रखो मन में,
संसार, केवल दुःख
है.
उसके कारण निरोध
उन्मूलन भी है.
यदि मनुष्य ग्रहण
करे,
सम्यक दृष्टि,
संकल्प वाचा,
व्यायाम, सदाचार
पवित्र जीविका,
आहार, विचार, शील,
प्रज्ञा, समाधि.
हरण करते हैं.
समस्त व्याधि.
इन्हें मैंने.
निरंजना नदी के तट
पर जाना.
जब एक एक सप्ताह
विमुक्ति मनन ध्यान
में व्यतीत किया,
साधना काल,
राजयतन अजमाल औजर
मुचलिंद तरुओं की, सघन छाया में.
विमुक्ति औषधि,
रखकर निज कर में,
यदि मैं,
वृत्ति विषाक्त
फुंकार व्यथा न हरूं.
व्यर्थ यह भैषज.
क्यों कर निरख व्यथा
विह्वल जग.
मैं यों निश्चेष्ट
खडा मौन रहूँ.
जब ज्ञात हुआ.
तुम सब हो ऋषिपत्तन
में,
एक शांत निसंग तपोवन
में,
गया से इस अट्ठारह
योजन की दूरी को,
चारिका करते आया
हूँ.
सत्य ही यह स्थान,
अति सुरम्य
रमणीय नैसर्गिक
शोभाश्री से सज्जित है.
घूम रहे हरित दूर्वा
पर
चीतल एणक मृग राशक
निशंक निर्भय वनचरों
के दल.
जल पूरित सर्वत्र
जलाशय तड़ाग.
विचक खचित बहुरंगी
शतदल,
फल फूल भरा.
आम्रवन, वेणुवन, वट
विशाल खडा.
गहन नीरवता.
वातावरण में पुनीत
पवित्रता.
कैकी शुक सारस हंसों
से अरण्य भरा पूरा.
वाराणसी से तीन मील दूर,
वरुणा सरिता से दो
मील उत्तर
यह स्थान,
था समीप नगर से
पूरित सब सुविधाओं
से.
इधर वरुणा-गंगा कर
रही थी, आलिंगन.
सद्वृत्तियों के मध्य, जगी- आत्म ज्योति.
हुई सद्दः अवतरित
वहां
परम गरिमा मंडित तेज़
अखंडित अलौकिक दिव्य
विभूति.
कहा प्रभु ने आते
आते मार्ग में
शांत नीरव प्रवाहित
गंगा.
यह पतित पावनी
अध्यात्म-दर्शन की
उन्मुक्त खुली कुंजिका.
अनादि काल से निनादित आल्हादित निसृता.
हीरक पुंज गुच्छ
उच्छ्लिता लहरिता अध्वगा.
काशी का सूर्योदय.
उषा, स्वर्ण कलश,
केहरी कटि पर रख,
गुलाल बिखेरती,
हंसती,
प्राची में उठ खड़ीं
हुई.
धीरे-धीरे स्वर्ण
कलश,
गंगा के पावन चरणों
का,
था, कर रहा स्पर्श
प्रक्षालन
पहना रहा लहर लहर को
स्वर्ण वलय.
हर लहर-मुकुर में
प्रतिबिंबित,
कनक, कलश. छवि.
अरुणोदय की लगी बड़ी
भली.
सत्य ही,
अति गरिमामयी अति
पावन पुनीत
यह शुभ स्वस्तिमयी
नगरी.
इसकी पवित्र मिटटी,
ज्ञान-सुरभि-सिक्त-आद्र
गीली.
समस्त वातावरण.
अगरू धूम से
प्रच्छायित.
कण-कण में इसके,
आत्मतत्व विधा
बिखरी.
कहते, वाराणसी को
आनन्द कानन.
चरण ठोकरों पर इसके,
इन्द्रासन नंदन-वन.
यह.
कूटस्थ ज्योति.
चैतन्य-विभूति.
ज्ञान-सार-सहस्रार.
