Thursday, 10 April 2014

सर्ग : ५ - मृत्यु



मृत्यु



कुमार
शान्त नहीं थे मन में.
तर्क वितर्क आत्म दोहन.
भर रही थी,
एकरसता जीवन में.
मिथ्या हास,
मिथ्या परिहास.
जड़ कृत्रिमता का आवास,
सर्वत्र था राज भवन में.
मन जिसका.
निर्बाध पक्षी.
उड़ रहा, अबाध नील गगन में.
कैसे वह रह सकता बंधकर
नींव-रहित नीरस अनैसर्गिक,
सौख्य-विलास-निकर में.
एक दिवस
प्रगट के इच्छा.
वे. राजमहल से बाहर जायेंगे.
मनोरम, रथ-सैन्धव श्वेत अश्व.
चला जा रहा कानन की ओर.
सहसा राजपथ पर
थमी दृष्टि.
पूछा कुमार ने सारथि से-
भणे !
इस हरी सुसज्जित निःश्रेणी में-
क्यों निश्चेष्ट पडा यह हृष्ट-पुष्ट, मानव है.
क्यों नहीं ग्रहण की,
इसने शिविका या स्यंदन.
क्यों नहीं
धरा पर किया विचरण.
क्यों वह श्वेत पुष्प, 
श्वेत वस्त्रों में है. 
क्यों इसके परिजन और स्वजन,
इतने शोकाकुल और विषण्ण हैं.
इसे निरख,
आदर से आनत महिलाएं हट जाती हैं. 
जिनके क्रोड़ मे शिशु है,
वे उन्हें आचल से ढँक लेती हैं.
यह. इस प्रकार क्यों है?
देव !
यह जीवित नहीं मृत है.
इसके इह-लोक के
समस्त कार्य समाप्त, हो गए.
यह परलोक में चला गया है.
किन्तु इसे हुआ क्या ?
क्या यह भी व्याधि,
जरा सी, कोई
पीड़ाजनक विधा है ?
नहीं प्रभु !
यह
साक्षात मृत्यु है.
सहम कर कहा गौतम ने-
शरीर पर प्रगट होने वाली
कोई व्याधि.
उत्तर दिया सारथि ने-
नहीं प्रभु .
इसे ग्रहण कर जीव 
हो जाता आधि, व्याधि, को पार.
यह जीवन का महाविराम.
उसकी निर्णीत इतिश्री है.
रथ-दण्ड पकड़ कर,
उसपर टिक कर,
हत्प्रभ विषण्ण,
ली कुमार ने गहरी सांस.
व्याधि को भी देखा मैंने,
और जरा को भी.
और यह मृत !
इसे भी.
क्या यही परिणिति समस्त जीव की. 
क्या यह मेरा शरीर.
यह भी होगा निर्जीव.
आह ! यह मर्मान्तक पीड़ा
भीषण अतीव.
सौम्य ! जरा कहोगे.
यह मृत्यु क्या है ?
प्रभु !
यह ! मै कैसे कह दूँ ?
प्रभु को कैसे समझा दूँ. 
यह. 
शाश्वत विछोह ममत्व का .
भटकन है, 
स्मृतियों की पीड़ित टीसों की. 
अनन्त आवागमन चक्रव्यूह का. 
विस्तृत स्मृतियों की पीड़ित परतों को, 
स्मृतियाँ, उठा उठा कर देखती हैं. 
किन्तु मात्र असह्य वेदना के,
कोई भेद नहीं पाती हैं.
देव !
आजतक ज्ञात नहीं, 
जिसकी परिभाषा, 
किस प्रकार दिलाऊँ.
उसके प्रति मिथ्या आशा.
किन्तु.
इसे.जैसा मैंने किया अवगाहन.
वह मात्र मेरा ही चिंतन,
वह मिथ्या भी हो सकता है,
पर जो पीड़ा प्राप्त अनुभूति है.
वह. ह्रदय निकष पर कसी.
सत्य है.
मृत्यु !
अकाल-काल-मिलन-क्षितिज की, 
लहराती काली रेखा.
एक अटल जटिल ग्रंथि,
जिसमें, किसी प्रकार
कभी हुई न संधि.
यह वह अलंघ्य सीमा.
जो मर्दित, उल्लंघित, अतिक्रमित, 
विदारित या भंजित कभी न हुई.
वह बंद कपाट.
जिस पर पड़ी न कोई थाप.
वह अर्गला,
जो कभी खुली नहीं.
वह. उलझी डोर,
जो सुलझाने में
उलझती ही चली गयी.
उस अज्ञात देश में.
जो प्राणों का पंक्षी,
पंचभूत परिवेश त्याग उड़ा.
वह कभी इस ओर मुड़ा नहीं.
नहीं वह लौटा निज नीड़,
न, पुनः देखा स्वजनों को.
क्या पता.
उधर क्या है ?
वह अंगारों का जलता वन है,
प्राण चकोर चिंगारी ही चुनते हैं,
या,
घिरे सजल स्वाती घन हैं.
जो प्यासे प्राण पपीहे पर
अजस्र बरसते.
यहाँ तो सुख-दुःख की परिभाषा है. 
वहाँ ! लिपि-रहित, स्वर-रहित,
अबोल, भाषा है.
बंद ! वहाँ के सभी कपाट.
और, सुरक्षा के सभी प्रहरी.
अंध, बधिर, गूंगे हैं.
पूछो कोई प्रश्न.
वे निश्चेष्ट. निर्विकार,
निस्सार, छूछें हैं.
जब मिला न कोई सूत्र.
समस्त ज्ञान थके, वेदना अभिभूत, 
अज्ञान जलधि में.
बड़े बड़े वाग्जाल डालकर.
खींच रहे.
संभव है किंचित
कोई मोती मिल जाए.
इस घन अन्धकार में,
किंचित, सत्य प्रकाश दिख जाये.
सब.
आकाश कुसुम की बातें.
शून्य हैं.
उपनिषद, वेद, श्रुति, स्मृतियों की,
सर धुनती, दिन रातें.
केवल करते हैं.
निराधार बातें.
विरल घाटियाँ हैं उनके साधन की. 
केवल आडम्बर की बातें हैं
आराधन की.
युग बीत गए.
पता नहीं .
मृत्यु कया है.
निष्प्राण शरीर भी प्रत्यक्ष है,
पर जाता कहाँ प्राण !
उसका साक्ष्य कहाँ है.
अतः प्रभु.
यह शरीर.
मिटटी से उपजा,
मिटटी में मिल जाता.
फिर कोई नहीं इसका
नहीं इसे किसी से नाता.
निविड़ गहन अपार अन्धकार में
यह मात्र खद्योत प्रकाश है.
इतना ही जीवन है.
सर्वत्र.
यम, काल की पुकार है.
न कोई थमता है,
न कोई सुनता है.
केवल अवधि-स्वांस भरता है.
समय.
हमारा भक्षण करता.
केवल एक निवाले के अंतर की,
यह मध्यावधि, ही,
जीवन है.
बस करो. सौम्य. करो बस.
यह सब सुन लेने का.
किसमें है साहस.
क्यों जीवन के इतने उत्सव.
इतने विलास.
जब जीवन.
मृत्यु का मात्र एक ग्रास.
केवल अतृप्त तृषा 
भयानक प्यास. 
हिल गए जीवन के समस्त विश्वास. 
जीवन मरण चक्र वर्तुलाकार.
उठा रहा जीव
केवल,
आवागमन प्रत्यावर्तन भार.
बलात् निराधार.

