आज आ रहे प्रभु,
कपिलवस्तु !
नववधू सरिस सजी
अलंकृत नगरी,
उत्फुल्ल, आमरण,
वसन, सज्जित,
बाल-अबाल, नर-नारी !
वीथियाँ, मार्ग,
शाखा, प्रतिशाखा,
गृह, अटारी,
पुष्पावली खचित
सुशोभित !
वातायन, गवाक्षों
से, द्वारों से,
पथ पर, हो रहा था,
पुष्प वितरण वर्षण !
प्रभु !
महाभिनिष्क्रमण
पश्चात आज,
आ रहे थे प्रथम बार
!
सहसा हो उठा उद्घोष,
प्रभु ने किया, नगर
में प्रवेश !
वे राज प्रासाद की
और आ रहे,
भिक्षुओं के संग
भिक्षाटन करते !
सुना, गोपा ने,
प्रभु आ पंहुचे
सिंहद्वार के समीप !
सहसा दहला अंतर, काँप
उठी वह सभीत !
खोला, होकर, अति
अधीर,
वातायन का दोनों
कपाट !
तप्त पवन के झोंकों
से,
जल उठा व्रत उपवासों
से टूटा कोमल तन !
देखा उसने ऊपर
सभ्रम, सहम !
दाहों में घिरा,
ज्वाल फूंकता,
दग्ध ज्येष्ठ का
निर्मल अर्क !
जल रहा, अदभ्र निरभ्र
नील गगन !
जल रही, धरा पहन
अपना रंगहीन जीर्ण वसन !
आह ! यह तपता निदाध
यह जलती जलहीन धरा !
आ रहे ! प्रभु !
वे कल कोमल कंज कँवल
चरण,
कर रहे वे ही पग,
क्योंकर निशंक,
तप्त धरा सहन !
ये अरुणाभ कांतिमय
पग,
किसलय, किंशुक, नव
विकसित, पंखुरी के
स्पर्श से भी, जाते थे
कंप !
रख दोनों कर
उन्मुक्त कपाट पर
क्षण स्तब्ध निश्छल
खड़ी रही गोपा !
जड़ हो गए आकुल बोल !
तीव्र प्रभंजन
प्रताड़ित लतिका सी,
वह, आमूल गयी डोल !
कंपे शुष्क आरक्त
अधर !
नयन निर्वाध
नीर-प्रवाह-झर !
मुख, कातर, करुणा,
विगलित, विवर्ण !
कम्पित तन-मन,
उद्वेलित धड़कन !
विस्फारित अश्रु
आप्लावित आँखों ने, देखा,
प्रथम बार !
जीवन-दिनमणि,
एकमात्र आधार !
स्वर्ण बदन, काषाय
वसन,
स्कंध पर, चीवर,
पिण्ड-पात्र कर में ग्रहण,
कर रहे,
द्वार-द्वार, भिक्षाचार !
निरखा गोपा ने यह,
अभूतपूर्व दृश्य,
भर आँखों में प्रथम
बार !
उमड़ा, अबाध,
अन्तर-ज्वार-संकुलित-उद्गार !
वातायन के पट बंद कर चक्कर खाकर,
बंद कपाटों से लग,
क्षण खड़ी रही !
हां प्रभु ! हां
प्रभु ! कहती,
वह धरा पर निराधार
गिर चींख उठी !
दारूण दुर्द्धष,
प्रकर्ष, प्रचंड, प्रज्वलित,
पीड़ा, अश्रुम्बुध
में जलती लहरों सा उमड़ा
बनकर सहस्र लपटों
में वाड्व ज्वाला !
आकुल मर्माहत अंतर
शत-शत टुकड़ों में
बिखर पड़ा !
फटी-फटी, आँखों से
देखा,
गोपा ने सम्मुख,
स्पष्ट साक्षात,
करता विकत अट्टहास,
आह अदृष्ट निठुर
दुर्दांत खडा !
उठकर धरती से,
गिरती-पड़ती,
किसी प्रकार निज को
संभालती,
दौड़ी, नृप शुद्धोधन
कक्ष में !
पिता ! पिता !
जो हैं युवराज,
आज वे ही भिक्षु बने
कर रहे, भिक्षाचार
अपने ही राज्य में !
जिन्हें, सदा किया,
सबकुछ वितरण,
आज, लेकर उन्हीं से
, अन्न अशन !
सुनते ही, त्रस्त
विकल शुद्धोधन
निज उत्तरीय, स्कंध
पर रख,
निकले द्रुत गति से
अधीर
प्रासाद से बाहर !
देखा !
अरमानों के मंजरित
रसाल को,
आमूल धू-धू कर जलते
!
सजे सजाये काम्य-हर्म्य
को,
ध्वस्त धरा पर गिर
धूल में मिलते !
यह, भिक्षुक रूप !
मर्मान्तक
प्राणान्तक दंड दे रही,
किन जन्मों की पीड़ित
चूक !
स्तब्ध खड़े रहे क्षण
भर !
सका न ह्रदय आंक,
लगी चोट, कितनी,
गहन, कहाँ पर !
विसुध तन्मयता !
हत् चेतना !
बढ़कर, कर से बलात
यंत्रवत,
भिक्षापात्र खींच
लिया !
आतुर बाहों में भरकर
प्रभु को,
ह्रदय समीप भींच
लिया !
परे हटाकर
भिक्षापात्र,
बोले अश्रु भरे गले
से,
यह अपनी वंश परम्परा
नहीं !
किसी राज्यपुत्र ने
आजतक,
कभी, कहीं, से
कदापि, भिक्षा ली नहीं !
देते आयें हैं !
हम हैं दाता !
हाथ दान हेतु झुका
रहा सदा !
बोले प्रभु शांत
मृदु गंभीर स्वर में-
“मेरी कोई वंश
परम्परा नहीं”
भाव-स्वप्न-जगत,
अर्हत का,
यहाँ कहीं भी सत्य
नहीं !
प्रव्रजित सन्यस्त
कब हुआ किसी का,
वह नहीं कभी एक का,
और है सबका !
सब प्रकार अभ्यर्थना
स्वागत कर शुद्धोधन ने,
आग्रह किया प्रभु से- भंते !
आयें हैं तो इतनी
अनुनय,
एक बार गोपा कक्ष
में जाएँ !
मात्र, मिल लेने की
ही उससे,
औपचारिकता निभाएं !
वह !
जिस दिवस से आपने
गृह त्याग किया,
उसने राजकीय भोजन
वसन छोड़ दिया !
धरा-शयन, काषाय-वसन,
एकाहार अशन !
कन्द-मूल, फल, फूल
पर निर्भर जीवन !
प्रभु रहे मौन,
फिर देखा शारिपुत्र
मोद्गुल्यान की और !