सहस्रपत्र शतदल शिव
संग स्थित, त्रिपुर सुंदरी.
यहाँ मांगते प्रव्रजित ब्रह्मचारी. ज्ञान मधुकरी. देव
दुलभ.
अलौकिक अपूर्व.
यह पवन नगरी.
निरख. यह अविमुक्त क्षेत्र.
हुआ भान.
जिनसे किया स्मर भस्म.
है वह.
यही त्रिनेत्र.
विमुग्ध मैं.
निरख काशी अविनाशी.
यह ज्ञान क्षेत्र.
निर्वाण देन.
मैं भी आया यहाँ,
प्रथम, देशना देने.
इस गंगा के तट पर,
कितने ज्ञान ग्रन्थ बने.
सबमे ही, आध्यात्मिक
पर्येषना.
तड़प रही, चैत्य
चेतना.
यह
आत्म-शोध-संस्थान.
होता. जीव का परम
उत्थान.
ज्ञान.
ज्ञान को है खींचता.
अन्यथा, मैं भी,
प्रथम यहीं क्यों
आता.
उसने भी निज सौभाग्य
मुदित आँचल में
मेरा, ज्ञान सुमन
लिया.
निज विशाल ह्रदय
में,
मुझे चिर सम्मान
दिया.
चिर शाश्वत नमस्कृत
ममतामयी काशी.
अध्यात्म उपलब्धि निमित्त अति विश्वासी.
आये हो तुम सब यहाँ,
निश्चय क्षीण होंगे मालिन्य,
हटेगी, जन्म-जन्म की
जमी उदासी.
ध्यानपूर्वक सुनकर
प्रभु, देशना.
उदान किया पंचवर्गीय
भिक्षुओं ने.
आह प्रभु !
अर्हत महाप्राण महान
नत प्रणत, हम सब
करते तव सम्मान.
चरितार्थ हुई, तव
जन्म भविष्यवाणी.
पाया जब प्रभु को,
सत्य. बुद्ध देशना
दानी.
कौडिन्य ने समझा
ज्ञान चक्षु से देखा
चार आर्य सत्य,
आठ अष्ठांगिक विधान.
उठकर,
शिरसा नमन कर किया
प्रभु को प्रणाम.
कहा प्रभु ने-
आज से, तुम्हारा
आज्ञा-कौडिन्य, नाम.
श्री चरण पकड़ कर,
कहा कौडिन्य ने-
प्रभु !
प्रव्रज्या मुझे
मिले.
दें मुझे उपसम्पदा.
मैं. तव चरण नमित,
तव शिष्य सदा सदा
का.
कहा प्रभु ने-
यह धर्म सुअख्यात
अमृत रस सरस प्रपात.
कौडिन्य !
यह धर्म खुला सबके
निमित्त.
आओ. देखो.
स्वंय परीक्षण करो.
किसी के निर्मित पथ
पर
किसी के विहित कथ्य
पर
बिना विवेचन के,
नहीं चलो.
देखो, सुनो. मनन
करो.
अपना दीपक स्वयं
बनो.
सत्य समाधि-साक्षी.
होता है. केवल अपना
मन.
वही गुरु.
वही सत्यार्थी.
सत्य मार्ग प्रशस्त
होते जायेंगे.
सब कल्मष हटते
जायेंगे.
आस्रव होंगे नष्ट.
खुकेंगे रूद्ध अमृत
पट.
यहीं पंचवर्गीय
भिक्षु और प्रभु
मिलकर रहते थे.
बुद्ध ज्ञान प्रचार
करते थे.
हुआ निर्मित
मूल-गंध-कुटीर.
जनहित- प्रथम संध
निर्माण.
हो रहा था व्यापक
विश्व कल्याण.
धीरे-धीरे नगर में,
सबको होने लगा
ज्ञात.
वाराणसी के उत्तर,
ऋषिपत्तन मृगदाव
में.
बुद्ध, देशना का हो
रहा विस्तार.