Wednesday, 12 March 2014

सर्ग : ६ - हंस


हंस

हंसः ! हंसः !
ध्वनित सर्वत्र भुवन.
अक्षर शब्द
व्याप्त कण-कण.
नाद-ब्रह्म, विस्फोटित,
समस्त रूप-विपर्यय,
उदय-अस्त.
गुंजित अंतर मनः-नील गगन.
रूप-अरूप.
सत्-चित-आनंद.
अणु-अणु में संजीवन.
वर्त्तुल नर्तन.
प्रतीक,
कदम्ब शत-शत गुम्फित पुष्प.
बंद उदुम्बर-सम्पुट में
जीवन स्वच्छंद.
यह निष्कर्ष सार्थक,
उपनिषद-सार तत्व.
वेदान्त अंतिम वाक्य, अकाट्य तथ्य.
“ सोऽह्म तत् त्वमसि.”
हंसः !
सहस्रार मध्य संतरित.
निष्कल ब्रह्म उद्घोषित.
आज वही मानस मराल.
क्षत विक्षत
रुधिर स्रावित रक्त स्नात.
निरख सम्मुख साक्षात् काल.
गिरा
धरा पर.
मरणासन्न.
अत्यंत निरीह निराधार निस्सहाय विकल.
वक्ष रक्त रंजित निसृत,
अर्ध नयन निमीलित अश्रु विमुन्चित.
निर्वाण मुक्ति  सिद्धार्थ,
विकल हंस विवश आर्त.
संधान निरत शाश्वत आवास.
लग राजकुमार के वक्ष,
कर रहा करुण प्रयास.
स्नेह पारावार अपार.
आश्वस्तिमय सांत्वना पूर्ण प्राप्त,
ऊर्ध्व टूटते भग्न स्वांस,
कम्पित व्यथा-विदग्ध,
तन-मन-गात
भयभीत चाक्षु चंचल
झरित जल-कण.
जीवन.
किस जीव की पुकार है. यह.
मृत्यु के प्रति दीन पराजित
चीत्कार है.
पानी का नन्हा बुद-बुद.
एक पवन का झोंका.
बस.
इतनी पहचान है.
इसके क्षण. नींव रहित अल्प.
मृत्यु अनिवार्य,
नहीं, अन्य विकल्प.
किन्तु,
यह ममत्व बंधन आबद्ध,
जीव.
जिन सुदृढ़ भुजायों के बंधन में था,
अवस्थित.
वहाँ था वह शतशः निरापद और सुरक्षित.
आहत मराल.
थर-थर गात,
अति म्लान विसुध लोहित.
कम्पित चल-दल-पात.
कर रहा था
कुमार को संबोधित.
नील गगन में,
नहीं थी, शुकों की,केकी की,
या अन्य पक्षियों की पंक्ति.
थी बकों की कातार,
क्यों ?
मैं ही गिरा
शर विद्ध दोनों पक्ष पसार.
कोई भी खगचर घायल हो सकता था,
श्री चरणों में, आ सकता था.
पर मैं आया हूँ.
मुझे ही कहते,
मैं रहता हूँ.
मानसरोवर में, कैलाश में.    
सहस्र शतदल
अमृतमय सहस्रार.
मैं ही, ज्योतिर्मय
अवस्थित उदभासित,
प्राण शक्ति,
मुझसे ही सुशोभित,
सहस्र शतदल अमृत सहस्रार.
तुम.
इस चिरंतन प्राण-पथिक की,
पीड़ा हरने आये हो.
आवागमन-चक्र
विरमित करने आये हो.
मैं.
आज स्वयं सम्मुख पीड़ित आया हूँ.
परोक्ष में जग-व्यथा कहने आया हूँ.
जगत एषणा-शाल्यों से,
मर्माहत,
निदान निमित यहाँ,
तव छाया में आया हूँ.
अति थकित व्यथित,
कौन अहेरी.
कौन अहेर.
रखो तनिक यह विवेक.
ध्यान-मग्न राजकुमार.
सहसा हो उठे चमत्कृत.
देखा सम्मुख देवदत्त की भीषण आकृति.
हंस भयातुर लिपट गया वक्ष से,
देखा उसने, साक्षात् काल,
अति निकट से.
बोला अति कठोरता से देवदत्त-
कुमार. इसे मैंने शरबद्ध किया है,
यह मेरा अहेर मुझे लौटा दो शीघ्र.
कहा कुमार ने- देवदत्त.
इस प्रकार न हो व्यग्र.
किसने मारा, किसका अहेर,
नहीं रंचक इसका मुझे प्रयोजन. 
मैंने शर खींचा इसके तन से,
उत्तरीय-चीर से इसको प्रक्षालित कर,
बांधा. विलग किया मर्मांत पीर से.
इसकी पीड़ा हरण कर,
निज बाहों में इसको लिपटा कर
आश्वस्त किया.
भयाकुल जल भरे नयन,
धड़कते ह्रदय से,
इसने मुझको रक्षार्थ
कातरता से देखा.
अब यह मेरी शरण में,
सुरक्षा पा गया.
हो गया निश्चिन्त.
तड़पा देवदत्त-
किन्तु मैं लेकर जाऊंगा.
प्रत्युत्तर में धीर स्वर में बोले कुमार,
कदापि नहीं. 
त्यागो यह विचार यहीं,
मत विवाद बढाओ.
जीवन हरण से,
जीवन-दान कहीं श्रेष्ठ है,
इसे यहीं समझते जाओ.
जो जीवन दे नहीं सकता,
अधिकार उसे क्या,
किसी के वह प्राण,
अकारण ले ले.
निष्ठुर प्रकृति सरिस,
जब जैसा जो मन में आये,
वैसा ही कर ले.
मानव हो.
उदात्त विचारों से पूरित.
न करो, इस प्रकार क्रूरता घृणित.
विकास-चरण गमनशीलता में,
सचराचर सब, चेतन संवेदन पूरित.
व्यथा शल्य से है पीड़ित.
ज्वालामुखी-उद्गार-सागर-ज्वार,
पर्वत ह्रदय फाड़,
सरित प्रवाह.
सब अपनी समर्थता में है,
मुखरित.
एक सर्वव्यापी प्राण संजीवनी,
चेतना,
सबमे एक समान प्रवाहित.
पत्थर, पाषाण, नदी,
तरु, पादप, जड़, जंगम,
सब निज अनुभूति-कथा कहते हैं.
उनकी भी भाषा है.
मूक पीड़ा की परिभाषा है.
मानव.
निज प्रकृति में सीमित.
उसे नहीं ज्ञात.
यह विश्व सकल
कितना विशाल  
भास्वर अमित.
यह पक्षी.
उसी प्रकृति का है उपहार.
मात्र अपेक्षित
शुद्ध निश्च्छल प्यार.
जल रहा जग अनवरत
अपनी असह्य विवश पीड़ा से,
दे सको तो दो
उसे शीतल संजीवन स्नेह फुहार.
यह. पक्षी ही नहीं.
समस्त विश्व ही,
एषणा-शल्य-बेधित-क्षत-विक्षत,
लोहित, रहा कराह.
निकालो बिंधे शर.
करो उपचार.
देवदत्त.
न बन. बबूल का
कटंकित पादप निरर्थक.
न बन नागमणि का तीखा कंटक.
कोई तो खोजे निदान.
शान्त करे तड़पते प्राण.
आज नहीं तो कल,
मृत्यु खींच रही,
जीवित स्वांसें प्रतिपल.
कोई जा चुके,
कोई जा रहे,
कोई जायेंगे,
किसी क्षण.
फिर क्यों ?
किसी का प्राण हरण,
क्यों मनः-ताप उत्पीड़न.
विश्व-चषक में,
नियति ढाल रही,
केवल,
वेदना-कालकूट-हलाहल.
दुःख का वारिधि लहराता है.
भंवर फंसा कैदी जीवन,
सतत्  छटपटाता है.
नहीं किनारा. नहीं घटवाला.
नहीं कहीं, विमुक्ति. विमोचन.
निरख. यह स्वच्छ नील गगन.
ये फल भरे झुके हरित तरुवर.
ये पुष्करिणी, निर्झरिणी.
क्षितिज चूमती,
श्यामल वनराजि श्रेणी.
यह.
आहत पक्षी.
स्वस्थ्य होकर,
पुनः लंबी उड़ान भरेगा.
कभी सरोवर. कभी तरुवर.
जहां चाहेगा,
सहज विहार करेगा.
इससे तुम्हारी कोई हानि नहीं.
यह नन्हा जीव.
तुम समर्थशाली का,
मात्र, अनुग्रह पात्र ही बन सकता है.
एक लघु दया का कण.
इस निरीह का जीवन-वारिधि बन सकता है.
मानव.
यदि,
दया, प्यार, अहिंसा, करुणा,निर्वैर मन में रखे,
वह,
स्वंय
इस स्वर्गीय अनुभूति में,
निर्मल-मन प्रसन्न,
हृद-भार रहित हो सकता है.
घृणा, क्रोध, मंत्सर, अहम, स्वार्थपरता,
कांटे ही कांटे हैं. केवल,
ज्वलित वहि्ल में विदग्ध,
अनवरत सुलगता मानव.
असह्य उत्पीड़न में जलती,
उसकी, दिन-रातें हैं.
ये मन की उपज,
वपन करो,
पुष्प, सरस सुगन्धित,
या काँटों की कृषि करो.
अपने ही, एक कर में,
अमृत,
एक में हलाहल.
जिसे चाहो जैसे भी,
आत्मसात करो.
मानव !
परम शक्तिशाली है.
उर्ध्वमुखी निरंतरगामी चेतना,
परम वैभवशाली है.
फिर, क्यों न हो आरोहण.
क्यों अवरोहण की बात उठे.
नीचे खाई, खंदक अन्धकार.
ऊपर परम शाश्वत प्रकाश मिले.
बोला वितृष्ण सा देवदत्त-
मत मुझे पुष्पक वाक् शरों से मारो.
मैं, अपना अधिकार अवश्य लूँगा.
मुझे अभी यह हंस लौटा दो.
बढ़ता विवाद थमा नहीं.
दोनों ने कहा,
चलो चलें राजा के समीप.
वे जो निर्णय करेंगे.
वही मान्य होगा.
दोनों एक संग गये.
राज्य सभा में, राजा शुद्धोधन ने,
पक्षी, प्रतिपक्षी की बात सुनी.
बोले हंसकर –
प्रिय वत्स देवदत्त !
तुम निश्चय हे हो धनुर्विद्या के धनी.
यह विशाल वन प्रान्त.
अहेर तुम्हारे निमित्त
प्रचुर कहाँ नहीं.
जितना चाहे अहेर करो.
जितने जीवों को चाहो.
निज संधानों के शर से विद्ध करो.
किन्तु.
यह.
अहेर नहीं. एक दीन शरणागत है.
लज्जित है यह भुजाएं,
जो आश्रय देकर ठुकराती हैं.
यहाँ प्रश्न अहेर का नहीं, शरण का है.
यदि कोई, अभावग्रस्त दीन अस्वस्थ अथवा
आहत, क्षत-विक्षत,
तुम्हारी छाया में आएगा.
तुम भी वही करोगे,
जो सिद्धार्थ ने अभी किया है.
मानव !
सद-असद वृत्तियों से निर्मित.
किन्तु प्रथम सद-वृत्तियाँ ही,
होती हैं अग्रगामी प्रस्तुत प्रभापूरित.
यदि वे भास्कर ज्वलंत हैं,
असद वृत्तियों की श्यामल छाया,
स्वतः हट जाती हैं.
यहाँ प्रश्न शरण और करुणा का भी है.
जिस पर भी करोगे दया,
वह आभार व्यक्त कर सनत,
तुमको ह्रदय से साधुवाद कहेगा.
जलते पत्थर पर जल डालोगे,
वह शीतल सुखकर होगा.
पादप में जल दोगे,
वह फल से तुमको भर देगा.
आहत की सेवा करोगे,
वह
आशीर्वाद से मार्ग सुगम कर देगा.
अतः
प्रिय देवदत्त.
क्रूरता की रक्तरंजित असी त्याग,
ममता के मधुर दीप बाल.
प्रकाश ही प्रकाश मिलेगा.
यह अहेर.
निष्ठुर प्राण-हरण.
इससे कहीं अधिक है श्रेयस्कर.
जीवन संवर्धन.
अहेरी नहीं,
रक्षक ही अहेर का अधिकारी है.
दिया,
जिसने जीवन दान.
वह.
मानवता का श्रेष्ठ पुजारी है.
अतः  
यह हंस. जिसके वक्ष लगा.
जो इसका आश्रयदाता है.
जिसने दिया, जीवन दान.
रखा करुणा अहिंसा का मान.
यह मानवता का उच्च सम्मान.
उसके ही पक्ष में जाता है.
क्योंकि
उसे विदित है भलीभांति.
केवल प्राण-प्राण का नाता है.
देवदत्त.
जीवित रह लेने के अधिकारी
सब वर्ग एक सामान हैं.
किन्तु, मात्र जीवन वहन करना,
शरीर-यात्रा ही पूर्ण करना,
जीवन नहीं.
जीवन की परिभाषा,
अति गहन विषम है.
केवल.
स्वांसों का आना जाना,
निरुद्देश्य समय व्यतीत करना.
जीवन नहीं.
बल के साथ-साथ
बौद्धिकता का भी संवर्धन हो.
तन-मन एक सामान
संतुलित प्रसन्न हो,
तो निश्चय ही,
सोने में सुगन्ध हो.
मानवीय शक्तियां,
सद्वृत्तियों में लगे, 
मानव अंधकूप से निकले,
स्वच्छ पवन उन्मुक्त प्रकाश में विचरे.
बल का निकष न दुर्बल है, न समान बल है. 
यदि. बौद्धिकता से, सलिष्टता से
निज से अधिक पराक्रमी को करो पराजित
तो वस्तुतः विजय है.
वह भी, शरीर से कहीं अधिक
निज ज्ञान से करो उसे विजित.
इस विजय से उच्च
कोई अन्य विजय नहीं.
शारीरिक बल.
वनराज, मत्त गयंद, पक्षिराज,
सब, अपने अपने स्तर पर, दिखलाते हैं. 
इनमें से यदि कोई एक हुआ विचक्षण,
सब स्वतः पराजित हो जाते हैं.
शरीर से मन,
मन से आत्मा,
कहीं अधिक वैभवशाली है.
पार्थिवता नहीं,
सूक्ष्मता गौरवशाली है.
शरीर पर करो न विश्वास.
यह आधार रहित मोहक उल्लास.
इसके बल का भी, दुरूपयोग न हो.
यदि दे सको निज सबल बाहुओं से ,
किसी को आश्रय,
करो किसी का कष्ट निवारण.
वही कार्य है,
श्रेष्ठतम अति सार्थक.
प्रिय देवदत्त.  .
प्राण ! मानवकृत नहीं,
यह है ईश्वर प्रदत्त.
मत.
इसके संग अनाधिकार,
निर्ममता का अतिक्रमण करो.
जीव. सदा का मरण धर्मा.
कब वह कभी चिरंतन यहाँ रहा.
हर प्राणी.
अपनी पीडाओं से सतत रहा बिंधा.
नहीं एक पल भी वह,
निर्द्वन्द विचर सका.
हर सको, किंचित भी उसकी पीड़ा.
तो हर लो.
मत अनर्थक उसे उत्पीड़न दो.
दया,प्रेम, अहिंसा का अमिय अभिसिंचन.
हो शीतल मनः-तपन.
क्यों न वह हो.
उच्चादर्शों का प्रेरक
हो दुखितों का मार्ग प्रदर्शक.
इन तीखे बिखरे काँटों को सहज समेटो.
सुगत.
जग का प्रगाढ़ प्रेम निर्मल विश्वास,
सतत पालो.
प्रज्वलित करो प्रभा प्रकाश.
मत दीपक को निर्वाणित कर,
घने धूम में निज को,
आवृत कर लो.
देवदत्त.
प्राण-हरण नहीं,
स्नेह, दया वितरण.
जीवन का ध्येय बना लो.  

Saturday, 1 March 2014

सर्ग : ७ - प्रव्रजित


प्रव्रजित


विच्छिन्न अप्रकाशित
मानव चिंतन-सरि-धारा.
होता संवेदित हरित,
पल्लवित, पुष्पित,
वही किनारा,
जिसे तरंगायित लहरित
आलिंगित कर बढ़ जाती,
उज्जवल, भावाकुलित अनुभूतिमयी
कल्पना सप्तरंग तरंगमाला.
खिलते हैं.
भाव मुदित कुसुमित पात-पात,
प्रस्फुटित,
इन्दीवर श्वेत अरुण अम्बुज.
प्रतीक.
सात्विकता, अनुराग, राग,नैराश्य, विषण्णता.
कुमार मन.
बंदी.
शैवल जाल निबद्ध.
तर्क-वितर्क,
दुर्द्धष . उड़ा जा रहा कहीं दूर मन.
सौरभ, सरिस उन्मन.
आकर्षण विहीन, सब राग रंग.
एक ऊब.
जिससे निस्सार नहीं.
दृष्टि चाहती, विस्तार अन्यत्र कहीं.
सहसा आज्ञा दी दैवारिक को.
कहा- सारथि से सद्दः रथ लाने को.
आज उद्यानोत्सव में जाऊँगा.
विरस हो उठा हूँ इन प्राचीरों में,
उन्मुक्त पवन सा, स्वच्छंद विहार करूँगा.
आनंद मनाऊंगा.
समस्त रंग त्याग ह्रदय ने,
आज श्वेत वर्ण किया चयन.
श्वेत कर्णिकार, जाती पुष्प, मल्लिका यूथिका,
शिरीष, कुंद, शीतलक, श्वेत कमल सहस्र पत्र,
पुष्पाभरण, गंधराज, सेवंती, रजनीगन्धा अथक.
तन-मन पुलकित पारिजात-माल,
सुरभित,
वकुल, शिरीष. स्तवक गुच्छ,
सौरभ मद मदिरालस अंध गंध.
श्वेत पुष्प अनुस्यूत आमरण.
स्वर्ण खचित श्वेत परिधान,
केवल, श्वेत रंग के सकल विधान.
श्वेत, सात्विकता का प्रतीक,
शांति का प्रज्वलित शीतल प्रकाश-दीप,
आज मन.
कर रंग, तरंग-भंग, बन रहा,
एषणा ज्वलित क्षार अनंग.
रथ पर भी अवस्थित,
विष्ण्ण चित्त.
मन व्यथा अकथित अविदित.
राजपथ का समारोह,
वह भी पीडाजनक था.
यौवन. परिणामों के संग था.
जरा, पर मृत्यु वार घना था.
जन्म.
जन्म ही सब व्यथा कारण.
किस हेतु.
जीव करता शरीर धारण.
मन.
अभी विचार वात्याचक्र में,
शत-शत टुकड़ों में चूर्णित आंदोलित,
आलोड़ित घूम रहा था.
सहसा दृष्टि पड़ी.
वह.
मौन निज अंतर्लिप्त अध्यात्म
उदभासित दीप्त.
निर्द्वन्द्व विरक्त चला जा रहा था,
एकाग्र मौन अपने पथ.
मुंडित केश, उज्जवल परिवेश.
नहीं कहीं विषाद या चिंता का, किंचित लवलेश.
सोचा कुमार ने.
जग. झुका जा रहा वेदना भार.
हर चक्षु अनुस्यूत अश्रु हार.
निर्जीव मनः-हास म्लान मुखः-प्रकाश.
यह कौन. कैसा अवधूत.
विजयी यह निश्चिन्त.
समस्त एषणायें कामनाएं
अभाव दुराव चिंता
इससे हुई.पराभूत.
प्रश्न किया पुनः सारथि से
जग, जल रहा भव-अग्नि ज्वाल से.
यह.  है कौन.
क्यों जग से निस्पृह मौन. 
कहा सारथि ने- प्रभु.
यह संसार त्यक्त सन्यस्त विरागी.
समस्त आशाओं, अभिलाषाओं,
सौख्य, संपदा का त्यागी
निर्लोभी.
बीतराग विशोकी. परम विवेकी.
जग नहीं इसका, पर यह सबका.
इसकी शान्त निर्वात निवृत-मन-मंदाकिनी.
सबके निमित्त एक सामान बनी.
नहीं कोई उंच, नीच, संपन्न, विपन्न,
हर्म्य, प्रासाद, कुटीर सब पर एक समान,
शीतलता प्रदान करती,
प्रकाश बिखेरती उतरी,
इसके मन की जाह्नवी,
शाश्वत सहनशीला माध्वी.
प्रश्न किया गौतम ने-
क्या इसे.
व्याधि, जरा, मरण का भय नहीं.
या शीत ताप की बाधा,
इसे व्याप्ति नहीं कभी.
देव.
यह आंतर प्रकृति, बाह्य प्रकृति, जड़ प्रकृति,
त्रिविध ताप का ज्ञानी है.
यह. 
अहम ममत्व का दानी है.
इसे भलीभांति विदित है.
जग का चक्रमण करतीं ईतियों का.
समय की परिवर्तनशील
हर क्षण रूप बदलती, वृत्तियों का.
वह.
शरीर धर्म, प्रकृति कर्म.
जानता है.
यौवन, या शैशव, या जरा विकृतियों में है,
नर्तित अपरा.
मृत्यु.
अन्न कोषों का उत्क्षेपण है.
इसके पश्चात भी,
मनोमय शरीर. प्राणमय शरीर.
का भी,
ज्ञान जगत अध्यात्म प्रकाश में
अस्तित्व और अद्बोधन है.
फिर वह क्यों विषाद करेगा.
किसके हित वियोग करेगा.
जब.
प्राण चेतना अविच्छिन्न
चिरंतन निरंतर प्रवाह है.
पंचभूत केवल उसका विश्राम ठांव है.
वह. वियोगी नहीं,
चिर संयोगी है.
कुमार ने सब सुनकर ध्यान से,
मनोयोग से,
सहसा, वार्तालाप के मध्य ही किया निषेध.
न करो. अन्धकार में शल्य बेध,
जिसे. जानते नहीं.
पहचानते नही.
देखा नहीं. सुना नहीं.
सुनी सुनाई आधार-रहित बातों पर
मत आशाओं के महल बनाओ.
सौम्य !
विक्षुब्ध विषादयुक्त स्वर में
कहा कुमार ने-
शैशव सत्य.
यौवन सत्य.
जरा सत्य.
मृत्यु सत्य है.
सब बातें व्यर्थ उसके उपरान्त.
केवल 
शून्य.
घोर नैराश्य ध्वांत.
अनंत और संत में,
मनः विभ्रांत, अशांत,
नहीं अपेक्षित,
यह निरर्थक, अवांछित पुष्प वाग्जाल.
केवल.
जीवन-सरि शैवाल जटाओं के पग
निबद्ध.
लहराते किंजल्क जाल मे भुजाएं आबद्ध.
हो. स्वच्छ मुकुर.
निखरे, जिससे, स्पष्ट छवि सुघर.
किंचित कशा खींचता हंसा , सारथि.
प्रभु !
मंदिर में देवाराधन निरत देव दासियाँ.
नृत्यांगनायें .
क्या जान सकीं, परात्पर ?
प्रतिभा से, अन्य कुछ है ?
केवल अलंकार, भूषण.
शिंजिनी नाद ही,
उनका जीवन है.
उसी भांति मन भी.
जब तक एषणाओं से संकुलित
निबध्ह है.
वह, मनः-मंदिर के देवता
अहम ममत्व के सम्मुख.
समस्त कामनाओं के संग,
नर्तन करता है.
बस.
इतना ही भर उसका है
सीमित कार्य.
कब वह.
आत्म-चिंतन या मंथन करता है.
यह परिव्रजक.
इसने साधना की अथक.
अपरार्ध की कौंधती आत्म दीप्ती,
जो अधिमानस शीर्षस्थ पर है स्थित.
इसने उपलब्धि नहीं जाना.
सत्य संधान का उसे,
मात्र प्रवेश द्वार ही माना,
अतः दीप्तियों के निःश्रेणी से
उत्तरोतर यह आरोही हुआ.
संसार कामनाओं का शाश्वत,
निर्मोही हुआ.
प्रभु.
सांत. अनन्त की भाषा क्या जाने.
तर्क सम्मत विज्ञान ज्ञान को ही,
सत्य माने.
किन्तु सत्य.
सीमाओं के परे है प्रभु.
इन पार्थिव चक्षुओं से है दूर कहीं.
जो.
सारे कल्मष त्यागेगा.
उसमे ही सत्य ज्ञान जागेगा.
कहा कुमार ने – सौम्य !
सम्मुख ये शाखा प्रशाखा चौरस्ते
तुम देख रहे हो.
ये सब किसी के द्वारा निर्मित हैं.
सब, आँखें बंद कर, चल रहे.
क्योंकि
अति भीरु अतीत्व समीप है.
नव प्रकाश.
नव आवास.
नवीन विश्वास.
नहीं अपेक्षित इनको.
जब तक मैं.
तर्क-निकष पर नहीं कास लूँगा.
विश्राम नहीं रंचक मुझको.
चलो यहाँ से,
चलो शीघ्र.
मन. विषाद पूर्ण भरा-भरा.
मैं उद्यानोत्सव में जाऊँगा.
वहाँ के वादन, गायन और नर्तन में,
सोल्लासित उत्सव मनाऊँगा.
राग-विराग के मध्य, फंसा मन.
रहता है निष्क्रमण को उन्मन.
किन्तु विचित्र मन की भाषा है.
जिन श्रृंखलाओं से जकड़ा ऊबा.
उससे ही है गहरी ममता.
अटूट नाता है.
उन्हें तोड़ने में भी,
वह घबड़ाता है.
समझ न पाया मेरा मन,
यह भी.
ह्रदय चाहता, रहना भी,
स्वच्छंद कभी ?
या कैद में ही वह.
अपनी सुरक्षा समझता है.
व्यर्थ स्वतंत्रता निष्कृति की यह सदा,
मिथ्या योजना बनाता है.
विराग यदि शाश्वत है.
तो राग. अब तक जीवित क्यों है ?
हर मारक प्रहारों को सह कर भी
यह निश्चिन्त अचल यों है.