उनकों भी चलने का
संकेत किया !
कहा मार्ग में,
वहां, जो भी देखोगे
!
प्रश्न नहीं करोगे !
थी ! प्रतीक्षा में
गोपा मौन खड़ी !
ज्यों निष्कंप
दीप-ज्योति
अथवा अश्रु-मुक्ता
की, मौन लड़ी !
प्रभु, जहां थे
अवस्थित,
नहीं वहां था भाव
वैभव ण कोई वैशिष्ठ्य !
जाने कितनी भाव-भूमि
त्याग,
अन्नकोष, मनः-कोष ,
पारकर,
कर रहे थे वे किसी
अज्ञात लोक में, विचरण !
परे, वह, साधारण मानव-चिंतन से !
फिर भी, मन्त्रवत
ध्यानमग्न किया,
उन्होंने अन्तःपुर
गमन !
आ रहे प्रभु, गोपा
कक्ष में !
चलदल पत्रों सा
कंपा गोपा का विह्वल
आकुल, तन-मन
और अविराम धडकता,
वेदना-विगलित-कातर-वक्ष-विकल
!
जो आते चरण पड़ रहे
धरा पर,
वे भी थी पड़ते आ
रहे,
उसकी अधीर पीर भरी
अंतर-धड़कन पर !
वह ! थी,
किम्कर्त्तव्यविमूढ़,
अर्ध विमूर्छित सी
कम्पित,
कदली नवल पट सी
थर-थर !
क्यों कर, कैसे
होगा, स्वागत !
वह, स्वंय
अश्रुस्नात अनुत्तरित प्रश्न चिन्ह !
ह्रदय, अटूट अबाध प्रज्वलित वहिन् !
दशन दबे, काँप रहे
शुष्क अधर !
शब्द,
ह्रदय आंदोलित
चक्रवात से घूर्णित,
भूल गए अपना स्वर !
जो ! मन में बोल
चुकी या बोल रही थी,
वे बोल भी,
रिक्त छूंछे अनुरणित
अपरिचित से
कर्ण-कुहर में गूँज
रहे थे !
आंसू में डूबी आँखें
!
सरि में भींगी
कुवलय-पातें !
नत पद्मपलाक्ष मोटी पलकें !
मस्तक पर घुंघराली
बिखरी अलकें !
खुले रूक्ष लम्बे
अजानु कृष्ण केश,
आकुल मणिधर खोज रहे,
अमिय-चषक-सन्निवेश !
काषाय-वसन,
हतपभ क्षीण देहयष्टि
!
नवल नीर नीरद कक्ष
में,
विसुध पड़ी अपान
ज्योति निष्प्रभ द्दुती !
देहली पर, थमी पग-ध्वनी
!
गोपा की आँखों के
सम्मुख,
घूम गयी, डगमग करती
सम्पूर्ण अवनि !
यह, वही,
चिरकान्क्षित !
चिर प्रतीक्षित क्षण
था !
मन, प्रतिपल जिसके
निमित्त,
नितांत विकल था !
किन्तु, वह घडी
साक्षात प्रत्यक्ष साकार हुई !
युग-युग की पीड़ित
चेतना,
काष्ठवत, जड़, निष्क्रिय,
निराधार हुई !
प्रभु थे अर्हत
रागातीत बीतराग !
किन्तु, गोपा थी
वैसी ही उसी भांति !
वह, शयन कक्ष का प्रवेश
द्वार ! था,
गौतम-गोपा, मध्य,
अभेद्द अलंघ्य
दुर्निवार !
उस पार खड़े थे प्रभु
!
इस पार नत पलकें
कलांत विधु मुख !
जैसे ही प्रभु ने
किया प्रवेश !
जड़े मृणाल सरिस
दोनों कर,
निराधार कटे वृक्ष
सी गिरी गोपा,
श्रीचरणों में,
बिखरी सहस्र पत्रों सी,
आँखों से अजस्र
आप्लावित अश्रुधार,
पद-पद्म ढंके
आवृत कर उन्हें
कृष्ण-केश-कादम्बिनी,
रेशमी हार !
अबोल मौन क्रंदन !
व्यथा-लता अवर्ण्य
अनुक्त, अबाध-वर्णन !
मात्र,
अश्रु-चरण-प्रक्षालन !
वही थे बने,
अर्चना, अभ्यर्थना,
स्तवन, वन्दन !
जो आये थे,
वे दो पल भी, पदासीन
न रहे !
वैसे ही मौन
ध्यानस्थ आसन त्याग,
निर्द्वंद्व
निरुद्वेग चले गए !
चौंकी गोपा !
कर पुट वैसे ही रीते
पड़े रहे !
अश्रुस्नात विवर्ण
विकल बदन !
उठी गोपा,
परस्पर शुद्धोधन से
मिले नयन !
एक ही प्रश्न, शून्य
छूंछे अनुत्तरित,
घूम गए कौंधते,
दोनों की आँखों में
बनकर ज्वलित अश्नि !
विस्फारित आँखों से निरख रहे,
वह विद्रूप करता
रीता आसन !
क्यों आये ! कैसे
आये !
क्या प्रभु को रहा न
रंचक ज्ञान !
तब यह आगमन किस
हेतु,
रखा उन्होंने, किसका सम्मान !
ह्रदय झकझोर उठा
वेदना-विगलित !
ऐसा क्यों ? ऐसा
क्यों ?
सात वर्षों की
अहर्निशी की अधीर प्रतीक्षा !
यही परिणति लेकर आई
थी !
आखिर क्यों !
यह प्रश्न
दिग्भ्रमित प्रताड़ित
जल रहा था, उल्का सा
!
खड़ी रहने में सब
प्रकार से अक्षम,
दीवार लगी गोपा खड़ी
रही, कर आँखें बंद !
सोचती रही मन ही मन !
व्यथा कोई भी, कैसी
भी,
इस ह्रदय वीथिका में
घूमती अनवरत,
कभी अपरिचित रही
नहीं ! वह,
एक नवीन, अछूता,
पात्र खोलती रही !
और अनुभूति राग से
रंग भरती रही !
किन्तु किस मर्मान्तक
प्राणान्तक,
ज्वालामुखी-विस्फोटक-अचूक
वार को,
उसने, इस दिवस के
निमित्त
सुरक्षित संजोया,
था !
पीड़ा का ऐसा मारक
मरोड़,
गृह-त्याग-विछोह
दिवस में भी,
इस प्रकार संघातक,
कदापि नहीं, आया था !
जो बीता, उसका भी
उत्तर था !
एक दिवस, प्रभु
आयेंगे !
किन्तु आज ! यह आगमन
!
मेरे बीते अतीत की
विरही रातों का
आमंत्रण भरा प्रात था !
आशाओं के नव
प्रस्फुटन का,
उल्लसित भावात्मेष
था !