नवीन विधा. नवीन
चेतना.
अदभुत अलभ्य अपूर्व
विचार.
श्रेष्ठिपुत्र यश
यह.
पीड़ित, वितृष्ण, अति
सुख से,
एकरस निष्प्राण
विलास लास से.
एक दिवस उठा,
ब्राह्मी बेला में
पहन स्वर्ण पादुका
किया गमन, उत्तर
दिशा की ओर.
ज्ञात नहीं कितना
चला.
किन्तु मृगदाव में
जो देखा.
उसे देख.
स्तब्ध.
किम्कर्त्तव्यविमूढ़ रहा.
अभी नखत थे कुछ नील
गगन में,
पवन शीतल सुरभित
प्रवाहित था वन में.
नीरव नील नखत खचित
तले.
एक तपी शांत मौन.
कर रहा था चक्रमण.
उस झुटपुटे धुंधलके
में.
मिला उसे आभास,
बोला- आओ ! करो आसन
ग्रहण,
स्वागत है.
प्रभु चरणों के
समीप.
नमित प्रणत श्रेष्ठी
कुलदीप.
सुना नगर में जब, यश
सुह्रिदयों ने,
विस्मित होकर कहा
परस्पर.
अहो !
यश जिसने ग्रीष्म,
वर्षा, शीत, निमित्त
तीन प्रासाद किये
निर्मित.
सदा सूरा सुंदरी
सेवन करता था.
गीत, नृत्य, वैभव,
विलास, में
घिरा रहता था.
स्वर्ण खचित
बहुमूल्य कौशेय.
सुगंध सुरभित अनुलेपन
से चर्चित सदैव.
नहीं तृषा, क्षुधा
जिसने जानी.
बहती थी स्वर्ण
मुद्राएँ जैसे पानी.
रमणी आनन् ही जिसका
दर्पण.
किया उसने किस प्रकार,
समस्त राग मोह विलास
का तर्पण.
आज वह.
ब्रह्मचारी है.
ध्यानभूमि विहारी
है.
निश्चय ही, बुद्ध
देशना
है अपूर्व चमत्कारी.
हम चार,
श्रेष्ठिपुत्र
अनुश्रेष्ठी पुत्र.
विमल, सुवाहू, पूर्णजीत,
गवाम्पति.
सत्वर मृगदाव होंगे
अग्रसर.
अति विलासी. जब सन्यासी
हो सकता है.
हम सब भी क्यों न
बने उसके सहचर.
वे चारो जाकर नमित
हुए, प्रभु चरणों में.
बोले प्रभु हम अति
आस्रावों में.
उठे.
अभय मुद्रा में
प्रभु के दक्षिण हाथ,
कहा मृदु स्वर में
धर्म है सुआख्यात.
दुःख-क्षय, निलित्त
हो अनुशासित,
ब्रह्मचर्य का पालन
कर,
करो समस्त तृष्णाएँ
शमित.
यश मित्रों को हुई
प्राप्त,
प्रव्रज्या और उपसंपदा.
यश के नगरवासी पचास,
वंशजों ने जब सुना.
परम सौख्य समृद्धि सन्निवेशों
की प्रव्रजित कथा.
उनसे भी रहा न गया.
कौन सी यह देशना है.
सत्वर करती है.
राग मोह का उच्छेदन.
एहिक दैहिक सौख्य
त्याग.
करते सब, प्रव्रजित
होकर अरण्य विचरण.
प्रभु चरण निकट
उन्हें भी,
प्राप्त हुई
उपसम्पदा.
जिन त्रिवचनों को
सर्वप्रथम.
यशमाता, यशपत्नी ने
प्राप्त किया,
उस त्रिरत्नों को,
बुद्धम्
शरणम् गच्छामि.
धर्मम् शरणम्
गच्छामि.
संघम शरणम्
गच्छामि.
इन वंशजों ने भी
ग्रहण किया.
इस प्रकार इकसठ
भिक्षुओं का संघ
बना.
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