   

Wednesday, 12 February 2014

सर्ग : ८ - अंतिम श्रृंगार


अंतिम श्रृंगार
ति उद्विग्न चिंतन निरत कुमार,
पहुंचे कानन में.
संध्या,
प्रतीची से अपलक शान्त निरख रही थी.
लहराता था, उसका सुरभित सुरमई आँचल,
दोनों कर से,
बहुरंगी गुलाल झार रही थी.
उड़ रहे थे श्यामल रेशमी केश.
था मनमोहक सुरम्य वेश.
जाती पुष्प रजनीगन्धा सदृश,
कुछ नखत गगन में बिखर रहे थे.
शाक्य कुमारों के साथ,
करते समधुर परिहास,
उतरे सिद्धार्थ.
स्वच्छ नील जलपूरित तड़ाग में,
आकाश भी लुब्ध,
झाँक रहा था,
पुष्कर के दर्पण में.
जल विहार करते
मधुर गायन वादन,
सुनते.
आषाढ़ पूर्णिमा का प्रभा विकीर्णित,
पूर्ण चन्द्र, नभ पर आया.
श्वेत कमल सा,
दुग्ध धवल चांदनी में
वह.
मुस्काया,निरख,
जल मे उतरा है वरुण देव,
या,
विश्व-कमल-किंजल्क-जाल में,
केशर की डोरी में आबद्ध,
अनंग है आया.
चन्द्र.
श्वेत सहस्र फणों से अमृत निसृत करता,
अवकाश सरिस,
शीश पर छाया.
यह, अद्वितीय अप्रतिम रूप अशेष  
उतरा,
धरा पर भुवनेश,
प्रकृति का रस-आप्लावित मन थर्राया.
सिहरा जल.
सिहरा नभ.
सिहरा वन, उपवन, जन-मन-कानन.
विश्व वीणा के सुप्त तारों में,
हो उठा. मंद निस्वन. मदिर प्रक्वण.
श्वांश खींचकर चित्र लिखित,
प्रकृति रही,
आशंकित निरख.
नियति स्वीकृति.
साक्षात्,
जल में नारायण.
सूर्य हुआ उत्तरायण.
या आज.
रत्नाकर की आतुर बाहों में,
चाँद, उतर कर आया.
यह रूप असीम.
विश्व ही बना क्षुद्र सीप,
जिसके अंतर में मुक्ताफल
अपूर्व अद्दिप्त.
समस्त भुवन में,
लावण्य जलधि आप्लावन आया.
देव विभूति.
दिव्य ज्योति. आनन पर,
आलोकित ज्योतिर्मय संकल्प प्रकाश,
था,
छाया.
झर रहे वारि मौक्तिक हार,
अवस्थित,
स्फटिक श्वेत शिला-पट्ट पर
सेवक समूह घिर आया.
आज.ऐश्वर्य,
स्वयं कर रहा था
प्रभु का अलंकरण.
केशर छूकर तन सिहरा
अंगराज चन्दन शरीर से विकल,
लिपट रहा.
सुगंध, अंध,पवन-पवन में डोल,
रहा.
जड़ता में भी जाने क्यों कम्पन आया.
समस्त प्रकृति में संजीवन था लहराया.
बहुमूल्य रत्नजटित आभरण,
स्वर्ण खचित अमूल्य राजकीय वसन,
नख-शिख तक.
शेष रहा न रंचक.
शीश रत्नजटित स्वर्ण किरीट.
बाहों में अनन्त,
केयूर वलय. कंठ हीरक मौक्तिक माल.
सुशोभित कृष्ण चिकुर स्वर्ण मौक्तिक जाल.
हीरक मणिक मरकत शत
यह.
अंतिम भौतिक श्रृंगार.
गिर चरणों में बार-बार,
मांग रहा था विदा.
समर्पित कर समस्त ऐश्वर्य गरिमा.
ज्यों ही, नगर जाने को,
कुमार ने रथ पर रखा प्रथम चरण.
रथ स्पर्श करते ही,
सवाक चलचित्रों सा, हो उठा,
सब बीता समय स्मरण,
हर्षोल्लास आद्दिप्त मुख पर
पुनः विषाद के श्यामल घन छाये.
सहसा, ज्यों,
इंद्रधनुषी वारिद से
शम्पा आकर टकराए.
सांध्य काल
कभी कुमार, नहीं थे, राजपथ पर आये.
आवागामान का हुआ कोलाहल.
जो थे जैसे. वैसे ही दौड़े आये.
दोनों ओर नार-नारियों की,
पंक्ति सजी थी.
हर गृह में, वाटिकाओं में,
सुन्दर दीप मालिका प्रज्वलित.
अवली थी.
अगरु, धूम, पुष्प, गंध से
समस्त वातावरण सुरभित था.
प्रातः हो अपराह्न, मध्याह्न, सांध्य हो.
हर रूपों , हर स्थिति में,
कपिलवस्तु राजनगर का. रूप अमित था.
प्रत्येक प्रहर  नवीन रूप का,
करता था वह चयन.
आज.
रूप शिरोमणि. राजकुमार को लेकर,
वह था. गर्वित मनः-प्रसन्न,
कहा किसी ने अति मृदुल
स्नेह विह्वल, स्वर में
“ नित्वुत सुन-सा माता,
  नित्वित सुन-सो पिता.
  नित्वुत सुन-सा नारी
  यस्यामयी दिशों पतीति.”
“निवृत है वह माता.
जिसका ऐसा सुत है.
निवृत है वह पिता परम,
जिसे प्राप्त उनके सदृश ही सुत है.
वह नारी परम निवृत है,
जिसे प्राप्त ऐसा पति है.”
सुन कुमार ने,
कल हंसनी रूपसी अनिद्य सुंदरी,
कृशा गौतमी की भावाकुल वाणी,
रोका रथ.   
सस्मित उसको देखा.
एक अति कोमल तन्वी.
अपाद लोच भरी लावण्यमयी.
प्रश्न किया कुमार ने-
किसके परम निवृत होने से
होता है मन शान्त.
सस्मित उत्तर दिया गौतमी ने-
मनः-राग जब होता उपशम.
समस्त दोष हो जाते निष्प्राण,
वृत्तियाँ हैं मनः-दोष.
उनके शमन से होता है मोह-भंग.
मोह !
समस्त विकारों का मूल.
जब मन करता उसको निर्मूल.
अहंकार !  स्वतः शान्त हो जाता है.
अहम !
समस्त श्रृष्टि का उद्बोधक उपक्रम.
यह एक विश्व कर्षण.
समग्र एषणाएं करतीं इसका अयन.
जब हो जाता इसका भंजन.
होता, सुप्त विवेक का जागरण.
विवेक.
विवेक खोलता प्रज्ञा द्वार.
और प्रज्ञा,
साग्रह करती श्रद्धा का मनुहार
काट, समस्त कटंकित,
तर्क जाल.
आस्था की उच्च पीठिका.
निर्वात निश्चल ज्योति दीपिका.
व्यापक फैला,
शीतल शाश्वत,प्रकाश.
चिरंतन आनन्द.
अचल विश्वास.
कहते जिसको. विमुक्ति निर्वाण.
यही अंततः मानव कल्याण.
सस्मित देखा उसे कुमार ने,
आँखों में उमड़ा, आनन्द-ज्वार.
वह.
अनिद्द्य सुंदरी शाक्य कुमारी बाला.
उसने.
उनके विदग्ध ज्वलित ह्रदय पर,
शीतल अमृत जल डाला.
सौंदर्य ज्ञान की प्रतिमा.
निज, अध्यात्म दर्शन की
दीपित पावन, गरिमा.
कुमार ने, साग्रह क्षिप्त किया
उसके प्रति,
कंठ से उतार बहुमूल्य मौक्तिक माल.
उसे मन ही मन निज प्रथम गुरु मान.
सादर साभार प्रदत्त किया, गुरु दक्षिणा.
कुमारी.
ग्रहण किया उसने निज अंजली में
वह मौक्तिक सृका.
किन्तु स्वयं ही निज वश में
उसका ह्रदय न रहा.
वह.
सौन्दर्यानुभूति अभिभूत आकम्पित,
अन्नादातिरेक, हुई.
विमुग्ध विभोर चमत्कृत
निरख आलौकिक रूप अमित.
अनुराग प्रतीक चिन्ह जान,
ह्रदय भावाकुल रहा धड़कता.
रथ, चला गया धूल उड़ाता.
रहा धुंध में गौतमी का मन चक्कर खाता,
आज.
दिवस था असाधारण.
निज कक्ष में कुमार. कर रहे थे
मौन विचरण.
उद्यान में,
भौतिकता ने निज चरम सौंदर्य से,
किया था, कुमार का श्रृंगार.
वे राजसी आभरण अलंकरण,
थे तन पर असह्य भार.
और,मन !
उसकी व्यथा दुर्निवार,
विषादपूर्ण मनः-आकाश तले.
पीड़ित स्मृतियों की समाधि पर
सर टेक कर अनुभूति मौन बैठी थी.
चेतना विछुब्ध विमूर्छित थी.
किन्तु.
कृशा गौतमी रूपसी ने,
आज, मन का किया श्रृंगार,
भूषित किया उसे सुसज्जित कर ,
उदात्त विचारों का हार.
चिंतन को,
एक उन्मुक्त नवीन क्षितिज मिला.
पहन सप्त रंग परिधान.
हँसा.
अरुणोदय, लेकर स्वर्ण विहान.
प्राची पर, प्रभा ऊषा.
उसकी आँखों में उज्जवल प्रकाश खिला,
कुमार को, जीवन का एक नवीन सूत्र मिला.
दृष्टि अन्वेषण कर रही अन्यत्र,
आज.
आषाढ़ पूर्णिमा पुष्य नक्षत्र,
व्याप्त उज्जवल धवल रजत राका,
सर्वत्र, खिल रहा ज्ञान सहस्र पात्र कंवल.
सौरभ अमृतमय अमंद.
कुमार का मन.
ज्ञान अंध आकुल.
खोज रहा.
कहाँ सुरभि,कस्तूरी-मृग व्याकुल.
ज्ञान पिपासित हृद-अंजलि में,
तृषा निवृत,
दिया कृशा गौतमी ने अमृत दान.
करो,
इसे तुम आकंठ पान.
परम तृप्त होकर निर्दिष्ट करो
अपनी पहचान.
यह विलास.
राजसी परिवेश.
नहीं जीवन यहीं शेष.
मानव.
स्वयं एक पावन सन्देश.
समस्त संसृति में है उसका वैशिष्ट्य विशेष.
खोजता है उसे.
क्यों यह संसार सन्निवेश.
यह केवल रिसती,व्यथा
पीड़ा अशेष.
हर सुख.
क्यों दुःख की श्यामल छाया ?
सब जान, विमुग्ध, विमूढ़,
क्यों मन ने बलात विवश,
इसे अपनाया.
क्यों नहीं अब तक इससे निष्क्रमित,
विमुक्त हो पाया,
क्यों ! क्यों ! क्यों ! 
क्यों यह पीड़ा अनुभूति.
मन वेदना-विगलित, तन रोमांचित.
क्यों बरबस अकारण
व्यथा विह्वल लहरों में
दोलित आलोड़ित,
मन टीसों से भर आकुंचित.
क्यों निराशा की यह कज्जल वर्षा.
ह्रदय सावधान, न हो  सका ,
सहसा.
केवल. दुःख
कह रहा अंध मन जिसे सुख.
एक पर एक अप्रत्याशित प्रहार.
सह न सका अंतर,
यह दुर्वह भार.
उड़ गए.
हर रंग
मोह, भंग कर गए.
ध्वस्त समस्त
कामः-छंद मानस तरंग.
मन,
एकाकी नीरव निःसंग.
देखा.
शैशव का वर्तुलाकार
निर्जीव निर्भीक.
उस पर गर्वोन्नत खड़ा
जड़ें जमाकर
अंगार पटल खचित
दंभपूर्ण यौवन अशोक.
और
जरा का तक्षक,
विषाक्त ज्वलित फुन्कारों से
उसे जर्जरित कर,
बना उसका भक्षक.
मृत्यु हिमोज्ज्वल श्वेत पटल के नीचे
पड़ रही मुर्मूष
समस्त स्पृहायें मृत आँखें भींचे.
धिक्क जीवन !
धिक्क जीवन !
दुःख का दावानल.
प्रत्येक जीवन-स्वांस.
मृत्यु-मुहर-अटल.    