हर उत्तरापेक्षी प्यासे
चिर तृषित प्रश्नों का,
स्वाति-सजल-नवल-नीरद-सीकर-कन था !
उड़े, रंगज्वार,
सहस्र प्रश्नों के,
सहसा यह घन अन्धकार
आभाहीन !
धुतांग, सप्तरंग
इन्द्रधनु रंग विहीन,
ध्वस्त, झर रहे, हो
रहे विलीन !
आज ! समस्त प्रश्न !
समस्त उत्तर !
हो गए अवधि रहित
बंद,
महाकाल के कृष्ण
मंजूषा में,
घोर तमिस्रा के
गह्वर में !
अब कभी न भूल कर भी
एक प्रकाश किरण
उजली,
उसे स्पर्श कर पाएगी
!
जिस पीड़ा से बाध्य
होकर,
प्रभु ने, दिया गृह
छोड़ !
उस पीड़ा ने मेरे
अंतर में बस कर,
मुझे, अणु-अणु में
दिया तोड़ !
यह, जीवन सृका
बिखरी,
छिटकी टूट-टूट कर
लुढ़क गए एक एक मनका
!
बिखर गए जाने अनजाने
पथ पर
उसके एक एक जोड़ !
ऐसा भास् हुआ,
राहुल माता को
उस दिन से अबतक,
वह, शोक संतप्त
अश्रु स्नात व्यथित !
केवल, पावस के
निर्मम झाड़ियों में
पथ अवलोकती नितांत
निसंग खड़ी रही,
वज्र निपातों से
टूटे,
एक एक आशान्वित पात
!
वह, निराधार पातरहित
निरावरण मृणाल !
जिसे, निर्ममता से
मरोड़ समय ने,
नियति-ठोकरों में
दिया डाल !
आज ! जब राहुल आयेगा
!
यह रिक्त आसन पायेगा
!
वह क्या उत्तर देगी
!
उस शून्य सुसज्जित
आसन चौकी पर,
शीश पटक कर वह रोई,
पुनः आर्त विकल !
उस दिवस का औचित्य,
आज अकारण अनौचित्य
बना,
कर रहा था अनवरत
विह्वल उसे !
अभी भी विश्वास नहीं
था कि,
सत्य-अग्नि
प्रज्वलित लपटों में,
हो चुके भस्मासात्
सभी प्रकार के भौतिक
सम्मोहन !
जिस अनन्त अटूट महत
प्रकाश में था
प्रभु का विचरण !
एकात्म हो चुके थे वहां,
रूप, अरूप, आकृति,
प्रकुति,
अथ-इति, परिणति !
था, केवल अविराम
प्रज्वलित,
एक एक निष्कल्मष
निष्कल कठोर, सत्य !
अनंत, सांत क्या जाने,
विश्व को छोड़,
व्यक्ति-विशेष को
क्यों माने !
हो चुका था, समष्टि,
व्यष्टि में विलीन !
समस्त पार्थविकता
वैशिष्ठ्य रहित,
आभा क्षीण, प्रकृति
अकिंचन खड़ी विवश दीन
!
अतः शेष रही न
भावभूमि !
किन्तु गोपा !
विगत समस्त संबंधों
स्मृतियों में विक्षिप्त,
घायल हिरनी सी, रही विसुह घूम !
यही यथार्थ !
यही वास्तविकता !
इसमें ही उसका
अस्तित्व, रचा बसा !
इसमें ही अन्रानित
प्राणों का स्पंदन !
क्या पता उसे !
कितने लोकों को
पारकर,
जाने कब का, कहाँ,
बढ़ा चला,
स्वामी का
सत्यारूढ़-ऊर्ध्वगामी-स्यन्दन !
अब वह, सर्वदा के
लिए तिरोहित !
अलभ्य आशातीत रहा !
किन्तु, क्यों,
क्यों का विकल
प्रश्न !
डस रहा उसे फुंकारित
विषाक्त ज्वलित !
अर्हि फण-बन !
रख कर निज उद्वेलित
वक्ष पर,
दोनों हाथ !
बोली मन ही मन !
निज को सांत्वना
देती,
मौन हो जा ! गोपा
मौन !
निसंग व्यथा का,
साथी ही रहा कौन !
मात्र !
एक अस्वीकृति !
नारी,
उसकी ही निश्चित
प्रति-कृति !
ना-ना-ना के अजस्र
अनंतर अनुरणित,
स्वरों में ही, जन्म
हुआ, नारी का !
वह !
समस्त स्वीकृतियों
पर, महाविराम !
आज यह सहसा जो हुआ !
उसने कहीं का भी न
रखा !
विरह-रात्रि, भयावनी
थी
पर वह भी आंसू से
भींगी
आँहों से सिंकती
रहती थी !
उसमें ही,
स्मृतियों की सजल,
शीतल,
श्यामल, सघन,
अमरायियों में,
मनः कैकी उडती,
बिखरे, नीड़ के तिनके
चुनती थी !
किन्तु !
आज !
यह उजला अंधे दर्पण
सा दिन !
हो गया अदृश्य
जिसमें, सौख्य-क्षितिज !
किस तिरस्कार से
देखेगा !
हर मौन तीक्ष्ण
चक्षु-शल्य,
होगा, आर-पार !
बढ़ता यह आर्त ह्रदय
विकल !
रात्रि, आवृत कर
लेती थी
निज सजल, स्नेह
सिक्त आँचल में,
यह अजस्र मनः-तपन !
किन्तु यह निरात
निरावृत उजला दिन !
कृष्णा का है चीर हरण
!
किस प्रकार प्रश्न
विशखों से, निसंग,
मैं, अपनी रक्षा कर
पाऊंगी !
आ रही दूरागत
पगध्वनी !
प्रथम प्रश्नबाण
लेकर,
लगता है समीप आ ही
पंहुचा राहुल !
वे भोली निश्च्छल
आँखें !
अधीर सी किस प्रकार
करेगी बातें !
कहेगी क्या !
यही कि वत्स देख !
न कर मुझसे कोई
प्रश्न !
केवल मुझे ही देख !
यही दशा हुई थी,
वन-वासिता सीता की !
किन्तु राम राजा थे
!
न्याय-प्रिय
प्रजा-वत्सल थे !
फिर भी, सीता के मन
में,
एक आशा किरण जली थी,
कभी तो राम आयेंगे !
यहाँ, बिखर गयी
संजोयी शान्ति !
समाप्त हो गया तेल,
शेष रह गयी धूमावृत
जलती बाती !
मैं !
वह सरिता जो ह्रदय
फाड़ पर्वत का,
विकल निकली,
किन्तु पथ में ही
तप्त सैकत में
जलकर रह गयी !