Wednesday, 5 February 2014

सर्ग : ९ - महाभिनिष्क्रमण




महाभिनिष्क्रमण

कुमार,
थे मौन उद्विग्न विष्णन
निज कक्ष में.
उद्यानोत्सव-कोलाहल-विरक्त,
स्फूर्ति रहित तन-मन क्लांत श्लथ.
अति विचलित
ज्यों हिमपात-व्यथित-जलजात विगलित.
कुछ नत, वेदना भार,
अर्ध रात्रि में भी कुमार थे जागृत.
उज्ज्वल उन्नत प्रशस्त ललाट पर,
चिंता की,
वक्र कुटिल रेखा,
चकित,
अलक जाल कम्पित,
ऐसा कंटक जाल भाल पर,
कभी नहीं अवलेहा.
ली अनजाने में सिद्धार्थ ने,
ह्रदय छीलती
एक गहरी सांस.
आह ! धिक्क जीवन !
रहा न तेरा किंचित विश्वास.
किस मृग जाल की लोल लहरियों में,
सप्तरंग सुरधनु से उदित हुए,
जीवन के उल्लास.
जब,
आधार ही नहीं.
वह.
सत्य परम.
वह शाश्वत आनंद,

निहित कहाँ जीवन में.
किसे कहते हैं सौख्य संभार ?
दृष्टि गयी जहां तक, वह.
विस्तीर्ण व्यापक नैराश्य-शल्य बिंधा,
क्षत-विक्षत,
नील गगन आर-पार.
कह रही धरा, बाहें फैला कर
मुझे सम्हाल.
और नभ कहता,
मैं विवश स्वयं ही निज पीड़ा भार.
क्षितिज,
कभी धरा के आंसू चुनता,
कभी गगन के जले नखत फूल.
वह भी,
श्मशान बना,
नैराश्य धूम में रहा घूम.
कभी धरा का, कर,
स्पर्शित कर,
जलनिधि,
कभी गगन को,
ज्वार तरंगों से कर ,
घर्षित पीड़ित,
लहरों की सहस्र भुजाओं को
फटकारता, सर धुन धुन कर
हाहाकार  मचाता.
भंवर पात्रों को पीता
और रिक्त, फेंकता,
विछिप्त सा रहा चीख.
आह ! अदम्य प्यास !
करे मन किसका विश्वास.
सब मृग छलना, अनन्तः अलीक.
मैं.
अतृप्त, असंतुष्ट,
अभाव-प्रभाव पीड़ित,
व्यथित.
समय-रशना-विजड़ित.
किस सुख की आशा में,
रहा भटकता.
प्राप्त रही सदा दुराशा.
यह. परिवर्तन. चिर परिवर्तन.
जीवन. स्वांस-स्वांस में रहा छान.
आहत प्राणों पर,
निर्मम दुःखों का दुस्तर अतिक्रमण.
उतप्त प्रभंजन की जलती ज्वाला में,
क्षरित हो रहा,
ज्वलित जीवन.
सुख कह कर जिसका
आँचल पकड़ रहा जीव.
वह है.
पीड़ा का मर्मान्तक परिभाषा जटिल,
अतीव.
मन.
सुख की छलना से पीड़ित,
विभ्रमित, वह.
दुःख की वेदना से मर्दित.
इन दोनों के सामंजस्य की,
स्पष्ट विवेचनामात्क सटीक विधा,
कहाँ है ?
दुःख.
यही नित्य.
यही चिरंतन.
इस अंध निशा में,
जीवन-उडगन-स्पंदन.
खद्योत प्रकाश-स्फूरण.
यह.
शाश्वत अंतर दहन
अथक क्रंदन.
हार गया, प्राण,
निरख,
अजस्र अश्रु-हवन.
किस तरु की डाली में,
दुःख की,
लटका दूँ यह ग्रंथित झोली.
कौन सा, हरित पल्लवित पुष्पित
रसराज-मंजरित मधुवन.
झुक कर साग्रह साभार,
चर्चित कर दे,
निज कर-पल्लव से,
इस, तप्त भाल पर,
केशर पराग की सुरभित रोली.
इतना ही कह सके,
यह दृढ़ संकल्पित मन.
मेरे ज्ञान क्षितिज पर
अश्रुवारि अभिसिंचित स्वर्णिम
प्रभात विहंसित.
एक.
उद्द्यागा तिथि,
स्वर्गंगा सी हो रही अवतरित.
इस आकंठ स्नात में,
सत्य-संधान दीप जलाऊंगा.
इन, कराहते जीर्ण-शीर्ण
तपित प्राणों में,
नव संजीवन रस बरसाऊंगा.
कदापि  नहीं, वाग्जाल में,
तृषित मृगों को भटकाऊँगा.
क्या है सत्य,
प्रत्यक्ष प्रमाणित.
उसे प्राप्त करने की,
एक सरल विधी बताऊँगा.
दिया आज मार्ग-दर्शन,
सुंदरी कृशा गौतमी ने,
वह प्रथम गुरू मेरी,
मैं शिरसा नमित गुरु चरणों में.
वय, नहीं गुरू बनाता है.
ज्ञान ही, उसे समादृत करता है.
किन्तु क्या कृशा गौतमी ने भी, 
जो कहा
उसे शतशः हृदयंगम किया होगा.
जो संकेत दिए उसने,
उसे भी स्वयं ह्रदय-निकष पर,
अनुभूति से संवेदित,
सत्य परीक्षित कसा होगा,
खरा उतारा होगा.
या,
केवल वह भी सुनी सुनाई बातें थी.
प्रकाश. मात्र पथ आलोकित करता है.
वह न गंतव्य तक पहुंचता,
न निर्धिष्ट पथ ही बतलाता है.
यह तो, केवल,
पथिक-धर्म है.
वह चयन करे मार्ग
और प्राप्त करे, अभीष्ट.
अतः  
हे मार्ग दर्शिका तुझे भी प्रणाम.
तूने वह कंटक झारे
पीड़ित थे, जिससे दिन-याम.
देखा,
प्रभु ने नभ की ओर
दुग्ध स्नात धवल चन्द्रिका, नहीं कहीं,
ओर छोर.
खिला आषाढ़ का पूर्ण चन्द्र.
था संकेत भरा गंभीर गहन गगन.
नभ ही नहीं,
धरा भी, चांदनी में थी विभोर.
फर्श पर पडी चांदनी,
कौतुहल भरी भानिनी.
मौन निरख रही थी,
कुमार के मन का मंथन, तोड़ मरोड़.
निज निःशब्द कक्ष में.
विष्णन मन, निसंग सिद्धार्थ.
कर रहे थे गहन विचार-भग्न विचरण.
कभी अवस्थित होते पर्यक पर,
त्वरित चौंक उठते निज मन में,
हर करवट में,
आकुल तड़पन.
कभी उठ कर,
अनिमेष अपलक निरखते मुक्त वातायन.
गहरी स्वांसों से उद्वेलित वक्ष.
दे सका न रंचक, मनः-शांति,
अगरु धूम धूमित सुरभित कक्ष.
मन में अनवरत रिस रहा था कोई शूल.
नितांत दुष्कर था,
उसको अनायास जाना भूल.
कितनी व्यथा लहर दोलित मनः-तरंग में.
कितने विषाद के श्यामल बादल उमड़े
पीड़ा-विदग्ध-आरक्त कँवल-नयन में.
हर चरण जो धरा पर पड़ते थे,
किसी यज्ञ में आहूति से वे थे जलते.
किसे ज्ञात था.
इस अर्ध रात्रि के अंतर में बंधी
कैसी प्रबल प्रचंड अंध,
फट पड़ने वाली आंधी है.
जो,
एक भयानक आपत्ति यहाँ लाएगी.
हर सजी सजाई वस्तुएं.
क्षण में विनष्ट हो जायेगी.
यह.
मौन निशा.
होनी, बन कर आई है.
इसके कर में छिपी,
एक अदुर्दमनीय निर्मम कशा है.
हौले हौले कुमार निज कक्ष त्याग,
बाहर गृह वीथिका में आये.
बंद थे, सर्वत्र कक्षों के कपाट,
कहीं कोई निद्रालय,
कोई था रहा जाग.
किन्तु, निद्राभिभूत  अर्धजागृत तन्द्रालस,
नहीं किसी को कुछ भी ज्ञात.
दिवस तो सब दिन सरिस
हो रहे थे, व्यतीत.
किसने जाना.
किसके मन ने क्या ठाना.
किन्तु,
मनः-शतदल.कब खोलेगा कौन पटल.
वह.
कितना चंचल,
भरी उसमें कितनी हलचल.
अविश्वासी उसके पारद से अस्थिर हर पल,
समस्त ज्ञान, विवेक,तर्क-वितर्क.
थे जिसमे कुमार एकाग्र निमग्न.
उसने लाकर उन्हें खड़ा किया
एक बंद कक्ष के द्वार.
बंद,गोपा का शयन कक्ष, कपाट.
आशंकित से वे भी,
प्रतीक्षाकुल अधीर जोह रहे थे,
अदृष्ट की बात.
मौन निःशब्द निसंग रात,
एक,
उद्वेलित आवेगपूर्ण स्वांसों का,
था उनपर,कोमल आघात,
मौन खड़े कुमार.
अतीत-भविष्य के मध्य द्वार,
जाने कैसे थे, मनः-विचार.
मुख,प्रभा उद्दीप्त शांत,
वारिज अरुणाम आकर्णमूल नयन,
आकुल प्रश्न उनमे थे
अर्ध शायित अशांत.
कहीं दूर से चली आ रही
तीव्रगामी आंधी की,
नयन फलकों पर थी छाया.
कम्पित थी, स्वर्णिम कोमल काया.
द्वार-संधि से व्याकुल,
दुग्ध धवल चांदनी झाँक रही थी.
बंद कपाटों के बाहर की गुरुता,
वह सभ्रम अंक रही थी.
यौवन का,
पराग मरंद मीलित सुरभित समीर अधीर,
था, असमर्थ,
इन नैसर्गिक मादकता को करने में , वहन.
मादक पवन के झोंकों से
उड़ रहे थे वक्ष पर के सूक्ष्माम्बर.
अगरु धूम संकुलित कक्ष,
सुरभि, व्याकुल, खोज भरी,
वातायन से,
बाहर बिखेर रही.
हौले से खोला गौतम ने,
अवरुद्ध द्वार के अर्ध कपाट.
निर्मल सरिता सी पर्यक पर
शयित रमणीय कमनीय तरुणी,
कुसुमित दोनों पुलिन पात.
देखा उन सब पर
रजत चांदनी का अभिसार.
दृष्टि पड़ी,
शय्या पर, कज्जल कृष्ण भ्रमर-स्पर्धित,
लंबे रेशम से चिकुर,
भाल पर रहे झूल.
अर्ध आवृत शशि मुख.
ज्यों खिला श्वेत सहस्र दल कमल
अति मसृण सद्दः विकसित फूल.
वह. किंजल्क जाल पद्मराग पीताभ.
केशर कुंकुम पराग में
लिपटी तन्वी.
कोमलता में आपाद
शत-शत बल खाती लह्वी.
अमित रूप लावण्य प्रभ, तरुणी  
शयित निशंक.
एक कर आबद्ध नवजात शिशु,
दबा उसके अंक.
श्वेत पुष्पों से सज्जित श्वेत पर्यक.
वह.
श्वेत कुमुदनी अमृता.
ज्यों नभ से उतर धरा पर
निसृत शयित स्वर्गंगा.
अवदात कंज कमाल जलजात पर,
अवस्थिता, कमला.
वह.
प्रगाढ़ निद्रा में सोयी,
मधुर सपनों में खोयी.
अरुण कंवल कोमल कल चरण तल के
शतदल.
पद कोमलता से थे कम्पित चंचल.
उनकी अरुणिमा की गरिमा से,
अरुण जलज भी थे लज्जित,
वे चिर नवल अमल से
थे सज्जित.
वातायन से आती किरणें,
मरकत वैदूर्य, माणिक नीलम से टकरा कर
सप्तरंगों में, बिखर बिखर, जाती थी
उस कमनीयता को छू-छू कर सिहर-सिहर.
ज्योत्सना. रूपगर्विता.
कर में पूर्ण चन्द्र का स्तवक लेकर,
निरख,
यह अप्रतिम लावण्य-प्रभ रूप.
हो गयी विषंणमना व्यथित.
क्षीर उदधि लहर शतदल पर
शयित निरख,
प्रिय का लावण्य-प्रभ,
अप्रतिम मदिर रूप,
सरस स्निग्ध सम्मोहन अमित,
ज्यों गंधाकुल विकल कंजवन
या मदःप्रमत्त झूमता केतकी-मधुवन.
यह. रसराज का मदनोत्सव,
रहा वह. मधूक किरीट मंडित अचूक,
पंचशर सज्जित निशंक निर्भीक घूम.
मादकता की, रस की,
धूम मची थी.
बासंती सौरभ की लूट,
मची थी.
जिसके कोषागारों का वैभव वितरण.
था, उसका,
निश्चिन्त प्रगाढ़ शयन.
क्षणभर अनिमेष अपलक भाव विभोर.
मन्त्र मुग्ध ज्यों शशि निरख चकोर.
यह.
प्रच्छन्न अवसन्न जड़ता.
जिसका कुमार को भी ज्ञान
न रहा.
वह,
राग-विराग मध्य झोंके खाता,
आहत झकझोर उठा.
घूमी दृष्टि कक्ष में
सर्वत्र बिखरे थे राग रंग रंजित
नव विकसित यौवन-नक्षत्र,
कहीं दीप्ति आभा,
कहीं रमणीक मदिरालय प्रभा,
यौवन भार नमित
पुष्पित सुरभित वल्लरी
स्वप्न देश की मनःमोहिनी किन्नरी.
धरा पर पुष्प -माल आच्छादित
स्वोच्छ्वसित सुरभित,
कोमल देह यष्टि.
सर्वत्र सौंदर्य-सुधा-राका की अमिय-वृष्टि. 
नव उल्लास लास मुदित
अनूदरा सूक्ष्माम्वरा
नवनीत सरिस कल कोमल,
उज्जवल आकाश तरगिणी.
तन्द्रालस स्वप्नावस्थित अलसित,
रसः-प्रवाल पूरित किंशुक अधर स्मित में,
काँप रहा.
अधरों पर लगा वेणु रस मीना.
किसी के कंकण-क्वणित-रणित-वलय-सज्जित,
कर पल्लव में, पडी वीणा,
सम्मिहन-भार नमित अति लाघव में.
असमर्थ क्षीण कटि ,
गहन रत्न खचित
पुष्प गुच्छ अनुस्यूत स्वर्ण मेखला,
किसी की कटि पर,
कहीं जानू पर,
या धरा पर,
वह खुली पडी सिप्रा.
खुले नागन से लहराते कृष्ण केश.
अर्ध प्रच्छादित शशि मुख,
अमृत सन्निवेश,
तड़प रहे धरा पर.
खुले वक्ष पर शल्य गजरे झूल रहे.
वह.
गोपा का कक्ष नहीं,
एक कंज सरोवर था खिला हुआ.
पर्यक शयित चन्द्र प्रभा से,
सम्पूर्ण प्रकोष्ठ था भरा हुआ.
एक चन्द्र, इतनी कमलिनियाँ.
लावण्य प्रभा रश्मि-पान करती विमुग्ध,
कुमुदिनियाँ.
क्षण स्तब्ध रहे कुमार.
पुनः देखा,
यशोधरा की ओर.
गौरवान्वित सौंदर्य-प्रभा पुंज,
निष्कलंक निश्छल विधु मुख.
अमृत अकिंचन.
उस मादकता के प्रति आतुर
उन्मुख.
पर्यक पर चुनौती देता
सम्मोहन-सुधा जलनिधि का,
ऊजर्स्वित गगन घर्षित ज्वार.
उसका, उन्मत्त मादक उत्थित
सुरभित उच्छ्वास,
दे रहा था,
साग्रह, रूप, रस, गंध का
आकुल आमंत्रण.
जीवन.
विराग नहीं
नव कुसुमित आशाओं का,
क्षार नहीं.
वह है.
अलसित काली आँखों में,
लहराती मादकता का वारापार.
वहाँ. ऊषा, इठलाती लेकर,
बहुरंगी उड़ते गुलाल का,
केवल प्यार प्यार.
मात्र,
आमूल समर्पण का मनुहार.
जीवन.
हार नहीं वह.
कामनाओं का शुचि दुलार.
सम्मुख यह.
साक्षात् सवाक सम्पूर्ण,
जीवन ही तो है.
रस का, सौरभ का, उल्लास लास का,
सम्मोहक आदान-प्रदान
वितरण ही तो है.
पर्यक पर स्वप्न शयित.
रसः-आप्लावित
सहस्रदल मदः-अलसित
विहसित यौवन.
मन.
चिर लुब्ध मुग्ध चंचरीक.
सहज ही जाता मचल मचल.
खिला मलय विचुम्बित सुरभित  
अभिनव विकसित कमल वन, उन्मन-उन्मन.
इसे त्यागना.छोड़ कर जाना.
मन असहाय,
निरख रहा.
यह अदुर्दमनीय वैभव.
निज दीन पराभव.
मानव जीवन. 
कला नैपुण्य का
सर्वोच्च सुघर सुविन्यस्त,
आह्लादित साग्रह समर्पित
प्रकृति का अंतिम उपहार.
संभव है.
यह जीवन !
प्राप्त केवल एक ही बार.
क्या है यह प्राण संयोजना.
हर बार,
जाने कितने सोपानों पर चढ़ कर
प्राण. पहुंचता है
इस सीमा पर,
जिसके पश्चात जाने क्या है ?
किसे पता .
कहते हैं पूर्वजन्म.
पुनर्जन्म.
देखा, दोनों को किसने प्रत्यक्ष ?
ज्ञात किसे संसृति का मर्म.
केवल, एक,
निराधार संत्वना है,
निज कर्म-भोग के प्रति.
अतः. जो है समक्ष.
जी लें उसे.
मान उसे ही, इह-जीवन लक्ष्य.
संभव है.
यह अप्रतिम आनन्द,
बाँध न सका,
निराकार जीव निर्बंध.
इसी हेतु उसने,
पंचतत्व गुम्फित प्रस्फुटित
अमृत सम्पुट में,
ली जीवन स्वांस,
किया पुद्गल वरन.
इस अपार मादकता का कर्षण.
जीवन रस चरम मधु वर्षण.
कर रहा जीव.
मंत्रमुग्ध
कर आँखें बंद छककर., रसः-आस्वादन.
गौतम !
हो सचेत.
त्याग मनः-टेक.
न कर इसका प्रतिकार.
प्राप्त,
यह जीवन प्रथम और अंतिम बार.
न यहाँ, न अन्यत्र ही,
प्राप्त कहीं, कभी,
कुछ भी नहीं.
मूढ़ ही ज्ञात से
अज्ञात में जाते हैं,
स्वयं को,
मृग मरीचिका की चकाचौंध मचाती,
ज्वाल लपटों में आबद्ध,
तडपता पाते हैं.
किसी अंध धुंध में जाना,
है केवल,
दिग्भ्रमित, मतिभ्रमित, शून्य में टकराना.
मत फंस. इस दिवा-स्वप्न में.
सशरीर सभी सक्षम, इस जीवन में.
किन्तु, जो देखा गत दिवसों में,
कंटक चुभन भरा हर स्वांसों में.
यह.
यौवन-वय के स्वर्ण-चषक में,
मदः-मस्त निज चरम अथक में,
तृषित पपीहे का निरभ्र गगन में,
जलता, नष्ट होता, स्वाति कण है.
इसके, व्यतीत होते क्षण, प्रति क्षण,
अनंतोगात्वा दीन क्षणभंगुरता की क्षरण है.
इस परिवर्तनशील प्रकृति संवेदन में,
कहीं, नहीं, अमृत संवर्धन है.
अभी उसी दिन तो,
तूने देखा था.
दण्ड पर अर्ध आश्रित नमित.
यौवन पर,
जरा-कंटकित,
अनगनत काँटों का घेरा था.
किसी अजगर सरिस,
स्वांसों से खींच-खीच कर,
चूस लिया था उसने,
यौवन का समस्त मादक रस.
शरीर.
मात्र अस्थी पंजर पर अवश झूलता,
समय-अवधि-बसेरा,
था.
कितना अल्प क्षणिक
मार्मिक है, यौवन-मद का,
मिथ्या ऐन्द्रजालिक मेला.
इसे जान कर भी,
जीव ने,
इसे नियति-बद्ध विवश झेला.
तू भी.
वह मत कर.
जो सब करते आयें हैं.
नियति-रशना को,
एक झटके में कर भंग.
नहीं किसी की आस.
न कर किसी का विश्वास.
दुर्गम पथ, विरल कंटकाकीर्ण.
पर तू हो निशंक,
बढ़ निसंग.
यह.
देव.
नियति.
समय.प्रारब्ध.
मात्र, दुर्बल मन के हैं.
चिंतन. अवलंबन.
किन्तु,सिहरा मन.
तनिक थम.
यह जीवन.
उसका सौंदर्य-किरीट-यौवन.
यह भी नहीं किसी से कम.
सम्मोहन का यह अचूक पृष्ठक.
आप्लावित छलकता मधु रस अथक
मधु-कांक्षी यौवन का उल्लास चरम.
किसने जाना ?
परा-मर्म.
जीवन ही, नित्य अलभ्य धर्म.
समस्त, पारलौकिक गवेषणा.
मानव ही मात्र,
संत्रसित पीड़ित ऐषणा.
प्रकृति-रहस्य है केवल इंद्रजाल.
मानव.
अदृश्य मधु निमित्त प्रलुब्ध व्याल.
कर पान.
यह मद-मस्त उन्मत्त तरंगित पारावार.
यह. यौवन रसः-चषक.
ढाल ढाल अथक,
जन्म-मृत्यु.दुर्निवार.
यह मध्यांतर का मोहक व्यापार,
प्रकृति का उच्छ्वासित सुरभित उदगार.
तन्मय होकर, कर मनुहार.
इसमें अति मादक घोर अतृप्ति है.
किन्तु इस दग्ध तृषा में भी
अमर्यादित आकंठ निम्मजित,
अंध तृप्ति है,
जीवन.
चंचल बहता जल है.
अहर्निशि प्रतिपल संतरित प्राण पपीहा.
फिर भी अति प्यासा घोर विकल है.
लहरों पर लहर पिपासित,
ये लहरें, आतुर,
भंवर-पात्र अधर लगातीं.
जल में घूर्णित रीते चषक निरख.
विक्षिप्त, प्यास-प्यास रटती,
सर धुनती रह जाती.
यह आशाओं का मोहक जमघट है.
सिद्धार्थ !
न कर इसकी अवहेलना.
वारिज पटल पर लहराता
यह रश्मि-स्वर्ण-जाल-खचित,
सुरधनु का आँचल है.
आँख बंद कर शीश छिपा इसमें.
मनः-आनन्दातिरेक उत्स,
कदापि नहीं,
आधार रहित, मिथ्या छलना है.  
यदि सत्य !
अक्षुण्ण सफल चिरंतन है.
तो, यह भी कहाँ विफल है.
संजीवन सर पूरित निसृत इसका,
प्राणवंत, जीवंत, कण-कण है.
इस क्षणभंगुरता की,
पल-पल परिवर्तित रमणीयता,
सम्मोहाक रोचक दुर्द्धश प्रखर प्रबल है.
इस कर्षण के प्रति,
समीत नमित करबद्ध रही अमरता.
इस रस. इस मदः-उत्सव निमित्त,
उतरे अति लोलुप छद्मवेशी अमर पुत्र.
नित्य सुधापान कर भी,
परम लुब्ध, इस आसव पर,
आतुर से गिर जाते हैं.
एकरसता कि नीरसता से ऊब,
वितृष्ण इसमें,
आकंठ डूब-डूब, रह जाते हैं.
यह यौवन.
यह उल्लास-लास, सम्मोहन.
यही, जीवन का चरम सत्य है.
इसमें,
उन्मादक अमिय रस वर्षण है.
इस रजत ज्योत्सना में,
प्राण पपीहे का
निर्वाध निशंक संतरण है.
भींग-भींग.
तन-मन से भींग.
यह अजस्र अनन्त पावस-वर्षण है.
इसके क्षण, प्रतिक्षण को,
कर ग्रहण,
अपनी आतुर अधीर
उन्मुक्त खुली बाहों में,
भर,
यह लहराता सुधा सलिल.
शान्त कर स्वयं को,
प्राणों में असह्य तपन,
अदम्य तृषा, विकल है.
कुमार ने,
पुनः देखा शयित प्रिया की ओर.
पिघले स्वर्ण सा,
लहरें लेता लावण्य-जलधि का पारावार.
उच्छलित हिलकोर.
सम्मोहन का अजेय अमोघ ज्वार.
न कहीं सीमा, न कहीं छोर.
राग-विराग, आलंगित,
हो रहे थे क्षार.
अनुदरा कमनीय कंचनाभा गोपा.
विवर्ण कृशगात.
क्षर उदधि संतरित
स्वर्ण किंजल्क जलजात
विकच पात-पात.
बंद पद्मपलाक्षों में चल रहे,
स्वप्नों का अभिसार.
सम्मुख स्वप्न शयित साकार.
कितनी बीती मधु यामिनियों का,
था,
स्पष्ट मौन हस्ताक्षर दुर्निवार,
सहज ही एक झटके में, 
छिन्न-भिन्न कर बढ़ जाना,
था, महा दुष्कर.
विवश भावाकुल था
कातर आहत अंतर.
स्मरण आया.
प्रिया का मिलन.
राज-उद्यान का स्वर्णालंकार वितरण.
वह. मोहक क्षण.
अति भरे-भरे, भाव प्रवण.
मन्त्र-मुग्ध, सम्मोहित मन.
उस पल.
हटात अवाक,
देखा था कुमार ने,
सौंदर्य-सुधा-स्वर्गंगा का
उल्लसित उन्मुक्त शुचि विलास.
उज्जवल शुभ्र निश्च्छलता का,
छलकता,
सुरभित मरंद मीलित
नवल उल्लास लास,
रक्ताभ प्रवाल अधर सम्पुट में,
मौक्तिक दाडिम दन्त पंक्तियों का,
हासोद्द्यात-प्रभा-प्रकाश.
झरे,
अजस्र हर सिंगार.
सुरभित शुभ्र नव मल्लिका का
गुम्फित उपहार,
अवकाश उत्ताल तरंगित,
वारापार चकित विभ्रमित.
मनः-भ्रमर.
स्तब्ध स्तंभित,
कहाँ आर-पार त्रस्त विचलित.
हो गए समाहित उसमे,
दिग् दिगंत,
विस्तीर्ण व्यापक समस्त भुवन.
एक गहन अटूट निस्तब्धता.
क्या जड़.
क्या चेतन.
ज्ञात न रहा.
मनः-अवसाद, ज्वार,
हो गए समरस.
एकात्मता की संजीवन मादकता,
आप्लावित सर्वत्र,
एक विकच विश्व-कमल.
एक ही रस रहा छलक, ढल-ढल.
वह अभंग तन्मयता.
आत्म-मिलन जिसे कहते हैं.
था,
ह्रदय का मौन संलाप.
आलाप.
केवल स्वांसों की सीमा,
उद्वेलित धडकनों की थाप.
असीमता ही रहा जो माप.
मानस की सूक्ष्म तरंगित
कोमल संवेदन-शीलता,
रही, वही, सचेतन मुखरित भास्वर.
शब्द, त्याग चुके थे दीन कलेवर.
मनः-वीणा का मदिर मृदु गुंजन.
आनंद-झर का अजस्र वर्षण.
उस दिवस की, वह,
अनगूंज गूँज.
और आज,
यह मूर्तिमान प्रत्यक्ष,
सर्वशक्ति संभूत सम्मोहन
मर्मान्तक अचूक.
यह अपरूप अनूप रूप.
हो उठा ह्रदय,
पीड़ा विह्वल टूक-टूक.
वह राज उद्यान,
देवदह की भोली राज हंसनी,
उल्लास तरंगों में उड़ती,
बहकी-बहकी बढती आई थी.
संगमरमर से उज्जवल मृणाल सरिस,
बहुलता फैलाकर,
नमित अंजलि.
बिखरे चूर्ण अलक जाल.
ज्यों लहराते पवन में
फुन्कारित कृष्ण व्याल,
इन, नील नयन क्षितिज के,
तरल कम्पित जल में,
रंग ज्वार बिखेरती,
उषा सी, उल्लसित उतरी थी.
अनिमेष दृष्टि वहन क्षपा में
कौंधती नर्तित विकल तड़ित,
उल्का सी चक्कर खाती,
अंतर-दह में विलीन हुई थी.