मिल न सकी,
तरंग-राज की अपार
लहरों से
सुरक्षित करती
आलान्गित कर
फ़ैली, विशाल बाहों
से !
इस नैराश्य
तमिस्रावृत कृष्ण क्षपा का,
कभी कहीं भी प्रात
नहीं !
इस गहन जलधि में,
विकसित अनंत जलजात,
निरख रहा जल में,
गहन गहरे क्षत,
नियति-प्रदत्त
निर्मम आघात,असह्य पीर !
रही ह्रदय चीर !
गिर रहे निराधार नयन
नीर !
नयनों के ध्वांत
अशांत धुंध भरे क्षितिज पर,
जल रहे, अश्रु-नखतों के उल्का वन !
मन एकाकी, पंखहीन
पक्षी सा,
पडा, तडपता अति विषण्ण
!
यही है जीवन !
यही है जीवन !
यह उल्लसित मन का
मादक मधुवन !
और पीड़ित का, अदभ्र
निरभ्र जलता तप्त गगन !
ऐसे ही दग्ध जले नभ में पंख फड़फड़ाता
शान्ति खोजता भटक
गया मन !
यशोधरा !
धरा, पीड़ित, दलिता,
शोषिता, उपेक्षिता है !
किन्तु उसे शीश पर रख कर,
उसका भी, भार वहन कर
रहा,
उसे संतुलित,
सुरक्षित, मर्यादित, करता है,
सहस्र फण !
और,
यहाँ, फूलों से भी
बरस रहे दहकते आरक्त, अग्नि कण !
गगन भी, जीर्ण शीर्ण
नील वसन आवृत,
नखतों के अनगनत
पैबंद से निराश,
गहरी स्वांसों में
त्याग रहा
धूमावृत विषाक्त
फुंकार !
अहर्निशि सर धुनता
हाय हाय करता
अपने ही तीखेपन से
पागल है सागर !
क्या ?
चल-अचल,
साकार-निराकार, शाश्वत,
चिरंतन, क्षयिष्णु पल पल परिवर्तित, क्षण भंगुरता !
सबमें एक सिस निरंतर
प्रत्यावर्तन, विकर्ण !
केवल विछोह-मिलन का आदान-प्रदान !
बनने-मिटने का
उपक्रम,
विधान !
कहते जिसे पंचतत्व,
रूप विपर्यय में
अक्षुण्ण अस्तित्व !
किन्तु, गोपा !
जब ह्रदय टूटता है !
वह कब जुटता है !
आंसू से धुल-धुल ,
न्यूनतम भग्नता भी,
और स्पष्ट होती है !
हर लघु कण में भी,
अति तीव्र संवेदना
होती है !
यह !
विराग !
प्रभु के मन का
क्षणिक आवेश नहीं था !
जाने कितने जन्मों
की गवेषणात्मक,
आत्मपरक यात्रा के,
विराम क्षितिज पर,
प्रज्ञा-ज्ञान का
नवोन्मेष हुआ था !
थी केवल एक लगन,
उनके जीवन में !
वहां कहीं गोपा का
प्रवेश नहीं था !
यह !
परिणय सूत्र, ग्रंथि
बंधन,
इतना भी, क्यों झेला
प्रभु ने !
और मैं !
स्मृतियों की समाधि
पर जली,
एकाकी दीपशिखा !
जिसे केवल, वियोगी,
पदचिन्हों का,
पथ बिखरी धूल,
मात्र शुष्क रजकण
मिला !
वे ही पुनीत पावन रजकण,
जो प्रभु-चिन्हों से
अंकित,
इस श्रद्धानमित
मस्तक का चन्दन !
इन वेदना-विगलित
विह्वल वक्ष का,
अंगराग अनुलेपन !
उनपर झरते अश्रु
वारि,
कर रहे उनका
अभिसिंचन !
हुई एकाग्रता भंग !
दौड़ा आया राहुल
लगा उसके अंक !
अति उल्लास भरे
उतावले स्वर में
बोला ! माँ ! माँ !
तात ! तात ! आये हैं
मेरे !
क्या देखा है उनको
तुमने !
अपलक गीली आँखों से
निरख पुत्र को,
गोपा ने आलिंगन में बद्ध
किया !
दोनों दुर्बल
बाहुलता में जकड़ा !
कुछ हांफती सी बोली,
हौले से,
तूने देखा ?
शीश हिलाकर निश्च्छल
आँखों से,
निरख माँ को, कहा
राहुल ने-
नहीं माँ ! कैसे हैं
वे !
सब वहां काषाय वसन,
पिण्ड पात्र, चीवर
में हैं !
कैसे जानूं उनमें
तात कौन !
वहां एक गहन गंभीर
नीरवता है !
सब आते जाते कार्यरत
निज में, निमग्न !
नहीं परस्पर कोई
करता किंचित संभाषण !
सब सहमे-सहमे,
आशंकित,
डरे-डरे, भावाभिभूत
भरे-भरे हैं !
लेकर गहरी सांस, मौन
हुई गोपा !
तू मेरा सुत !
जो बात रही मन में
जलती, सदा गुप्त !
कहूं कैसे तुझसे !
वे कहाँ हैं !
निश्चय ही वे वहीं
होंगे !
जले, जहां
प्रतीक्षातुर मेरे प्राण अविराम,
वहीं कहीं अरमानों
के अश्रुसिक्त उष्ण क्षारों में,
उनके पद चिन्ह पड़े होंगे !
ध्वस्त !
अभिलाषाओं, उल्लासों,
उमंगों के, खँडहर में,
उनकी ही, शेष बची, ढहती दीवारों की,
छाया में, स्मृतियों की
सजल घटाओं के नीचे !
जहां पागल पीडाओं की
उठती कौंधें,
वे, निर्विकार शांत
खड़े होंगे !
मेरे समस्त तिरोहित
सौख्य,
शयित, सवाक, अंकित,
उन
कान्तिप्रभ-ज्योतिर्मय मुख में,
मेरा अतीत !
मेरा अथ-इति, भविष्य
निश्चेष्ट पडा !
उन पावन पग-तल-चरण-क्षितिज
पर
संभव है,
कहीं पड़े होंगे
स्वप्न-सुरधनु के,
रंगहीन कंकाल !
जिन्हें रही, अब तक
मैं,
इस दीन ह्रदय में
पाल !
मौन निरख गोपा को,
राहुल ने झकझोरा !
कुछ कह ! माँ !
चौंकी गोपा !
बोली- राहुल मेरे
वत्स !
तात !
समस्त बंधनों से
परे, तेरे तात !
मात्र तेरे ही अब
नहीं रहे !
एक कांपता
अश्रुबिंदु इन नयन कोरों पर,
उनके निमित्त बनता
था ज्वार संकुलित सिन्धु !
अब वे अजस्र अश्रु धार !