आज.
उसे बिना कहे.
बिना आश्वस्त किये,
यों मौन त्याग कर जाना.
क्या श्रेयस्कर होगा.
तत्क्षण भान हुआ कुमार को
स्नेह सलिल विकसित यह सरसिज.
होगी उसके प्रति,
यह निष्ठुर निर्मम भूल.
झर पड़ेंगे,
स्वप्न शयित कल कोमल तन्वी पर,
सहसा, अनगिनत तीखे चुभते शूल.
शल्य विद्ध मर्माहात,
कपोती,
अर्ध निशा में चीखेगी.
रिक्त शून्य टकराती अनुरणित,
प्रतिध्वनियाँ.
निसंग निभृत ह्रदय पर,
विद्युत सी टूटेगी.
यह सरसिज.
मानस सरसिज.
बिखरे भावों के शैवाल जाल.
कर गए , जटिलता से आबद्ध
सिद्धार्थ के, सिहरे कोमल चरण.
और कातर विवश
विह्वल व्यथित चकित,
निरख रहा वह विधु मुख,
कुमार को अश्रुपूरित उन्मुख.
वह.
केशर कुंकुम अंगराज राजित
अति, कोमल गात.
काँप रहे, तीव्र प्रभंजन में
कंज कलि के पात पात.
यह.
पुष्प भार नमित पल्लवित
हरित लता.
आमूल उखड़
छिन्न-भिन्न भू लुंठित, हो जायेगी.
सुदृढ़ वक्ष पर शीश रख कर,
आश्वस्त निर्भोक निश्चिन्त,
भला.
बिछड़ कर कहाँ जा पाएगी.
विस्तीर्ण जगत.
निराधार मन.
जीवन, जलता सैकत वन.
पतझारों के शुष्क पीत पत्रों सी,
पवन थपेड़ों में ठोकर खाती, टकराती,
क्षत विक्षत हो जायेगी.
जल रहित मीन सी अति दीन.
तड़प तड़प मर जायेगी.
दृष्टि पड़ी राहुल पर
माँ से लिपटा सोया था.
सात दिवस का यह अभिनव जातक.
था कितना मोहक मारक.
क्या जानेगा यह-
समय-
जीवन-
स्वांस लेते ही,
हो उठा कितना घातक.
इसने क्या खोया.
यह.
सात अंक.
कितना अचल निशंक.
जन्म लेते ही मैंने भी,
सात पग धरा पर रखे.
माता महामाया ने,
सात दिवस का छोड़ मुझे,
निज प्राण ताजे.
आज. यह सात,
पुनः आया लेकर,
नव जागरण, नव प्रभात.
अभी भी जाने कितनी बार.
यह आएगा लेकर,
जाने क्या सौगात.
यहाँ इसी प्रकार खड़ा.
क्या ऐसा ही जड़ा रह जाऊँगा.
जिस घोर मोह में जग डूबा,
उसमे,
मैं भी, ऊहापोह करता रह जाऊँगा.
यह मोह ! घोर मोह !
पत्नी-पुत्र, मारक विछोह.
किन्तु, इस अंध तमिस्रा से,
मुझे बीत कर जाना है.
देखा पर्यक. अपलक अनिमेष.
कांतिमय अरुणाभ
छलके मौक्तिक मणि सदृश,
स्वप्न शयित प्रिय का रूप
अशेष.
थे.
गंभीर गहन नील नयन कुछ चंचल.
लेकर संघर्ष संकुलित
अंतर्द्वंद्वों के उठते-गिरते, 
बनते-मिटते, सूक्ष्म भाव-तरंग.
यौवन ज्वार.
ऊर्जस्वित अंग-अंग.
मंथन से आलोड़ित ह्रदय प्रदेश.
सम्मुख, 
अति मादक मोहक श्रृंगार सौष्ठव का,
सुरभित सन्निवेश.
खड़ा वहाँ निश्चिन्त.
ह्रदय कानन में,
निर्भीक हठीली मुस्कानों के संग, अनंग.
संधान करे,
वह. अपने मारक शर.
वह स्मर.
मर कर भी जो मरा नहीं.
कब बन पाया उसका ह्रदय भी,
अचल अडिग अश्म.
वह भी निज संकल्पों पर
दृढ़ अटल रहा नहीं.
पराजित,
काम, नहीं, वही हुआ था,
वहाँ तत्क्षण,
वह शंकर.
मन्मधारी अभयंकर.
हुआ न उसे सहन.
रति का करुण विलाप.
कातर क्रंदन.
औढर दानी.
अकारण द्रवित होकर,
हो जाता , पानी-पानी.
शिव-रति का परस्पर
प्रत्युत्तरित संवाद, कर गया निश्चय.
स्मर-विजय, निर्विवाद.
रति का रुदन,
मार्मिक अंतर दहन.
था.
पूर्वाभास.
आमंत्रण.
नियति-स्वीकृत प्रणय निवेदन का.
मौन थे.
सिद्धार्थ सहज जिसे,
जितना जाना था.
उसे महा कठिन बनाना,
कुटिल नियति ने, ठाना था.
भावुक भाव-प्रवण मन का,
निष्ठुरता से निज संसार त्याग कर जाना,
सहज न था.
यौवन का . रस का.
अपना भी कुछ स्थायित्व है.
चिरंतन से अविराम जमा,
इनका भी अस्तित्व है.
यह.क्षणभंगुर है.
नश्वर है.
परिवर्तनशील है.
अवश्य. अविनश्वर. चिरंतन, शाश्वत, सत्य.
किन्तु प्रकृति का यह रूप विपर्यय,
क्षण-क्षण का परिवर्तित मोहक परिचय.
अपनी सीमा में भी,
रही प्राणवंत,
सजीव, निर्द्वन्द्व, अकाट्य,
निःसंशय. शाश्वत.
चाह कर इसे न कर सका,
विलुप्त विलय.
देख,
कुमार का अंतर्द्वंद
किम्कर्तव्यविमूढ़ , विचलित.
खिंची,
अनंग के अधरों पर मारक मर्मान्तक, विषैली स्मित,
गोपा या गौतम.
मात्र निमित्त हैं.
मुझसे ही सब बाधित हैं.
मैं स्मर ही,
निर्मित करता सर्वत्र समस्त रंग विलास. 
अजेय यह आवास.
किया, जिसने भी प्रयास.
जले दीपंकर से.
क्या सोच रहा तू यों विषण्ण.
नहीं सशक्त इसे कर पाने में
कदापि विच्छिन्न.
हो कितना भी विरोध,
संयम के समस्त जटिल अवरोध.
कभी न पाए मुझे रोक.
मेरी अप्रतिहत गति.
निहित मुझमे ही,
समस्त मनः-विकृति.
हो कर भी अनंग.
रहा मैं सदा संग संग.
क्षणभर में.
गौतम का निष्प्प्राभ पीड़ित मुख.
हो उठा, संकल्प-दीप से आलोकित.
उस व्याप्त प्रकाश राशि में,
सहसा सहस्र जिह्वा फैलाती ज्वालाएं
हो उठी प्रज्वलित.
देखा गौतम ने,
चिर यौवना,
अविराम, अविरत, तृषित अतृप्ता,
प्रेयसी प्रकृति की शतशः विकृति.
सौंदर्य-सरोवर के रसः-प्रमत्त विकसित, 
सरसिज के, पात-पात जले.
उनके कोमल कौशेय वसन
बहुरंगी परिधान जले.
त्वचा मांस रहित,
वे कामिनियाँ नव वय कुसुमित.
वे मदः-आप्लावित स्वर्ण चषक अमित. 
सहसा हो गयी अदृश्य.
मात्र बिखरा पड़ा रहा वहाँ,
अस्थि पंजरों का वीभत्स खँडहर.
समस्त आभरण अलंकार
जाने कहाँ विलीन हुए,
सत्वर.
वे जली विकलांग कंकालें.
सर पीट-पीट कर रही थी आर्त विकल, करुण चीत्कारें.
यही है.
यही है क्षणभंगुर जीवन.
इस मृगमरीचिका निमित्त
अंध भटकन पीड़ित तड़पन.
शाश्वत.
अविनश्वर.
विवृत
स्वतः प्रकाशमान सत्य पर,
मारक महाकाल का
कालकूट हलाहल वर्षण.  
क्यों ?
यह वास्तिविकता जान,
आत्मा इसे स्वीकारे.
क्षार हुए
श्रृंगार. हार. काम-अद्दीप्न.
यही सत्य.
परम सत्य है.
यही अंततः
अटल चरम अंत है.
जीवन.
केवल, हाहाकार मचाता
प्यासा मृगजल.
पल न मिला इसे कल.
धिक्क, जीवन.
धिक्क इसके उपचार.
यह अनृत का शापित खँडहर है.
मिथ्या इसकी आधारशिला.
प्राण.
अंध विकल सदा रहा भटकता,
फिर भी, वह रीता का रीता.
उसे कभी कदापि, कुछ न मिला.
यह.
माया का अति मारक
मोहक क्षणभंगुर, रंग महल है.
देख. गौतम देख.
सत्य का, यह भयावह परिवेश.
राख बन कर उड़ रहे,
सम्मोहक सन्निवेश.
केवल करुणा का कातर क्रंदन अशेष.
सभी सुखों की,
एकमात्र, तुला.
दुःख है.
यह दुःख ही चिरंतन सत्य.
चेतना की वास्तविक धड़कन है.
जीवन !
सुख की उत्कट आशा में,
इसमें ही,
रसता, पचता, टूटता, बिखरता,
जलता, गलता है.
मौन कुमार निरख रहे थे.
यह रूप-विपर्यय.
किन्तु.
मन में काँटा सा दंशित था,
अभी भी एक संशय.
उचित अनुचित की
निर्दिष्ट विभाजित सीमा-रेखा कहाँ है ? 
इस सुकुमारी पत्नी.
सद्दः प्रसूता जननी का,
अब, अन्य विकल्प कहाँ है.
इसके जीवन-रथ की धुरी कहाँ है ?
या इनका कभी कहीं पर भी,
किंचित भी दोष रहा है ?
एक पति, वियोगनी
दूसरा नवजात शिशु,
जिसने जीवन देखा ही नहीं.
दोनों होंगे निराश्रित.
सहज स्नेह से वंचित
क्या यही इनकी इतिश्री है.
एक कुमारी के परिणय का 
क्या यही अंतिम निर्णय है.
पाणिग्रहण, जीवन का,
मन का खेल नहीं था.
राग-विराग, का कभी मेल नहीं था.
एक उदासीन विरागी मन के
जब ये अभिसिप्त स्वप्न नहीं थे.
क्यों इन रंग भरे बादलों में घूमा वह.
क्यों,
इनके निमित्त विकल बने थे मन-प्राण. 
इन अधूरे प्रश्नों का
अंततः निदान क्या है ?
जल रही समस्याओं का
समाधान कहाँ है ?
कहीं यह भी,
जीवन से पलायन तो नहीं.
दुःख की धरा पर अवस्थित,
मुझे, आनंद ही चिर कांक्षित.
कहीं ऐसा तो नहीं.
निरभ्र जलते नील गगन में,
मैं भटकूं,
छूंछे बदल सा रीता.
जीवन के तपते सैकत वन में,
जलूं शुष्क तिनके सा.
किन्तु.
ये संशय. ये प्रश्न.
मोह के हैं,
विष ज्वलित अहि-दंश.
नहीं. सिद्धार्थ नहीं.
मत हो विचलित.
तू.
बीता, राग-विराग नहीं.
आगत का भी करुण विलाप नहीं.
मैं,
निज आत्म प्रकाश से प्रज्ज्वलित.
रही न प्रकृति की कोई भी 
सम्मोहक रचना मुझसे वंचित.
विश्व वेदना का पीड़ित क्रंदन कर रहे,
प्राण वेणु रंध्रों को निस्वन.
झंकृत मनः-गगन में एक ही स्वर.
तू आगे बढ़.
अब न पल भी यहाँ ठहर.
प्रिय केवल गोपा और राहुल ही नहीं. 
समष्टि नहीं, व्यष्टि की प्रतिछाया,
ह्रदय में सतत् उतर रही.
विश्व-चेतना के कण-कण में.
जड़ जंगम के जीवन में,
पीड़ा ही पीड़ा सतत भरी है.
जन्म.
मरण ग्रंथि बाँध कर आता है
यौवन मद पूरित इठलाता है.
जरा, देखते ही,
वह, आमूल कांप. घबड़ाता है.
और जरा !
वय की झुर्रियों के लेकर पीड़ित आकुंचन, 
पहन मरण के श्वेत वसन,
नियति-वद्ध नत मस्तक
विवश चला जाता है.
मेरी भी यह केशर चर्चित
सुरभित कंचन काया.
यौवन, त्याग,
जरा की कंटकाकीर्ण शर शय्या पर
बलात् गिरेगी तड़पेगी रोएगी.
पड़ेगी शनै-शनै इस पर
मृत्यु की काली छाया.
यह प्रिय.
जिसे निरख लावण्य ज्वार भी
नत मस्तक हो आया.
और आषाढ़ पूर्णिमा का उज्जवल मुख कुम्हलाया.
यह भी इसी समय यात्रा में,
मौन विवश चलेगी.
सुषमा रमणीयता कमनीयता की,
छाया भर भी नहीं रहेगी.
सब पर निर्द्वन्द्व अप्रतिहत गति,
मृत्यु विजयिनी होगी.
अंततः
इस अवनीश्वर अनन्त शाश्वत आनंद का मूल कहाँ है.
इस रसः-आप्लावित विकसित 
जीवन शतदल-अंतर का अनवरत सालता 
मर्मान्तक विद्ध गूढ़ शूल कहाँ है ?
उनका निवारण करना है.
कहा
आकुल मन ने,
मानवता से,
कहीं उच्च देवत्व रहा अधीष्ठित,
ये देवगण.
अमर पुत्र.
जिस निवृत, निवारण को,
प्राप्त न कर पाए.
तू. मानव होकर,
क्यों कर, अमरत्व पर होगा प्रतिष्ठित.
यह सब.
जो झेल गया अंतर.
यह भोग विलास सौख्य सम्मोहन
जो बिना प्रयास प्राप्त निरंतर.
क्या उन्हें, कभी भी त्याग पायेगा ?