उनके अवरोध न बन सके
!
किन्तु !
हार नहीं मानूगी मैं
!
निज अधिकार प्राप्ति
निमित्त,
अंतिम क्षण, तक
प्रयास करूंगी मैं !
बतलाऊंगी तुझे, कि
तेरे तात कौन हैं !
पुनः राहुल का शीश
चूम !
गया उसका कंठ रुद्ध
!
बोली वह, रखकर
निज वक्ष पर विवर्ण
कृष हाथ !
सुत ! हर क्षण, हर
पल, तू रहा, मेरे साथ !
अति सशंक
पीड़ा-कातर-मन !
तू ही शेष बचा
एकमात्र, मेरा अलभ्य धन !
इस एकाकी मन की, यह नितांत,
निसंग, मौन बीहड़
यात्रा !
स्मरण भी नहीं,
प्राप्त कितनी पीड़ा !
कितनी थी उसकी मात्रा
!
इस कटंकित कान्तर
पीड़ा के वन में,
इस निभृत निविड़
एकाकीपन में,
तू एक, शुभ सजल
स्नेहिल शीतल नखत सा,
रहा चमकता !
इस नैराश्य, ध्वांत,
अशांत, गगन में,
कितनी ऋतुएँ आयी,
गयी, बीती,
कितनी शुभ तिथियाँ,
रही रीति !
अन्य स्थानों के
उल्लासित उत्सव !
बिखर गए इस प्रांगण,
लेकर विद्रूप
शल्यविद्ध दीन पराभव !
अब !
कोई पर्व !
पर्व नहीं लगता !
दर्द बनकर है रग-रग
में रिसता !
इन सूनी आँखों की
भींगी पलकों की छाया में,
रहे घिरे सदा बदल कजरारे !
आंसूं की लहरों में
!
पीड़ा के पहरों में !
शल्य बिंधी कैकी
चीखी,
कज्जल कृष्ण अँधेरे
में,
किसने देखा !
उन सूनी रातों में,
मशाल बने
अश्रु-बिंदु, किसे खोज रहे !
तड़प-तड़प, विकल,
अपने ही अवर्ण्य
अंतरदाहों में !
आज !
यह उपेक्षित,
तिरस्कृत, लहर-प्रताड़ित,
अश्रु-ज्वार ! हो
गया
हटात् स्तंभित
संज्ञाशून्य !
निरख, वह पूर्ण
चन्द्र निर्विकार,
स्पर्श से नितांत
दूर !
अब न कौमुदी कभी
यहाँ खिलेगी !
कदापि न वेदना
संवेदित अनुभूतियाँ,
उत्तरित
प्रत्युत्तरित होती
एक दूसरे के गले
मिलेगी !
किन्तु मैं !
केवल एक बार करूंगी
निज मन का उपचार !
आज, प्रथम, और अंतिम बार !
करूंगी निज हाथों
से,
तेरा राज्योचित
अनुपम अपूर्व श्रृंगार !
एक एक श्रृंगार
विधान !
कहेंगे, विरही-जीवन-यात्रा-वृतान्त
!
सुत !
तू होगा मेरा जीवन
दर्पण !
उनके चरणों में नत प्रणत
सहज अर्पण !
तेरे निश्च्छल मुख
पर,
इस आर्त-विकल-ह्रदय
की धड़कन !
निरखेंगे, युग-युग
के प्राणों का स्पंदन
मेरे मर्माहात-ह्रदय
जीवन धन !
यह निष्कलंक मृदुल,
मसृण,
अभिनव, विकसित
मुखारविंद !
अवलोक,
अनायास उमड़ेगा,
वात्सल्य-स्नेह, अपार,
तू मेरा शुचि दुलार
!
नारी मन का अमोघ
अचूक वार !
तू मेरा छद्मवेशी,
मोहक, मारक, विजय !
मन्त्र-मुग्ध, विसुध
सत्वर स्वामी होंगे,
सदय !
आयेंगे तव हाथ पकड़,
मेरे द्वार !
तू मेरा जीवन
श्रृंगार !
सब सुनता राहुल ने
किया विकल प्रश्न !
कैसे हैं तात ! इतना
ही कह !
कहा गोपा ने हौले
से,
दीर्घ काय, काषाय
वसन, प्रसन्न-बदन,
स्वर्ण-सहस्र-पात्र-जलजात
!
ज्यों, नीलाम्बुध
से,
असंख्य रश्मि,
प्रभा-प्रकाशित,
देदीप्यमान स्वर्ण
दिनमणि उदित,
प्रतिष्ठित प्रात !
अर्ध निमीलित आकर्णमूल
नीलनयन,
हो गयी समस्त
वृत्ति-वीचियाँ उनमें,
सतत समाहित, शांत !
निश्चल, निष्कंप,
परम ज्योतिर्मय,
आत्म ज्योति, मृदु,
अल्पभाषी, अति विश्वासी !
गंभीर, गति शान्ताकार !
राहुल ! मेरे वत्स !
मेरे अंतर सौख्य
उत्स !
व्यथा विकल क्षणों में
तुझे निरख कर सीखा
जीना !
तू उनका सुत !
जा उन चरणों में नमित
झुक,
कर उनसे निज देय
निवेदन !
वे ही यथार्थतः
करेंगे, तेरा उन्नयन !
तू उनका आत्मज, निज
उत्तराधिकार याचक,
वे, तेरे समस्त
अरिष्टियों के रक्षक,
निष्पक्ष निर्णायक !
वे जाज्वल्यमान प्रखर
निष्कल्मष दिनमान !
जा ! चरण स्पर्श कर,
कर उनका सम्मान !
तू !
अभिनव विकसित
कांतिवान
किंशुक-किसलय अति
मृदुल सुकुमार !
हो नत प्रणत,
कर, पद-रज स्पर्श !
खिले,
तव ज्ञान-क्षितिज पर
प्रत्युषित
श्रद्धा-सीकर-सज्जित
प्रज्ञा-कुवलय,
के एक-एक सुरभित,
पात !
तू !
शुचि शौष्ठव पूरित
नवनीत
मृदुल मसृण अवदात
जलजात !
उसे विदा कर खड़ी
द्वार पर,
परम संतुष्ट देखा भर
आँखों से,
राहुल के कृष्ण
चूर्ण चिकुर लोल अलकों पर,
सज्जित मनिमय स्वर्ण किरीट,
ग्रीवा में बहुमूल्य
मौक्तिक स्वर्ण हार
और स्वर्ण खचित
कौशेय वसन
चित्र विचित्र
अलंकार !
शारिपुत्र
मोद्गग्ल्यान के संग,
उनके ही हाथ पकड़,
पड़ रहे थे, हरित
दूर्वा पर,
उसके अल्हड चपल चरण
!