अति कठिन हो गयी
संगमरमरी सख्त चट्टान सदृश
उस महा मानव की,
नवनीत सरिस कोमल कल काया.
युग परिवर्तन अभियान.
स्वर्ण विहान का निमंत्रण आया.
नेत्र. आकर्णमूल ,
अवदात वारिज नयन.
निर्वात नील जलनिधि,
प्रज्वलित प्रज्ञा का
जाज्वल्यमान गंभीर अयन.
वीचि वृत्तियाँ हो गयी शान्त.
था. मनः-गगन स्वच्छ गहन प्रशांत.
मन के अतल से,
कहा उन्होंने
किसे कहते हैं देवत्व.
मात्र, विराम है,
तपः-साधना. संयम का.
यह, पर्याय है,
शमित वृत्तियों, कामनाओं का.
देवगण.
मानवता से उच्च स्तर पर स्थित होते ही, 
कर देते हैं संयम की कसी रशनाओं को 
विश्रृंखलित.
दमित एषणायें पुनः सचेष्ट
स्वोच्छसित होने लगती हैं.
देवत्व,
अहम पूरित होकर,
समस्त प्राप्त देवी सिद्धियों के प्रति 
स्वेच्छाचारी हो जाता है.
अंततः
यह देवत्व.
अंतिम चरम होकर भी.
आरम्भ, पतन का हो जाता है.
देवता.
मानव को नहीं.
निज स्पृहाओं से निबद्ध,
स्वयं को छलता है.
प्रत्यक्ष प्रमाणित अवनति,
देवराज इंद्र, पतित चन्द्र की.
मानव.
सदा रहा देवों से श्रेष्ठ.
क्योंकि
वह.
आप्तकाम नहीं.
पूर्ण नहीं.
वह पूर्ण होने को सदा रहा सतत सचेष्ट. 
मनः-साधना निरत,
काटता रहा.
वृत्तियों का किंजल्क जाल.
वह अपूर्ण
कभी पूर्ण नहीं होता.
उसका तप अनवरत निरंतर है.
उसे न विराम, न विश्राम.
उसकी गति अविराम.
वह, निज बाधाओं से लड़ता,
संघर्ष निरत है.
निज संकल्पों की ज्वाला में
जलता तपता, निश्छल, निश्कल्मष है. 
उसकी ऊर्ध्वमुखी अथक यात्रा है.
वह,
अनुभूति शोध के संग
अपने अनछुए, असंस्पर्शित
अभिनव मार्ग बनाता है.
तपः-साधना मर्म.
निष्काम कर्म.
अथवा पूर्णता.
शाश्वत विराम, अकर्मण्यता.
प्राप्ति;
सदा स्वत्व की ऊर्जस्विता
स्थापित करती है.
अंततः मानव को धराशायी
निर्गत पतित बनाती है.
मत थम.
मत रुक.
सिद्धार्थ.
तुझे देवता नहीं.
मानव ही रहना है.
जग के दुःख-सुख में पचकर,
अमृत मंथन कर,
निर्वाण प्राप्त करना है.
निसंगता.
न हो विचलित.
एक अकेला दिनमणि.
समस्त अन्धकार-हलाहल
करता है पान.
देता है कर्मण्य-जगत को,
सोल्लसित स्वर्ण-विहान.
नील-मुक्ताभ नयन-क्षितिज पर,
करुणा के
श्याम- जलद घन घिर आये.
भावावेगों से कम्पित आँखों में उमड़ कर, 
दो बड़े-बड़े अश्रु-मुक्ताफल.
चमकते से आ ठहरे.
शयित, प्रगाढ़
निश्चिन्त मधुर स्वप्नों में,
जो था.
विधु मुख.
वहाँ खिंचा,
अचूक अबूझ अपूर्व स्मर का पुष्प धनु. 
झरे.
उन सब पर. राग-विराग,
अंतर मंथन द्वन्द
शमन निमित्त. कातर-कम्पित,
पीड़ा-आकुंचित अधरों पर
टीसों के शत-शत बल पड़े.
आँखों के सम्मुख हटात,
अतीत के सवाक चित्र बिखर पड़े.
देखा.
एक बार अपलक.
अश्रु आप्लावित मनः-उदगार उमड़ पड़े.
वे दो अश्रु बिंदु.
करुणा-सिंधु.
आशीर्वचन स्वातिकन सरिस,
उन्हें शीतल शमित करने को,
ढले.बने.
अंतिम विदा.
पूर्व जन्म, वर्तमान, पुनर्जन्म.
युग-युग के मिलन स्मृति-चिन्हों के, 
महाविराम बने.
बीते जन्म के बंधन टूटे.
जो बनते,
वे भी रहे अछूते.
मौन खड़े रहे, कुमार.
बन, निश्चल पत्थर.
हठी ह्रदय.
अटूट बंधन.
नहीं जनता कोई उपचार.
नहीं मानता कोई अभिचार.
उमड़ा. वात्सल्य प्रेम का,
अदम्य उबलता उफनता प्रबल ज्वार.
क्यों न.
बिछुड़ने से पूर्व. केवल एक बार.
बस एक बार. ह्रदय लगा कर,
राहुल को कर लूं.
अंतिम बार. जी भर प्यार.
किन्तु.
आलिंगन को अधीर विह्वल बढे,
दोनों हाथ,
द्वार के बाहर ही, रुके वहीँ,
द्वार लांघते पग,
आगे बढे नहीं.
प्रणय-ग्रंथि, का यह अनुपम उपहार,
मौन बुला रहा था शत-शत, बार.
देकर संयोग-मिलन के साक्ष्य.
यौवन का प्रबल प्रभंजन.
लावण्य लता सुकुमार.
कितनी, शरत मधु यामिनियाँ बीतीं,
उनके अबोल अलभ्य मनुहार.
सब पर था यह,
सप्रमाणित, अविजित, सुदृढ़, निश्चित, अटल, 
नामांकित मुहर.
त्याग इसे  मन जा पायेगा
कहाँ किधर.
गोपा ही नहीं, राहुल भी था बंधन,
गंभीर गहन.
क्षण अपाद आकाम्पित
काष्ठवत् मौन
अवास्थित थे सिद्धार्थ.
ज्वार संकुलित प्रभंजन प्रताड़ित जलनिधि, 
सरिस, घूर्णित हो उठा अंतर
एक ही प्रश्न जाज्वल्यमान
प्रबल निरंतर,
क्या ?
माता, पिता, पत्नी, पुत्र, कलत्र,
बस इतना ही जीवन है ?
मानव विवेकशील उत्कर्ष-आरोही.
क्या इतने में ही सीमित है.
यह जीवन.
पशु-पक्षी, खगचर-जलचर-वनचर. 
उद्देश्यहीन, सब जी रहे होते है.
जो जी चुके,
या जी रहे, अथवा जीते रहेंगे.
वह.
मेरा ध्येय नहीं.
जिस राह अविवेकपूर्ण तर्करहित रह कर, 
आँखे बंद कर सब चले मौन.
नहीं, स्वयं से,
नहीं अन्य से कभी प्रश्न करते.
वह क्या है.
कौन है.
यह यंत्रवत चालित,
अन्य के वागडोर कसित.
अन्य मान्यताओं को,
बिना शोध किये,
बढे चले जा रहे निरंतर.
मैं भी चलता रह जाऊँगा उसी प्रकार,
यह मेरा प्रेय नहीं.
लेकर गह्र्री सांस.
दोनों हाथों से कर अर्ध कपाट बंद.
बढे दृढ़ गंभीर कदम,
निश्चित अचल स्वछन्द.
अदम्य अपूर्व अलौकिक
तेज से, दीपित था,
वह कान्ति पूर्ण प्रभा प्रकाशित मुख.
वह था सब प्रकार से,
निज पथ को उन्मुख,
केवल, योद्धा ही नहीं,
रणांगण में जाते हैं.
रक्तपात जीवन संघात,
मूल्यांकन नहीं जीवन तथ्यों का,
कदापि कर पाते हैं.
यह अलभ्य अपूर्व योद्धा.
क्षणभंगुर उपलब्धियों का नहीं,  
जो श्रृष्टि बनी
मिटी अनगनत बार.
रही अंततः मृण भर.
किया नहीं,
उसे, हस्तगत करने का,
उसने कभी विचार.
यम से,
जो प्रश्न किया था, नचिकेता ने,
यह नश्वर अपार वैभव
लेकर क्या होगा ?
आज. उन्ही प्रश्नों की
पुनः हो रही थी पुनरार्वृत्ति.
क्या है ?
शाश्वत सत्य.
क्या है वृत्त-वीचि शमन.
कहाँ निवृत्ति.
कहाँ शाश्वत स्थिति.
उस.
महामानव के भास्वर अंतर में,
स्थित
सत्यम-शिवम-सुन्दरम
के साकार स्वस्तिमय,
शिव के
संकल्पित लोक-कल्याणार्थ,
थे खुल रहे,
तीसरे नेत्र.
प्रज्ज्वलित प्रखर
प्रखंड ज्वाल प्रदाह में,
हो रहा था कामनाओं,
एश्नाओं, ममत्व, मोह, विछोह-संयोग का स्मर-दाह.
जले.
सम्मोहन आकर्षण 
क्षार-क्षार हुए कामना के मधुवन.
खींच कर मनः-अश्व-बागडोर.
संकल्प-अश्व पर आरूढ़ हुआ आरोही, 
समस्त लहलहाती स्पृहाओं को 
घर्षित मर्दित विचूर्नित कर,
बढ़ चला.
वह. आनंद प्रेक्षी.
संधान-निरत.
करने समस्त वेदनाओं के
मूल तत्वों का उच्छेदन.
प्रासाद के बाहर आकर,
मृदु शान्त स्वर में किया प्रश्न.
है कोई यहाँ ?
प्रवेश द्वार की ड्योढ़ी पर
शीश रखकर शयित छंदक,
हो उठा चकित,
प्रभु मैं हूँ सारथि छंदक.
कहा कुमार ने-
मैं महाभिनिष्भ्रमण करूँगा.
अश्व करो नियोजित.
छंदक आज्ञा पालन हेतु गया.
सोचा कुमार ने
इस अवधि काल मे.
केवल एक बार.
बस एक बार.
जाते जाते मैं देखूं.
प्रियतमा प्रिया को.
शिशु राहुल को.
यह मेरा अंतिम प्यार.
मांग रहा शुल्क,
यह घर. यह बीता उपभोगा संसार.
यह आंधी. यह अंतर्द्वंद्व.
ह्रदय,
आवेगपूर्ण काँप उठा थर-थर.
अभी चाह कर भी
मुड़ न सके थे अब तक.
प्रस्तुत था सम्मुख
अश्व ले कर छंदक.
अलिंद त्याग कर बाहर आये.
नभ से धरा तक थी
दुग्ध धवल निष्कलंक ज्योत्सना अथक. चांदनी.
खड़ी थी मौन लेकर पूर्ण चन्द्र का चषक. 
चिर अतृप्ता. चिर प्यासी.
अमृत रस के हेतु बढ़ी थी.
यह,
अमृत,
निश्चय ही पाना था.
प्रकृति ने भी
सात्विकता का पहन रखा
उज्जवल बाना था.
अमृत ! अमृत ! अमृत !
जल. थल, नभ, दशों दिशाओं में,
सर्वत्र, दिक्घोषित था.
यह गगन निनादित एक ही स्वर.
कहाँ है निगूढ़ वह सत्य
अजर अमर.
सम्मुख,
अंतिम बार अपूर्व सुसज्जित,
स्वामी प्रति प्रतीक्षित
श्वेत अश्व कंथक था.
सिद्धार्थ.
कपिलवस्तु के युवराज.
उन्होंने कंथक को देखा.
किन्तु
पशुओं को भी होनी, का होता है,
पूर्वाभास.
अथवा
समस्त आत्मा में.
एक ही संवेदना का विश्वास.
यह.पशु.
न हिला, न हिनहिनाया,
न उसने अपने, टाप पटके
मौन रहा वह.
उसने प्रभु संकल्पों को,
मौन किया अवगाहन.
प्रस्थान का भी,
घोष नहीं किया.  
नियति-नियम-निबद्ध
सबमे मौन संताप चला.
बिना स्वर.
बिना शब्द् कलेवर के
परस्पर उत्तर-प्रत्युत्तर,
आदान-प्रदान, बढ़ा.
प्रभु ने एक पग बढ़ाया.
कंथक पर आरूढ़ हुए.
कंपा धरा का अंतर.
स्तब्ध वन उपवन कांतर.
पीड़ा-कर्षित, जड़ समस्त वातावरण.
न एक पल्लवपात हिला.
फट रही गगन की
धुंध भरी काली आँखें.
अंतरिक्ष, भावाकुल साँसें साधे,
अश्व बढ़ा.
प्रभु ने संकेत किया.
वह. महल प्रांगण छोड़ चला.
प्रत्येक खुले, अवरुद्ध, बंद वातायन, 
अलिंद बारजे, गवाक्ष, कपाट. 
पड़े थे जिन पर, बचपन, यौवन के छाप,
समस्त स्मृति चिन्हों पर,
आवरण पटल डाल चला.
यह. अध्याय,
जो रहा खुला.
उन पर महाविराम लगा.
प्रासाद के महाद्वार
उन्मुक्त अनावृत थे.
प्रतिहारी प्रहरी द्वारपाल दौवारिक निमग्न, 
प्रगाढ़ शयित थे.
उस अर्ध रात्रि में,
केवल,
थे वन सघन कांतर निसंग
पथ के मूक प्रहर्री.
कोई न किसी से कह पाया,
मन के भीतर वात्याचक्र
आलोड़ित घूर्णित,
आंधी है,
कितनी गहरी.    
ह्रदय समाधि सैकत वन में,
अमित स्मृति की रेखा.
उन्हें कुरेद रही,
ये.
अमिट अंकित है अथवा
समय पटल पर
केवल वारि बिंदु सी छहरी.
अटल धंसी सुख की स्मृतियाँ.
पीड़ा-झंझा-झकोर-उत्पीडित
हो उठी आक्रान्त व्यथित बहरी,
पशु होकर भी,
कंथक समझ रहा था,
स्वामी विछोह प्राणान्तक है.
यह भी काल-रशना-विवश-चालित
नियति-प्रताड़ित,
अत्यंत विवश है.
मौन सारथि छंदक भी,
सीने में आंधी बाँधे,
जान रहा था,
यह व्यथा
मर्मान्तक अथक है.
आरोही थे प्रभु.
निज संकल्पों के प्रति,
दृढ़-प्रतिबद्ध,
राजपथ के दोनों ओर वृक्ष पंक्तिबद्ध,
जब भी पड़ती अश्व पर थाप आमूल
सिहर उठते,
झरते तुहिनाश्रु स्वतः अपने आप.
प्रकृति भी
कोहरों में मुख ढांप
जाती थी थर-थर काँप.
प्रकृति ने जिन रहस्यों पर
अति मनमोहक आवरण डाला था.
जिस मंजूषा में काल मणिधर को,
उसने स्पृहाओं की सम्मोहक
बीन बजा-बजा कर,
अनादि काल से पाला था,
यह, कौन सपेरा
सत्य-बीन लेकर उन्मुख.
वृत्तियों का सम्पूर्ण शमन
करने को प्रस्तुत.
कौन.
अमृत-चषक प्रहरी को, यहाँ
पराजित करेगा.
नश्वरता क्षणभंगुरता को
पद तल कुचल कुचल मुमूर्ष कर, 
अविनश्वरता का चिर शाश्वत,
जय घोष करेगा.
वृत्तियों के ज्वार संकुलित वारिधि पर, 
कुलिश कठोर वज्र निपात करेगा.
किसके निसंग चेतना प्रांगण में,
प्रखर परमोज्जवल आत्म ज्योति प्रकाश. 
किसके,
आज्ञा-चक्र स्थल पर,
अचल निष्कम्प, निर्वात, निष्कल,
ज्ञान-दीप जलेगा.
कौन यह.
समस्त एश्नाओं पर कर विजय,
आत्म दीप लेकर बढ़ चला,
कोई भी विघ्न बंधन अवरोध,
न उसको रंचक रोक सका.
जिस क्षण कपिलवस्तु त्याग,
प्रभु.
उसे अंतिम प्रणाम कर बढे.
सब नगरवासी
प्रगाढ़ निद्राभिभूत शयित थे,
कपिलवस्तु के प्रारब्ध पर,
नियति ने कौन से अबूझ
अमिट लेख लिखे, न जान सके.
केवल, जागृत थी, प्रकृति.
जागृत थी श्वेतवसना विरहनी चांदनी. 
उसने समस्त श्रृंगार प्रसाधन त्यागे.
उसके कर के टूट, छिन्न-भिन्न
नखत कंकण श्वेत धार में लुप्त,
हुए थे.
मस्तक का शीश फूल शशि,
बिखरे कृष्ण चिकुर में छिप,
वेदना वारिद से आवृत हुआ था,
काष्ठवत थी,
विश्व चेतना की स्पंदित धड़कन.
रह-रह कर, भर आते थे
संसृति के लोचन.
उसी रात्रि,
प्रभु ने,
शाक्य किलिय रामग्राम पार किया. 
कपिलवस्तु से तीस योजन दूर,
वे अनोमा सरिता के तट पर आये.
पिघली चांदी सी सरिता.
मौन बही जाती थी.
क्षण, शान्त बह रही
उस तन्वी सरिता के,
निर्मल नील पारदर्शी
जल प्रवाह को देखा.
जल चांदी सा था झलमल.
प्रभु की छाया पड़ते ही,
हो उठा आमूल चंचल,
अनोमा का अंतर-दह तक 
आकम्पित सिहरित, मृणाल सरिस वीचि
लहरियों के भुजबंधों में,
किया विजड़ित,
वह राजकीय वेश भूषा सज्जित,
राजकुमार की अलौकिक रूप छवि को,
जो थी
अलभ्य मणि सी उसके हृद में प्रतिबिंबित.
भाग्यशालिनी थी
अनोमा.
जिसने यह, गरिमा-मंडित,
प्रभा-प्रकाश अखंडित,
संकल्प-दीप-दीपित,
अपूर्व अंतिम राजकीय स्वरूप देखा.
बोली.
मन ही मन.
जल की प्रकृति है शीतल,
किन्तु वह भी, घुंट- घुंट भीतर,
कितनी है जलती.
कभी वाष्प बादल बनती,
कभी तड़ित  भुजबंधों में अकुलाती,
हर रूपों में वह परिवर्तित
चंचल ही सदा कही जाती.
आज.
यह प्रथम
और अंतिम विनय, है विधाता.
किंचित हो सदय.
मेरे तरल ह्रदय को जड़ कर दे.
प्रभु की यह अलभ्य मनोरम छवि,
सदा सदा की लिए,
अक्षुण्ण अंकित कर दे.
मान भरी मैं बहती रहूँ.
मन ही मन गुनती रहूँ.
कौन अधिक वैभवशाली मुझसे
आप्लावित अमिय प्याली
इस अंतर में.
प्रभु ने देखा,
अनोमा को.
और पुनः देखा
शान्त खड़े कंथक को.
पद से कंथक को संकेत किया,
त्वरित गति से अश्व,
अनोमा के पार हुआ.
यह.
वह शून्य क्षण था.
जहां,
बीतराग की समस्त प्रतीक्षाएँ
प्रतीक्षाकुल तृषित शतदल सी,
पात पात मधुकांक्षी आकाम्पित थी.
कब रसः सम्पुट खुले,
रस कण कण में ढले.
सिद्धार्थ अवतरित हुए अश्व से,
कहा,
धीर गंभीर मृदु स्वर में हौले से.
सौम्य !
काल आ गया.
ह्त्वुद्ध जड़वत हो उठा छंदक.
देखा उसने,
अनोमा का रत्न विकीर्णित उज्जवल, 
वालुका का तट,
और सम्मुख अवस्थित,
महामानव,
ज्यों विशाल गहन अक्षयवट.
पुनः
प्रभु को उसने,
नख से शिख तक अपाद देखा,
कृष्ण चूर्ण चिकुर रत्न जटित मुकुट.
कर्ण हीरक कुंडल,
भुजा केयूर, वलय,
उन्नत प्रशस्त वक्षस्थल मुक्ताहार,
स्वर्णमाल झलमल.
श्वेत पुष्पों से सुरभित तन.
अंगराज चन्दन कुंकुम चर्चित आनन्,
अंग-अंग सुरभ्य चित्रित पत्रभंग.
उज्जवल स्वर्ण खचित कौशेय वसन.
आह ! वज्र-निपात.
छंदक-पवन-प्रताड़ित-गात.
मन के भीतर तीव्र प्रभंजन मौन चला. 
खड़ा रहा अपलक निर्वाक,
जैसे वज्र निपात से
कोई तरु, अपाद जला.
फिर पतझर के शुष्क पीत पत्र सा घूर्णित वह,
नख से शिख तक काँप उठा.
प्रभु ! मेरे प्रभु !
करुणा विगलित
अस्फुट स्वर में भरे गले से,
बोल उठा.
स्वामी
चरण त्याग,
उद्देश्यहीन दीन जीवन,लेकर
कहाँ रहूँगा,
मैं भी,
श्री चरणों को ग्रहण कर,
स्वामी छाया में,
प्रव्रज्या लूँगा.
नहीं.
छंदक नहीं.
अभी समय नहीं.
कह कर,
समस्त आभूषण, अलंकार, आभरण, 
उन्होंने धरा पर, त्याग दिया.
अनावश्यक सांसारिक उपकरण.
प्रव्रज्या करती नहीं इन्हें चयन.
पुनः कृष्ण अंगूर सरिस
लहराते चूर्ण अलक जाल,
वाम कर से उन्हें समेट,
दक्षिण कर से
कृपाण से काट,
दिया अवनि को अंतिम भेंट.
यह सब निरख,
बिलख उठा छंदक,
स्वामी !
यह सब सहिष्णुता, सहनशीलता को, 
निर्दयता से,
अतिक्रमण कर गए अथक.
ये त्याज्य वस्त्राभूषण,
किस प्रकार मैं लेकर जाऊँगा.
नृप को समर्पित कर भला,
उन्हें क्या कह पाऊंगा.
लानत है मुझे.
कि मैंने,
नमक  की पुकार नहीं सुनी.
दास कर्तव्यों का मैं रहा,
नितांत इसी प्रकार,
ऋणी.
प्रभु.
यह भावावेश ही सही.
बड़े लोग मनोरंजनार्थ,
जन साधारण से करते हैं अलग व्यवहार, 
विचित्र होते हैं उनके कार्य कलाप.
किन्तु प्रभु !
अभी यह रात्रि का तृतीय प्रहर है.
जो बीता.
वह अभी भी,
एक हठीला बचपन है.
आगे का जीवन.
अति भीषण बीहड़ दुस्तर है.
पुष्प पंखुरियाँ भी जिन चरणों में चुभे, 
शीतल चांदनी भी, जो तन सह न सके.
वे. इन कांतर कटंकित वन,
किस भांति करेंगे सहन.
कैसे यह केशर कुंकुम चर्चित
कल कोमल नवनीत, सरिस
कंचन काया.
सहन करेगी.
असह्य निदाध ताप,
पावस की गहन रात.
कहीं वज्र निपात,
कहीं हिम खचित प्रभंजन उत्पात.
प्रभु ! प्रभु !
ये चरण.
गुदगुदे गद्दों पर भी श्लथ हो जाते हैं.
इन में पीड़ा आकुंचन आ जाती है.
परिचारिकाएं.
कल कोमल चरणों का हौले हौले
श्रम भार हरण करती हैं.
वे ही चरण.
बरसात की पंकलिता
सीलन भरी भींगी पवन गहनता,
कैसे करेंगे सहन,
और  
निर्दय निरभ्र गगन दहन.
फूलों का केशर ही खाती है,
फुलसुन्धी,
कभी दूर्वा या काष्ठ नहीं खाती.
स्वामी.
इस विरल विकट जटिल धरा पर,
जड़, जंगम, मानव, पशु, खगचर,वनचर, 
सबसे टकराते-टकराते,
क्षीण, मलिन,
क्लांत हो जायेगी.
प्राणों की जलती,
निष्कल निर्मल बाटी.
देख लिया घर बाहर.
वन-उपवन, गिरी-कांतर, सैकत वन.
क्यों इन्हें समर्पित हो,
श्रीमन्  अलभ्य जीवन.
कैसे यह विछोह.
कोई भी सह पायेगा.
बोले प्रभु-
सौम्य !
मरण धर्मा.
कब अमर हो पाया.
यदि वह स्वयं भी न चाहे,
एक दिवस मृत्यु अनिवार्य है.
काल उसे ले जायेगा ही.
उस दिन भी  स्वजन साथियों,
स्नेह-भाजनों विछोह है ही. 
फिर आज क्यों नहीं.
उसी दिवस को प्राप्त करने
मैं सब त्याग कर जाता हूँ.
मैं.
जरा, व्याधि, मृत्यु का
क्षय करके ही, लौटूंगा.
अन्यथा सबकी भांति मुझे भी
मृत्यु  ग्रहण कर लेगी.
मैं.
मृत्यु पर विजय करके लौटूंगा.
उसके निराकरण के मूल तत्वों को
स्वतः प्रत्यक्ष प्रमाणित
निरीक्षण करूँगा.
मानव. सर्वोच्च सात्विकता में स्थित,
क्यों वह, बंधे, 
वृत्तियों की मोहकता में. 
तुम, जाओ.
कंथक को भी लेकर जाओ.
सबसे वहाँ मेरा कुशल क्षेम कहना.
उन्हें विनम्र मेरा सन्देश देना.
मानव जीवन,
प्रवेश पात्र है निवृत्तियों का,
विमुक्ति का.
अन्यथा रहा क्या उद्देश्य ही,
मनुष्य जीवन धारण करने का,
आनंद, वही जो शाश्वत हो,
नहीं अपेक्षित,
प्राणों पर क्षण भंगुरता का उत्पीड़न हो. 
कह कर प्रभु ने ली गहरी सांस.
मात्र जीवन ही,
कृतृत्व का अटल विश्वास.
आगे बढ़कर
कंथक का पृष्ट स्नेहाद्र थपथपा कर, 
उन्होंने अश्व से भी अंतिम विदा मांगी.
वह ! वह स्पर्श !
जिसे बचपन, किशोर, यौवन का,
अनुभव था.
वे कर,
जिनमे कंथक का
जीवन-स्पंदन था.
उन पर बचपन, कैशौर्य,
ऊजर्स्वित, यौवन की,
अल्हढ़ मस्त थाप पड़ी थी.
वह सब जो बीता,
पुनः न लौटने वाली अनमोल घड़ी थी.
वह स्पर्श ! स्पर्श नहीं था.
उसने पीड़ा के अदम्य
अबाध बाँध को तोड़ा था.
यह विदा-संकेत,
न जिसका,
अन्यत्र कहीं विकल्प था.
स्वामी के कंथक पर पड़े हाथ.
ले गए संग खींच कर,
कंथक के भी प्राण,
अपने साथ.
तड़प कर घोर रोदन कर
गिरा धरा पर,
कंथक,
करुण मर्माहात विकल निनाद कर,
स्वामी के चरणों पर,
अश्रु-आप्लावित शीश रख,
उसने तत्क्षण
प्राण वहीँ त्यागे,
क्यों स्वामी उसे निसंग छोड़,
निर्मम मुख मोड़,
एक कदम भी बढे आगे.
सत्य प्रेम !
केवल देता है,
लेता नहीं.
उसके समीप
विनिमय की कठोर तुला नहीं.
पशु था कंथक.
किन्तु सत्य प्रेम की
यह अवण्यॅ कथा अथक.
क्षण ,
यह भी देखा प्रभु ने.
ले रही, मृत्यु
किस प्रकार प्रतिशोध.
उनके चरण
शनैः शनैः आगे बढे
अनोमा का तट छोड़.
वे प्रविष्ट हुए
अनुपिया-आम्र-निकुंज सघन वन में.
यहाँ सघन गहन वृक्षों के अंतराल में
इन कंटक दूर्वादल खर पात में 
डालों से विंध-विंध
छिन्न-भिन्न होकर
चांदनी चीथड़ों में
बिखरी थी. था,
शुष्क पत्रों में
चरणों से उठता मर्मर स्वर.
प्रकृति भी मौन,
निरख रही थी,
दशनों पर दशन घर.
धीरे धीरे उस अमराई में,
हो गयी, लुप्त,
उस महामानव की काया.
धरा पर शनैः शनैः बढती ही गयी
उनकी विशाल प्रतिच्छाया.