द्वार बंद कर,
निज कक्ष में
उद्विग्न खड़ी थी गोपा !
ज्यों धुंध में
लिपटी निष्प्रभ चंद्रकला !
क्या होगा ! क्या
करेंगे प्रभु !
इस ऊहापोह में
पवन-प्रताड़ित-घूर्णित,
था, मनः-जलपोत !
कम्पित,
तन-मन, विवर्ण गात !
शुष्क आरक्त अधर
सम्पुट पर,
पीड़ा फणिधर के
विषाक्त
शत-शत, दंशित, आघात
!
आज सातवां दिवस
प्रभु का,
कपिलवस्तु आगमन का !
प्रभु आगमन के तृतीय
दिवस में, ही,
नन्द का राज्याभिषेक
विवाह होना था !
प्रभु ने, बिना उससे
पूछे,
उसकी इच्छा जाने,
काषाय वसन पिण्ड
पात्र सौंप दिया !
वह !
अरमानों का
रसः-आप्लावित शतदल !
सहसा, उसपर वज्र
निपात हुआ !
उधर अनिद्द्य सुंदरी
सुनंदा,
सौभाग्य-प्रतीक शुभ,
ऋचाओं, केशर,
हरिद्रा दूर्वा, से
चर्चित सौभाग्यकांक्षिणी,
जनपद कल्याणी ने,
अधीर आर्त रुदन कर
समस्त अलंकार आभरण
उतारती फेंक,
अपना सर पीट लिया !
और मौन रहा नन्द !
देखा, दोनों ने,
मत्त गयन्दों से
निर्ममता से कुचला गया,
पुष्पित हरित कदली वन !
और आज अभी !
लाएगा क्या परिणाम !
मेरा चिर संचित
अभिसिप्त अरमान !
वह मांगेगा देय !
पिता को उत्तराधिकार
देना होगा !
सहसा कपाट खोल
हांफती,
दौड़ी आई, दासी !
आर्ये ! आर्ये !
न्यग्रोध आराम में,
प्रभु चरणों के नीचे
नतमस्तक,
हो रहा प्रव्रजित,
राहुल,
कपिलवस्तु राजवंश का
अंतिम वंशज !
गिरे धरा पर उसके
चूर्ण अलक कट कर,
आश्चर्यचकित विस्फारित आँखों से,
निरख दासी को,
चीखी, गोपा वक्ष पर
दोनों हाथ पटक,
निज केश खींचती !
गिरी धरा पर चक्कर
खाकर,
शल्य विधा कुररी सी
तड़प उठी करती क्रंदन !
आह ! यह मेरा सर्वस्व लुटा !
यह अचूक अमोघ अस्त्र
भी,
निरस्त्र होकर टूटा
यह वार !
आहत कर गया मुझे ही
उलट कर आर-पार !
आह कुटिल नियति की देन !
झपट कर ले गयी मेरा
भाग्य, बनकर श्येन !
मैं !
मैं ! सब प्रकार से
पराजित !
आह ! देव !
किन घड़ियों में !
किन क्षणों में किया
था
इन विदग्ध प्राणों
को अवतरित
पंचतत्वों से
संचारित !
फिर क्यों भर दी
इतनी पीड़ा !
यह कैसी निर्मम
क्रीडा !
जला जीव- अपनी ही
ज्वाला में
दिग्भ्रमित हर
दिशाओं, से टकराता,
चक्कर खाता, उल्का
सा !
अतीत-वर्तमान, सबको
टटोलता !
पत्थर सब !
नहीं कोई भी उत्तर
देता !
और नियति संकेत बना
भविष्य !
वह भी सदा रहा
अदृश्य !
वह !
जलते छूंछे चक्रवात
सा घूर्णित
जिसमें केवल धुंध
धूल ही में रहा
बनता मिटता उड़ता !
समय-स्पंदन-वज्र-चक्र
!
गया, उसे निठुर
कुचलता !
वह ! चक्र के मध्य
धुरी सरिस
अनवरत, घर्षित,
मर्दित, तपित, जकड़ा !
बंदी बना !
सदा रहा, तडपता !
कोई भी उसका !
यह कभी रहा किसी का
!
वह क्सिकी छाया !
किसके संरक्षण में,
अथवा नितांत अकेला
यह जीव अथवा प्राण !
स्वयं साक्षी, निज
जन्म-मरण में !
यह प्रश्न !
तीक्ष्ण
फरस सा अटल चमक रहा !
कहते जिसे सर्वनियन्ता
वह है भी या कभी भी
नहीं रहा !
यदि है तो केवल
निर्विकार, निश्चेष्ट, निष्क्रिय,
अजगर सा मौन कहीं पडा रहा !
गए सब ! एक एक करके,
मुझे निस्सहाय,
एकाकी छोड के !
कैसे उठ रहे अशांत
मन में
विचारों के
विरोधाभास !
हिल उठे, समस्त जीवन
के
अचल गड़े, जमे
विश्वास !
यह तीव्र प्रभंजन !
जलती आंधी !
एक अकेली मैं !
मौन, सबसे, निरीह
लड़ी !
आह ! व्यथा !
किस मोल मिली थी तू
!
जन्म-जन्म से चुका
रही दाम !
अहनिशि, वेदना,
निरंतर द्वार खड़ी
मिली अविराम !
हैं कितने छद्मवेशी
इसके रूप !
कभी, सजल स्मृति
मंजरित सुरभित
स्नेहिल कोमल
या असह्य चिलकती
कंटकित, धूप !
क्या बना दिया, इस
पीड़ा ने मुझे !
कर रहा मेरा ही,
अस्तित्व मेरा उपहार !
मैं वह कज्जल कृष्ण
तमावृत अँधेरी, रात !
छाया भी, त्याग गयी
जिसे हटात् !
मै
वज्र-प्रपाती-हिमशल्य-खचित,
वह शीत बयार !
पड़ी, जिस पर भी,
मेरी आती-जाति, छाया
!
स्वप्न-शायित-मृदुल-स्वप्न,
उनका मुर्मुश हो आया
!
मौन स्तब्ध सृष्टि
भी, अदृश्य संकेत बनी है !
मैं, अरमानों के
ध्वस्त हर्म्य का
शेष बचा, ढहता,
एकाकी स्तम्भ !
जो किसी क्षण
अकारण ध्वस्त हो,
अविलम्ब,
वैसी ही मैं,
निरावरण,
नियति-वितान तले,
जिसकी विषाक्त
फुन्कारों से,
अंकुरित-बीज-माधवी-वक्ष
जले !
हूँ, में कितनी
निस्सहाय असुरक्षित,
न धरा, न आकाश ! न
अपना पराया !
कोई भी हुआ द्रवित !
नयन, क्षितिज पर रही
खोजती, अपना पथ,
केवल लेकर, दो अश्रु-दीप जले !
प्रभु ! करुणा के
सागर ! विश्व प्रेम आगर !
क्या ! कोमलता की
जननी !
महाकठिन परुषता है ?
इसमें, केवल वेदना
ही, गहन, गहरी, घनी है,
नहीं कहीं ममता है !
हा प्रभु ! कहकर
उसने रोकर
निज मुख ढांप लिया !
जाऊं कहाँ ! रहूँ
कहाँ !
नहीं नियति ने कुछ
संकेत दिया !
क्या मैं भी
प्रव्रजित हो जाऊं ?
समस्त संसारिकता से हटात्,
न्रिवित्त हो जाऊं !
किन्तु क्या !
यह वाह्य
प्रव्रज्या,
विरत कर पाती है,
मनः-संकुलित-तृषित-इहा !
क्या करेंगे ?
ये काषाय वसन !
एकाहार अशन !
यह भी, भार बनेगे !
यदि मैं !
विहार-चैत्य में भी
जाऊं !
तो किस बल पर !
यहाँ या वहाँ !
कहीं रहूँ या न रहूँ
!
क्या अंतर पड़ता है !
इस
महाकाल-महोर्मि-अनंत-प्रवाह में,
मैं ! न नन्ही, वीचि
! न, लघु तृण !
जो लहरों में मिल
जाऊं या दोलित हो जाऊं !
मैं ! पवन ठोकरों
में उड़ती वह !
त्रिसरेंणु !
जो पवन संकेतों से
कहीं उडी, गिरी जल में,
तो कहीं पता नहीं !
अंततः मैं हूँ क्या
?
केवल
पति-पुत्र-स्नेह से निर्मित !
हर आशाएं,
अभिलाषाएं,
उनमें ही, पल्लवित, विकसित, सिंचित !
मात्र शून्य हूँ मैं
!
अब शेष कुछ भी कहाँ
रहा ?
उनसे होकर वंचित,
मैं स्वांस-स्वांस
आमूल समर्पित !
स्वामी-स्नेह से था
सुरभित,
तन-मन-घर-आँगन !
हा हत् भाग्य !
निठुर वियोगी आहत
जीवन क्षण प्रतिक्षण !
क्यों टूट गया !
प्राची का हंसता दर्पण !
चुभे ह्रदय में हर
तीखे कण !
मैं वह आकुल मोहान्ध
चकोरी !
एक पक्षीय ही रही,
जिसकी
स्नेह-रज्जू-डोरी !
चिर अतृप्ति को
प्राप्ति जान !
भरे मन में,
उल्लास-ज्वार !
उडी वेग से, दोनों
पंख पसार !
कटु सत्य ! तीक्ष्ण
फरस !
कटे दोनों पंख गिरी
धरा पर निराधार !
राग-विराग से
आंदोलित !
हूँ वह ! पीड़ित अतीत
!
जिसमें सब अक्षरशः
अंकित !
वर्तमान !
इस भग्न
कांस्य-पात्र को, ग्रहण नहीं करता !
नहीं, भविष्य इसमें रंग बिरंगे सपने भरता !
अतः गोपा
! तू वह उपेक्षित अतीत !
जो अपने
में ही गया बीत !
जिसे न
वर्तमान ने ग्रहण किया,
न भविष्य
ने अभय दान दिया !
तू !
बन जा
ज्ञान-यजन-हविष्य !
किन्तु,
श्राविका होकर,
अपना सब
कुछ खोकर,
क्या तू
शांत रह पाएगी !
विहार
चैत्य में,
निशि-दिन
निज मन के आँगन में,
तू !
प्राणों
के स्वामी को देखेगी !
और प्रिय
राहुल को मुंडित शीश,
चीवर,
काषाय वसन में अवलोकेगी !
क्या
बीतेगा ! तेरे ह्रदय पर !
जब, ह्रदय
लगा मृग शावक !
दूर खडा
अनजान मिलेगा !
तेरे ही
सम्मुख,
पिता-पुत्र
की आँखें !
नितांत
अपरिचित की,
एक सधी,
परिचित भाषा बोलेंगी !
सुत नहीं
कहेगा, माता,
पति नहीं
बुलाएगा कहकर, गोपा !
यह ह्रदय
विदारक पीड़ा !
यह अनछुयी
अनुभूति-व्यथा !
घूंट-घूंट,
यह विष पीना होगा !
तब ! तब !
क्यों यह ममता !
चीख-चीख, कर कहती है
!
जो भी बीत गए, इन,
कातर, प्राणों पर,
वे ! जन्म-जन्म, के
जीवन स्वामी हैं !
ह्रदय सदा उन चरणों
का अनुगामी !
गोपा !
राम ने सीता से यह
नहीं कहा कभी,
तू मेरी पत्नी नहीं
रही !
गोपा !
यह चुनौती भी वज्र
ह्रदय पर लेनी होगी !
जानकी ज्वलित वहिन में, तीन बार जली !
तुझे !
अनवरत, अविराम,
अहर्निशी, पल, प्रतिपल,
ह्रदय-अग्नि में जलना होगा !
यह !
मनः-ताप, संयम-ताप
सहना होगा !
साथ-साथ रहकर भी,
सम्बन्ध-रहित,
निरुद्वेग,निश्चेष्ट, मौन रहना होगा !
आँखों के सम्मुख जो
बीतेगा !
तीक्ष्ण धार सा, जो
ह्रदय में,
आर पार उतरेगा !
बिना आह किये, मौन
निसंग सहना होगा !
परिचय की,
यह ह्रदय बंधती
मर्मान्तक अपरिचित, परिभाषा !
आंसू से, ज्वलित निश्वांसों से,
विवश मूक ह्रदय पटल
पर लिखना होगा !
टीस की कौन्धों में,
स्पष्ट उभरे ये
सम्बन्ध-विछोह-आज्ञापत्र को,
रात्रि के पृष्ठों पर पढ़ना होगा !
निज आंसू में आकंठ
डूब !
भावाकुल अंतर को कर
टूक-टूक,
अनवरत टीसती हूनकों
को,
उठने से पूर्व ही,
दोनों हाथों से वक्ष
दबाकर,
शांत करना होगा !
निज अस्तित्व भूल !
निज अहं भूल !
तपः-निकष पर खरा
उतरना होगा !
शेष रहा ही क्या !
टूट गए सब
स्नेहिल प्रगाढ़
ममत्व के, कोमल बंधन !
डगमगा उठा- केंद्र बिछुडित, जीवन-सयंदन !
अब यह शाश्वत
छिन्न-भिन्न उजड़ा उपवन !
वारिद-तृषित, चिर-पिपासित-प्रतीक्षाकुल,
निसंग ज्वलित
सैकत-वन !
घोर उपेक्षा,
शल्य-बिद्ध कम्पित,
पात-पात, विगलित
सरसिज !
ह्रदय घोर व्यथा से
आकुल !
नहीं मिलेंगे कभी
ह्रदय-धन
प्रभु या प्रिय
राहुल !
स्वेच्छा से
उन्होंने मुझे छोड़ा !
अणु-बणु में मुझको
तोडा !
जिस प्रकार प्राण,
सब त्याग जाता है !
वैसा ही है कातर
आर्त विकल प्राण,
इन अनवरत प्रहारों
से !
मुझसे ही बिछुड़ गयी
मेरी पहचान !
अब गोपा ! कहाँ रही
गोपा !
वह, चिर तिरस्कृता,
चिर उपेक्षिता,
नियति ठोकरों से
मादित म्लान पुष्प !
समय भी, जिसे,
धरती का भर स्वरूप
जान,
अति क्षुब्ध !
इन ह्रदय वेधती
स्मृति-समाधि-खँडहर में,
मन कातर आर्त इन्हें
निरख, निरख
निरुद्देश्य भटक रहा
!
ज्यों जलप्रपात, हर
पाषाणों को,
शिलाओं, को करता
स्पर्श !
खोजता, उनमें, विरही
जीवन-स्पंदन !
और तडपता पच्छाड़े
खाता,
उनमें अटक-अटक कर,
भी बलात बहता जाता !
क्या होगा लेकर ऐसा
पीड़ित मन !
जो केवल महाशून्य !
स्प्रिहायें जल रही,
तड़प रही !
यह मन !
बना ज्वलित
महाश्मशान !
उड़ रही ! तप्त धूल !
केवल चुभते तीक्ष्ण
शूल !
ध्वस्त आशाएं,
अभिलाषाएं, भग्न ममतायें !
अब, हर्म्य हो या मरघट हो !
दोनों ही एक समान !
इन ! आभाहीन,
रंगहीन, स्वांसों का लेकर, एकतारा !
मैं भी अब, बढ़ चली
लेकर सब प्रकार से
टूटा,
यह जीवन हारा !
प्राण निसंग ! अकेला
आता,
अकेला जाता !
जल गयी हटात् समस्त
वासनायें !
अपनी ही आहत,
क्षत-विक्षत,
निराश वृत्तियों से
!
केवल समय-अवधि, का
नाता है !
अन्यथा जीव !
भला किसी से क्या
पाता है !
सम्बन्ध !
आदान-प्रदान, के
पर्याय !
समस्त सिद्धांत !
परस्पर एक दुसरे को
काटते प्रत्यवाद्य !
सम्बन्ध,
तुला की निष्कंप सधी
संतुलित तीली है !
भावुकता !
भाव प्रवणता में ,
उससे, दिवा-रात्रि
की दूरी है !
अतः गोपा, तू इन
दोनों से रीती है !
केवल तेरे अंतर में
मात्र, उड़ रही धूल !
यह निस्पृहता ही,
किसी सन्यस्त
प्रव्रजित की खरी पहचान !
हो अब जीवन-धन प्रभु
!
अथवा प्राणों राहुल
!
हो चुके प्राण विकल
!
जितना होना था, इनके
प्रति !
घोर अमर नैराश्य ने
किया मुझे प्रस्तर !
मैं ! अब, केवल मैं
ही हूँ !
अपना गंतव्य ! अपना
भवितव्य !
अपना निर्धारित
लक्ष्य !
अपना निश्चित आश्रय
!
ये नियति !
जितनी भी होनी चाहे,
निर्दय !
मैं ! दृढ़ संकल्प
निसंशय निर्भय !
उठ खड़ी हुई यशोधरा !
आँखों में ही
उद्वेलित अश्रु अश्म बना !
जल उठे दोनों
नयन-दीप !
क्षण देखा अपलक,
आशाओं की ध्वस्त
समाधियों को,
ली गहन उच्छवासों के
संग अंतिम विदा !
यह ह्रदय चीरती, आह
!
इनमें ही, अब घूमती
यहीं, रहेगी सदा !
अनादि से
वैश्व-चेतना-अंतराल-संचारित,
नारी-ह्रदय !
वेदना !
यदि ब्रह्माण्ड भी भुर्ज-पात्र
बन जाए !
विधि,
अश्रु-आप्लावित
वारापार मसिपात्र में
नियति-लेखनी,
डूबा-डूबा कर,
अनवरत यह विरह-व्यथा
!
नखताक्षरों से लिखती
रह जाए !
न पूरी होगी यह अमर
व्यथा कथा !
विश्व अन्तस्थल में
निरंतर सालती हुक
सी,
घूमती रहेगी यह
सर्वदा !
गोपा !
शाक्य पुत्री,
क्षत्रिय कुलोत्पन्ना,
भद्र कात्यायनी !
भद्र कंचना !
सुप्रुद्ध तनया !
देवदह की राज कन्या !
निज युग की
सौन्दर्य, चुनौती !
अप्रतिम अपूर्व
अनिध्य रूपसी,
महा महिमामयी महीयसी
!
सर्वश्रष्ठ
लावण्य-प्रभा-द्युति-ज्योतित,
कोमलांगी रमणीय
कमनीय सन्नारी !
परम गौर्वान्विता,
गौतम-भार्या, राहुल माता,
यशोधरा, गोपा,विम्बा, इति संबोधित !
कपिलवस्तु की अंतिम
राज-वधु !
राज-लक्ष्मी !
थी अवस्थित,
साक्षात् बनी,
निज अदृष्ट, भाग्य,
नियति, होनी सी !
अटल, भवितव्य अडिग
संरचना !
कर में, पिण्ड
पात्र, उपसंग, चीवर,
गरिमामय गैरिक काषाय
वसन !
खुले लम्बे कृष्ण
अजानु रुक्ष केश !
परम प्रभामय
प्रव्रजित पुनीत वेश !
बनी !
शक्ति स्वरूपा !
अघोर कामिनी !
गौतमी !
गहन विचार मग्न अति
गंभीर !
जले नयनों के
उद्वेलित नीर !
मौन निसंग एकाकिनी !
हौले-हौले, पग रखती,
आकर खड़ी हुई !
न्यग्रोध-आराम
प्रवेश द्वार पर !
नमः !
नमः अच्युत अडिग दृढ़
संकल्प-धारणी !
परम त्यागमयी
कल्याणी !
आदि-शक्ति-संभूता !
मातृत्व-चरम-किरीट-मणि,
सुशोभिता !
भारतीय संस्कृति की
पहचान !
स्वस्तिमयी, गौरव
गरिमा की,
चिर शाश्वत सुरभित
प्राण !
नत प्रणत ह्रदय !
विश्व कमल पर
नवोन्मेषित,
प्रथम प्रभा अरुणोदय
!
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